शनिवार, 31 जुलाई 2021

आप सभी मित्रों को "मित्रता दिवस" की शुभकामनाएं💐

 


आप सभी मित्रों को "मित्रता दिवस" की शुभकामनाएं💐


मैं फटा पुराना चिथड़ा हूँ। 

तुम उसकी तुरपाई प्रिय।।

मैं सुग्रीव सा मित्र तेरा। 

तुम मेरे रघुराई प्रिय।। 


तुम सागर जैसे हो विशाल। 

मैं पानी का एक बुंद प्रिय।। 

मैं चावल वाला हूँ, सुदामा। 

तुम मेरे कन्हाई प्रिय।। 


मैं फटा पुराना चिथड़ा हूँ। 

तुम उसकी तुरपाई प्रिय।। 


  विश्वजीत कुमार✍️

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Tributes to the father of political cartooning in India Kesava Shankara Pillai on his 119th birth Anniversary.

 


           भारत में राजनीतिक कार्टून कला के पितामह कहे जाने वाले "शंकर" के नाम से लोकप्रिय केशव शंकर पिल्लई का जन्म आज ही के दिन 31 जुलाई 1902 को कन्याकुमारी, केरल में हुआ था। स्कूल के दिनों में शंकर ने अपने एक शिक्षक की नींद की मुद्रा में कार्टून बनाकर एक कार्टूनिस्ट के रूप में अपनी क्षमता को दिखाया था।
              मुम्बई में पढ़ाई के दौरान ही शंकर ने कई समाचारपत्रों में अपने कार्टून भेजना शुरू कर दिए थे। उन्होंने 1932 में हिन्दुस्तान टाईम्स में स्टाफ कार्टूनिस्ट के रूप में कार्टून बनाने की शुरुआत की। उन्होंने कार्टूनिंग के उन्नत तकनीक के अध्ययन के लिये लंदन, बर्लिन, रोम, वियना, जिनेवा और पेरिस का दौरा किया। शंकर्स वीकली, चिल्ड्रन्स वर्ल्ड और भारत पंच पत्रिकाओं का प्रकाशन के साथ उन्होंने अबू अब्राहम, रंगा और कुट्टी जैसे कार्टूनिस्टों को प्रशिक्षित भी किया। 
         1975 में शंकर ने इमरजेंसी के कारण राजनीतिक कार्टून बन्द कर बच्चों के लिए चित्र कहानियां शुरु किया। बच्चों को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए उन्होंने 1952 में बच्चों के लिए एक वार्षिक चित्रकला प्रतियोगिता की शुरूआत की। बच्चों से विशेष प्यार के लिये उन्होंने 1957 में चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट और 1965 में अंतर्राष्ट्रीय गुड़िया संग्रहालय की भी स्थापना की। उनका मानना था कि गुड़ियों के माध्यम से बच्चे तरह-तरह के लोगों के रहन सहन और वेश-भूषा के बारे में ज्यादा जान पायेंगे। उन्हे 1976 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री, पद्म भूषण एवं पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 26 दिसम्बर 1989 को शंकर का निधन हुआ। भारत में कार्टून कला की शुरुआत करने वाले कार्टूनिस्ट के रूप में वे सदैव याद किये जायेंगे।

भोजपुरी में ख़ाजा या भदेउवां आम, मगध क्षेत्र में फेदा और अंग क्षेत्र में ताड़कुन के फल और मेरा बचपन


           सावन का महीना समाप्त होते ही वातावरण से आम की खुशबू गायब होने लगती है और इस परिवेश में आगमन होता है एक नए फल का जिसे भोजपुरी में ख़ाजा या भदेउवां आम, मगध क्षेत्र में फेदा और अंग क्षेत्र में ताड़कुन कहा जाता है। मुझे आज भी याद है बचपन में ताड़ के पेड़🌴 के पास से हटते नहीं थे और घंटो इसके गिरने का इंतजार करते थे और कुछ दरमियान भगवान से इसके फल गिरने की कई दफा दुआ भी मांग लेते थे और भगवान स्वीकार भी करते थे और सभी बच्चों को एक-एक ख़ाजा मिल जाता था। हम लोग उसे उठाकर घर में लाकर भूसा में गाड़ देते ताकि दो-चार दिन में अच्छे से पक जाए और पकने के उपरांत उसे खाया जाता था। इसकी गुठली भी कम कमाल की नहीं थी उसे भी जमीन में गाड़ कर महीना दो महीना बाद काट कर के उसके अंदर से निकलने वाले पदार्थ को खाया जाता यानी हर एक चीज की कीमत होती थी।

              कई बार तो बाजार से भी खरीद कर ख़ाजा आता था। एक दफा ऐसा हुआ कि बहुत ज्यादा ख़ाजा आ गया यानी बाजार से भी आ गया और पेड़ पर से भी। इत्तेफाक से सब एक साथ ही पक गया। जितना खा सकते थे उतना खाए जो न खा सके, क्योंकि उसको खरीदने में पैसा लगा था इसलिए उसको एक बड़े से बाल्टी में घोल कर गुलाबों🌹 को खिला दिए। गुलाबो मेरी भैंसिया🐃 का नाम था।





 

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

हिंदी उपन्यास एवं कहानी के प्रतिक-पुरुष स्वर्गीय प्रेमचंद को जन्म-दिवस पर सादर प्रणाम🙏

             मुंशी प्रेमचंद हिंदी साहित्य के मशहूर लेखक रहे हैं। इनका जन्म 1880 में वाराणसी के पास लमही गाँव में हुआ था और 1936 में उनका देहांत हो गया। आज मुझे याद आ रहे हैं मेरे हिंदी के शिक्षक जिन्होंने मुझे इतना क़ाबिल बनाया कि मैं हिंदी साहित्य पढ़ एवं समझ संकु और थोड़ी बहुत अपनी मन की बातें लिख सकूं। आज का मेरा यह लेख उन सभी हिंदी अध्यापकों के लिए जिन्होंने मुझे भाषा को पढ़ाया और उस विधि में मुझे एक अच्छा इंसान बनाया।

         लोगो के द्वारा कहा जाता हैं की पुरुषों में संवेदनशीलता की कमी होती है, लेकिन क्या मुंशी प्रेमचंद जी को पढ़ने के बाद भी यह कहा जा सकता है? शायद ...निश्चित रूप से नहीं... उनकी प्रत्येक कहानी के प्रत्येक पात्र में इस तथ्य को स्वतः ही समझा एवं देखा जा सकता है। 

             गरीबी और गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा भारत धनपत राय के भीतर भी कौतूहल मचा रहा होगा। उक्त बातें उनकी कहानियों के माध्यम से समझा एवं देखा जा सकता है। 

             आर्य समाज के मार्ग पर चलने वाले धनपत राय यानी प्रेमचंद ने 15 वर्ष की आयु में हुए अपने असफल विवाह के बाद विधवा विवाह के पक्षधर होने के नाते बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया। 

          कलान्तर में इनके द्वारा गोरखपुर को अपना कार्य क्षेत्र चुना गया एवं शिक्षण कार्य को बेहतरीन तरीके से निभाते हुए लेखन व पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी महती भूमिका निभाई। जिस कारण समय-समय पर इनके उपर कई इल्ज़ाम भी लगे। फलस्वरूप नाम बदलकर लिखने का फैसला लेना पड़ा। इस तरह धनपत राय जो उर्दू में नवाब राय के नाम से लिखते थे अपने मित्र मुंशी नारायण लाल निगम के कहने से अब "प्रेमचंद" के नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद से "मुंशी प्रेमचंद" बनना भी बहुत रोचक रहा। कुछ लोगों का कहना है कि शिक्षक होने के कारण सम्मान सूचक शब्द के रूप में उनको मुंशीजी कहा जाता था। परन्तु प्रेमचंद और कन्हैयालाल मुंशी के सह संपादन में निकलने वाले पत्र "हंस" में कन्हैयालाल मुंशी जी का नाम "मुंशी" व प्रेमचंद एक साथ लिखा रहता था। जिस कारण लोगों के ज़ुबान पर "मुंशी प्रेमचंद" चढ़ने लगा और कालांतर में धनपत राय उर्फ नवाब राय उर्फ मुंशी प्रेमचंद के नाम से विख्यात हुए।

            समय-समय पर अनेक विद्वानों और मनीषियों ने उन्हें अनेक संज्ञाओं से नवाजा। जैसे- कहानी सम्राट, उपन्यास सम्राट, कलम का सिपाही (बेटे, अमृत राय द्वारा लिखी जीवनी) इत्यादि।

          08 अक्टूबर 1936 को जीवन की अनेक उतार-चढ़ाव, मान सम्मान के साथ कई बार अपयश और आलोचनाओं को सहते झेलते मुंशी प्रेमचंद इस नश्वर संसार को छोड़ गए परन्तु लेखन जगत में सदैव के लिए अमर हो गए जो आज भी अपने आप में एक शोध का विषय हैं।

             इस विशेष दिन पर आप प्रेमचंद को पढ़ें, उनके धनपत राय से 'प्रेमचंद' हो जाने की कहानी को जानें, अभावों के बीच उनके संघर्ष को सोचें तथा अपने समय से जूझते उनके क्रान्तिकारी तेवर को समझें। यही उनके प्रेमियों की तरफ से उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। समाज के हर हिस्से में पड़े उपेक्षित लोहे को अपने साहित्यिक स्पर्श से कंचन बना देने वाले तथा कौड़ियों से ले कर बेशक़ीमती मोतियों तक को एक धागे में पिरोकर साहित्य की सर्वप्रिय जयमाला बनाने वाले हिंदी कहानी के प्रतीक-पुरुष मुंशी प्रेमचंद जी को उनके जन्मदिवस पर सादर नमन। ❤️🙏🏻

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उपन्यास (Novel) क्या होता हैं? संपूर्ण जानकारी हिंदी एवं English में। What is a Novel? Complete information in Hindi and English.

 उपन्यास (Novel) 

        उपन्यास ‘उप’ और ‘न्यास’ से मिलकर बना है। ‘उप’ का अर्थ समीप और ‘न्यास’ का अर्थ है रचना। 

उपन्यास शब्द का अर्थ होता है :- 'सामने या समीप रखी रचना'। उपन्यासकार एक काल्पनिक सृष्टि को ही तो पाठक के सामने रखने का कार्य करता है। जीवन के विविध पक्षों की व्याख्या हमें उपन्यास में मिल जायेगी। 

बाबू गुलाबराय के अनुसार, "उपन्यास जीवन का चित्र है, प्रतिबिम्ब नहीं। जीवन का प्रतिबिम्ब कभी भी पूरा नहीं हो सकता है क्योंकि मानव-जीवन इतना पेचीदा है कि उसका प्रतिबिम्ब सामने रखना प्रायः असम्भव है।

           उपन्यासकार जीवन के निकट से निकट आता है किन्तु उसे भी जीवन में बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है किन्तु जहाँ वह छोड़ता है वहाँ अपनी ओर से जोड़ता भी है।

इस लेख में हम जानेंगे उपन्यास के बारे में विभिन्न विद्वानों की दृष्टि में इसका स्वरूप किस प्रकार है???

