शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

"मेरी किचन की यात्रा"

        मेरी पाक कला (Cooking) के गुण (Skill) से सभी वाफिफ़ हैं। कोरोना की बंदी में बमुश्किल से घर पहुंचा घर पहुंचते ही मेरा भतीजा चैतन्य जो अब ढाई साल  का हो चुका है। एकदम से सज-धज कर आया। मैंने भाभी से पूछा कि इस कोरोना बंदी में कहां जाना है? तब वह बोली की- जाना कहीं नहीं है। बस ये जिद्द कर रहा था कि यही कपड़ा पहनना हैं तो पहना दिए। मुझे भी लगा कि जब तैयार हो ही गया है तो एक Portrait (व्यक्ति-चित्र) भी बना देते हैं। सामने खड़ा करके जैसे ही पोर्ट्रेट बनाना शुरू किए वैसे ही जैसे छोटे बच्चे की जो अभिक्रिया होती है तुरंत वह वहां से भागने की जुगत लगाने लगा। बड़ी मुश्किल से 10 मिनट रोक कर रखे और एक तस्वीर बनाई जो कि आप सभी के साथ साझा कर रहे हैं।


          रात में भाभी ने कहा कि आज तो कुकिंग आपको ही करनी है। बहुत दिनों से आपके हाथ से बनी  सब्जी नहीं खाई। मैंने कहा आज नहीं। फिर देखा कि सभी की यही इच्छा थी तो लगा कि एक कलाकार को अपनी कला का प्रदर्शन करने में पीछे नहीं रहना चाहिए चाहे वह दृश्य कला हो, छायांकन कला हो या फिर पाक-कला हो। किचन में प्रवेश करते ही मैंने देखा की सभी सब्जियां आपस में बातें कर रही हैं। यह वार्तालाप सिर्फ एक कलाकार ही सुन सकता है आम लोग नहीं। लेकिन मैं एक माध्यम बनकर जैसे महाभारत में संजय ने धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र का वर्णन सुनाया था वैसे ही मैं आपको अपने किचन का वर्णन सुना रहा हूँ।

         मैंने देखा कि हरी मिर्ची कोने में पड़ी सुबक-सुबक कर रो रही थी जब मैंने उसे रोने की वजह पूछी तो उसने बताया कि मुझे यहां आए हुए आज 03 दिन हो गए हैं। लाते ही मुझे ऐसी जगह रख दिये कि मेरा ठंड से बदन जमने लगा। मेरे कई साथी तो ऐसे पिघल गए जैसे आइसक्रीम धूप में पिघलती हो। इतना ही नहीं मेरी इस दुर्दशा पर जैसे ही किसी की नजर पड़ी वहां से हटा कर बाहर खुला छोड़ दिया गया। एक तो ठंड ऊपर से गर्मी। अभी मेरी हालात ऐसे हो गई है कि जैसे कि पेड़ से गिरने के बाद आम के टिकोलो की होती है।


           मैं उसकी दु:ख पर प्रतिक्रिया देने ही वाला था कि उसके बगल में बैठी धनिया की पत्तियों ने बोलना शुरू कर दिया। हमें बाजार से लाया तो जाता है लेकिन वह प्रतिष्ठा नहीं मिलती जो कि हरी मिर्च को मिलती है। कई बार तो मुझे बहुत प्यार से काट कर प्लेट में रखा जाता है और मैं दिन भर प्लेट में ही रह जाती हूं। शाम में जैसे ही मेरा रंगत कम होता है सीधा किचन से बाहर कर दी जाती हूँ। चूंकि किचन में सामग्रीया ज्यादा थी और सभी की अपने शिकायतें और परेशानीया। मैं आराम से बैठ कर उनकी परेशानियां को सुनने लगा। जैसे संजय धृतराष्ट्र को सांत्वना एवं तसल्ली दे रहे थे मैं भी वही कार्य संपन्न करने लगा। मुझे लगा की पूरे किचन में यदि कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वह था आलू। मैं उसे उठाकर देखने लगा कि इसकी खुशी की वजह क्या है? लगातार दश (10) मिनट देखने के बाद भी जब वजह समझ में नहीं आया  तब उसे छोड़कर बाकी सब्जियों की ओर मुखातिब हुआ। फिर अचानक से ध्यान आया की मैं तो किचन में अपनी कला का प्रदर्शन करने आया था लेकिन यहां तो मैं बैठ कर सब्जियों से वार्तालाप कर रहा हूं। फिर फटाफट आलू को उठाकर उसके छिलके को उतारने लगा। उसी दरम्यान एक आलु हाथ से छूटकर नीचे जमीन पर गिर पड़ा। जब मैंने उसे पुनः उठाया तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसे लगी कि बस क्या कहें। मोबाइल तो पास में था ही तुरंत तस्वीर लेनी चाही लेकिन वह नाराज हो गया। लेकिन तब तक तस्वीर तो कैद हो चुकी थी। मैंने उसे दिलासा दिलाया कि तुम्हारी कहानी मैं पूरी दुनिया को बताऊंगा और त्याग की इस तस्वीर के माध्यम से भी दिखाऊंगा।

तब उसके चेहरे पर हंसी आई और उसने हंसते हुए अपनी कुर्बानी दे दी। ताकि आज की सब्जी अच्छे से बन सके।





गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

O.E.R. (Open Educational Resources) मुक्त शैक्षिक संसाधन/स्रोत, मुक्त शिक्षा संसाधन। D.El.Ed.1st Year F-12 B.S.E.B. Patna.



