संज्ञान का अर्थ, स्वरूप, तत्त्व व संज्ञानात्मक क्षमता का विकास व किशोरावस्था में संज्ञानात्मक विकास
आधुनिक मनोविज्ञान में संज्ञान के प्रत्यय का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। व्यक्ति के जीवन में संज्ञानात्मक विकास का बहुत अधिक महत्व है। सामान्य अर्थों में संज्ञान के विषय में कहा जा सकता है कि बाह्य जगत की जानकारी ही संज्ञान है अर्थात् मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि बाह्य जगत से ज्ञान प्राप्त करना ही संज्ञान है। बालक में संज्ञान का विकास अनेक संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप होता है, जैसे— प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, भाषा का उपयोग, चिन्तन, प्रत्यय निर्माण, तर्क और समस्या समाधान, आदि। चूँकि संज्ञान मानसिक क्रियाओं में निहित प्रक्रियाओं के फलस्वरूप होता है इसलिए इसका स्वरूप जटिल प्रकार का होता है। जन्म के समय नवजात शिशुओं में संज्ञानात्मक क्षमता का अभाव पाया जाता है। परन्तु जैसे-जैसे उसका शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास होता जाता है उसी प्रकार से उद्दीपक जगत (Stimulus world) की जानकारी की सीमा विस्तृत होती जाती है और उसका ज्ञान जटिल व संगठित प्रकार का होता जाता है। इस प्रकार पर्यावरण (Environment) के साथ समायोजन स्थापित करने में संज्ञानात्मक विकास की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि आयु वृद्धि के साथ-साथ बालक का संज्ञानात्मक ढाँचा भी विकसित होता जाता है और उसका व्यवहार परिमार्जित होता जाता है इस सम्बन्ध में कुछ अधिक कहने से पूर्व यह आवश्यक है कि संज्ञान के अर्थ को समझ लिया जाये।
संज्ञान का अर्थ एवं स्वरूप
(MEANING AND NATURE OF COGNITION)
संज्ञानात्मक विकास बहुत ही सहज प्रक्रिया है। बालक के विकास में संज्ञानात्मक विकास एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ है। बालक में समाजीकरण का विकास होने से उसकी संज्ञानात्मक क्षमता भी विकसित होती है। बालक स्वयं के बारे में तथा पर्यावरण के बारे में किस प्रकार ज्ञान प्राप्त करता है। उसका ज्ञान जितना ही विस्तृत, तार्किक, संगठित तथा वस्तुनिष्ठ प्रकार का होगा उसका व्यवहार भी उतना ही स्पष्ट होगा। इस प्रकार बाह्य वातावरण या उद्दीपन जगत के सम्बन्ध में ज्ञान अर्जन की प्रक्रिया को संज्ञान का केन्द्रीय तथ्य कहा जा सकता है।
जेम्स ड्रेवर (James Drever , 1968) ने संज्ञान को परिभाषित करते हुए लिखा है कि "संज्ञान एक सामान्य पद है। यह ज्ञान प्राप्त करने के सभी विभिन्न प्रचलित मार्गो, प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, चिन्तन और तर्क से सम्बन्धित है।"
"Cognition is a general term concerning all the various modes of knowing, perceiving, remembering, imagination judging and reasoning." -James Drever , 1968.
हिलगाई और उसके साथियों (Hilgard & his Friends, 1975) के अनुसार, "किसी व्यक्ति का अपने स्वयं के विषय में और अपने वातावरण के विषय में विचार, ज्ञान, व्याख्या, बोध या धारणा का भाव ही संज्ञान है।"
"Cognition is an individual's thought, knowledge, interpretation, understanding or ideas about himself and his environment : -Hilgard & his Friends., 1975
स्टॉट (Stott, 1975) के अनुसार, "बोध (समझ) व प्रभाविकता के साथ कार्य करने और बाह्य वातावरण के साथ सुविधापूर्ण ढंग से व्यवहार करने की क्षमता ही संज्ञान है।"
"Cognition is the capacity to function with understanding . effectiveness and facility in relation to the external environment . "-Stott , 1975.