(1) श्यामसुन्दर दास के अनुसार, "उपन्यास मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है।" 

(2) प्रेमचन्द के शब्दों में, "मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मानता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।" 

(3) हडसन के अनुसार, "उपन्यास में नामों और तिथियों के अतिरिक्त और सभी बातें असत्य होती हैं। इतिहास के नामों और तिथियों के अतिरिक्त कोई बात सत्य नहीं होती।"

          इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि उपन्यास कार्य-कारण श्रृंखला (causal chain) में बँधा हुआ वह गद्य कथानक है, जिसमें अपेक्षाकृत अधिक विस्तार तथा पेचीदगी के साथ वास्तविक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित वास्तविक या काल्पनिक घटनाओं द्वारा मानव-जीवन के सत्य का रसात्मक रूप से उद्घाटन किया जाता है। 

         उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषणात्मक उपन्यास की निम्नांकित विशेषताएँ हैं :-

(1) यह अपेक्षाकृत विस्तृत रचना होती है। 

(2) इसमें जीवन के विविध पक्षों का समावेश होता है। 

(3) इसमें वास्तविकता तथा कल्पना का कलात्मक मिश्रण होता है। 

(4) कार्य-कारण श्रृंखला का निर्वाह किया जाता है। 

(5) मानव-जीवन के सत्य का उद्घाटन होता है। 

(6) जीवन की समग्रता का चित्र इस प्रकार उपस्थित किया जाता है कि पाठक उसकी अन्तर्वस्तु तथा पात्रों से अपना तादात्मीकरण  (Identification) कर सके। 

उपन्यास के तत्त्व

उपन्यास के निम्नांकित तत्त्व हैं जो प्राय: सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं 

(1) कथावस्तु, 

(2) पात्र और चरित्र-चित्रण, 

(3) सम्वाद या कथोपकथन (Dialogue or Narration),

(4) देश-काल या वातावरण,

(5) भाषा शैली एवं 

(6) उद्देश्य।

Novel

The novel is made up of 'Upa' and 'Nyas'. 'Upa' means near and 'Nyas' means creation.

            The meaning of the word novel is :- 'To put in front'. The novelist does the work of placing a fictional creation in front of the reader. We will get the explanation of various aspects of life in the novel.

According to Babu Gulabrai, "Novel is a picture of life, not a reflection. The image of life can never be complete because human life is so complex that it is almost impossible to keep its image in front."

The novelist comes nearer to life, but he also has to leave a lot in life, but where he leaves, he also adds from his side.

In this article, we will know about the novel, what is its form in the view of different scholars???

(1) According to Shyamsundar Das, "Novel is a fictional story of the real life of man."

(2) In the words of Premchand, "I consider the novel to be a picture of the human character. The basic element of the novel is to throw light on the human character and reveal its secrets."

(3) According to Hudson, "In a novel except names and dates, everything else is false. Nothing is true except the names and dates of history."

Thus it becomes clear that the novel is that prose story tied in a causal chain, in which with relatively greater detail and complexity, the real or imaginary events related to the persons representing real life are connected with human life. Truth is opened rosily.

The following are the characteristics of the analytical novel of the above definitions:-

(1) It is a relatively elaborate structure.

(2) It includes various aspects of life.

(3) There is an artistic mixture of reality and imagination.

(4) The causal chain is maintained.

(5) The truth of human life is revealed.

(6) The picture of the totality of life is presented in such a way that the reader can identify himself with its content and characters.

Elements of the novel

The following are the elements of the novel which are accepted by almost all scholars.

(1) the plot,

(2) characters and characterization,

(3) Dialogue or Narration,

(4) country-time or environment,

(5) Language style and

(6) Purpose.

कृष्ण कुमार द्वारा रचित 'चुड़ी बाजार में लड़की' से अभिमन्यु की शिक्षा में शिक्षा के मुद्दों को किस प्रकार सार्थक तरीके से उठाया गया है ?

           कक्षा में शिक्षक के प्रश्नों का उत्तर देती हुई लड़को या परीक्षा की तैयारी करती हुई लड़की हमारी दृष्टि में सिर्फ एक विद्यार्थी रह जाती है। हमारी आँखें उसे सामने पाकर रीति-रिवाजों और विश्वासों के दलदल से घिरी हुई लड़की को देख पाने में असमर्थ हो जाती हैं। लड़की के ये दोनों रूप साथ-साथ रहते हैं। स्कूल या कॉलेज और विश्वविद्यालय के संसार में कदम रखती हुई लड़की उस दूसरी लड़की को घर पर नहीं छोड़ आई होती है जो सभ्यता द्वारा निर्धारित निर्भरता और यौन-दृष्टि के चौखटे में सिमटकर जीती है।

          वह लड़की जो घर पर विवाह स्कूल और मातृत्व की केन्द्रीयता का पाठ लगातार सीख रही होती है, इस लड़की से अलग नहीं है जो में जीवन की बहुउद्देशीयता का सपना देख रही होती है। लड़की के इन दो अस्तित्वों के बीच का फासला हर बच्ची के सामने एक असंभव-सी चुनौती पेश करता है। चुनौती का जवाब बहुतों के लिए किशोर होने तक निर्धारित हो चुका होता है। वे सीख चुकी होती हैं कि शिक्षा के वावजूद वे घर में भाई से अलग और नीचे बनी रहेंगी। स्त्री के रूप में उनका जीवन उसी धुरी पर चलेगा जो सभ्यता ने उनके जन्म से पूर्व, बहुत पूर्व, बना दी थी। अपने पूर्व निर्धारित जीवन-चक्र को उस धुरी पर जमाकर ही वे जिंदा रह पाएँगी।

         उक्त बातें ज़्यादातर लड़कियाँ शिक्षा समाप्त होने से पहले जान चुकी होती हैं। इसीलिए उनमें से कई अपनी शिक्षा को खींचते रहने का प्रयास करती हैं, इस विश्वास के तहत कि शादी से पहले जितना पढ़ सकें, पढ़ लें। उसके बाद का भरोसा नहीं। शिक्षा उनके लिए एक प्रकार से जमानत का काम करती है। शिक्षा के नाम पर उन्हें क्या पढ़ने को मिलता है अथवा बौद्धिक कौशलों के विकास के कितने और कौन से अवसर मिलते हैं ये सवाल उनके लिए विशेष महत्त्व नहीं रखते। महत्त्व इस बात का रह जाता है कि पढ़ाई के नाम पर वे जीवन के उस चरण को कुछ वर्ष स्थगित रख लेंगी जिसमें उनकी वह प्राकृतिक चाह जो मनुष्य होने के नाते उनके मन में स्वायत्त सोच और व्यवहार के साथ जीने की इच्छा पैदा करती है। 

          आशय यह है कि शिक्षा लड़कियों के लिए ज्ञान या चेतना का ज़रिया कम, मुख्यतः एक अवधि है जिसमें उनके दमित आत्म की लौ कुछ वर्ष इस पूर्वज्ञान के साथ जल लेती है कि उसे विवाह में निहित हस्तांतरण के तहत एक आक्रामक फूंक के बल से बुझ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। स्त्रियों के जीवन में लंबी और व्यवस्थित शिक्षा, सांसारिक सफलता और वैवाहिक जीवन के त्रिकोण में प्रकट होने वाले तनाव इतनी जीवनियों में देखने को मिलते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत अनुभव के संयोग नहीं, एक अनिवार्य सामाजिक सृष्टि कहना ही उचित होगा।

          शिक्षा का आधुनिक रूप व्यक्तित्त्व के निर्माण का साधन माना जाता है। खासकर जब शिक्षा किसी स्थायी आजीविका या पेशे की तरफ ले जाती हो। शिक्षा का यह प्रभाव स्त्री के उस जीवन-चक्र से टकराता है जो संस्कृति के चौखटे में समाज के विभिन्न वर्गों में जीया जाता है। एक सामान्य भारतीय लड़की के जीवन का निर्धारण करने वाली संस्था विवाह है और उसमें निहित अपेक्षाएँ शिक्षा की संस्थाई अपेक्षाओं से टकराती हैं। इस टकराव में विवाह की विजय समाज के स्थापित ढाँचे में नियति की तरह पूर्व-निश्चित है।

           विवाह की तैयारी लड़की के जीवन में अन्तर्निहित अर्थात् रची-बसी है जबकि शिक्षा की तैयारी एक हस्तक्षेप (Interference) है। कुछ परिस्थितियों में यह हस्तक्षेप बर्दाश्त कर लिया जाता है तो कुछ परिस्थितियों में वह कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है। लड़कियाँ लड़ती रहती हैं और इस मुहावरे का प्रयोग अथक रूप से करती चली जाती हैं कि 'मैं अभी पढ़ाई करना चाहती हूँ।' जैसा कि एक अध्ययन ने दर्शाया है, 'पढ़ाई' एक प्रतीक-भूमि की तरह इस्तेमाल होने लगती है जहाँ लड़की की आवाज़ आधुनिक अर्थव्यवस्था ने वाज़िब या सुनने और बर्दाश्त करने लायक बना दी है। पढ़ाई जारी रखने की मांग का परोक्ष अर्थ होता है विवाह के स्थगन की मांग। पढ़ाई करने दी जाए तो इसका आशय यह नहीं होता कि विवाह की तैयारी रूक जाएगी। विवाह एक घटना के रूप में स्थगित होता है, लड़की के जीवन को आकार देने वाली परिघटना (Phenomenon) "A fact or situation that is observed to exist or happen, especially one whose cause or explanation is in question. एक तथ्य या स्थिति जो अस्तित्व में है या घटित होती है, विशेष रूप से जिसका कारण या स्पष्टीकरण प्रश्न में है।" के रूप में नहीं। उसकी अपेक्षाएँ शिक्षा की अपेक्षाओं और जरूरतों से एकदम भिन्न हो सकती हैं और यह भिन्नता बनी रहती है। 