      O.E.R. (Open Educational Resources) मुक्त शैक्षिक संसाधन/स्रोत शिक्षण, अधिगम और शोध के वे संसाधन हैं जो या तो पब्लिक डोमेन (Public Domain) पर उपलब्ध है या फिर intellectual property (बौद्धिक संपदा) license के तहत दूसरों को अनुमति देते हैं कि उनका नि:शुल्क उपयोग या पुन: अनुकूलन (Customization) किया जा सके। O.E.R. में पूरे कोर्स, कोर्स सामग्रियां, मॉड्यूल, पाठ्यपुस्तक, वीडियो लेक्चर, शैक्षिक सॉफ्टवेयर और अन्य साधन सामग्रीया या तकनीक शामिल है जिनका उपयोग ज्ञान प्राप्ति में होता है।
O.E.R. माध्यम में शिक्षक के द्वारा Media (साधन) और  Digital Technology का प्रयोग किया जाता है।
       शिक्षक आज वर्तमान समय में बाल केंद्रित शिक्षा (Child  Based Learning) में कक्षा-कक्ष में ऐसा माहौल तैयार करते हैं जिससे बालक सक्रिय रूप से भाग ले सकें। जिससे नीरस अध्यापन एवं पुस्तक केंद्रित पढ़ाई से छुटकारा मिल सके।


वैश्विक स्तर पर प्रथम ओ० ई० आर० सम्मेलन पेरिस (फ्रांस) में 20-22 जून 2012 को हुआ था।
इसका आयोजन यूनेस्को (UNESCO) यूनेस्को: संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन। के द्वारा किया गया था।
UNESCO: United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization.

Hewlett Foundation के द्वारा इसे Developing Countries (विकासशील देश) के लिए स्थापित (Founded) किया गया था।
Hewlett Foundation {The William and Flora Hewlett Foundation, commonly known as the Hewlett Foundation, is a private foundation, established by Hewlett-Packard cofounder William Redington Hewlett and his wife Flora Lamson Hewlett in 1966. Wikipedia
Founded: 1966
Endowment: 970 crores USD
Location: Menlo Park, California
Headquarters: Menlo Park, California, United States
Revenue: 52.67 crores USD
Founders: Flora Hewlett, Bill Hewlett}

वैसी अध्ययन सामग्री जो बिल्कुल मुफ्त उपलब्ध हो जाए, उसे हम ओ० ई० आर० कह कहते हैं।

 

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

कोरोना कलाम

 




आप एक अनुबंध कीजिये, 
खुद को कुछ दिन नजर बंद कीजिए। 
खतरा न आपको हो, 
ना आप से हो। 

वक्त की नजाकत है, 
इतना तो प्रबंध कीजिए। 
उसके बाद मिलेंगे दिल खोलकर, 
आज के लिए सनम रहम कीजिए।
विश्वजीत वर्मा 




मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

अन्त:करण और विपणन (Conscience and Marketing)

 


अन्त:करण और विपणन (Conscience and Marketing)

        एक कलाकार होने के नाते मैं यह अच्छी तरह समझता हूं कि, एक कलाकार के लिए अक्सर यह दुविधा रहती है कि उसे अपने अंतःकरण और विपणन में किसे सर्वोच्च रखें? किसे वह ज्यादा महत्व दे ? अंतःकरण उसे विपणन पर हावी नहीं होने देता और विपणन उसे अंतःकरण पर। इसी उहापोह में कलाकार की कला यात्रा चलती रहती है। वह अपने अंतःकरण के अनुसार कलाकृतियों का निर्माण करता रहता है और दुनिया उसे विपणन की दृष्टि से देखती रहती है।
          कुछ दिनों पूर्व की यह घटना है जिसे आज मैं आप सभी के बीच साझा कर रहा हूं। CBSE के 12th Class के बच्चे का Portfolio Assessment Fine Art का तैयार करना था उसे कहीं से मेरा नंबर मिल गया। और वह मेरे एक प्रशिक्षु के साथ मुझसे मिलने आ गया। मिलने का मतलब मुझे पहले यह लगा कि उसे थोड़ी बहुत मदद चाहिए क्योंकि वह अपने साथ रंग और कागज भी लाया था। साथ ही साथ वह प्रश्न-पत्र भी जिसे किसी कला शिक्षक ने तैयार किया था। लेकिन मुझे बात में ज्ञात हुआ कि वह अपना कार्य मुझसे संपन्न कराना चाहता है। मैंने तत्काल उसे मना कर दिया क्योंकि यह मेरे अंतःकरण के खिलाफ था शायद उसे इसकी जानकारी थी इसीलिए तो वह विकल्प भी अपने साथ लाया था, मेरे एक प्रशिक्षु के रूप में। उसने मुझसे अनुरोध किया कि इसे चित्रकला में रुचि नहीं है। करोना लॉकडाउन की वजह से पढ़ाई नहीं हुई है। अभी परीक्षा आने वाला है। यदि आप मदद नहीं करेंगे तो इसकी परीक्षा बेहतर नहीं होगी। 
मैंने उससे कहा- मैं मदद तो कर ही रहा हूं लेकिन इसकी इच्छा है कि..... 
उसने मेरी बात को बीच में काटते हुए बोला- हम समझ सकते हैं, सर। लेकिन क्या करें? आप ही कुछ कीजिए और उसने कागज और रंग को मेरे पास ही छोड़ कर चला गया। रात में उसका मैसेज आता है कि सर जो चार्ज होगा बता दीजिए लेकिन यह कार्य संपन्न कर दीजिए। मुझे तुरंत समझ में आ गया कि यह कलाकार के अंतःकरण को नहीं समझ रहे हैं तुरंत विपणन पर आ गए हैं। खैर, मैंने उसे कुछ रिप्लाई नहीं दिया और उसके कार्य को संपन्न करने लगा। जैसे ही स्केच पूर्ण किये, ध्यान आया की। 
इसे इस तरह से बनाना है कि जब कला शिक्षक बच्चे से पूछे कि इसे तुमने बनाया है??? 
तो बच्चा पूरी ईमानदारी से कह सके- जी सर!!! मैंने बनाया है। 
लेकिन दुविधा यह हो गई कि फिर विपणन का क्या??? उसे तो हर चीज बेहतर चाहिए। क्योंकि कोई वस्तु का जब आप मूल्य लगाते हो तो आप उसे बेहतर से बेहतर रूप में प्राप्त करना चाहते हो। 
ऐसी कई सारी घटनाएं मेरे साथ पटना में हो चुकी है। जब हम कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना में पढ़ाई कर रहे थे। उस समय पैसे की जरूरत भी रहती थी। इसलिए ऐसे कार्य करते रहते थे। कभी किसी की तस्वीर बनानी हो या छायांकन करना हो सभी कलाकार अपने अपने कार्यों के अनुसार मूल्य तय किए थे। 
खैर वह तो पटना की बातें थी। आज मैंने विपणन को छोड़कर अपने अंतःकरण को चुना और ऐसी कलाकृति बनाई जिससे लगे कि एक बच्चे ने ही बनाया है। मैं इसमें कितना सफल हुआ हूं आप नीचे दिए गए वीडियो में देख सकते हैं।



