शनिवार, 17 अप्रैल 2021

"आम के टिकोले"


        प्रतिदिन की तरह आज भी हम सुबह 05:00 बजे उठ गए लेकिन जैसे पता चला कि आज तो रविवार है पुनः 01 घंटे के लिए सो गए 06:00 बजे आंख खुली। पहली नज़र खिड़की से बाहर गई, सूरज की किरणे कब का मुझे जगा कर चली गई थी। मेरे खिड़की के सामने एक आम का पेड़ है। आज यूं ही दिख गया कि बहुत सारे टिकोले गिरे पड़े हैं, कुछ तो सुख भी चुके थे। उन टिकोलो को देखकर अपनी बचपन की याद आ गई कि कैसे यदि रात में 02:00 बजे भी तेज हवाएं चलने लगे तो सबसे पहले टॉर्च लेकर हम आम के पेड़ के पास जाते ताकी टिकोलो को चुनकर ला सके और आज यहां पड़े-पड़े सूख रहे हैं।


         मैंने फटाफट आम के पेड़ के पास जाकर उन्हें चुनना शुरू कर दिया। टिकोले चुनते-चुनते बचपन की यादों के कई सारे शब्द बनते गए और एक कविता का निर्माण हो गया आप भी पढ़िए


"आम के टिकोले"


आम के टिकोले चुनते हैं,
चलो आज बचपन की सैर करते हैं।
जहां होती थी खूब शैतानियां,
एक आम गिरने पर दश हाथ जाते थे उसको उठाने।
अब तो बगीचे में पड़े-पड़े टिकोले सूख जा रहे हैं।
शायद अपनी बेबसी वो बयां कर रहे हैं।

बचपन की बातें थी निराली,
होती थी मस्ती और थोड़ी मनमानी।
शायद हम बड़े हो गए हैं,
टिकोले चुनने अब छोड़ चुके हैं।

आज उसी बचपन को फिर से,
जवां करना है।
बगीचे में जा टिकोले को ला,
उसके स्वाद में खो जाना है।

जीवन का बस यही नूर है,
खुश वही है जिसका दिल बचपन में मशगूल है।
आज उसी बचपन को,
फिर से निभाने जाते हैं।
हां चलो
आम के टिकोले लाते हैं।
चलो आज!!!
बचपन की सैर करते हैं
हां चलो!!!
आम के टिकोलो चुनते हैं।
आम के टिकोले चुनते हैं।

विश्वजीत कुमार 



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