           शिक्षा एकाग्रता, बौद्धिक अनुशासन और स्वावलंबी सोच या सपने देखने की माँग करती है। विवाह समर्पण की मानसिक और दैहिक तैयारी के प्रबन्धन की माँग करता है। विवाह की तैयारी लड़कियों के बचपन और किशोरावस्था के वर्षों में लगातार चलने वाली उन्मुखीकरण का रूप ले लेती है जिसमें तरह-तरह की सांस्कृतिक क्रियाओं और रस्मों व रिवाज़ों का ज्ञान तथा अभ्यास शामिल रहता है। उधर स्कूल में प्रकृति और समाज को वृहत्तर परिधि से संबंधित ज्ञान और उससे संबंधित कौशलों पर अधिकार की अपेक्षा की जाती है। दोनों के बीच समय को लेकर टकराव होता रहता है जिसे लड़के महसूस नहीं करते केवल लड़कियाँ झेलती हैं। स्कूल विभिन्न विषयों को पढ़ाई में दैनिक स्तर के ध्यान और विकास को अपेक्षा रखता है। इधर घर में लड़कियाँ विवाह की तैयारी से संबंधित सांस्कृतिक ज्ञान और कौशलों से जुड़ी अपेक्षाएँ, धार्मिक मान्यताओं और त्योहारों व रीति-रिवाजों के वार्षिक-चक्र में अवस्थित रहती हैं। 

         ये अपेक्षाएँ लड़की को स्कूल से बार-बार अनुपस्थित होकर ही पूरी हो पाती हैं। कुछ अपेक्षाएँ ऐसी हैं जो स्कूल से अनुपस्थित रहे बिना पूरी हो जाती हैं मगर वे भी स्कूल की दैनन्दिनी में लड़की की भागीदारी को ढीला बना देती हैं। देह को संभालने व सेवा को माँग करने वाली अपेक्षाएँ इसी किस्म की हैं। वे सामान्य स्वास्थ्य-रक्षा से कहीं अधिक विशद् और समयसाध्य हैं। नाखूनों, खाल, आँखों और बालों समेत शरीर के तमाम अंगों की अलग-अलग चिंता विवाह की लम्बी तैयारी का हिस्सा है। इसके अलावा शरीर के वजन और आकार की चिंता लड़की के मानस को देह की छाया में बाँधे रखती है। समय आने पर विवाह के लिए चुना जाना एक तरह की परीक्षा में सफल होने जैसा होता है। इस परीक्षा का सबसे चुनौती भरा पर्चा देह विषयक होता है, उसके बाद सांस्कृतिक ज्ञान और सामाजिक कौशल आते हैं। 

           स्कूल में प्राप्त और विकसित होने वाला ज्ञान और उससे जुड़े कौशल विवाह की दृष्टि से या तो अनुपयोगी हैं अथवा प्रतिस्पर्धी। विज्ञान की पढ़ाई से संबंधित मानसिक कौशल और रुझान जो विश्वासों और अंधविश्वासों पर चोट करते हैं, विवाह की परीक्षा में उत्तीर्ण होने में बाधा डालते हैं। माहवारी से संबंधित पारम्परिक विचार और व्रत व उपवासों से जुड़े विश्वास शिक्षा प्राप्त करती लड़की के मानस को लगातार दुविधा में रखते हैं। वह समझ जाती है कि स्कूल की पढ़ाई का विवाह की तैयारी से मात्र व्यावहारिक संबंध है और वह इस कारण है कि पढ़े-लिखे वर के लिए वधू भी पढ़ी-लिखी होनी चाहिए। लेकिन वधू से यह उम्मीद कतई नहीं की जाएगी कि वह स्कूल में समाज विज्ञान को पढ़ाई के तहत प्राप्त अपने संवैधानिक या मानवाधिकारों के ज्ञान को गंभीरता से लेने लगे या उन्हें परिवार की परिधि में लागू करने लगे। इस नज़रिए से लड़कियों की शिक्षा के बारे में सोचकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि स्कूल और कॉलिज की पढ़ाई में सफलता हासिल करने वाली लड़कियाँ अपने मानस को दो हिस्से में बाँटकर बड़ी होती होंगी। 

           एक हिस्से में पढ़ाई और परीक्षाओं से पुष्ट ज्ञान का विकास रहता होगा जो संविधान, लोकतंत्र, मानव-मूल्य और विज्ञान की शब्दावली में व्यक्त होता है, दूसरे हिस्से में घर और पड़ोस, त्योहारों, सिनेमा और टीवी के जरिए होने वाले समाजीकरण से प्राप्त वह ज्ञान रहता होगा जो लड़कियों को बताता है कि संविधान में दर्ज समता और अन्य मानवाधिकार ससुराल की दुनिया पर लागू नहीं होते। वह संविधान का परदेस है 

           जो लड़कियाँ अपने शिक्षित संस्करण और गृहस्थिन संस्करण के बीच सामंजस्य बिठा लेती हैं, अपवाद होती हैं। ज्यादातर के लिए शिक्षित संस्करण के आकार और उसमें निहित आकांक्षाओं को सिकोड़ते जाना जरूरी सिद्ध होता है। उसे एक समानान्तर धारा की तरह किसी प्रकार बहाए रखती हैं, पर उसमें इतना नहीं डूब पातीं कि उसे अपने ज्ञान, कौशल या यश की धुरी बन जाने दें। वे दो जिंदगियाँ जीती हैं और इस कारण प्रायः थक जाती हैं। इस थकान का विश्लेषण करें तो दिखता है कि घर और पेशे की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए आवश्यक ऊर्जा का चुक जाना एक कारण हो सकता है, मगर ज्यादा बड़ा लेकिन क्योंकि गहरा कारण वह अकेलापन है जिससे भारत की स्त्री जीवन-भर जूझती है। इस भाव की विवेचना जितनी कठिन है उतना ही इसका प्रमाण देना। ऊपर से देखने पर कौन कहेगा या मानेगा कि भारत में स्त्री लगातार अकेलेपन से जूझती है। इस भाव की विवेचना जितनी कठिन है उतना ही इसका प्रमाण देना। ऊपर से देखने पर कौन कहेगा या मानेगा कि भारत में स्त्री लगातार अकेलेपन से जूझती है ? आखिर वह हमेशा जीवन के हर दौर में किसी-न-किसी के साथ दिखती है। 

           शास्त्रों ने बाकायदा हिदायत दे रखी है कि बचपन में स्त्री को अपने पिता की, यौवन में पति की और वृद्ध हो जाने पर पुत्र की छत्र-छाया में जीना चाहिए। स्त्री की लोकछवि ऐसी है जो उसे घर-परिवार, बाल-बच्चों से घिरा हुआ दिखाती है। अकेलेपन का अर्थ यदि साथ का अभाव है तो निश्चय ही हमारे समाज में स्त्रियाँ कभी अकेली नहीं पड़ती। पर यदि अकेलेपन का अर्थ अपने अंतस को व्यक्त कर सकनें वाली अस्मिता से है तो यह कहना गलत न होगा कि वे जीवन-भर किसी ऐसे का साथ नहीं पाती जो उनके आत्म को व्यक्त और विकसित होने दे।

             वे अभिमन्यु की तरह एक चक्रव्यूह से घिरी, उससे लड़ती-लड़ती खत्म हो जाती हैं। स्त्री के जीवन-संघर्ष का स्वरूप शिक्षा के ज़रिए एक हद तक बदला जा सकता है पर ऐसा तभी हो सकता है जब स्वयं शिक्षा का चरित्र बदले। अभी तक शिक्षा का स्त्री के जीवन में सामान्यतः यही योगदान रहा है कि वह बचपन और किशोरावस्था की अवधि में घर और कुटुम्ब की चारदीवारी से बाहर रोजाना कुछ घंटे बिता लेती है। आज के भारत में लड़कियों की शिक्षा का विश्लेषण करने के लिए उन तीन पेशों को संदर्भ बनाना उपयोगी होगा जिनका आधुनिकता के निर्माण में योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ये तीन पेशे हैं डॉक्टरी, इंजीनियरी और वकालत। इन पेशों के ज़रिए जीवन और मरण संबंधी मान्यताएँ, प्रकृति और मनुष्य के संबंधों की संरचना और समाज के ढाँचे में व्यक्ति के अधिकारों को अवधारणा का विकास हुआ हैं। ज़ाहिर है, यह विकास एक ज़्यादा बड़ी ऐतिहासिक चेतना का हिस्सा है और किसी एक कारक पर निर्भर नहीं है। फिर भी इस विकास प्रक्रिया में डॉक्टरी, इंजीनियरी और वकालत का योगदान विश्लेषण का उपयुक्त विषय है। यह विश्लेषण शिक्षा के समाजशास्त्र की दृष्टि से इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन तीनों पेशों में ज्ञान और विज्ञान के विविध विषयों और उनसे जुड़े बौद्धिक कौशलों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। इन पेशों में प्रवेश के लिए आवश्यक शैक्षिक अर्हताओं का वितरण एक पैमाना है जिसकी मदद से समाज के विषमतापूर्ण ढाँचे के रहते एक समतामुखी सांस्कृति और राजनैतिक प्रयास में शिक्षा के योगदान का आकलन किया जा सकता है।

           पिछले सवा सौ वर्षों में और विशेषकर आज़ादी के बाद से डॉक्टरो, इंजीनियरी और वकालत के पेशों में महिलाएँ गई हैं और सफल हुई हैं। इस बात से देश को यश मिला है जिसका नशा बहुत व्यापक है। उसके प्रभावश अनेक लोग मानने लगे हैं कि शिक्षा में लड़कियों की बराबरी का लक्ष्य लगभग पा लिया गया है। इस मान्यता के पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि सार्वजनिक जीवन में पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ पहले से ही ज्यादा संख्या में दिखाई देने लगी हैं।सरकारी कार्यालय, बैंक, उद्योग और व्यापार, मीडिया और विश्वविद्यालय में शिक्षित स्त्रियों को अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करता देखकर यह धारणा पुष्ट होती है कि अब भारत की नारी पर्दे के पीछे या घर की चारदीवारी में नहीं रही। खासकर मीडिया ने इस धारणा को बहुत पोषण दिया है कि स्त्री का शैक्षिक पिछड़ापन एक पुरानी बात हो चुकी है और यह बात यदि आज भी कहीं सच है तो गाँव में ही सच हो सकती है। टेलीविजन से बहुत पहले सिनेमा ने शिक्षित स्त्री को इस तरह पेश करना शुरू कर दिया था जिससे लगे कि प्रेम के सामाजिक संदर्भ में पुरुष और स्त्री बराबरी से खड़े हैं। लगभग तीन-चौथाई सदी इस काल्पनिक विश्वास को फैलाने के निरंतर संपोषण में बीत गई है। लड़कियों की तीन पीढ़ियाँ सिने जगत और सामाजिक जगत के फासले को अपने मानसिक संघर्ष से पाटने में निकल गई हैं। लड़कियों और लड़कों की शैक्षिक बराबरी का भ्रम अखबारों के जरिए भी लगातार फैलता रहा है। खासकर दसवीं और बारहवीं के बोर्ड की परीक्षा के परिणाम की घोषणा के समय 'लड़कियाँ लड़कों से आगे' जैसी सुर्खियां छापने से कोई अख़बार बाज़ नहीं आते। 

