शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

प्रारम्भिक स्तर की पाठ्यचर्या से कला समेकित शिक्षा का जुड़ाव।

 प्रारम्भिक स्तर की पाठ्यचर्या से कला समेकित शिक्षा का जुड़ाव।




       विद्यालय परिसर व बाहरी वातावरण में बालक 'करके सीखता' है तथा विद्यालय प्रांगण के बाहर बालक को भिन्न-भिन्न अनुभव प्रदान किये जाते हैं  जिन्हें हम 'सीखने का अनुभव' कहते हैं। 
       किसी विशेष विषय के माध्यम से इन सीखने के अनुभवों को नियोजित, क्रमबद्ध तथा श्रेणीबद्ध रखने के ढंग को ही 'पाठ्यचर्या' कहते हैं। किसी विशेष स्तर के छात्रों के अध्ययन हेतु सभी पढ़ाए जाने वाले विषयों का जो आयोजन हम करते हैं उसे पाठ्यचर्या कहा जाता है। शाब्दिक दृष्टि से देखें तो पाठ्यचर्या शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है— पाठ्य तथा चर्या। पाठ्य का अर्थ है, पढ़ाने/पढ़ाने योग्य तथा चर्या का अर्थ है, व्यवस्था/ नियमपूर्वक। इस प्रकार पाठ्यचर्या  का अर्थ हुआ पढ़ने योग्य विषय वस्तु की व्यवस्था। पाठ्यचर्या  के लिए अंग्रेजी में 'कैरीकूलम' (Curriculum) शब्द है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'क्यूररे' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है, दौड़ना। इस प्रकार Curriculum शब्द का अर्थ हुआ ' दौड़ का मैदान'।

       पाठ्यचर्या शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन है। शैक्षिक उद्देश्य ही पाठ्यचर्या के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। वर्तमान समय में पाठ्यचर्या पाठ्य वितरण मात्र नहीं है बल्कि इसके अन्तर्गत बालक के जीवन के समस्त पहलू आते हैं। पाठ्यचर्या के अन्तर्गत विद्यालय का वातावरण, विषय, कार्य और अध्ययन आते हैं। 
      
         पाठ्यचर्या छात्र को निश्चित कक्षा स्तर को उत्तीर्ण करने हेतु तथा शिक्षक को शिक्षण में पथ प्रदर्शित करता है। इसी प्रकार विभिन विषयों के पाठ्यक्रम निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को मार्ग एवं गति प्रदान करते हैं। 

पाठ्यचर्या की परिभाषाएँ 

1. फ्रॉबेल- "पाठ्यचर्या को मानव जाति के सम्पूर्ण ज्ञान और अनुभव का सार समझा जाना चाहिए। " 
2. कनिंघम- "पाठ्यचर्या शिक्षक के हाथ में एक ऐसा साधन है जिससे कि वह अपने पदार्थ (छात्र) को अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार अपनी चित्रशाला (विद्यालय) में चित्रित कर सके।" 

कला को शिक्षा पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने के लिए विभिन्न समितियों की अनुशंसाएँ 

         स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही विभिन्न शिक्षा समितियों द्वारा कला को महत्वपूर्ण स्थान दिये जाने सम्बन्धी विभिन अनुसंशाएँ होती रही हैं जिनमें से प्रमुख अनुशंसाओं का हम यहाँ उल्लेख कर रहे हैं :-

1.माध्यमिक शिक्षा समिति (1952-53)- 1952-53 की रिपोर्ट के अन्तर्गत विद्यार्थियों में सूजनात्मक ऊर्जा के विकास एवं सांस्कृतिक विरासत के सम्मान एवं ज्ञान पर अधिक जोर दिया गपा था। इस ज्ञान द्वारा वे आगामी जीवन में उसका प्रयोग कर जीवन यापन करने में सक्षम हो सकते हैं।  
          माध्यमिक शालाओं में कला, क्राफ्ट, संगीत, नत्य, आदि विधाओं को विषय के रूप में इन्हें पाठ्यचर्या में शामिल किया गया था। इसके पीछे विचारकों का उद्देश्य था कि विद्यार्थी हाथ से कार्य करके कोई एक क्राफ्ट में दक्षता हासिल करे, श्रम की महत्ता को समझे और आगामी जीवन में आवश्यक हो तो उसे अपनी जीविका का साधन बना सकें। अपने रचनात्मक कार्य के दरम्यान विद्यार्थी प्रसन्नता प्राप्त करते हुए व्यक्तित्व का विकास कर सकें। 

