अध्यापक का उत्तरदायित्व एवं कार्य (RESPONSIBILITY AND WORK OF TEACHER)
अध्यापक राष्ट्र निर्माता होता है, बालकों के भविष्य का निर्माता होता है और संस्कृति का आधार स्तम्भ भी इसे माना गया है। अध्यापक ही वह आधार है जिस पर समाज का विकास और विद्यालय का विकास निर्भर करता है। इसलिए कहा जाता है कि कोई समाज या विद्यालय का स्तर अध्यापकों से ऊपर नहीं हो सकता है। अतः वह जहाँ एक ओर शिक्षक है वहीं दूसरी ओर नेतृत्व प्रदान करने वाला नेता भी है।
एक अध्यापक के अनेक उत्तरदायित्व एवं कार्य निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किए जा सकते हैं।
(01.) ज्ञान प्राप्ति में छात्रों की सहायता करना और व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्याओं का समाधान कर सुझाव देना।
(02.) कक्षा को उचित प्रकार व्यवस्थित करना, उपयुक्त कक्षा कार्य एवं गृह कार्य देना एवं निरीक्षण कर सुझाव देना।
(03.) समय-सारणी के अनुरूप कक्षाएँ निरन्तर लेना, किसी भी प्रकार अवहेलना नहीं करना, उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करना, दृश्य-श्रव्य साधनों का प्रयोग कर शिक्षण को प्रभावशाली बनाना।
(04.) छात्रों के चरित्र और नैतिक विकास में सहायता करना और समाज के लिए उपयोगी मूल्यों का विकास करना।
(05.) पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन करना, योग्यता व क्षमता के अनुसार खेलकूद, आदि कार्यक्रमों का संचालन करना और छात्रों की समस्याओं का समाधान करना।
(06.) निष्पक्ष मूल्यांकन करना, पाठ्यक्रमीय व पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का पक्षपात रहित मूल्यांकन करना और नवीन प्रयोग निरन्तर करते रहना।
(07.) छात्रों में सामाजिक दक्षता का विकास करना अर्थात् समाज के लिए उपयोगी नागरिक तैयार करना और उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास करना।
(08.) छात्रों में व्यवसाय के प्रति रुचि पैदा करना और कर्तव्यनिष्ठता का विकास करना।
(09.) छात्रों को राष्ट्र के अच्छे नागरिक बनाना, उनमें प्रजातान्त्रिक गुणों का विकास करना और उनमें अनुशासित रहने की प्रवृत्ति का विकास करना।
अत: कहा जा सकता है कि अध्यापक के विविध उत्तरदायित्व और कार्य हैं। विद्यालय का विकास अध्यापक के इन विविध कार्यों की व्यावहारिक कुशलता पर निर्भर करता है। वह छात्रों को भली प्रकार से प्रशिक्षित करके विद्यालय के अच्छे शैक्षिक परिणाम प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए।
सीखने-सिखाने में कला अनुभव के प्रभावी समावेश हेतु विद्यालय की भूमिका
विद्यालय ही वह जगह है जहाँ घर के पश्चात् बालक कला को सीखता है । जॉन ड्यूवी ने लिखा है- "विद्यालय एक ऐसा वातावरण है, जहाँ जीवन के कुछ गुणों और विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस हेतु से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।"
विद्यालय बालक में कला अनुभव के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि एक विशेष आयु के बाद उसका अधिकांश समय विद्यालय में ही व्यतीत होता है। विद्यालय के वातावरण, आदर्शों और क्रिया कलापों का प्रभाव बालक के व्यवहार, व्यक्तित्व, संस्कारों व सीखने की गति पर पड़ता है।
विद्यालय की भूमिका सिलाई-बुनाई, कला, संगीत, बगवानी, गणना, लकड़ी का कार्य, चित्रकारी, भोजन बनाना, आदि। कार्यों को शामिल किया जाता है जिसके द्वारा बालक पढ़ना, गिनना, लिखना, नृत्य, संगीत, आदि। कलाओं को सीख जाता है।
विद्यालयों में स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस व वार्षिक उत्सवों में होने वाले नृत्य, संगीत, नाटकों में भाग लेने पर भी बालकों को विभिन्न प्रकार की कलाओं को सीखने का अवसर मिलता है।
विद्यालय द्वारा जब शैक्षणिक भ्रमण, प्रदर्शनियों, मेलों व विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है तब विद्यार्थी विभिन्न प्रकार की कलाओं को सीखते हैं और उनमें कौशलों का विकास होता हैं।
कला शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। इसमें स्थिरता नहीं है अतः यह स्वाभाविक रूप से प्रवाहयुक्त दिशा में बालक के विकास को सुनिश्चित करती है।
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