             सरकारी अधिकारी और नेता आए दिन कहते रहते हैं कि स्कूलों में लड़कियों की प्रवेश दर लड़कों की बराबर हो चुकी है। 'लेडी डॉक्टर' शब्द सुनने और बोलने के हम इतने ज्यादा अभ्यस्त हो गए हैं कि स्कूल की शिक्षा के बाद डॉक्टरा जैसे पेशे की शिक्षा में लड़कियों के पहुँच का यथार्थ हमें तंग नहीं करता। डॉक्टरी की शिक्षा के क्षेत्र में पहली भारतीय लड़की के प्रवेश को एक शताब्दी से ऊपर समय हो गया है परन्तु आज भी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला पाने वाली लड़कियाँ कुल विद्यार्थियों की 27 प्रतिशत ही हैं और इनमें भी ज्यादातर महिला रोगों की विशेषज्ञ या फिर सामान्य डॉक्टर बनती हैं। 

               शिक्षा स्त्री की अकेली राह की पाथेय बने, यह तभी संभव है जब हम शिक्षा की परिकल्पना और तैयारी स्त्री के अभिमन्यु को ध्यान में रखकर करें। लड़कियों की शिक्षा पुनर्रचना हमें उस चक्रव्यूह को समझने के उद्देश्य से करनी होगी जो जन्म के साथ ही हर बच्ची को घेर लेता हैं। जैसे-जैसे वह बड़ी होती है उसके अंदर चक्रव्यूह को देख पाने की क्षमता बढ़ती है और साथ ही उसे मंजूर और आत्मसात् करने की विवशता बढ़ती जाती है। चक्रव्यूह को देख पाना उसे भेदने की शुरूआत नहीं है क्योंकि व्यूह का अर्थ यहाँ उसकी मानसिक रचना से अलग नहीं है। चक्रव्यूह एक सामाजिक कृति अवश्य है पर हर लड़की उसे अपने मानस में व्यक्तिगत स्तर पर रचती है, तभी चक्रव्यूह की सामाजिक कृति एक जीवन में सक्रिय हो पाती है। यदि चक्रव्यूह से आशय इस संरचना से है जो लड़की को परतंत्रता (Dependency) में जीना सिखाती है तो इसे गुलामी की आवश्यक संरचना भी कहा जा सकता है कहा जा सकता है क्योंकि गुलाम के लिए अपनी गुलामी से संतुष्ट रहना बहुत जरूरी है। कष्ट, अपमान, निर्भरता और अपने जीवन की क्षुद्रता (Meanness) का बोध तभी जीवनपर्यन्त सहनीय बने रह सकते हैं जब उन्हें अपने संस्कार बना लिया जाए। 

             यही काम जन्म से शुरू होने वाली व्यूह-रचना मानसिक स्तर पर करती है जिसके अलग-अलग पक्षों की झलक इस पुस्तक में दी गई है। अभिमन्यु होने के कई अर्थ संभव हैं परन्तु जिस अर्थ से लड़की के अस्तित्व की व्यंजना सबसे स्पष्ट रूप में व्यक्त होती है यह एक दुर्जेय संघर्ष से अकेले निपटने का नियति का है। अभिमन्यु सा शौर्य उसे बचा नहीं सकता, जिता भी नहीं सकता, यह शुरू से तय था। लड़कियों के जीवन में भी उनके अकेलेपन की अनिवार्यता रोजमर्रा से लेकर स्थायी किस्म के संघर्षों को समेटती है। 

             विवाह की रस्मों के बाद बारात के साथ जाती हुई लड़की का अकेलापन मात्र विदाई गीतों या उनका साथ देने वाले संगीत का विषय नहीं है। वह एक साथ एक भौतिक और सांस्कृतिक सच है। यदि इस सच को लड़कियों की नई शिक्षा की धुरी बनाया जाए तो उसका पहला अर्थात् सबसे बड़ा उद्देश्य हर लड़की को ऐसे बौद्धिक और भावनात्मक कौशल देना होगा जो उसे अपने अकेलेपन को पहचानने और उसे स्पष्टत: देखकर उत्पन्न होने वाली घबराहट और आत्मदया पर काबू पाने की क्षमता दे। 

        दूसरा उद्देश्य भविष्य की संभावनाओं पर विश्वास उत्पन्न करना होगा, इस संभावना पर कि ऐसे संसार का जन्म संभव है जिसमें लड़कियाँ सुरक्षित जी सकेंगी और जीवन की पूर्णता की अनुभव कर सकेंगी। आज की दुनिया को देखते हुए यह बात एक आस्था का विषय ही हो सकती है जिसे पल्लवित करना शिक्षा का काम है।

गुरुवार, 29 जुलाई 2021

देख लेना जगत में तुम विश्वजीत कहलाओगे।


 नभ में बैठे नभ से गगन की खूबसूरती चाहते हैं।

जा दिया तुझको अपनी नीलिमा,

क्या बादलों सी सफेदी चाहते हैं?

बोला गगन मुस्कुराकर, भाई..😊


क्यों आसमां सिर पर उठाये बैठे हो?

थोड़ी तन्हाई मुझको देकर, 

मेरा किसलय तुम बन पाओगे।

देख लेना जगत में तुम विश्वजीत कहलाओगे।

 

  उमा शंकर विद्यार्थी✍️

इतनी प्यारी रचना और शुभ-आशीष के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद सर🙏

 विश्वजीत कुमार.

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बुधवार, 28 जुलाई 2021

पीसा की मीनार से भी ज्यादा झुका बनारस के मणिकर्णिका घाट पर स्थित रत्नेश्वर महादेव मंदिर VLog #बनारस

      



पीसा की मीनार वास्तुशिल्प का अदभुत नमूना है। नींव से यह 04 डिग्री झुकी है। इसकी ऊंचाई 54 मीटर है। पीसा की मीनार अपने झुकने की वजह से ही दुनिया भर में मशहूर है और वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है जबकि पीसा की मीनार से भी खूबसूरत वास्तुशिल्प का नमूना काशी में मौजूद है। मणिकर्णिका घाट के नजदीक रत्नेश्वर मंदिर जिसे मातृऋण मंदिर भी कहते हैं। यह अपनी नींव से 09 डिग्री झुकी हुई है। इसकी ऊंचाई 74 मीटर है। लेकिन इसकी इस विशिष्टता से काशी के ही बहुत कम लोग परिचित हैं। मणिकर्णिका घाट पर मणिकर्णिका कुंड के ठीक सामने स्थित रत्नेश्वर महादेव मंदिर की वास्तुकला अलौकिक है। यह मंदिर सैकड़ों सालों से एक तरफ काफी झुका हुआ है। इसके झुके होने को लेकर कई तरह की दंत कथाएं प्रचलित हैं। फिर भी यह रहस्य ही है कि पत्थरों से बना वजनी मंदिर टेढ़ा होकर भी आखिरकार सैकड़ों सालों से खड़ा कैसे है? 
  
             मणिकर्णिका घाट के अन्य मंदिरों की तरह रत्नेश्वर महादेव मंदिर भी काफी प्राचीन है। गंगा घाट पर जहां सारे मंदिर घाट के ऊपर बने हैं वहीं यह अकेला ऐसा मंदिर है जो घाट के नीचे बना है। इस वजह से यह छह से आठ महीनों तक पानी में डूबा रहता है। नागर शैली में बना यह मंदिर करीब 40 फीट ऊंचा है। बाढ़ में गंगा का पानी मंदिर के शिखर तक पहुंच जाता है। पानी उतरने के बाद मंदिर का पूरा गर्भगृह बालू से भर जाता है। इस वजह से बाकी मंदिरों की तरह यहां पूजा नहीं होती। स्थानीय पुजारी बताते हैं दो-तीन महीने में कुछ ही दिन साफ सफाई के बाद यहां पूजा होती है। 

अहिल्याबाई होल्कर की दासी का मंदिर 

                  स्थानीय तीर्थ पुरोहित श्याम सुंदर तिवारी बताते हैं, महारानी अहिल्याबाई होलकर ने काशी में कई मंदिरों और कुंडों का निर्माण कराया। उनके शासन काल में उनकी रत्ना बाई नाम की एक दासी ने मणिकर्णिका कुंड के सामने शिव मंदिर निर्माण की इच्छा जताई और यह मंदिर बनवाया। उसी के नाम पर इसे रत्नेश्वर महादेव मंदिर कहा जाता है। जनश्रुति है कि मंदिर बनने के कुछ समय बाद ही टेढ़ा हो गया। मंदिर के साथ पूरा घाट ही झुक गया था। राज्यपाल मोतीलाल वोरा की पहल पर घाट फिर से बनवाया गया, लेकिन मंदिर सीधा नहीं किया जा सका। 

मंदिर के बारे में प्रचलित हैं कई दंत कथाएं 

                    तीर्थ पुरोहित श्याम सुंदर तिवारी बताते हैं रत्नेश्वर महादेव मंदिर को लेकर कुछ दंत कथाएं प्रचलित हैं। लोग इसे काशी करवट बताते हैं। हालांकि काशी करवट मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के पास नेपाली खपड़ा इलाके में है। इसे कुछ लोग मातृऋण मंदिर बताते हुए कहते हैं कि मंदिर को किसी ने अपनी मां के ऋण से उऋण होने के लिये निर्माण कराया, लेकिन यह मंदिर टेढ़ा हो गया तब कहा गया कि मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता। एक और कथा के अनुसार यह माना जाता है कि यह मंदिर प्रत्येक वर्ष थोड़ा-थोड़ा जमीन के अंदर प्रवेश होता है और इस मंदिर से बनारस के भविष्य के भी तुलना की जाती है ऐसा माना जाता है कि जिस दिन ये मंदिर पूर्णत: धरती में समाहित हो जाएगा संभवत उस दिन बनारस भी गंगा में समाहित हो जाएगा। यदि वर्तमान परिदृश्य की बात की जाए तो कोई भी आपदा या आकाशीय बिजली का गिरना होता है तो इसी मंदिर पर गिरता है यानी बाकी संपूर्ण घाट सुरक्षित रहते हैं।

पीसा की तरह रत्नेश्वर महादेव विश्व धरोहर क्यों नहीं 

                 मणिकर्णिका घाट स्थित एक ओर झुके हुए रत्नेश्वर महादेव मंदिर की तुलना पीसा के मीनार से होती है। पीसा की मीनार से यह ज्यादा झुकी हुई है, बावजूद इसके यह विश्व धरोहर की सूची में शामिल नहीं है। वाराणसी के पुरातत्व विभाग के पुरातत्वविद सुभाष चन्द्र यादव कहते हैं, मंदिर का ढांचा काफी भारी भरकम है। यह मंदिर नीचे की ओर बना है, महीनों पानी में डूब जाता है। इसीलिए यह एक तरफ झुक गया। वे कहते हैं किसी चीज को विश्व धरोहर घोषित करने के कई मापदंड होते हैं। फिर भी मंदिर जिला प्रशासन द्वारा संरक्षित है।

स्वयं की मजबूतियों और कमजोरियों को समझना (Understanding Your own Strengths and weaknesses) B.Ed. & D.El.Ed. S-4 and EPC-4 Hindi or English Notes.

