मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

दृश्य कलाएं (Visual Arts): अवधारणात्मक समझ D.El.Ed.1st Year. F-11 इकाई-2. B.S.E.B. Patna, Bihar.



 दृश्य कला (Visual Art)

  दृश्य कला की अवधारणा (CONCEPT OF VISUAL ART) 

         दृश्य कला, कला का वह पक्ष या कलात्मक अभिव्यक्ति है जिन्हें हम देख पाते हैं या जिनकी मूर्त (Tangible) अभिव्यक्ति होती है। दृश्य कला द्विविमीय या त्रिविमीय हो सकती है। जैसे— चित्र, पेन्टिंग, कोलाज, आदि। द्विविमीय दृश्य कला के उदाहरण हैं। 

       मूर्तिकला, पुतलीकला, काष्ठकला, त्रिविमीय दृश्यकला के उदाहरण हैं। दृश्य कलाओं के माध्यम से प्राप्त अनुभव विद्यार्थी के मस्तिष्क में स्थायी छाप छोड़ते हैं। दृश्य कलाएँ लोक एवं क्षेत्रीय कलाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक निरन्तरता को भी प्रोत्साहित करती है। इसके आन्तरिक भाग सहजता और पूर्णता में अभिव्यक्त होते हैं। दृश्य कला के अन्तर्गत शोधकार्य भविष्य के कार्य के लिए दृष्टि प्रदान करते हैं।

दृश्य या रूपप्रद कला का इतिहास (HISTORY OF VISUAL ART) 

         रूपप्रद या दृश्य कला की जड़ अथवा बुनियाद स्वयं मानव के हृदय, मस्तिष्क और प्रकृति में निहित होती है। कला का जब उद्गम हुआ होगा तब मानव में ऐसी प्रवृत्तियाँ जाग्रत हुई होंगी, जो सौन्दर्य-वृद्धि और सौन्दर्य-सृष्टि के लिए आवश्यक थी। रूपप्रद या दृश्य कला की उत्पत्ति मानव की मानसिक आवश्यकताओं के सहारे हुई होगी। मानव को सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मानसिक शान्ति भी चाहिए, जिससे उसको सन्तोष प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में होम्स के निम्नलिखित शब्द उपर्युक्त कथन को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं- "मनुष्य हो एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसको केवल शरीर की मांग ही नहीं, अपितु मस्तिष्क की मांग को भी पूरा करना पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो शायद मानव के लिए पशु स्तर से ऊँचा उठना आज भी सम्भव न होता। अत: दृश्यात्मक कला के उद्गम का रहस्य इसी में छिपा है। "मानव ने अपने समय और परिस्थिति के अनुसार ही रूपप्रद या दृश्यात्मक कला का विकास किया है। लोक जीवन में बनावट, श्रृंगार एवं अलंकार का बहुत महत्त्व है। धार्मिक तथा सामाजिक संस्कारों की पूर्ति आकार की आधारशिला पर अवलम्बित होती है। लोक जीवन में व्याप्त ये आकार मानव-धर्म, कला एवं संस्कृति के विकास की कहानी कहते हैं। प्राचीनकाल से आज तक विश्व जिन प्रतिक्रियाओं से गुजरा है उन प्रतिक्रियाओं से हमारा ज्ञान-विज्ञान में कुछ समन्वय हुआ है। परिणामस्वरूप वह 'सत्यम् , शिवम् , सुन्दरम्' के रूप में हमारे सामने आया है। इनके साक्षी रूप अजन्ता और एलोरा की गुफाएँ, कन्दरिया महादेव के खजुराहो मन्दिर, साँची का स्तूप तथा सारनाथ के अवशेष, आदि। हमारे समक्ष अपनी कहानी आज भी मूक रूप से व्यक्त कर रहे हैं। रूपप्रद कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है जिसका विकास पुरातन काल में हुआ था, जबकि मानव कन्दराओं या गुफाओं में रहा करता था। आज रूपप्रद कला का विकास चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, आदि। कलाओं के अनेकानेक रूपों में हमारे सम्मुख चरम पर है। 

        रूपप्रद कला का क्षेत्र बहुत व्यापक और असीमित है। यह कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक इस कला के विकास का क्रम रुका नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों को निभाते हुए वह आगे बढ़ा है। उसे जब भी जो कुछ मिला उसके माध्यम से सृजन कार्य निरन्तरता चलता रहा। पहाड़ो को काटकर अजन्ता जैसी विश्व प्रसिद्ध गुफा में सृजनात्मक कार्य हुआ। पहाड़ों को काट-काटकर देवालयों का निर्माण किया गया जिनमें आध्यात्मिकता और धार्मिकता को बड़ा सहारा मिला। मानव को लकड़ी, छाल, कपड़ा, पता, कागज, गिट्टी, दीवार, आदि। जो कुछ प्राप्त हुआ उसे ही सूजन का माध्यम बनाया और नयी-नयी संभावनाएं व्यक्त की। दृश्य कला के क्षेत्र में अनेकानेक प्रयोग किये गये। दक्षिण भारत में पहाड़ को काटकर एक ही शिला से गोमतेश्वर जिसे Bahubali (बाहुबली) भी कहा जाता हैं। की अखंड मूर्ति का निर्माण किया गया जिसकी लम्बाई 54 फुट और चौड़ाई 08 फुट है। जहाँ तक रूपप्रद या दृश्य कला के क्षेत्र में चित्रकला का प्रश्न है उसमें बादशाहों और राजाओं के दरबारों और महलों में चित्रकला का रूप देखते ही बनता है। बहुत बड़े बड़े आकारों में भित्तियों और पत्थरों पर चित्रों की रचनाएँ की गयी हैं।  जिनके विषय धार्मिक, प्राकृतिक, काल्पनिक और आधुनिक शैली में है। भारत की स्थापत्य कला उच्च कोटि की है। विश्व के सात आश्चर्यों में एक आश्चर्य आगरा का ताजमहल है। कहां जाता है कि इस कलाकृति की रचना करने वालों के हाथ काट लिये गये थे जिससे इस प्रकार वो अद्वितीय स्थापत्य कला की रचना दूसरी जगह न की जा सके। रूपप्रद कला मानव की सहज अभिव्यक्ति हैं। जिसका विकास पुरातन काल में हुआ था, जब मानव कन्दराओं या गुफाओं में रहा करता था। आज इस कला का विकास चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, आदि कलाओं के अनेकानेक रूपों में हमारे सम्मुख विधमान है। इसी क्रम में जीवन यापन करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना भी एक कला हैं।


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