        चित्र पूर्ण करने के उपरांत उसे मैसेज भेज दिया कि कल आ करके वह अपना चित्र ले जाए। और हां विपणन की कोई आवश्यकता नहीं है और ना ही किसी चार्ज की। 
अगले दिन जब वह चित्र लेने आया तो उसके चेहरे पर खुशी थी। उसने कहा कि सर एक सप्ताह से परेशान थे। बहुत प्रयत्न किए लेकिन नहीं बन पा रहा था, तब आपका नंबर मिला। हम आगे आप से ड्रॉइंग बनाना सीखेंगे। फिलहाल मेरी बोर्ड की परीक्षा है इसलिए आपसे बनवाना पड़ा। 
मैंने उसे चित्रों को प्रदान कर दिया। उसके जाने के उपरांत देखा कि उसने जाते-जाते एक डब्बा छोड़ गया था। जब मैंने उसे फोन किया तो उसने बोला की- सर वह आपके लिए है। जब मैंने उसे खोलकर देखा तो उसमें कुछ मिठाईयां थी।
इसे उसका स्नेह कहे या विपणन मैं समझ नहीं पाया।



दृश्य कला संबंधी कला अनुभव D.El.Ed.1st Year. F-11 इकाई-2. B.S.E.B. Patna, Bihar.