इस प्रकार स्पष्ट है कि संज्ञान मानसिक क्रियाओं में निहित प्रक्रियाएँ जैसे- प्रत्यक्षीकरण, समस्या समाधान, चिन्तन, स्मरण, कल्पना तथा भाषा विकास, आदि का एक जटिल प्रकार का सेट होता है। संज्ञान द्वारा व्यक्ति बाह्य जगत के उद्दीपकों के प्रति विचारपूर्वक और प्रभावपूर्ण ढंग से अनुक्रिया करके उपयुक्त समायोजन स्थापित करता है। इस प्रकार संज्ञान एक जटिल मानसिक क्षमता है। इसका विकास जन्म के बाद प्रारम्भ होता है और बालक का समाजीकरण इसके विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। संज्ञान की क्षमता द्वारा बालक अपने वातावरण (Environment) को समझने का प्रयास करता है और उसके पश्चात् वातावरण के उद्दीषकों के प्रति अनुक्रिया (व्यवहार) प्रकट करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्राणी उद्दीपक के प्रति सीधे अनुक्रिया नहीं करता है। वातावरण के उद्दीपकों और प्राणी के व्यवहार के मध्य मानसिक प्रक्रियाएँ चाहे यह प्रत्यक्षीकरण हों या स्मरण हों या चिन्तन हों, मध्यस्थता (Mediation) का कार्य करती हैं। इसलिए, प्राणी मध्यस्थताकारी अनुक्रियाओं के आधार पर ही वातावरण के उद्दीपकों के साथ व्यवहार करता है यह उद्दीपकों के प्रति सीधे अनुक्रिया नहीं करता है।
संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने पर यह देखा गया है कि इन प्रक्रियाओं की अनेक विशेषताएँ होती है, जैसे- प्रतीकों का उपयोग (Use of Symbols), अमूर्तिकरण (Abstraction), अन्तरण (Transfer) तथा व्याख्या (Interpreting), आदि। ये सभी विशेषताएँ अव्यक्त और अन्तरित प्रकार की होती हैं।
संज्ञान के तत्त्व
संज्ञान के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने के लिए संज्ञान से सम्बन्धित कुछ तत्त्व निम्न प्रकार हैं-
(1) संज्ञान एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
(2) संज्ञान एक अर्जित योग्यता है जो जन्मोपरान्त प्रारम्भ होती है।
(3) संज्ञानात्मक प्रक्रिया में अन्तरण (Transfer) और अमूर्तिकरण (Abstraction) पाया जाता है।
(4) संज्ञान में अव्यक्त (Implicit) प्रकार से मध्यस्थताकारी अनुक्रियाएँ घटित होती हैं, इसका बाहर से निरीक्षण किया जाना सम्भव नहीं है।
(5) संज्ञानात्मक संरचना परिवर्तनशील होती है।
(6) बालकों और प्रौढ़ों के संज्ञान में बहुत अधिक अन्तर पाया जाता है क्योंकि बालक अपरिपक्व होते हैं और उनका तार्किक चिन्तन विकसित नहीं होता है।
(7) प्राणी का संज्ञान पूरी तरह से व्यक्तिगत योग्यता होती है, इसे अन्तरित (Transfer) नहीं किया जा सकता है।
(8) व्यक्ति की सक्षमता (Competence) उसकी संज्ञानात्मक योग्यता से महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है क्योंकि व्हाइट (R.W.White, 1959) के अनुसार सक्षमता वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने में आवश्यक तत्त्व होती है।
(9) संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया में तार्किक चिन्तन (Logical thinking) एक प्रमुख लक्षण है। तार्किक चिन्तन पर ही संज्ञानात्मक विकास आधारित होता है।
(10) बच्चों की आयु, शिक्षा तथा सामाजिक विकास में जैसे-जैसे वृद्धि होती है वैसे-वैसे उनकी संज्ञानात्मक क्षमता भी बढ़ती जाती है।
(11) संज्ञानात्मक विकास में कल्पना, चिन्तन, स्मृति तथा पूर्व अनुभवों का योगदान होता है।
संज्ञानात्मक क्षमता का विकास
(DEVELOPMENT OF COGNITIVE ABILITIES )
संज्ञानात्मक विकास का व्यापक स्तर पर अध्ययन स्विट्जरलैण्ड के संज्ञानात्मक सिद्धान्तवादी जीन पियाजे (Jean Piaget, 1896-1980) द्वारा किया गया। संज्ञानात्मक विकास की दिशा में पियाजे द्वारा किये गये अनुसंधानों की जानकारी मनोवैज्ञानिकों को सन् 1930 तक हो गई थी लेकिन मनोवैज्ञानिकों ने पियाजे के योगदानों को सन् 1960 से महत्त्व देना शुरू कर दिया क्योंकि तब तक संज्ञान से सम्बन्धित कोई महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रकाश में नहीं आया था जिससे कि संज्ञान के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सके।
"जीन पियाजे के अनुसार," बच्चे जैसे-जैसे अपने संसार को कुशलता से खोजते हैं वे अपने ज्ञान का निर्माण करते हैं।
"Children activity construct knowledge us they manipulate and explore their world . "-Jean Piaget.
पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास के सम्बन्ध में बताया कि संज्ञान प्राणी का वह ज्ञान है जिसे प्राणी अपने वातावरण (Environment) से प्राप्त करता है। अनेक मानसिक प्रक्रियाओं की सहायता से बालक अपने वातावरण से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार वातावरण से प्राप्त या अर्जित ज्ञान द्वारा बालक के भीतर विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक संरचनाओं (Specific Psychological Structures) का निर्माण होता है। बालक द्वारा अर्जित व्यवहार तथा ज्ञान भण्डार के समुच्चय को पियाजे द्वारा रुकीमा (Schema) कहा गया । यह स्कीमा आयु के साथ-साथ बदलता रहता है अर्थात् बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप आयु बढ़ने के साथ-साथ परिवर्तित व परिमार्जित होता रहता है।
पियाजे का मानना है कि बालक में संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरने के साथ-साथ होता है इसलिए उसके संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त को 'अवस्था सिद्धान्त' (Stage theory) भी कहा गया हैं। पियाजे ने बालक के सम्पूर्ण संज्ञान विकास को चार प्रमुख अवस्थाओं में बाँटा है-
(1). संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensorimotor stage) 0-02 साल
(2) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage) 02-08 साल
(3) स्थूल-संक्रियात्मक अवस्था (Concrete-operational stage ) 08-14 साल
(4) औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational stage) 14 से आगे
पियाजे द्वारा अपने सिद्धान्त में कुछ सम्प्रत्ययों (Concepts) का उपयोग किया गया है अर्थात् संज्ञान विकास के सिद्धान्त में कुछ सम्बन्धों का उपयोग करके पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया को समझाया है। इसलिए आवश्यक है कि इन सम्बोधों या सम्प्रत्ययों को समझ लिया जाए।
मूलभूत सम्प्रत्यय
(Basic Concepts)
पियाजे ने अपने सिद्धान्त में संज्ञानात्मक क्रियाएँ (Cognitive functions) तथा संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive structures) जैसे सम्बोधों का उपयोग किया है। इनका उल्लेख निम्न प्रकार है-
(i) संज्ञानात्मक क्रियायें (Cognitive Functions)- कुछ मानसिक क्रियाएँ इस प्रकार की होती है जो बालक में जन्म के समय से पायी जाती हैं। ये क्रियाएँ न तो स्वत: बदलती हैं और न ही इनमें परिवर्तन होता है। ये क्रियाएँ जीवन-पर्यन्त चलती रहती हैं। विकास की अवधियों में ये क्रियाएँ अपरिवर्तित रूप से पायी जाती हैं। इस कारण इन क्रियाओं को अपरिवर्तनशील (Invariant) तथा अवस्था से मुक्त (State independent) माना गया है। पियाजे का मानना है कि बालक इन्हीं मानसिक क्रियाओं की मदद से वातावरण के उद्दीपकों का ज्ञान अर्जित करता है।
(ii) संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive Structures)- पियाजे का मानना है कि बालक द्वारा संज्ञानात्मक क्रियाओं की मदद से अर्जित ज्ञान द्वारा व अपने विचारों, योग्यताओं, क्षमताओं, आदतों और बुद्धि, आदि द्वारा अपने भीतर एक ज्ञान-भण्डार का निर्माण किया जाता है। इस ज्ञान भण्डार को ही संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचता है तो उसकी क्षमताओं, योग्यताओं, अनुभव और परिपक्वता, आदि में वृद्धि हो जाने के कारण उसका अर्जित ज्ञान भी बढ़ जाता है जिसके फलस्वरूप बालक की संज्ञानात्मक संरचनाओं (Cognitive structures) में भी परिवर्तन हो जाता है और संज्ञानात्मक संरचना परिमार्जित एवं संवद्धित हो जाती है इस प्रकार विकास की प्रत्येक अवस्था में बालक की संज्ञानात्मक संरचना में पिछली विकास अवस्था की अपेक्षा आकार व गुण में वद्धि हो जाती है। इस प्रकार संज्ञानात्मक संरचनाएँ विकास अवस्थाओं पर आश्रित होती हैं और अवस्थाओं के बदलने के फलस्वरूप संरचनाओं में भी बदलाव आ जाता है । इस कारण इन संज्ञानात्मक संरचनाओं को अवस्था पर आश्रित (Stage dependent) कहा जाता है।
