मकबूल फिदा हुसैन का जन्म महाराष्ट्र के शोलापुर (Sholapur) नामक शहर में 17 सितंबर 1915 ई. में हुआ था। इनके पिता एक कपड़े के मिल में काम करते थे। इनका परिवार मध्यम श्रेणी एवं धार्मिक प्रवृत्ति का था। हुसैन की आरंभिक शिक्षा इंदौर के आर्ट स्कूल में एक वर्ष तक हुई। उन दिनों वे संध्या के समय हाथ में एक लालटेन लेकर इंदौर के बाहर जा कर प्राकृतिक दृश्य का चित्रण करते थे। दिन के प्रकाश में जिन चीजो को वे देखते थे, उन्हें वे कभी-कभी रात में या लालटेन के प्रकाश में कैनवास मे चित्रित करते थे। इस प्रकार उनकी तेज स्मृति का विकास हुआ और रंग की नयी अनुभूति लालटेन की रोशनी मे बने चित्र तथा पीछे की कलाकृति मूल रूप से अभिव्यजनावादी (Expressionistic) हुई । कालान्तर में हुसैन बम्बई (मुंबई) गये। वहाँ वे सिनेमा एवं व्यावसायिक कला के डिजाइनर बन गये। उन्होंने बम्बई में खिलौना (लकड़ी के चपटे रंग बिरंगे खिलाने) बनाने का काम किया। 1935 में उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लिया लेकिन उन्होंने अपना कोर्स पूरा नहीं किया। इन्हीं दिनों इन्होंने रेम्बान्ट (Rembrandt) तथा अजस्टस जॉन (Augustus John) जैसे चित्रकारों का अध्ययन किया और वास्तविक चित्रों का निर्माण कर अपनी जीविका चलायी। 1948 ई. में वे दिल्ली गये जहाँ उन्होंने उन्होने प्राचीन मथुरा की मूर्तिकला की मूर्तियों को देखा इससे वे काफ़ी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने सारे यूरोप और अमरीका की यात्रा की इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने चित्रों को भी प्रदर्शित किया तथा आधुनिक संसार की कला तथा पौराणिक कलाकृतियों का अध्ययन किया।
1947 में बम्बई आर्ट सोसाइटी की प्रदर्शनी में हुसैन के बनाये एक चित्र को पुरस्कार मिला। 1955 में उन्हें 'जमीन' नाम के चित्र पर ललित कला अकादमी का पुरस्कार मिला। उनका यह चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में प्रदर्शित है। उन्होंने 'घोडो' पर वर्षों चित्र बनाये। छाता, जूता, लालटेन को अंकित कर ढेरो चित्र बनाये है। वे राजस्थान में घूमे और वहाँ के चित्र बनाये। ऊपर आसमान से बरसती हुई जेठ-वैशाख की चिलचिलाती धूप और नीचे राजस्थान की तपती सुलगती हुई बालू के बीच बाहर निकलना अपने आप में एक अनुभव है लेकिन हुसैन ने इसका अनुभव ही नहीं किया है वरन इसे भोगा भी है। ये अपने चित्र के विषय की आत्मा के भीतर तक बैठ कर चित्र के लिये प्रतिबिंब खोज निकालते है जो बिल्कुल अपने आप मे मौलिक है। बैशाख की दुपहरी मे जलते सूरज के गोले परिपार्श्व (Parish) में, राजस्थान के किसी भाग में, न जाने किन क्षणों में और न जाने क्या सोचकर उन्होंने तीन गधो का चित्रण किया होगा, लेकिन बैशाख के सदर्भ में इस चित्र का अनुभव एकाएक मन को गुदगुदा अवश्य जाता हैं। चटख पीले रंग की बहुलता सोने जैसी धूप को मूर्तिमान (Idolatry) करने में सफल हुई है। हुसैन के बनाये हुए ज्यादातर चित्र भारत के गाँवो, कस्बो से ही सम्बन्धित है। इनके चित्रो की स्त्री-पुरुष की आकृतियाँ अक्सर गाँव के लोगो की ही होती है। इन्होंने पशु-पक्षी के भी चित्र बनाये है। इनके चित्रों के रंग चटक है। ये हमेशा नंगे पैर घुमते थे। इनकी रंगीन चित्रित कार शहर में ध्यानाकर्षण का केन्द्र है। ये रंगो से ही धीरे-धीरे आकृतियों और दृस्यो को खड़ा कर देते थे। कहीं-कही रेखाओं का भी जोरदार इस्तेमाल किये है। इन्होंने कुछ छोटी (Short) फिल्मो का निर्माण किया है जो निम्न हैं-
गजगामिनी (इस फिल्म में शाहरुख खान और माधुरी दीक्षित ने किरदार निभाया है)
इनकी बनाई अधिकतर फिल्में राजस्थान के जीवन पर है। इनके द्वारा उर्दू और अंग्रेजी में कविताएँ भी लिखी गई है। 1959 में टोकियो-जापान की अन्तर्राष्ट्रीय द्विवार्षिकी का पुरस्कार मिला। 1966 में "पद्यश्री" तथा 1973 में उन्हें "पद्मभूषण" की उपाधि से विभूषित किया गया। इन्होंने चीनी प्रभाव से प्राकृतिक दृश्य का निर्माण किया है। हुसैन की आधुनिक कला शैली में चित्रित रागमाला चित्रावली संगीत के अमूल्य ध्वनियों के सहज, बिम्ब प्रतिध्वनित करती है। इनके तीन गधों का चित्र, किसान परिवार, राह के साथी, जलीय चित्र, ढोलकीया, बैलगाड़ी, घोड़े, वापसी विष्णुचक्र आदि प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
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