दृश्य कला संबंधी कला अनुभव

      विभिन्न रूपप्रद या दृश्य कलाओं का प्रयोग शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सरल एवं बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करने में किया जाता है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का सम्बन्ध किसी भी विषय से हो, यदि उसमें कला प्रयोग नहीं किया जाता तो उस विषय को शिक्षण अधिगम प्रक्रिया कभी भी प्रभावी नहीं हो सकती, प्रत्येक विषय में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी कला का प्रयोग आवश्यक होता है। अत: शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाने में दृश्य कला की भूमिका को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता हैं-
(1) उच्च अधिगम स्तर (High Learning Level)- शिक्षण में विभिन कलाओं के प्रयोग से छात्रों का अधिगम स्तर भी उच्च होता है। जैसे किसी प्रकरण (Topic) को सामान्य रूप से समझाया जाता है तो छात्रों का अधिगम स्तर सामान्य होता है, अब उसी प्रकरण को नाट्य कला या कठपुतली नृत्य के माध्यम से समझाया जाता है तो छात्र उस प्रकरण को सरलता से आत्मसात कर लेते हैं तथा उनका अधिगम स्तर उच्च हो जाता है क्योंकि विभिन्न प्रकार की कलाओं में छात्रों की स्वाभाविक रूप से रुचि होती है।  
(2) रुचिपूर्ण शिक्षण अधिगम प्रक्रिया (Interested Teaching Learning Process)- रुचिपूर्ण शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के लिए आवश्यक है कि उसमे विभिन्न कलाओं का प्रयोग किया जाए। जब छात्रों को विभिन प्रकार के चित्रों एवं मॉडलों के माध्यम से किसी भी प्रकरण का ज्ञान प्रदान किया जाता है तो इसमें एक ओर उनका स्वस्थ मनोरंजन होता है तथा दूसरी ओर उनको विषय का पूर्ण ज्ञान भी सम्भव होता है। नाट्यकला एवं शिल्पकला का प्रयोग शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के प्रति छात्रों में विशेष रुचि उत्पन्न करता है। 
(3) छात्रों की क्रियाशीलता (Activeness of Students)- शिक्षण में विभिन्न कलाओं में प्रयोग से छात्रों में क्रियाशीलता का प्रादुर्भाव, उत्थान (The emergence) होता है। इस प्रादुर्भाव के कारण छात्र शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील होते हैं जैसे यदि शिक्षक किसी चित्र या प्रतिरूप का प्रयोग कक्षा शिक्षण में करता है तो छात्र द्वारा उस चित्र एवं प्रतिरूप को बनाने का प्रयास किया जाता है। अनेक अवसरों पर कलाओं के प्रयोग में छात्रों का सहारा लिया जाता है। जैसे- नाट्य कला, संगीत कला, चित्रकला, शिल्पकला, आदि। इस प्रकार प्रत्येक स्थिती में शिक्षण में कलाओं का प्रयोग छात्रों की क्रियाशीलता में वृद्धि करता है।
 (4) प्रयोग/प्रदर्शन में महत्त्व (Importance of Demonstration)- प्रयोग प्रदर्शन में भी सामान्य रूप से कलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विभिन्न प्रकार के विज्ञान सम्बन्धी प्रयोगों को चित्रों तथा मॉडलों द्वारा प्रदर्शन सरल एवं व्यापक रूप में किया जाता है। इससे छात्र उस प्रयोग की अवधारणा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तथा आवश्यकता के अनुसार प्रयोग प्रदर्शन के समय उस ज्ञान का उपयोग करते हैं।
(5) हस्त कौशलों का विकास (Development of Hand Skills)- सामान्य रूप से यह देखा जाता हैं की छात्रो में हस्त कौशलों का विकास कला शिक्षा के माध्यम से ही होता है। जब विभिन्न कलाओं का प्रयोग प्रत्येक विषय के शिक्षण में किया जाएगा तो हस्त कौशलों का विकास स्वाभाविक रूप से छात्रों में सम्भव हो सकेगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षण में मूर्तिकला एवं हस्तशिल्प का प्रयोग किया जाए।
(6) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप (According to psychological principles)- मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार उस शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी एवं उत्तम माना जाता है जिसमें छात्रों से पूर्ण सहभागिता एवं रुचि हो। विभिन्न प्रकार की कलाओं के माध्यम से छात्रों को विषयवस्तु के प्रति आकर्षित करने का प्रयास किया जाता है तथा कुछ कलाएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें छाओं की स्वाभाविक रूप से रुचि होती है। यदि उनका प्रयोग किया जाता है तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावी बन जाता है, जैसे संगीत एवं नाटक दोनों में छात्रों को विशेष रूप होती है। इस प्रकार विभिन्न कलाओं का शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में प्रयोग मनोवैज्ञानिक सिद्वातो के अनुरूप है।
(7) प्रभावी प्रस्तुतीकरण (Effective Presentation)- प्रभावि प्रस्तुतीकरण के लिए भी विभिन्न कलाओं का शिक्षण में प्रयोग आवश्यक है क्योंकि कलाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के कठिन विषयों को सरल रूप में प्रस्तुत किया जाता है इसके अंतर्गत सौरमंडल में ग्रहों को एक मॉडल के द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है तथा बैटरी का प्रयोग करके ग्रहों को परिभ्रमण करते हुए दिखाया जा सकता है इससे छात्रों को सौरमंडल के ग्रहों एवं उनसे संबंधित सभी गतिविधियों का ज्ञान सरलता रूप में प्राप्त हो सकता है।
(8) शिक्षण अधिगम सामग्री का प्रयोग एवं निर्माण (Use and Construction of Teaching Learning Materials)- सामान्यतः जो शिक्षक विभिन्न कलाओं का ज्ञान रखता है उसके द्वारा ही विभिन्न प्रकार की कलात्मक सामग्रियों का निर्माण संभव है दूसरे शब्दों में, कलाओं से युक्त शिक्षक द्वारा ही शिक्षण अधिगम सामग्री के निर्माण एवं प्रयोग की क्षमता का प्रदर्शन किया जा सकता है अतः शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रयोग एवं निर्माण की कलात्मक योग्यता के माध्यम से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जा सकता है।
(9) सृजनात्मकता का विकास (Development of Creativity)- कला का प्रयोग जब विभिन्न विषयो के शिक्षण में किया जाता है तो इससे बालको मैं सृजनात्मक क्षमता का विकास होता है। बालक की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है और वह अनुकरण करता है। इस अनुकरण की प्रक्रिया में वह शिक्षक द्वारा प्रदर्शित नमूनों एवं चार्टों को स्वयं बनाने का प्रयास करता है। इस प्रकार बालक में सृजन की प्रवृत्ति विकसित होती है तथा वह प्राथमिक स्तर से ही विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के चित्र एवं प्रतिरूप बनाने में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि कला वह महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसका प्रयोग प्रत्येक विषय के शिक्षण में अनिवार्य रूप से किया जाता है। यदि कोई शिक्षक विभिन्न कलाओं के सहयोग के अभाव में शिक्षण प्रारम्भ करता है तो न तो उसकी शिक्षण प्रक्रिया प्रभावी रूप में सम्पन्न होती है और न ही छात्रों का अधिगम स्तर उच्च होता है। इस प्रकार प्रत्येक विषय के शिक्षक को कलाओं का ज्ञान होना चाहिए एवं उसको विभिन्न विषयों के शिक्षण में कला के प्रयोग की दक्षता प्राप्त होनी चाहिए।
 

दृश्य कलाओं का शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में उपयोग (Use of visual arts in teaching learning process) D.El.Ed.1st Year F-11.



दृश्य कलाओं का शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में उपयोग (Use of visual arts in teaching learning process)

