मेरी माँ
चारों ओर मेरे सुरक्षित आवरण था,
ये बातें तब की है।
जब मैं अपनी माँ की,
कोख में था।
न खाने की फिक्र थी मुझे,
न चिंता थी जागने की।
ये बातें तब की हैं,
जब में एक कैदी था।
मुझको सम्हालें थे उसके दोनों हाथ,
मेरे इक-इक करवट का रखती वो पूरा ध्यान।
ये बातें तब की है,
जब में एक कैदी था।
फिर एक दिन अचानक,
हलचल सी होने लगीं।
मैं विस्मित था,
और माँ रोने लगी।
धीरे-धीरे बातें भी बिगड़ने लगी,
और मेरी छोटी सी दुनिया उजड़ने लगीं।
ये बातें उस दिन की है,
जब मैं कैद से रिहा हो रहा था।
माँ की हर आवाज,
मुझ पर बितती थी।
मैं अचंभित था,
और माँ चीखती थी।
मेरी आँखे बंद थीं,
मुझे कुछ नहीं दिखाई दिया।
मगर मेरा रोना,
मुझे पहली बार सुनाई दिया।
मेरे रोते ही सभी हँसने लगे,
खुशियों के फरमानें भी बंटने लगे।
ये बातें उस पल की है,
जब मैं अपनों के बीच आ रहा था।
रोती माँ का चेहरा देखने को,
मेरी हसरत भरी नजरें दौड़ रहीं थी।
मगर माँ तो लेटी-लेटी,
मुस्कुरा रहीं थीं।
मेरी नजरें खुशी से झूम गयीं,
माँ इतनी जल्दी अपने दर्द को भूल गयीं।
ये बातें उस क्षण की है,
जब में पालकी में पड़ा मुस्कुरा रहा था।
और मेरे मुस्कुराने से,
माँ का चेहरा जगमगा रहा था।
!!!माँ तुझे प्रणाम!!!
-विश्वजीत कुमार
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