2. भारतीय शिक्षा नीति (1964-66)- इस नीति के अन्तर्गत कोठारी कमीशन की रिपोर्ट के द्वारा दृश्य कला एवं प्रदर्शनकारी कलाओं के शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की सिफारिश दी गई थी। कला शिक्षण को श्रेय न दिये जाने से होने वाली क्षति के कारण नैतिक मूल्यों के हनन और सौन्दर्य बोध में होने वाले ह्रास को भी इस कमीशन ने इंगित किया। भारत शासन से भी इस क्षेत्र में कमेटी गठन करने का अनुरोध किया गया जो तत्कालीन कला शिक्षण के विस्तार एवं प्रगति के लिए सुझाव व सम्भावनाओं को तलाश कर व्यवस्थित रूप कार्यान्वित करें । देश के अलग-अलग स्थानों पर स्थानीय सहभागिता द्वारा बाल भवन खोले जाने की भी अनुशंसा इस समिति द्वारा की गई। इसके अतिरिक्त विद्यालय स्तर पर भी कला विभाग एवं क्षेत्र में शोध कार्य को बढ़ावा देना प्रस्तावित किया गया।
        N.C.E.R.T. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (National Council of Educational Research and Training) पाठ्यचर्या परिचर्या 1975 में कोठारी कमीशन की अनुशंसा के अनुरूप कला शिक्षा को सूजनात्मक गतिविधियों 1980 में सृजनात्मक अभिव्यक्ति, 1988 में कला एवं सृजनात्मकता के नाम से प्रस्तावित किया गया था। इन सभी में विद्यार्थियों में कल्पनाशीलता उत्सुकता, खोज, सृजन एवं सौन्दर्यबोध को विकसित करना ही मुख्य उद्देश्य था। 

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति , 1986- इस शिक्षा नीति के अन्तर्गत स्कूली शिक्षा बालकों द्वारा देश के अलग-अलग स्थानों को संस्कृतियों और रहन-सहन की विस्तृत जानकारी के महत्त्व के बारे में जानने की अनुशंसा की गई थी। यशपाल समिति द्वारा 1986 को राष्ट्रीय नीति की अनुशंसाओं को ही आधार मानकर विद्यार्थियों को पूर्व प्राथमिक स्तर से ही संस्कृति और शिक्षा का सामंजस्य करते हुए व्यक्तित्व विकास एवं विद्यार्थियों में अंतर्निहित विशेषताओं को उजागर करने पर जोर दिया गया था इस समिति ने पूर्व प्राथमिक स्तर से  सभी उच्च स्तरीय शिक्षा में सभी प्रादेशिक संस्कृतियों की जानकारी एवं आपस में सांस्कृतिक आदान-प्रदान, समुदायों की पूर्ण मनोयोग से सहभागिता, शिक्षकों को प्रोत्साहन, युवाओं का सांस्कृतिक सरोकारों में योगदान, पाठ्यक्रम में परिष्कार जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की थी।

4. राष्ट्रीय पाठ्यक्रम निर्माण , 2005- राष्ट्रीय पाठ्यक्रम निर्माण परिचर्चा के अन्तर्गत कला शिक्षा विषय में कई महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर अनुशंसाएँ की गई 
(A) अध्यापकों द्वारा विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले अन्य विषयों को कला का सहारा लेकर रोचक दंग से पढ़ाया जाना चाहिए। 
(B) प्रत्येक विद्यालय में कक्षा दस तक कला को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। कला शिक्षक को यान्त्रिकी उपकरणों सहित अधिक-से-अधिक संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए और शोध एवं प्रशिक्षण की भी अधिक-से-अधिक व्यवस्था की जानी चाहिए। 
(C) कला की अलग-अलग विधाओं के लिए अलग-अलग शिक्षक होने चाहिए।

5. यूनेस्को की रिपोर्ट- सन् 2000 में यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल ने कला को स्कूली शिक्षा के लिए अनिवार्य विषय बनाने का प्रस्ताव दिया। उनके अनुसार कला शिक्षण द्वारा सृजनात्मकता एवं सांस्कृतिक शान्तिपूर्ण एवं सौहार्दमय वातावरण का विकास सम्भव है। अन्य विषयों को सीखने में कलात्मक गतिविधियाँ सहयोगी होती है। विद्यार्थी आक्रोश एवं उद्दण्ड से दूर होकर सृजनशील और ज्ञानवान व्यक्तित्व का धनी ही जाता है। 
            इनके अलावा पुर्तगाल के लिस्बन में 2006 को हुई यूनेस्को को वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस के अन्तर्गत Road Map for Art Education, 2006-2010 में हुई मीटिंग में विद्यार्थी की औपचारिक तथा अनौपचारिक क्वालिटी शिक्षा के लिए कला शिक्षा को विशेष आधार के रूप में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। 