           सभी प्रकार की कलाओं को शिक्षा के पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वर्तमान समय की शिक्षा में कला का महत्व बढ़ गया है क्योंकि पहले विभिन्न प्रकार की कलाओं में केवल चित्रकला को ही शिक्षा विद्यालयों में प्रदान की जाती थी, लेकिन अब नयी शिक्षा नीति, 2020 के अन्तर्गत चित्रकला के साथ साथ मूर्तिकला, काव्यकला, संगीतकला, नृत्यकला, नाट्यकला, व्यापारिककला, शिल्पकला तथा मुद्रण कला, आदि। विभिन्न ललित कलाओं का अध्ययन शिक्षा में किया जा रहा है। वास्तव में शिक्षाशास्त्रियों द्वारा शिक्षा में विभिन्न कलाओं को उपयोगी स्थान देना एक महत्वपूर्ण कदम है। अत: शिक्षा में कलाओं का महल निम्नलिखित प्रकार से वर्णित है- 
(1) कला हस्तकौशल के द्वारा स्वच्छता, अनुशासन, स्वतन्त्र विचार, स्पष्टता एवं शुद्धता का बोध कराती है। 
(2) कला अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रेषण का कार्य करती है। 
(3) कला देश की संस्कृति एवं सभ्यता का विकास करके उसे संरक्षित करती है। 
(4) कला सृजनात्मकता का अवसर प्रदान करती है, इसके द्वारा मूल प्रवृत्तियाँ परिष्कृत हो जाती है तथा इनको बढ़ाने में सहायता मिलती है। 
(5) कला की शिक्षा आत्म प्रदर्शन, आत्मानुभूति, आत्म-निर्णय, आत्म-चिन्तन और आत्म-अभिव्यक्ति आदि। अभूतपूर्व क्षमताएँ उत्पन्न कर उन कार्यान्वित करने का अवसर प्रदान करती है। 
(6) इसके द्वारा मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास भी सम्भव है। 
(7) कला के द्वारा वैज्ञानिक विधि से अध्ययन कराया जाता है। 
(8) कला के प्रेषणीय रूपों में अनुभूति की अभिव्यक्ति होती है। 
(9) कला के द्वारा अचेतन  (Unconscious) मन की अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान होता हैं।
(10) दृष्टि से सम्बन्धित चित्रकला, दृष्टि एवं स्पर्श से सम्बन्धित मूर्तिकला, स्वर एवं भाषा से सम्बन्धित गायन, संगीतकला, क्रिया से सम्बन्धित नृत्यकला सभी शिल्पकलाएं अपना विशिष्ट कार्य करती हैं। 
(11) कला शिक्षा में कला सौन्दर्यानुभूति प्रदान कर सत्य को स्पष्ट करती है।
(12) शिक्षा मनुष्य को विकसित जीवन प्रदान करता है तो कला मनुष्य के लिए जीवन दर्शन प्रदान करती हैं। 
 (13) कला अन्य पाठ्य-विषयों से सहसंबंध स्थापित कर शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। .




 

दृश्य कलाएं (Visual Arts): अवधारणात्मक समझ D.El.Ed.1st Year. F-11 इकाई-2. B.S.E.B. Patna, Bihar.



 दृश्य कला (Visual Art)

  दृश्य कला की अवधारणा (CONCEPT OF VISUAL ART) 

         दृश्य कला, कला का वह पक्ष या कलात्मक अभिव्यक्ति है जिन्हें हम देख पाते हैं या जिनकी मूर्त (Tangible) अभिव्यक्ति होती है। दृश्य कला द्विविमीय या त्रिविमीय हो सकती है। जैसे— चित्र, पेन्टिंग, कोलाज, आदि। द्विविमीय दृश्य कला के उदाहरण हैं। 

       मूर्तिकला, पुतलीकला, काष्ठकला, त्रिविमीय दृश्यकला के उदाहरण हैं। दृश्य कलाओं के माध्यम से प्राप्त अनुभव विद्यार्थी के मस्तिष्क में स्थायी छाप छोड़ते हैं। दृश्य कलाएँ लोक एवं क्षेत्रीय कलाओं के साथ-साथ सांस्कृतिक निरन्तरता को भी प्रोत्साहित करती है। इसके आन्तरिक भाग सहजता और पूर्णता में अभिव्यक्त होते हैं। दृश्य कला के अन्तर्गत शोधकार्य भविष्य के कार्य के लिए दृष्टि प्रदान करते हैं।

दृश्य या रूपप्रद कला का इतिहास (HISTORY OF VISUAL ART) 

         रूपप्रद या दृश्य कला की जड़ अथवा बुनियाद स्वयं मानव के हृदय, मस्तिष्क और प्रकृति में निहित होती है। कला का जब उद्गम हुआ होगा तब मानव में ऐसी प्रवृत्तियाँ जाग्रत हुई होंगी, जो सौन्दर्य-वृद्धि और सौन्दर्य-सृष्टि के लिए आवश्यक थी। रूपप्रद या दृश्य कला की उत्पत्ति मानव की मानसिक आवश्यकताओं के सहारे हुई होगी। मानव को सुख-सुविधाओं के साथ-साथ मानसिक शान्ति भी चाहिए, जिससे उसको सन्तोष प्राप्त हो सके। इस सम्बन्ध में होम्स के निम्नलिखित शब्द उपर्युक्त कथन को और अधिक स्पष्ट कर देते हैं- "मनुष्य हो एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसको केवल शरीर की मांग ही नहीं, अपितु मस्तिष्क की मांग को भी पूरा करना पड़ता है। यदि ऐसा न होता तो शायद मानव के लिए पशु स्तर से ऊँचा उठना आज भी सम्भव न होता। अत: दृश्यात्मक कला के उद्गम का रहस्य इसी में छिपा है। "मानव ने अपने समय और परिस्थिति के अनुसार ही रूपप्रद या दृश्यात्मक कला का विकास किया है। लोक जीवन में बनावट, श्रृंगार एवं अलंकार का बहुत महत्त्व है। धार्मिक तथा सामाजिक संस्कारों की पूर्ति आकार की आधारशिला पर अवलम्बित होती है। लोक जीवन में व्याप्त ये आकार मानव-धर्म, कला एवं संस्कृति के विकास की कहानी कहते हैं। प्राचीनकाल से आज तक विश्व जिन प्रतिक्रियाओं से गुजरा है उन प्रतिक्रियाओं से हमारा ज्ञान-विज्ञान में कुछ समन्वय हुआ है। परिणामस्वरूप वह 'सत्यम् , शिवम् , सुन्दरम्' के रूप में हमारे सामने आया है। इनके साक्षी रूप अजन्ता और एलोरा की गुफाएँ, कन्दरिया महादेव के खजुराहो मन्दिर, साँची का स्तूप तथा सारनाथ के अवशेष, आदि। हमारे समक्ष अपनी कहानी आज भी मूक रूप से व्यक्त कर रहे हैं। रूपप्रद कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है जिसका विकास पुरातन काल में हुआ था, जबकि मानव कन्दराओं या गुफाओं में रहा करता था। आज रूपप्रद कला का विकास चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, आदि। कलाओं के अनेकानेक रूपों में हमारे सम्मुख चरम पर है। 