  स्वयं की मजबूतियों और कमजोरियों को समझना 

(Understanding Your own Strengths and weaknesses) 

           स्वयं की मजबूतियों एवं कमजोरियों को पहचानने में सक्षम होकर परिवार, विद्यालय और विभिन्न स्थानों पर अपनी पहचानों और भूमिकाओं को समझ पाना ही स्वयं की पहचान है। 

         विद्यालय में आपसे शायद कभी पूछा गया होगा- "बड़े होकर आप क्या बनना चाहते हो?" इस प्रश्न में "क्या" की बजाय "कौन" पर अधिक जोर दिया गया है। सवाल यह उठता है कि हम क्या बनना चाहते हैं, क्या इसके पहले हमें यह पता है कि हम क्या है? 

आइए इस लेख में इसी मुद्दे पर चर्चा करते हैं। मुझे लगता है कि निम्नलिखित बातें अपने आप को समझने में हमारी मदद कर सकती है-

• अपनी शक्तियों को समझना :- आप में स्वाभाविक रूप से कौन-सी योग्यताएँ, विद्यमान है तथा किनका पोषण व विकास करना चाहते हैं? वे शक्तियाँ जो आपमें विद्यमान हैं और जिन्हें आप पोषित और विकसित करना चाहते हैं, आपकी निजी परिसम्पत्ति हैं। इनके कारण आप जीवन में एक अलग स्थान रखते हैं जो दूसरों से भिन्न हैं। इनसे आपको अवगत होना चाहिए। इसमें आपकी सांवेगिक शक्तियों (Emotional forces) और प्रेम अभिव्यक्ति की योग्यता तथा गुण-दोष विवेचन की योग्यता सम्मिलित है। 

• अपने मनोवेगों को जानना :- वह क्या है जिसकी आपको एक धुन रहती है। वह क्या है जिससे आप उत्तेजित या उत्साहित हो जाते हो एवं उसे आपकी एकाग्रता की आवश्यकता है ? वे कौन से क्रियाकलाप और लक्ष्य हैं जिनसे आप वास्तव में सजीव अनुभव करते हो ? आप अपने जीवन का निर्माण उन मनोवेगों के इर्द-गिर्द नहीं कर सकते यदि आपने उन्हें सही रूप में पहचाना नहीं है। जब आप आन्तरिक समन्वय उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हों। यह सुनिश्चित करना कि आपके मनोवेग तथा आपके मूल्य और मानक एक दिशा में हैं, आपके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। 

• अपने मूल्यों की जानकारी :- ये वे बातें हैं जो गहनतम स्तर पर आपके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आपके निजी मूल्य एवं मानदंड (मानक) क्या है ? आपकी प्राथमिकताएँ तथा विश्वास या आस्थाएँ क्या है ? आप इन्हें इतना महत्त्व क्यों देते हैं ? आप अपने निजी मानकों और नैतिक मूल्यों को किस स्तर की वचनवद्धता देना चाहते हैं ? आप अपने वास्तविक आत्म के प्रति कितना सच्चा रहना चाहते हैं ? 

• अपनी प्रवृत्तियों को पहचानना :- आपकी प्रवृत्तियाँ चाहे वे अच्छी हो या बुरी, आपकी आदत बन जाती हैं। क्या आप अपनी सोच के आधार पर किन्हीं कार्यों को करना चाहोगे ? या आप चाहोगे कि कार्यों को टालते रहें या अत्यधिक प्रक्रिया करोगे ? अपनी अभ्यसित प्रवृत्तियों को जानना, आपके लिए उन क्षेत्रों के विश्लेषण में सहायक हो सकता है जिनमें कुछ सुधार की आवश्यकता है। इससे आपको यह जानने में मदद मिलेगी कि कौन-सी प्रवृत्तियाँ आपकी प्रबलताओं और सफलताओं में अत्यधिक योगदान देती हैं। 

• अपनी कमियों (परिसीमाओं) को स्वीकार करना :- यह समझ लें कि आप प्रत्येक प्रयास या क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ नहीं बन सकते। यह जान लेना अच्छा होगा कि इस समय कौन से कौशल एवं क्रियाकलाप आपकी योग्यताओं से परे हैं। ऐसा जानते हुए आप ऐसे क्रियाकलाप का दायित्व किसी और को दे सकते हैं तथा अपनी ऊर्जा का प्रयोग वहाँ करेंगे जहाँ सबसे प्रभावी हो सकता है। हम जीवन के अधिकांश क्षेत्रों में अपनी योग्यताओं में सुधार ला सकते हैं अत: वर्तमान कमियों को स्थाई न समझें। अपने निजी मूल्यांकन में यथार्थवादी तथा व्यावहारिक बने। अपने वास्तविक आत्म को जानने में आपकी सत्यनिष्ठा (ईमानदारी) एक पूर्वापेक्षा (Prerequisite) है। 

• अपने लक्ष्य निर्धारित करना :- आप वास्तव में किस वस्तु को प्राप्त करना चाहते हो। आप किस तरह के व्यक्ति के रूप में विकसित होना चाहते हो ? आपके लक्ष्य विशिष्ट, निर्धारणीय तथा वास्तविक या यथार्थवादी होने चाहिए। जब बात लक्ष्य निर्धारण की होती है तो इसका मुख्य तत्त्व स्पष्टता है। स्पष्टता कार्य को प्रेरित करती है एवं स्पष्टता का अभाव, गड़बड़, विभ्रम तथा निष्क्रियता की ओर ले जाता है। 

• अपनी दिशा स्थापित करना :- आपका वास्तविक आत्म जीवन में किस ओर जाना चाहता है ? एक बार जब आप अपने मूल्यों, शक्तियों, मनोवेगों, प्रवृत्तियों, सीमाओं और लक्ष्यों को समझ जाते हो तो आपको एक गन्तव्य  की आवश्यकता पड़ती है जिस ओर आप गमन करना चाहोगे। यही आपकी दिशा होगी। अपने गन्तव्य पर पहुँचने के बारे में चिन्ता न करें क्योंकि जो महत्त्वपूर्ण है वह 'यात्रा' है। अत: एक ऐसी दिशा को चुनें जो वास्तविक प्रसन्नता का निरूपण करती हो तथा इस और आगे बढ़ो। तब देखोगे कि जीवन आपके सम्मुख कैसे खुल जाता है और खिल उठता है।


Understanding Your own Strengths and weaknesses


              Being able to recognize one's own strengths and weaknesses and being able to understand one's own identities and roles in the family, school and various places is self-identity.

You might have been asked in school, "What do you want to be when you grow up?" In this question the emphasis is on "who" rather than "what". The question arises, what do we want to be, before we know what we are?

Let us discuss this issue in this article. I think the following things can help us to understand ourselves-

• Understanding your strengths: - What abilities are naturally present in you and which do you want to nurture and develop? The forces that exist in you and that you wish to nurture and develop are your personal assets. Because of these you hold a different place in life which is different from others. You should be aware of them. This includes your emotional forces and the ability to express love and to discuss merits and demerits.

• Knowing your passions:- What is it that you have a passion for. What is it that gets you excited or excited and that requires your concentration? What are the activities and goals that make you feel really alive? You cannot build your life around those emotions if you do not identify them properly. When you are trying to create internal coordination. Making sure that your passions and your values ​​and standards are in one direction will be very important to you.

• Knowing Your Values:- These are the things that are most important to you at the deepest level. What are your personal values ​​and standards? What are your preferences and beliefs or beliefs? Why do you give so much importance to them? What level of commitment do you want to give to your personal standards and moral values? How true to your true self do you want to be?

• Recognizing your tendencies:- Your tendencies, whether they are good or bad, become your habit. Would you like to do any work based on your thinking? Or would you like to keep postponing tasks or over-processing? Knowing your habitual tendencies can help you analyze areas that need some improvement. This will help you to know which tendencies contribute the most to your strengths and successes.

• Accepting your limitations:- Realize that you cannot be the best in every endeavor or field. It would be good to know which skills and activities are beyond your abilities at the moment. Knowing this, you can delegate such activities to someone else and use your energy where it can be most effective. We can improve our abilities in most areas of life, so don't take the present shortcomings as permanent. Be realistic and practical in your personal assessment. Your integrity is a prerequisite in knowing your true self.

• Setting your goals:- What do you really want to achieve. What kind of person do you want to grow into? Your goals should be specific, determinable and realistic or realistic. When it comes to goal setting, the key element is clarity. Clarity drives action and lack of clarity leads to confusion, confusion and passivity.

• Establishing your direction:- Where does your real self want to go in life? Once you understand your values, strengths, impulses, tendencies, limitations and goals, you need a destination to which you would like to travel. This will be your direction. Don't worry about reaching your destination because what is important is the 'journey'. So choose a direction that represents real happiness and move on. Then you will see how life opens up and blossoms in front of you.