पियाजे का मानना है कि बुद्धि से सम्बन्धित अनेक प्रकार की क्रियाएँ (Acts of intelligence) जैसे- स्मृति, चिन्तन, तर्क, प्रत्यक्षीकरण योग्यताएँ, आदि मानसिक प्रक्रियाएँ अलग-अलग होकर कार्य नहीं करती हैं बल्कि ये विभिन्न मानसिक क्रिया बालक द्वारा ज्ञान अर्जन के समय एक साथ संगठित (Organised) होकर कार्य करती है। इस प्रकार संगठन (Organisation) की प्रक्रिया द्वारा ये मानसिक क्रियाएँ बालक के ज्ञान-अर्जन तथा संज्ञानात्मक संरचना या ज्ञान भण्डारण में महत्वपूर्ण प्रकार से सहायता करती है।
बालक द्वारा एक विकास अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने के लिए इसको संज्ञानात्मक संरचनाओं में या ज्ञान भंडार में वृद्धि होना आवश्यक है पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक सरंचनाओं में विकास के लिये निम्नांकित दो मैकेनिज्मस (Mechanisms) आवश्यक है-
(i) आत्मसातन (Assimilation) पियाजे ने आत्मसातन की व्याख्या करते हुए कहा है कि बालक में उपस्थित विचार या बालक द्वारा अर्जित ज्ञान में नए विचार (Idea or Schema) या बालक द्वारा अर्जित ज्ञान में नये विचार या तत्वों या क्रियाओं आदि का समावेश हो जाना अथवा समन्वित हो जाने की प्रक्रिया को ही आत्मसातन कहते हैं। अत: आत्मसातन का अभिप्राय पुराने विचारों और आदतों में नई वस्तुओं को प्रयुक्त करना है। इस प्रक्रिया में बालक नई घटनाओं, वर्तमान नये विचारों, आदि को पुराने विचार या अर्जित ज्ञान के एक भाग के रूप में समझता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि नये अनुभव का आत्मसातन करने के लिए बालक पुराने अनुभवों या विचारों में कोई परिवर्तन नहीं करता है बल्कि वह नये अनुभवों या विचारों के स्वरूप में पुराने अनुभवों के आधार पर परिवर्तन करके नये अनुभवों को आत्मसात या ग्रहण कर लेता है। नये अनुभव पुराने अनुभवों के साथ मिलकर बालक के भीतर अर्जित ज्ञान में वृद्धि करते हैं।
(ii) व्यवस्थापन तथा सन्तुलन स्थापित करना (Accommodation and Equilibration)- व्यवस्थापन को आत्मसातन की पूरक प्रक्रिया कहा जा सकता है। इस प्रक्रिया में बालक नई सूचनाओं या नये विचारों का नये अनुभवों, आदि को अपने ज्ञान भण्डार में व्यवस्थित करने के लिए पुराने विचारों, आदि के स्वरूप को इस प्रकार बदलकर समायोजन स्थापित करता है कि नये विचार, नई सूचनाएं, नये अनुभव, नई वस्तु, पुराने के साथ फिट हो जाये। स्पष्ट है कि व्यवस्थापन की प्रक्रिया में बाह्य उद्दीपक में कोई परिवर्तन नहीं होता है लेकिन नए अनुभव को पुराने अनुभव के साथ फिट करने में व्यक्ति अपने पुराने अनुभव में नये अनुभव के हिसाब से थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके समायोजन स्थापित करता है। बालकों में जैसे-जैसे बौद्धिक वृद्धि बढती है, वैसे-वैसे वह नई परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है।
मानसिक वृद्धि में आत्मसातन (Assimilation) और व्यवस्थापन (Accommodation) में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है। ये तनाव नई परिस्थितियों में पुरानी अनुक्रियाओं के प्रयोग के समय उत्पन्न होते हैं, जब बालक नई अनुक्रियाओं को नई समस्याओं के समाधान में फिट करता है । बालक हर समय नई घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने आपको व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है । इस प्रकार व्यवस्थापन ही सन्तुलन (Equilibration) कहलाता है।
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