        रूपप्रद कला का क्षेत्र बहुत व्यापक और असीमित है। यह कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है। प्राचीनकाल से लेकर आज तक इस कला के विकास का क्रम रुका नहीं है। देश, काल और परिस्थितियों को निभाते हुए वह आगे बढ़ा है। उसे जब भी जो कुछ मिला उसके माध्यम से सृजन कार्य निरन्तरता चलता रहा। पहाड़ो को काटकर अजन्ता जैसी विश्व प्रसिद्ध गुफा में सृजनात्मक कार्य हुआ। पहाड़ों को काट-काटकर देवालयों का निर्माण किया गया जिनमें आध्यात्मिकता और धार्मिकता को बड़ा सहारा मिला। मानव को लकड़ी, छाल, कपड़ा, पता, कागज, गिट्टी, दीवार, आदि। जो कुछ प्राप्त हुआ उसे ही सूजन का माध्यम बनाया और नयी-नयी संभावनाएं व्यक्त की। दृश्य कला के क्षेत्र में अनेकानेक प्रयोग किये गये। दक्षिण भारत में पहाड़ को काटकर एक ही शिला से गोमतेश्वर जिसे Bahubali (बाहुबली) भी कहा जाता हैं। की अखंड मूर्ति का निर्माण किया गया जिसकी लम्बाई 54 फुट और चौड़ाई 08 फुट है। जहाँ तक रूपप्रद या दृश्य कला के क्षेत्र में चित्रकला का प्रश्न है उसमें बादशाहों और राजाओं के दरबारों और महलों में चित्रकला का रूप देखते ही बनता है। बहुत बड़े बड़े आकारों में भित्तियों और पत्थरों पर चित्रों की रचनाएँ की गयी हैं।  जिनके विषय धार्मिक, प्राकृतिक, काल्पनिक और आधुनिक शैली में है। भारत की स्थापत्य कला उच्च कोटि की है। विश्व के सात आश्चर्यों में एक आश्चर्य आगरा का ताजमहल है। कहां जाता है कि इस कलाकृति की रचना करने वालों के हाथ काट लिये गये थे जिससे इस प्रकार वो अद्वितीय स्थापत्य कला की रचना दूसरी जगह न की जा सके। रूपप्रद कला मानव की सहज अभिव्यक्ति हैं। जिसका विकास पुरातन काल में हुआ था, जब मानव कन्दराओं या गुफाओं में रहा करता था। आज इस कला का विकास चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, आदि कलाओं के अनेकानेक रूपों में हमारे सम्मुख विधमान है। इसी क्रम में जीवन यापन करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करना भी एक कला हैं।


शनिवार, 24 अप्रैल 2021

एम० एफ० हुसैन (M.F. Hussain) 17 सितंबर 1915 - 09 जून 2011

           


          मकबूल फिदा हुसैन का जन्म महाराष्ट्र के शोलापुर (Sholapur) नामक शहर में 17 सितंबर 1915 ई. में हुआ था। इनके पिता एक कपड़े के मिल में काम करते थे। इनका परिवार मध्यम श्रेणी एवं धार्मिक प्रवृत्ति का था। हुसैन की आरंभिक शिक्षा इंदौर के आर्ट स्कूल में एक वर्ष तक हुई। उन दिनों वे संध्या के समय हाथ में एक लालटेन लेकर इंदौर के बाहर जा कर प्राकृतिक दृश्य का चित्रण करते थे। दिन के प्रकाश में जिन चीजो को वे देखते थे, उन्हें वे कभी-कभी रात में या लालटेन के प्रकाश में कैनवास मे चित्रित करते थे। इस प्रकार उनकी तेज स्मृति का विकास हुआ और रंग की नयी अनुभूति लालटेन की रोशनी मे बने चित्र तथा पीछे की कलाकृति मूल रूप से अभिव्यजनावादी (Expressionistic) हुई । कालान्तर में हुसैन बम्बई (मुंबई) गये। वहाँ वे सिनेमा एवं व्यावसायिक कला के डिजाइनर बन गये। उन्होंने बम्बई में खिलौना (लकड़ी के चपटे रंग बिरंगे खिलाने) बनाने का काम किया। 1935 में उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लिया लेकिन उन्होंने अपना कोर्स पूरा नहीं किया। इन्हीं दिनों इन्होंने रेम्बान्ट (Rembrandt) तथा अजस्टस जॉन (Augustus John) जैसे चित्रकारों का अध्ययन किया और वास्तविक चित्रों का निर्माण कर अपनी जीविका चलायी। 1948 ई. में वे दिल्ली गये जहाँ उन्होंने उन्होने प्राचीन मथुरा की मूर्तिकला की मूर्तियों को देखा इससे वे काफ़ी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने सारे यूरोप और अमरीका की यात्रा की इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने चित्रों को भी प्रदर्शित किया तथा आधुनिक संसार की कला तथा पौराणिक कलाकृतियों का अध्ययन किया। 