मंगलवार, 27 जुलाई 2021

नाग पंचमी🐍 की हार्दिक शुभकामनाएं💐💐💐

 

          आप सभी मगध क्षेत्रवासियों को नाग-पंचमी🐍 की हार्दिक शुभकामनाएं💐💐 

         ऐसे नाग-पंचमी का त्यौहार शुक्रवार 13 अगस्त को हैं लेकिन मगध एवं इसके आसपास के क्षेत्रों में इसे आज (सावन के पहले पंचमी) मनाया जा रहा है जब मैंने इसके पीछे शोध किया तो पता चला के आज से बरसों पहले किसी मिथिला के ब्राम्हण के द्वारा इसे सावन के पहले पंचमी को मनाने की योजना बनाई गई थी इसके पीछे उनका तर्क था कि नाग-पंचमी के दिन कटहल और आम खाया जाता है और जो नाग-पंचमी पिछले पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है उस दिन तक कटहल और आम नहीं रहेगा इसीलिए कटहल और आम को खाने के लिए इसे आज के दिन मनाया जाने लगा। तब से यह परंपरा निरंतर चली आ रही है।

          एक और चीज हमें यहां देखने को मिला और वह है नीम का पत्ता। सुबह जब मॉर्निंग वॉक को निकले थे तो देखा कि हजारों युवक नीम के पेड़ पर चढ़कर उसका पत्ता तोड़ रहे हैं जब मैंने उन लोगों से इसकी वजह पूछी तो उन्होंने कहा कि इसे घर में लगाना है। घर में क्यों लगाना है? इसका शाब्दिक अर्थ किसी को नहीं पता था। जब बड़े बुजुर्गों से पूछा तो उन्होंने भी कुछ स्पष्ट उत्तर नहीं दिया।

         हां, लेकिन इतना जरूर कहा कि इसको लगाने एवं इसके पत्ते को पीसकर पीने की भी आज परंपरा है। मुझे लगा कि चलिए कारण कोई भी हो लेकिन स्वास्थ्य के लिए यह अति उत्तम है। उन सभी के आग्रह पर ना इच्छा होते हुए भी मुझे नीम के पत्ता को घर में लगाना एवं इसके जूस को पीना भी पड़ा। खैर स्वास्थ्य के लिए यह उत्तम है।


मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत "डॉ. ए. पी. जे अब्दुल कलाम सर"

आसान नहीं मन-कर्म-कलम का महान् हो जाना,
बहुत मुश्किल है दुनिया में दूसरा "कलाम" हो जाना।

विनम्र श्रद्धांजलि 🙏


 मेरे आदर्श "डॉ. ए. पी. जे अब्दुल कलाम सर" जिंदगी में कभी भी आप को करीब से देखने और सुनने का अवसर नहीं मिला। परंतु YouTube पर आपको देखा एवं सुना हूँ एवं आपकी आत्मकथा पढ़कर आपके बारे में जाना हूँ।

           मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत आप ही हैं।

आपकी आत्मकथा 'Wings of Fire' (अग्नि की उड़ान) ने मुझे बहुत प्रेरित किया, कभी हौसला टूटने नहीं दिया। आप जैसा शायद ही कोई दुबारा इस धरती पर जन्म लें। आप के इस प्यारे व्यक्तित्व, जोश, जुनून और जज्बे को सलाम🙏🏻

आप को शत-शत नमन!!!
🙏❤️🙏
 💐💐💐


हमारी प्राचीन विरासत को मिली वैश्विक मान्यता। यूनेस्को द्वारा गुजरात स्थित धोलावीरा साइट को वर्ल्ड हेरिटेज साइट के रूप में घोषित किया गया।

 


हमारी प्राचीन विरासत को मिली वैश्विक मान्यता!

         गुजरात में 'धोलावीरा' एक हड़प्पन शहर' को UNESCO की #WorldHeritage सूची पर लिखा गया है। हम
सभी भारतीयों के लिए बड़े गर्व का क्षण!!💪🙂

           यूनेस्को द्वारा गुजरात स्थित सिन्धु घाटी सभ्यता के सबसे बड़े और सबसे प्रमुख पुरातात्विक स्थलों में से एक धोलावीरा को वर्ल्ड हेरिटेज साइट घोषित किया गया है। गुजरात के कच्छ जिले के रण में स्थित नमक के विशाल मैदानों से घिरे भचाऊ तालुका के खदिरबेट में स्थित धोलावीरा में हड़प्पा सभ्यता के अवशेष पाए जाते हैं, जो दुनिया भर में अपनी अनूठी विरासत के तौर पर मशहूर हैं।

               यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज कमिटी के 44वें सेशन में धोलावीरा को वर्ल्ड हेरिटेज साइट का टैग दिए जाने का फैसला लिया गया। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा 1967-68 में में खोजे गये मासर और मानहर नदी के संगम पर स्थित धोलावीरा को हड़प्पाकाल के पांच सबसे बड़े स्थलों में शुमार किया जाता है।

             ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार पांच हजार साल पहले विश्व के सबसे व्यस्त महानगरों में शामिल धोलावीरा में 3500 ईसा पूर्व से लोग बसना आरम्भ हो गए थे और फिर लगातार 1800 ईसा पूर्वतक आबादी बनी रही। दक्षिण एशिया के प्राचीन शहरों में शामिल धोलावीरा में शहरी व्यवस्था को बेहतर तरीके से संरक्षित कर रखा गया है। सिंधु-घाटी सभ्यता से जुड़ा स्थल पुरातत्विक लिहाज से काफी अहम इस शहर की खास पहचान अपनी जल प्रबंधन व्यवस्था, बहु-स्तरीय सुरक्षा तंत्र सहित ढांचों के निर्माण में अत्यधिक पत्थरों के इस्तेमाल के लिए रही है।

              इसके साथ ही अब भारत में कुल ऐसी 40 साइट्स हैं, जिन्हें वर्ल्ड हेरिटेज का टैग मिल चुका है। गुजरात की बात करें तो धोलावीरा के अलावा पावागढ़ स्थित चंपानेर, पाटन और अहमदाबाद में रानी की वाव को भी वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा मिला है। आप को बता दें, इस बार वर्ल्ड हेरिटेज लिस्ट में शामिल होने की रेस में धोलावीरा के साथ ईरान से हवारामन, जापान से जोमोन जॉर्डन से एस-साल्ट और फ्रांस से नाइस शामिल थे।




हमारे समाज में प्रचलित दो शब्द 01. Divorce (अंग्रेजी) O2-तलाक (उर्दू) हिन्दी का शब्द क्या.???

 विवाह के उपरांत जीवन-साथी को छोड़ने के लिए 02 शब्दों का प्रयोग आमतौर पर होता हैं।

01-Divorce (अंग्रेजी)

O2- तलाक (उर्दू)

कृपया हिन्दी का शब्द बताए...????

यह लेख आजतक के Editor संजय सिन्हा के द्वारा लिखा गया है। यह जानकारी विस्तृत रूप में सभी के पास पहुंचे इसके लिए मेरे द्वारा पोस्ट किया जा रहा है। कृपया🙏 इसे पूरा पढ़ें।


        तब मैं 'जनसत्ता' में नौकरी करता था। एक दिन खबर आई कि एक आदमी ने झगड़ा के बाद अपनी पत्नी की हत्या कर दी। मैंने खब़र में हेडिंग लगाई

"पति ने अपनी बीवी को मार डाला"

खबर छप गई, किसी को आपत्ति नहीं थी। पर शाम को दफ्तर से घर के लिए निकलते हुए प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी सीढ़ी के पास मिल गए। मैंने उन्हें नमस्कार किया तो कहने लगे कि 

"संजय जी, पति की 'बीवी' नहीं होती !!!"

“पति की 'बीवी' नहीं होती?” मैं चौंका था🤔

तब वो बोले “बीवी" तो 'शौहर' की होती है, 'मियाँ' की होती है, पति की तो 'पत्नी' होती है।

         भाषा के मामले में, प्रभाष जी के सामने मेरा टिकना मुमकिन नहीं था। हालांकि मैं कहना चाह रहा था कि 

"भाव तो साफ है न ?"

बीवी कहें या पत्नी या फिर वाइफ, सब एक ही तो हैं। लेकिन मेरे कहने से पहले ही उन्होंने मुझसे कहा कि "भाव अपनी जगह है, शब्द अपनी जगह। कुछ शब्द कुछ जगहों के लिए ही बने ही होते हैं। ऐसे में शब्दों का घोलमेल गड़बड़ी पैदा करता है।

खैर, आज मैं भाषा की कक्षा लगाने नहीं आया। आज मैं रिश्तों के एक अलग अध्याय को जीने के लिए आपके पास आया हूं। लेकिन इसके लिए, आपको मेरे साथ निधि के पास चलना होगा।

निधि, मेरी दोस्त है। कल उसने मुझे फोन करके अपने घर बुलाया था। फोन पर उसकी आवाज़ से मेरे मन में शंका हो चुका था कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। मैं शाम को.उसके घर पहुंचा। उसने चाय बनाई और मुझसे बात करने लगी। पहले तो इधर-उधर की बातें हुईं, फिर उसने कहना शुरू कर दिया की नितिन से उसकी नहीं बन रही और उसने उसे तलाक देने का फैसला कर लिया है।

मैंने पूछा की- "नितिन कहां है?" तो उसने कहा कि अभी कहीं गए हैं, बता कर नहीं गए। उसने आगे कहा कि- बात-बात पर झगड़ा होता है और अब ये झगड़ा बहुत बढ़ गया है। ऐसे में अब एक ही रास्ता बचा है की अलग हो जाएं, तलाक ले लें!!

निधि जब काफी देर बोल चुकी तो मैंने उससे कहा कि तुम नितिन को फोन करो और घर बुलाओ। कहो कि संजय सिन्हा आए हैं। निधि ने कहा कि उनकी तो बातचीत नहीं होती फिर वो फोन कैसे करे ?

अज़ीब संकट था। निधि को मैं बहुत पहले से जानता हूं। मैं जानता हूं कि नितिन से शादी करने के लिए उसने घर में कितना संघर्ष किया था। बहुत मुश्किल से दोनों के घर वाले राज़ी हुए थे। फिर धूमधाम से शादी हुई थी। ढ़ेर सारी रस्म पूरी की गईं थीं। ऐसा लगता था कि ये जोड़ी ऊपर से बन कर आई है लेकिन शादी के कुछ ही साल बाद दोनों के बीच झगड़े होने लगे। दोनों एक-दूसरे को खरी-खोटी सुनाने लगे और आज उसी का नतीज़ा था कि संजय सिन्हा निधि के सामने बैठे थे, उनके बीच के टूटते रिश्तों को बचाने के लिए।

खैर, निधि ने फोन नहीं किया। मैंने ही फोन किया और पूछा कि तुम कहां हो? मैं तुम्हारे घर पर हूँ। जल्दी आ जाओ। नितिन पहले तो आनाकानी करता रहा पर वो जल्दी ही मान गया और घर चला आया।

अब दोनों के चेहरों पर तनातनी साफ नज़र आ रही थी। ऐसा लग रहा था की कभी दो जिस्म-एक जान कहे जाने वाले ये पति-पत्नी आंखों ही आंखों में एक दूसरे की जान ले लेंगे। दोनों के बीच कई दिनों से बातचीत नहीं हुई थी।

नितिन मेरे सामने बैठा था। मैंने उससे कहा कि सुना है कि तुम निधि से तलाक लेना चाहते हो ?

