एक थे जनकवि घाघ !
बिहार और उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक लोकप्रिय जनकवियों में घाघ भी हैं। मुगल सम्राट अकबर के समकालीन घाघ अनुभवी किसान थे जिन्होंने प्रकृति-चक्र का सूक्ष्म निरीक्षण किया और कालांतर में एक व्यावहारिक कृषि वैज्ञानिक बने। उन्होंने अपने अनुभवों को दोहों और कहावतों में ढालकर उन्हें जन-जन तक पहुंचा दिया। सदियों पहले जब टीवी या रेडियो नहीं हुआ करते थे और न सरकार का मौसम विभाग, तब किसान-कवि घाघ की कहावतें ही खेतिहर समाज का पथप्रदर्शन किया करती थी। खेती को उत्तम पेशा मानने वाले घाघ की यह कहावत देखिए-
उत्तम खेती मध्यम बान / नीच चाकरी, भीख निदान।
घाघ के गहन कृषि-ज्ञान का परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। माना जाता है कि खेती और मौसम के बारे में कृषि वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियां झूठी साबित हो सकती है, लेकिन घाघ की कहावतें नहीं। कन्नौज के निवासी घाघ के कृषि-ज्ञान से प्रसन्न होकर सम्राट अकबर ने उन्हें चौधरी की उपाधि और सरायघाघ बसाने की आज्ञा दी थी। यह जगह आज भी कन्नौज से एक मील दक्षिण मौजूद है। यह भी कहा जाता है कि वे बिहार के छपरा के निवासी थे जो बाद में किसी कारण से कन्नौज में जाकर बस गए। घाघ की लिखी कोई पुस्तक तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन उनकी वाणी कहावतों के रूप में लोक में हर तरफ बिखरी हुई है। उनकी कहावतों को अनेक लोगों ने संग्रहित करने की कोशिशें है।
डॉ जार्ज ग्रियर्सन ने भी उनकी कहावतों का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। हिंदुस्तानी एकेडेमी द्वारा वर्ष 1931 में प्रकाशित रामनरेश त्रिपाठी का 'घाघ और भड्डरी' घाघ की कहावतों का सबसे महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है। भड्डरी संभवतः घाघ की पत्नी थी। त्रिपाठी जी ने अपनी खोजों के आधार पर जनकवि घाघ का मूल नाम देवकली दुबे बताया है। घाघ की कुछ कहावतो का जायज़ा आप भी लीजिए !
० दिन में गरमी रात में ओस
कहे घाघ बरखा सौ कोस !
० खेती करै बनिज को धावै
ऐसा डूबै थाह न पावै।
० खाद पड़े तो खेत,
नहीं तो कूड़ा रेत।
० गोबर राखी पाती सड़ै
फिर खेती में दाना पड़ै।
० सन के डंठल खेत छिटावै
तिनते लाभ चौगुनो पावै।
० गोबर, मैला, नीम की खली
या से खेती दुनी फली।
० वही किसानों में है पूरा
जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
० छोड़ै खाद जोत गहराई
फिर खेती का मजा दिखाई।
० सौ की जोत पचासै जोतै,
ऊँच के बाँधै बारी।
जो पचास का सौ न तुलै,
देव घाघ को गारी।।
० सावन मास बहे पुरवइया
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।
० रोहिनी बरसै मृग तपै,
कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन घाघिनी,
स्वान भात नहीं खाय।।
० पुरुवा रोपे पूर किसान
आधा खखड़ी आधा धान।
० पूस मास दसमी अंधियारी
बदली घोर होय अधिकारी।
० सावन बदि दसमी के दिवसे
भरे मेघ चारो दिसि बरसे।
० पूस उजेली सप्तमी,
अष्टमी नौमी जाज।
मेघ होय तो जान लो,
अब सुभ होइहै काज।।
०सावन सुक्ला सप्तमी,
जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै,
नाहीं समौ सुकाल।।
० रोहिनी बरसै मृग तपै,
कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुने घाघिनी,
स्वान भात नहीं खाय।।
० भादों की छठ चांदनी,
जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे,
अन्न घनेरा होय।।
० अंडा लै चीटी चढ़ै,
चिड़िया नहावै धूर।
कहै घाघ सुन भड्डरी,
वर्षा हो भरपूर ।।
० शुक्रवार की बादरी रहे शनिचर छाय।
कहा घाघ सुन घाघिनी बिन बरसे ना जाय।।
० काला बादल जी डरवाये,
भूरा बादल पानी लावे।
० तीन सिंचाई तेरह गोड़,
तब देखो गन्ने का पोर।
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