      1947 में बम्बई आर्ट सोसाइटी की प्रदर्शनी में हुसैन के बनाये एक चित्र को पुरस्कार मिला। 1955 में उन्हें 'जमीन' नाम के चित्र पर ललित कला अकादमी का पुरस्कार मिला। उनका यह चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में प्रदर्शित है। उन्होंने 'घोडो' पर वर्षों चित्र बनाये। छाता, जूता, लालटेन को अंकित कर ढेरो चित्र बनाये है। वे राजस्थान में घूमे और वहाँ के चित्र बनाये। ऊपर आसमान से बरसती हुई जेठ-वैशाख की चिलचिलाती धूप और नीचे राजस्थान की तपती सुलगती हुई बालू के बीच बाहर निकलना अपने आप में एक अनुभव है लेकिन हुसैन ने इसका अनुभव ही नहीं किया है वरन इसे भोगा भी है। ये अपने चित्र के विषय की आत्मा के भीतर तक बैठ कर चित्र के लिये प्रतिबिंब खोज निकालते है जो बिल्कुल अपने आप मे मौलिक है। बैशाख की दुपहरी मे जलते सूरज के गोले परिपार्श्व (Parish) में, राजस्थान के किसी भाग में, न जाने किन क्षणों में और न जाने क्या सोचकर उन्होंने तीन गधो का चित्रण किया होगा, लेकिन बैशाख के सदर्भ में इस चित्र का अनुभव एकाएक मन को गुदगुदा अवश्य जाता हैं। चटख पीले रंग की बहुलता सोने जैसी धूप को मूर्तिमान (Idolatry) करने में सफल हुई है। हुसैन के बनाये हुए ज्यादातर चित्र भारत के गाँवो, कस्बो से ही सम्बन्धित है। इनके चित्रो की स्त्री-पुरुष की आकृतियाँ अक्सर गाँव के लोगो की ही होती है। इन्होंने पशु-पक्षी के भी चित्र बनाये है। इनके चित्रों के रंग चटक है। ये हमेशा नंगे पैर घुमते थे। इनकी रंगीन चित्रित कार शहर में ध्यानाकर्षण का केन्द्र है। ये रंगो से ही धीरे-धीरे आकृतियों और दृस्यो को खड़ा कर देते थे। कहीं-कही रेखाओं का भी जोरदार इस्तेमाल किये है। इन्होंने कुछ छोटी (Short) फिल्मो का निर्माण किया है जो निम्न हैं-

 गजगामिनी (इस फिल्म में शाहरुख खान और माधुरी दीक्षित ने किरदार निभाया है)

थ्रू द ऑईज़ ऑफ़ ए पेंटर

मीनाक्सी 

         इनकी बनाई अधिकतर फिल्में राजस्थान के जीवन पर है। इनके द्वारा उर्दू और अंग्रेजी में कविताएँ भी लिखी गई है। 1959 में टोकियो-जापान की अन्तर्राष्ट्रीय द्विवार्षिकी का पुरस्कार मिला। 1966 में "पद्यश्री" तथा 1973 में उन्हें "पद्मभूषण" की उपाधि से विभूषित किया गया। इन्होंने चीनी प्रभाव से प्राकृतिक दृश्य का निर्माण किया है। हुसैन की आधुनिक कला शैली में चित्रित रागमाला चित्रावली संगीत के अमूल्य ध्वनियों के सहज, बिम्ब प्रतिध्वनित करती है। इनके तीन गधों का चित्र, किसान परिवार, राह के साथी, जलीय चित्र, ढोलकीया, बैलगाड़ी, घोड़े, वापसी विष्णुचक्र आदि प्रसिद्ध रचनाएं हैं।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

E-Learning and Open Learning Systems D.El.Ed.1st Year F-12 Bihar School Examination, Board, Patna.

 



E-Learning and Open Learning.

E-Learning- E-Learning दो शब्दों के मेल से बना हैं। जहां E शब्द Electronic Medium (इलेक्ट्रॉनिक माध्यम) का सूचक है। वही Learning शब्द का अर्थ होता हैं- अधिगम या सीखना। इसलिए हम कह सकते हैं कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ही ई-लर्निंग है।  ई-लर्निंग सुविधा शिक्षा प्राप्ति के साधन को बहुत ही आसान बना दिया है।
E-Learning क्या हैं?

     E-Learning शैक्षिक, ट्रेनिंग एवं अधिगम संबंधी कार्यक्रमों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हमारे समक्ष उपलब्ध कराने का कार्य संपन्न करता है। कंप्यूटर एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों (मोबाइल) का शिक्षा ग्रहण एवं प्रदान करने के क्षेत्र में उपयोग ही E-Learning हैं।
E-Learning को हम मुख्यत: दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-

(1) Synchronous E-Learning (तुल्यकालिक ई-लर्निग)

(2) Asynchronous E-Learning (अतुल्यकालिक ई-लर्निग)

(1) Synchronous E-Learning (तुल्यकालिक ई-लर्निग):- तुल्यकालिक ई-लर्निग में छात्र एवं शिक्षक दोनों ही इंटरनेट के माध्यम से एक ही समय में आपस में जुड़कर शिक्षा प्राप्त करते हैं इस प्रकार की व्यवस्था में स्थान की बाध्यता नहीं होती। छात्र कहीं से भी कहीं के शिक्षकों से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं एवं उनके प्रश्न पूछ कर अपनी समस्याओं का हल भी प्राप्त कर सकते हैं। वर्चुअल क्लासरूम (Virtual Class-Room,) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (Video Conferencing), etc. Synchronous E-Learning (तुल्यकालिक ई-लर्निग) के उदाहरण है।

(2) Asynchronous E-Learning (अतुल्यकालिक ई-लर्निग):- अतुल्यकालिक ई-लर्निग में छात्र एवं शिक्षकों को इंटरनेट पर एक ही समय में जुड़ा होना आवश्यक नहीं होता है। इस प्रकार की शिक्षा CD (Compact Disc), DVD (Digitale Versatile Disc), शैक्षिक वीडियो एवं E-Book के माध्यम से प्रदान की जाती है। ऐसी व्यवस्था में छात्र अपनी सुविधा के अनुसार इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न प्रकार की शैक्षिक सामग्री का प्रयोग करके ज्ञान अर्जित करते हैं।

Open Learning System (मुक्त अधिगम प्रणाली)

     मुक्त अधिगम (Open Learning) शिक्षा से संबंधित एक नवाचारी आंदोलन (Innovative Movement) एवं शिक्षा सुधार है जो औपचारिक शिक्षा प्रणाली (Formal Education System) के अंदर अधिगम के अवसरों में वृद्धि करता है। मुक्त अधिगम में निम्न बातों को सम्मिलित किया जाता है:-