प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर की कक्षाओं के लिए कला शिक्षा का पाठ्यक्रम 

 प्राथमिक स्तर पर कला शिक्षा का पाठ्यक्रम- प्राथमिक स्तर पर छात्रों को विविध रूप की आकृतियों, झरनों का गिरना, नदी में नावों का तैरना, इत्यादि प्राकृतिक दृश्यों को दिखाकर उनकी निरीक्षण की शक्ति, कल्पना एवं स्मरण शक्ति का विकास किया जा सकता है। प्राथमिक स्तर के पाठ्यक्रम को निम्न तीन भागों में कक्षानुसार विभाजित कर सकते हैं- 
(1) कक्षा 1 एवं 2 का पाठ्यक्रम, 
(2) कक्षा 3 एवं  4 का पाठ्यक्रम, 
(3) कक्षा 5 का पाठ्यक्रम। 

1. कक्षा 1 व 2 का पाठ्यक्रम

             कला का पाठ्यक्रम छात्रों की आयु, ज्ञान, वातावरण तथा कलात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार निर्धारित होना चाहिए। प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम तैयार करते समय सभी महत्त्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए। 
(1) चित्रकला (1) बालक को टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचने की स्वतंत्रता प्रदान करना। (2) बिना नाप के वर्ग, गोला एवं आयत बनाना। (3) समान्तर रेखाएँ एवं रेखाएँ खींचना। रूपों को कागज, स्लेट पर सृजित करना। रूपों को चॉक , चॉक व पेन्सिल से बनवाना। 
(ii) साहित्य कला- (1) अक्षरों और शब्दों को लिखना, जोड़ना, पहचान करना तथा बोलना। (2) मात्राओं का ज्ञान देना व अक्षरों का उच्चारण करवाना। 
(III) नृत्य , नाट्य और संगीत तथा गायन- (1) छात्रों द्वारा हाथों को निर्देश के अनुसार ऊपर-नीचे, दाएं-बाएँ करना, आदि। (2) विभिन्न प्रकार की बोली बोलना तथा हंसना-हंसाना। (3) बच्चों को मंद, मध्यम तथा तीव्र आवाज में बुलवाना। 
(iv) मूर्तिकला- (1) मिट्टी का गोला, वर्ग आयत बनवाना। (2) किसी भी साधारण ठोस का सरल रूप सृजित करना। (3) समान आकृति वाली वस्तुओं की रचना करना। (4) वस्तुओं को पहचानना।

2. कक्षा 3 व 4 का पाठ्यक्रम 

चित्रकला- (1) प्रतीकात्मक चित्र बनवाना, फलों एवं बर्तनों के साधारण रेखांकन। (2) मुख्य रंगों व द्वितीय रंगों का बोध कराना। (3) काला एवं सफेद का ज्ञान कराना। (4) ज्यामितीय आलेखन में दो या तीन मुख्य रंग भरवाना। (5) स्वच्छता एवं सफाई का विशेष निर्देश देना। (6) प्रकृति की सामान्य जानकारी कराना।
साहित्य कला - (1) शब्दों का अर्थ तथा उच्चारण, कविता एवं लेख लिखना तथा पढ़वाना, (2) कहानी एवं गीत याद कराना, (3) पुस्तक से कविता पाठ करवाना। 
नृत्य, नाटक तथा संगीत और गायन- छात्रों के हाथों एवं पैरों का नृत्य के अनुसार संचालन करवाना , गीतों का सस्वर गायन करवाना , किसी भी वस्तु को बनवाना , विभिन्न वाद्य - यन्त्रों का सामान्य परिचय प्रदान करना । ( iv ) मूर्तिकला – विभिन मूर्तियों का परिचय , प्लेट , गिलास , बाल्टी व अन्य बर्तनों के ठोस रूप सृजित करना, वस्तुओं तथा मूर्तियों की प्रतिकृति बनाना।