उसने कहा- हाँ!!! बिल्कुल सही सुना है। अब हम साथ नहीं रह सकते।

मैंने कहा कि तुम चाहो तो अलग रह सकते हो पर तलाक नहीं ले सकते।

उन दोनों ने एक साथ कहा- क्यों ???

क्योंकि तुमने निकाह तो किया ही नहीं है।

अरे यार, हमने शादी तो की है।

हाँ, शादी की है। शादी में पति-पत्नी के बीच इस तरह अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है। अगर तुमने 'मैरिज़' की होती तो तुम 'डाइवोर्स' ले सकते थे। अगर तुमने 'निकाह' किया होता तो तुम "तलाक" ले सकते थे लेकिन तुमने 'शादी' की है इसका मतलब ये हुआ कि "हिंदू धर्म" और "हिंदी" में कहीं भी पति-पत्नी के एक हो जाने के बाद अलग होने का कोई प्रावधान है ही नहीं।

मैंने इतनी-सी बात पूरी गँभीरता से कही थी पर दोनों हँस पड़े थे। दोनों को साथ-साथ हँसते देख कर मुझे बहुत खुशी हुई थी। मैंने समझ लिया था कि रिश्तों पर पड़ी बर्फ अब पिघलने लगी है वो हँसे लेकिन मैं गँभीर बना रहा...

मैंने फिर निधि से पूछा कि ये तुम्हारे कौन हैं?

निधि ने नज़रे झुका कर कहा कि पति हैं। मैंने यही सवाल नितिन से किया कि ये तुम्हारी कौन हैं? उसने भी नज़रें इधर-उधर घुमाते हुए कहा कि बीवी हैं।

मैंने तुरंत टोका- ये तुम्हारी बीवी नहीं हैं !!! ये तुम्हारी बीवी इसलिए नहीं हैं क्योंकि तुम इनके 'शौहर' नहीं !!! क्योंकि तुमने इनसे साथ "निकाह" नहीं किया तुमने "शादी" की है। 'शादी' के बाद ये तुम्हारी 'पत्नी' हुईं। हमारे यहाँ जोड़ी ऊपर से बन कर आती है। तुम भले सोचो कि शादी तुमने की है पर ये सत्य नहीं है तुम शादी का एलबम निकाल कर लाओ मैं सबकुछ अभी इसी वक्त साबित कर दूंगा। बात अलग दिशा में चल पड़ी थी। मेरे एक-दो बार कहने के बाद निधि शादी का एलबम निकाल लाई अब तक माहौल थोड़ा ठँडा हो चुका था। एलबम लाते हुए उसने कहा कि कॉफी बना कर लाती हूं।

मैंने कहा कि "अभी बैठो इन तस्वीरों को देखो। कई तस्वीरों को देखते हुए मेरी निगाह एक तस्वीर पर गई जहाँ निधि और नितिन शादी के जोड़े में बैठे थे और पाँव~पूजन की रस्म चल रही थी। मैंने वो तस्वीर एलबम से निकाली और उनसे कहा कि इस तस्वीर को गौर से देखो।

उन्होंने तस्वीर देखी और साथ-साथ पूछ बैठे कि "इसमें खास क्या है ?"

मैंने कहा कि "ये पैर पूजन का रस्म है तुम दोनों इन सभी लोगों से छोटे हो जो तुम्हारे पांव छू रहे हैं।

हां तो ???

ये एक रस्म है। ऐसी रस्म सँसार के किसी धर्म में नहीं होती जहाँ छोटों के पांव बड़े छूते हों लेकिन हमारे यहाँ शादी को ईश्वरीय विधान माना गया है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि शादी के दिन पति-पत्नी दोनों 'विष्णु और लक्ष्मी' के रूप हो जाते हैं। दोनों के भीतर ईश्वर का निवास हो जाता है। अब तुम दोनों खुद सोचो कि क्या हज़ारों-लाखों साल से विष्णु और लक्ष्मी कभी अलग हुए हैं ? दोनों के बीच कभी झिकझिक हुई भी हो तो क्या कभी तुम सोच सकते हो कि दोनों अलग हो जाएंगे? नहीं होंगे। हमारे यहां इस रिश्ते में ये प्रावधान है ही नहीं। "तलाक" शब्द हमारा नहीं है, "डाइवोर्स" शब्द भी हमारा नहीं है।

यहीं दोनों से मैंने ये भी पूछा कि बताओ हिंदी में "तलाक" को क्या कहते हैं ???

दोनों मेरी ओर देखने लगे उनके पास कोई जवाब था ही नहीं फिर मैंने ही कहा कि दरअसल हिंदी में 'तलाक' का कोई विकल्प ही नहीं है। हमारे यहां तो ऐसा माना जाता है कि एक बार एक हो गए तो कई जन्मों के लिए एक हो गए तो प्लीज़ जो हो ही नहीं सकता उसे करने की कोशिश भी मत करो या फिर पहले एक दूसरे से 'निकाह' कर लो फिर "तलाक" ले लेना।

अब तक रिश्तों पर जमी बर्फ काफी पिघल चुकी थी।

निधि चुपचाप मेरी बातें सुन रही थी। फिर उसने कहा कि- "भैया, मैं कॉफी लेकर आती हूं।

वो कॉफी लाने गई। मैंने नितिन से बातें शुरू कर दीं। बहुत जल्दी पता चल गया कि बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं। बहुत ही छोटी-छोटी इच्छाएं हैं जिनकी वज़ह से झगड़े हो रहे हैं।

खैर, कॉफी आई मैंने एक चम्मच चीनी अपने कप में डाली। नितिन के कप में चीनी डाल ही रहा था कि निधि ने रोक लिया, भैया, इन्हें शुगर है चीनी नहीं लेंगे।

लो जी!!! घंटा भर पहले ये इनसे अलग होने की सोच रही थीं। और अब इनके स्वास्थ्य की सोच रही हैं।

मैं हंस पड़ा मुझे हंसते देख निधि थोड़ा झेंपी कॉफी पी कर मैंने कहा कि अब तुम लोग अगले हफ़्ते निकाह कर लो फिर तलाक में मैं तुम दोनों की मदद करूंगा।

शायद अब दोनों समझ चुके थे।

हिन्दी एक भाषा ही नहीं - संस्कृति है।

इसी तरह हिन्दू भी धर्म नही-सभ्यता है।

👆उपरोक्त लेख मुझे बहुत ही अच्छा लगा जो सनातन धर्म और संस्कृति से जुड़ा है। आप सभी से निवेदन है कि समय निकाल कर इसे पढ़ें, गौर करें, अच्छा लगे तो आप अपने मित्रों के बीच साझा करे। 👏👏

साभार:- सोशल मीडिया

Edit & Modified:- Bishwajeet Verma 

सोमवार, 26 जुलाई 2021

कृष्ण कुमार द्वारा रचित "चूड़ी बाजार में लड़की" B.Ed.1st Year EPC-1 Unit-2 आधुनिक और समकालीन साहित्य। हिंदी एवं English नोट्स।

 


         कृष्ण कुमार द्वारा रचित चूड़ी बाजार में लड़की उपन्यास को आज की प्रत्येक लड़कियों को जरूर पढ़नी चाहिए ताकि उन परिस्थितियों को समझने में उन्हें सहूलियत मिल सके जो अनावश्यक रूप से उनकी प्रगति की राह में बाधा हैं। इस उपन्यास को राजकमल प्रकाशन के द्वारा 2014 में प्रकाशित किया गया था।
             स्त्री को लेकर प्रचलित मान्यताओं का घेरा निश्चित वर्ष की आयु की लड़की को जिस पूर्णता से कसता है, वह किसी अन्य आयु पर लागू नहीं होता। इस उम्र में परिवार, समाज, धर्म, नैतिकता यह सबकुछ एक साथ हावी होने लगते हैं। ऐसा लगने लगता है जैसे वह लड़की एक निश्चित आयु की होकर गुनाह कर बैठी हैं। एक अलग तरह के भय को साथ लेकर जीना उसकी आदत में शुमार हो जाता है। 
          उसे तमाम हिदायतें दी जाने लगती हैं... ऐसे मत चलो, ऐसे मत रुको, ऐसे मत बोलो, ऐसे मत देखो... और फिर वह एक भय के साथ जीने लगती है। सच कहें तो वह भय नहीं आतंक होता है। भय तो उसे कहते हैं जो कभी-कभार लगे। जैसे अंधेरे से लगे तो उजाले में आकर दूर हो जाए, पिता से लगे तो उसके ऑफिस जाने पर हट जाए। लेकिन यहाँ तो पुरे समाज से डर होता हैं और लड़कियां भी उसी डर के साथ जीना सीखती हैं और इसी तरह जीना उनके लड़की होने की परिभाषा बन जाता है।
          भारत के संदर्भ में देखें तो नारी एक जटिल सामाजिक रचना है। मानव के रूप में वह बस जन्म लेती है, परंतु उसके बाद से ही उसकी पुनर्रचना का उपक्रम संस्कृति के कठोर औजार के बल से आरंभ हो जाता है। संस्कृति के इसी कठोर औजार पर जब एक शिक्षाविद की नजर पड़ती हैं तो उसके लिए समाज के इस सांस्कृतिक चेहरे की क्रूरता को देखना काफी कष्टकारी हो जाता है वह बेचैन हो उठता है कि शुरू होती है उसकी अपनी यात्रा।
          उसे याद आने लगती है बचपन की वह घटना जहां वह लड़कियों को अपनी मां एवं औरतों के साथ चूड़ी की दुकान में जाते देखा करते थे। जहां कोई लड़की चूड़ी पहनने के लिए दुकानदार के सामने अपना हाथ बढ़ाती थी। उसे वह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना जान पड़ती है एवं उसे समझ में आता है कि चूड़ी पहनाई जाने की इच्छा का जन्म और चूड़ी को अपनी सुंदरता का साधन मान लेने का भाव छोटी लड़की को पुरुष प्रधान सभ्यता में ढालने के एक सहज चरण है इसमें यह पुरुष प्रधान समाज सफल भी होता है।