(1) अधिगम का लचीलापन
(2) अध्ययन के स्थान, समय, गति में लचीलापन।
(3) अध्ययन की विधि में लचीलापन।
(4) पाठ्यक्रम के चयन एवं मिश्रण में लचीलापन।
(5) मूल्यांकन एवं पाठ्यक्रम समाप्ति का लचीलापन।

         जितना कम प्रतिबंध होते हैं शिक्षा उतनी ही अधिक मुक्त कही जाएगी। मुक्त अधिगम का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षिक असमानताओ को मिटाना है तथा ऐसे अवसर प्रदान करने हैं जो परंपरिक महाविद्यालयों/विश्वविद्यालय के द्वारा नहीं दिए जाते।



अमृता शेरगिल (1913-1941)

 



        अमृता शेरगिल का जन्म 30 जनवरी, 1913 ई. को बुडापेस्ट (हंगरी) में हुआ था। वह हंगेरियाई माँ और भारतीय पिता की संतान थी। जन्म से लगातार 08 वर्षों तक वह यूरोप में ही रही। 1921 के युद्ध के बाद भारत लौटकर शिमला में रहने लगी। शिमला में चित्रकारी में उनकी रूचि देखकर उनके माता-पिता ने उन्हें पेरिस के एक कला-स्कूल में भेज दिया। उस समय अमृता शेरगिल की अवस्था 16 वर्ष की थी। 1929 से पेरिस के एकोल नेस्योनाल दे बोज आर्स में कला का अध्ययन करती रही। 
         भारतीय रंगों की प्रचुरता के साथ उन्हें अपनी निजी शैली खोजने की आवश्यक प्रेरणा प्राप्त हुई। उनकी कला वर्तमान का नहीं, भविष्य का सृजन कर रही थी। भारतीय चित्रकला में बंगाल शैली की धूम मची थी। ठीक उसी समय अमृता शेरगिल ने अपनी यूरोपीय कला शैली से हटकर क्लासिकी मूल्यों की खोज की। अमृता के सशक्त और चुनौती पूर्ण चित्रों की अवहेलना कर ठीक उसके विपरीत अन्य कलाकारों के कार्य की प्रंशसा की गयी। अमृता की मौन छवियों में गरीब भारतीय की मार्मिक वेदना, कुरूपता में अद्भुत रूप, सहिष्णुता के साथ आत्म-समर्पण के भाव, सुन्दर दुबले-पतले साँवले रंग वाले शरीर, उनकी कृतियाँ उनके गहन अध्ययन की अभिव्यक्ति है। उनकी आकृतियों में आंतरिक शांति भारतीय स्वभावानुसार फूट पड़ी है। सरल मन के विचार तथा चित्र निर्माण की सरलता दोनों बेजोड़ है। 
          1938 में वे अपने कजिन डॉक्टर एगान से विवाह करने के लिए हंगरी चली गयी, 1939 में पुनः भारत वापस आ गयी और अपने पति के साथ सरैया में रहने लगी। अपने जीवन के अंतिम दिनों तक ग्रामीण विषयों पर पेटिंग बनाती रही।
         उनके चित्रों में एक से अधिक आकृतियों को समूह में रखना, तिर्यक् आँखों, उदासी भरा परिवेश, उभरी हुई भौहे और चौड़े पैर की विशेषताएँ गोग्वें के चित्रों का प्रभाव है। 
          अमृता शेरगिल के चित्रों के रंग चटकीले और तपे हुए हैं। उन्हें बहुत अधिक काम करने का समय नहीं मिला। जब वह केवल 28 वर्ष की थीं, तो लाहौर में 5 दिसम्बर 1941 को उनकी मृत्यु हो गयी। जितने चित्र उन्होने बनाये थे, आज वे बहुमूल्य हैं। उनके चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथिका (जयपुर हाउस) नई दिल्ली में एक अलग कमरे में प्रदर्शित है। यह कमरा वातानुकूलित है, जिससे कि उनके चित्रों के रंग-रूप खराब न होने पाये। उनके कुछ चित्रों के रंगो में दरारे-सी पड़ गयी थी, जिन्हें ठीक कराया गया है। उनके सर्वोत्कृष्ट चित्र-युवतियों, भारतीय लड़कियों, पर्वतीय महिलाएँ, दक्षिण भारतीय ग्रामवासी बाजार जाते हुए, गणेश पूजा, नीलवसना, पहाड़ी-स्त्रियों, भिखमगे, पिता, ऊँट, राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में सुरक्षित हैं।

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शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान और मै

        आज यानी कि 23/04/2021 दिन शुक्रवार से ठीक 3 साल 4 माह और 11 दिन पहले 12/12/2017 को मैंने शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान साई कॉलेज ऑफ टीचर्स ट्रेनिंग को ज्वाइन किया था। उस दिन से लेकर आज तक मेरा प्रयास यही है कि प्रशिक्षुओं को जो भविष्य के भावी शिक्षक है उनके अंदर कला का समावेश किया जाए। मैं इस कार्य में सतत अग्रसर भी हूं। पिछले दिनों Live Class में मैंने उन्हें कुछ कलाकृतियां बनाने का अभ्यास कराया था। उम्मीद से बेहतर परिणाम आये जिन्हें मैं आप सभी के साथ साझा कर रहा हूं। 

निजता की दृष्टि से मैंने नाम एवं फोटो प्रकाशित नहीं किया है। 


































उम्मीद है आपको प्रशिक्षुओं की मेहनत पसंद आई होगी। अंतिम में मैं वह पत्र साझा कर रहा हूं जिसे मैं  बार-बार पढ़ता हूं जो कि मुझे हमेशा प्रेरित भी करता है।

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