3. कक्षा 5 का पाठ्यक्रम 

(i) चित्रकला- प्रतीकात्मक चित्र रचना व उनमें द्वि-आयामी से रंग भरवाना। फलों एवं बर्तनों का रेखांकन तथा प्राकृतिक दृश्य की रचना करवाना, पशु-पक्षी का छाया प्रकाश में रेखांकन कराना एवं मुख्य रंग से द्वितीय रंग और काले-सफेद से अन्य रंगों को मिलाना। 
(ii) साहित्य कला- साहित्यिक कलाओं का सामान्य परिचय, चार कहानी याद कराना, कविता याद कराना, लेख लिखना तथा शब्दों को मिलाकर आधुनिक कविता लिखने का अभ्यास कराना। 
(iii) नृत्य, नाट्य संगीत और गायन- तबला, तानपूरा, सितार, बाँसुरी, वीणा, सारंगी दिखाकर पहचान कराना तथा उनका सामान्य परिचय, गीतों का परिचय, ढोलक, नगाड़ा, चंग, मजीरा, आदि वाद्यों का सामान्य परिचय। वाद्य-यन्त्र बजाकर सामान्य स्वर निकलवाना। शास्त्रीय नृत्य, कत्थक, भरतनाट्यम का सामान्य परिचय। 
(iv) मूर्तिकला- वस्तुओं को देखकर रचना करना, एक रंग भरना, वस्तुओं के ठोस आकार निर्मित कराना, सरल मूर्तियों के साँचे बनाना, ठोस आकार में फल बनाना व उसके अनुसार रंग भराना। 

उच्च प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम 

कक्षा 6 का पाठ्यक्रम 

(i) चित्रात्मक अनुभव- (1) रेखा, (2) आकार, (3) चित्र संयोजन, (4) रंग एवं रंगांकन, (5) चित्र में रंग भरना, (6) कोलाज, (7) छायांकन, (8) ठप्पे, (9) स्टेन्सिल, (10) माण्डना रंगोली। 
(ii ) तक्षणात्मक अनुभव/आकर्षक अनुभव (Fascinating experience)- मृण शिल्प, पेपर मेशी, कागज के मुखौटे, अनुपयोगी सामग्री से शिल्प निर्माण। 
(iii) लयात्मक अनुभव- (1) आओ गाएँ, (2) ईश वंदना, (3) राष्ट्रभक्ति गीत, (4) ताल, (5) वाय वादन, (6) नाचें गाएँ (7) लोक नाट्य, (8) अभिनय व अभिनय की विविध विधाएँ, (9) दिशाबोध (नाटक) 

कक्षा 7 का पाठ्यक्रम

 (1) चित्रात्मक अनुभव– (1) रेखांकन, (2) अन्तराल व आकार संयोजन, (3) रंगांकन, (4) कोलाज, (5) छापांकन, ( 6 ) माण्डने व रंगोली । ( i ) तक्षणात्मक अनुभव - मृण शिल्प , पेपर मेशी से शिल्प , मुखौटे , अनुपयोगी सामग्री से शिल्प ( ii ) लयात्मक अनुभव– ( 1 ) स्वरों को उत्पत्ति , ( 2 ) स्वर एवं गायन , ( 3 ) स्वामी हरिदास , ( 4 ) वाद्य वादन . ) ताल , ( 6 ) लोक नृत्य गीत व अभिनय, ( 7 ) रंगमंच एक परिचय, ( 8 ) नाटक तमाशा, ( 9 ) अवलोकन व सराहना, ( 10) संकलन व प्रदर्शन निर्माण।
कक्षा 8 का पाठ्यक्रम 

(i) चित्रात्मक अनुभव- (1) आकृतियों का सरलीकरण, (2) वस्तुचित्रण, (3) रंगों का प्रभाव , (4) कलात्मक लेखन, (5) बहुरंगीय छापांकन , (6) कोलाज, (7) पोस्टर रचना, (8) राजस्थानी लोक चित्रण परम्परा, (9) बिन्दु पद्धति से रंगोली, (10) चित्र रचना की सहायक सामग्री, (11) राजस्थानी चित्र शैली। 
(ii) तक्षणात्मक अनुभव– (1) मृण शिल्प रचना, (2) पेपर मेशी से शिल्प रचना, (3) अनुपयोगी सामग्री से सृजन। 
(iii) लयात्मक अनुभव- (1) मंगलगान, (2) सप्तक एवं अलंकार, (3) लय एवं ताल, (4) वाद्य-यन्त्र परिचय, (5) भारतीय नृत्य, (6) भारतीय संगीत के गौरव, (7) नाटकों के विविध माध्यम, (8) रंगमंचीय शिल्प, (9) प्रकृति की पुकार (नाटक), (10) ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण।





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