चूड़ी बाजार में लड़की को 05 अध्याय में बांटा गया है-

  1. पहला अध्याय समता का मिथक, भिन्नता के ध्रुव 
  2. दूसरा अध्याय अंत: जगत और चारों ओर 
  3. तीसरा अध्याय चूड़ी का चिन्ह-शास्त्र 
  4. चौथा अध्याय ताज की कक्षा 
  5. पांचवा अध्याय अभिमन्यु की शिक्षा
                इन पांच अध्याय में सिमटी भारतीय स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था पर गहन पड़ताल करती यह एक क्लासिकल कृति है। इस पुस्तक में घर और परिवार में लड़कियों के प्रति होने वाले व्यवहार और इससे उसके जीवन में क्या बदलाव होता है इसका काफी सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। तमाम तरह के साहित्यिक और सांस्कृतिक मिथकों पर गहन चिंतन के साथ ही एक बच्ची के बचपन से लेकर जवानी और फिर उसके कई रूपों में स्थापित होने तक अर्थात बच्ची से युवती और फिर औरत बनने की पूरी प्रक्रिया कैसे पुरुषवादी सोच के आस-पास सांस्कृतिक क्रियाकलापों द्वारा संचालित हो रही है लेखक कृष्ण कुमार ने इसका विश्लेषण इस पुस्तक में काफी गहराई से किया है।
           किसी पुरुष के द्वारा सफल महिला को शक भरी नजरों से देखना उस पुरुष के सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को दर्शाता है। केवल पुरुष ही नहीं बल्कि समाज में प्रचलित मान्यताओं सांस्कृतिक मिथको और नैतिकता के नाम पर एक घेरे में महिलाओं को बांधने के चलन की प्रक्रिया काफ़ी पुरानी है जिस का संचालन बड़े सुनियोजित ढंग से परिवार, समाज, शिक्षा और धार्मिक सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए किया जाता है। हमें जरूरत है कि जहां भी जिस स्वरुप में ऐसे मिथक सामने आए उस पर खुलकर चर्चा हो। लड़के और लड़कियों के सामने चर्चा हो। इस पुस्तक के माध्यम से कृष्ण कुमार ने एक बच्ची से औरत बनने की सारी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया को काफी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है।

‘चूड़ी की दुकान’ के मायने क्या हैं?

           “नाजुक होने के साथ चूड़ी रंगीन भी होती है। रंगों की विविधता और चमक देखकर चूड़ियों की दुकान में प्रवेश करने वाली नन्ही बच्ची अपनी माँ या बहन के साथ एक ऐसे मायाजगत में प्रवेश करती है जिससे अप्रभावित रहकर बाहर निकल आना लगभग असंभव है। चूड़ी की दुकान उन संस्थाओं में से एक है जो भारत की औरतों की व्यक्तिगत जिन्दगियों को पुरुष के कब्जे और काबू में रखने में संस्कृति की मदद करती हैं। बाज़ार का हिस्सा होने के नाते चूड़ी की दुकान एक अलग संस्था की तरह हमारी नज़रों में आने से बच जाती है।”
पृष्ठ संख्या- 73
पुस्तक का एक अन्य अंश इस प्रकार है, 

                   “लड़की होने का यह अर्थ – कि उसे गहराई से सोचने, समझने, प्रश्न करने की जरूरत नहीं है कि ये लड़कों के काम हैं, पुरुष की प्रवृत्ति के अंग हैं– लड़कियां अपने स्वभाव में ढाल लेती हैं। शिक्षा की औपचारिक प्रक्रियाओं, जैसे परीक्षा और स्कूल की दैनन्दिनी के प्रति निष्ठा और लगन में वे लड़कों से आगे रहती हैं। ऊपर से देखने पर यह बात अंतर्विरोधी प्रतीत होती है कि परीक्षा में लड़कों के मुकाबले ज्यादा मेहनत करने और सफल होने के बावजूद यहाँ लड़कियों की बौद्धिक क्षमताओं को अनावश्यकता के सामाजिक बोध से जोड़ा जा रहा है। इस बात में अंतर्विरोध इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे देश में लागू परीक्षा व्यवस्था अपने में पूर्ण है और कक्षा के जीवन में संभव बौद्धिक क्रियाओं के प्रति तटस्थ रहती है।”

              “परीक्षा में अधिक अंक लेने वाले विद्यार्थी के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि वह चीज़ों या अवधारणाओं के बारे में गहराई अथवा मौलिक दृष्टि से सोचे, शिक्षक की सोच पर कक्षा में टिप्पणी करे और अपनी सोच पर सहपाठियों की टिप्पणियों को सुने, उन पर गौर करे। परीक्षा एक औपचारिकता है और लड़कियां इस औपचारिकता को निभाने में उतनी ही प्रवीण हो जाती है जितनी कुशल वे घर और बिरादरी की औपचारिकताओं को निभाने में बनाई जाती है। वे शिक्षा व्यवस्था में आगे बढ़ती दिखाई देती हैं पर उन बौद्धिक औजारों से आम तौर पर बेगानी रखी जाती हैं जो शिक्षा के अनुभव में परीक्षा की तैयारी नहीं, संजीदा और प्रेरक शिक्षकों और कक्षा में विचारशील वातावरण की माँग करते हैं।”

              “ये दोनों स्त्रोत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में लड़कियों को अनुपलब्ध रहते हैं। लड़कियों को पढ़ाने वाले शिक्षक पुरुष हों या स्त्री, उनके मन में अपनी छात्राओं के बारे में ऐसी ही धारणाएं होती हैं जैसी आम परिवारों में पाई जाती हैं। इस धारणा का केंद्र यह विचार होता है कि लड़कियों के जीवन का उद्देश्य विवाह है और शिक्षा उन्हें इसीलिए दी जा रही ताकि विवाह में आसानी हो और वे किसी अच्छे घर में ब्याही जा सकें। इस धारणा के चलते शिक्षा के तहत विभिन्न विषयों के ज्ञान को बौद्धिक विकास का साधन मानने की दृष्टि और लड़कियों के संदर्भ में ऐसी दृष्टि को कक्षा में अमल में लाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अपवादों को छोड़ दें तो यह कतई सम्भव नहीं है कि गणित व विज्ञान में बालिकाओं की रुचि और समझ को बढ़ावा देना आज का शिक्षक अपना उद्देश्य बना ले।”

           The novel Churi Bazar Mein Ladki by Krishna Kumar is a must read by every girl of today to help her understand the situations which unnecessarily hinder her progress. This novel was published by Rajkamal Prakashan in 2014.
The extent to which the circle of prevailing beliefs about women tightens the girl of a certain age, does not apply to any other age. At this age, family, society, religion, morality all these things start dominating together. It seems as if the girl, being of a certain age, is committing a crime. It becomes a habit to live with a different kind of fear.
All the instructions are given to her... don't walk like this, don't stop like that, don't speak like that, don't look like that... and then she starts living with a fear. To be honest, it is not fear but terror. Fear is called that which is felt occasionally. Just as if you are attracted by darkness, you get away by coming in the light, if you get attached to your father, you will get away when he goes to his office. But here there is fear from the whole society and girls also learn to live with the same fear and living like this becomes their definition of being a girl.
In the context of India, woman is a complex social construct. She is simply born as a human, but from then on, the process of her reconstruction begins with the force of the hard tools of culture. When an educationist has an eye on this hard tool of culture, it becomes very painful for him to see the cruelty of this cultural face of the society, he becomes restless that his own journey begins.
He starts remembering that childhood incident where he used to see girls going to the bangle shop with their mothers and women. Where a girl used to raise her hand in front of the shopkeeper to wear a bangle. She finds it to be an important cultural phenomenon and understands that the birth of the desire to wear bangles and the feeling of considering the bangle as an instrument of her beauty is a natural step in molding the little girl into a male dominated civilization. The dominant society is also successful.

The girl in the bangle market is divided into five chapters-

Chapter 1 The Myth of Equality, the Pole of Difference
Chapter 2 The Inner World and Around
Chapter 3 The Symbols of the Bangles
Fourth Chapter Taj's Class
The fifth chapter Abhimanyu's education


It is a classical work that deeply examines the social, cultural and moral system of the Indian woman confined in these five chapters. The book deals with the behavior of girls at home and in the family and how it changes their lives. Deep reflection on a variety of literary and cultural myths as well as how the entire process of a child's transition from infancy to youth and then becoming established in its many forms i.e. from child to girl and then to woman through cultural activities around masculine thinking Author Krishna Kumar has analyzed it in great depth in this book.
Seeing a successful woman with suspicious eyes by a man shows the social and cultural crisis of that man. Not only men, but the practice of tying women in a circle in the name of prevailing beliefs, cultural myths and morals in the society is very old, which is conducted in a very well-planned manner through family, society, education and religious cultural events. . We need to openly discuss the form in which such myths come to the fore. Discuss in front of boys and girls. Through this book, Krishna Kumar has presented the entire social and cultural process of becoming a woman with great sensitivity.


What is the meaning of 'Bangle Shop'?

“Besides being delicate, the bangle is also colourful. Seeing the variety and brightness of colours, the little girl who enters the bangle shop along with her mother or sister enters into a world of illusions from which it is almost impossible to come out unaffected. The bangle shop is one of the organizations that help culture in keeping the personal lives of women in India in the possession and control of men. Being a part of the market, the bangle shop escapes our sight as a separate institution.”
Page No- 73
Another part of the book is as follows,

“The meaning of being a girl – that she does not have to think deeply, understand, question that these are boys’ actions, part of man’s instinct – girls take in their nature. They are ahead of the boys in their devotion and dedication to the formal processes of education, such as examinations and the daily routine of the school. Viewed from above, it seems contradictory that the intellectual abilities of girls are being linked to the social sense of redundancy here, despite working harder and succeeding in examinations than boys. There is no contradiction in this because the examination system implemented in our country is complete in itself and is neutral to the intellectual activities possible in the life of the classroom.


“It is not necessary for the student who scores high in the test to think deeply or fundamentally about things or concepts, to comment on the teacher's thinking in the class and listen to the comments of classmates on his thinking, Pay attention Examination is a formality and girls become as proficient in performing this formality as they are skilled in carrying out the formalities of home and fraternity. They appear to advance in the education system, but are generally shunned by the intellectual tools that the education experience calls for, rather than exam preparation, serious and persuasive teachers and a thoughtful atmosphere in the classroom.”

“Both these sources remain unavailable to girls in our education system. Teachers teaching girls whether male or female, they have similar beliefs about their girl students as are found in ordinary families. Central to this belief is the idea that the purpose of life of girls is marriage and that education is being given to them so that marriage becomes easier and they can get married in a good home. Due to this perception, the question of considering the knowledge of various subjects as a means of intellectual development under education and applying such a vision in the classroom in the context of girls does not arise. Barring exceptions, it is not possible that today's teacher should make it her aim to promote the interest and understanding of girls in mathematics and science.