गुरुवार, 14 मई 2020

श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित "रागदरबारी" के अंश (Excerpts from "Raagdarbari" written By Shrilal Shukla)


श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित "रागदरबारी" के अंश Video Link -  https://youtu.be/P1X1CumNej8




रागदरबारी

        हिंदी के विख्यात साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल की प्रसिद्ध व्यंग रचना "रागदरबारी" है। रागदरबारी के लेखन का कार्य श्रीलाल शुक्ल ने 1964 में शुरू किया और इसे अंतिम रूप 1967 में दिया इन्होंने मात्र 3 वर्षों में ही इस उपन्यास की रचना कर दी1968 ई० में राजकमल प्रकाशन ने 330 पृष्ठों में इस व्यंग रचना को प्रकाशन किया।  प्रकाशन के एक वर्ष के उपरांत ही, 1969  श्रीलाल शुक्ल को राग दरबारी उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार  भी मिला और फिर 1986 में इस उपन्यास के उपर दूरदर्शन ने इसका नाट्य रूपांतरण किया और दूरदर्शन धारावाहिक के  रूप में इसे लाखों दर्शकों की सराहना भी प्राप्त हुई।      
  
          रागदरबारी एक व्यंग कथा नहीं है। बल्कि इसका संबंध तो एक बहुत बड़े नगर से कुछ दूर बसे गांव शिवपालगंज की जिंदगी से है जो वर्षो की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के सामने खिसट रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावेज है। रागदरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गांव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता को सहजता और निर्मलता से अनावृत करता है। शुरू से लेकर अंत तक इसमें अनेक सोद्देश्य व्यंग के साथ लिखा गया, हिंदी का यह पहला  उपन्यास है। 

      इस उपन्यास की भाषा ही कहानी की जान है ग्रामीण तथा शहरी परिवेश का इतना अनोखा वर्णन शायद ही कहीं देखने को मिलता है। रागदरबारी उपन्यास के कुछ अंश इस प्रकार हैं:-  शहर का किनारा, उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था । वहीं पर एक ट्रक खड़ा था जिसे देखते ही यह यकीन हो जाता था कि इसका जन्म केवल सड़कों के साथ जुल्म (Forcing) करने के लिए हुआ है। जैसा कि सत्य के साथ होता है।  सड़क के एक ओर पेट्रोल- स्टेशन था और दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और  स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद से खड़ी  की हुई दुकानें थी। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्राय: सभी दुकानों में जनता का एक मनपसंद पेय मिलता था जिसे वहां धूल मिट्टी के कण के साथ कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और ख़ौलते पानी, इत्यादि के साथ बनाया जाता था।उन दुकानों में मिठाइयां भी थी जो दिन रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं।वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त-कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थी। वे बताती थी कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही ना मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदलने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमी को आती हैं।  

         यहां हम देख सकते हैं कि श्रीलाल शुक्ल कैसे भाषा के माध्यम से व्यवस्था पर व्यंग किया है।  राग दरबारी में लेखक ने शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में लिखा है-  आज की शिक्षा व्यवस्था सड़क पर सोए कुत्ते की तरह है जिसे कोई भी कहीं भी लात मार सकता है।  यह उपन्यास की चंद लाइने नहीं बल्कि आज की ध्वस्त विध्वस्त सरकारी शिक्षा व्यवस्था का दस्तावेज है।  यह उपन्यास  कई साल पहले लिखी गई थी लेकिन शायद लेखक ने उस समय में ही भविष्य को भांप लिया था। उसी तरह लेखक ने भारतीय रेलवे पर इन शब्दों के माध्यम से प्रहार किया है-  आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था।  स्थानीय पैसेंजर ट्रेन को रोज की तरह दो घंटा लेट समझकर वह घर से चला, लेकिन ट्रैन आज केवल सिर्फ डेढ़ घंटा लेट होकर चल दी थी।  कहीं-कहीं उपन्यास के किरदार नाटकीय लगते हैं । लेकिन कहानी की भाषा और व्यवस्था पर व्यंग ने इसे कालजयी (Classics) उपन्यास में तब्दील कर दिया है। 

व्यंग
  • लेक्चर का मजा तो तब है जब सुनने वाले समझे कि वह बकवास कर रहा है और बोलने वाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूं। 
The fun of a lecture is when the listener understands that he is talking nonsense and the speaker also understands that he is talking nonsense.


  •  हंसी और व्यंग में बहुत फर्क होता है हंसी में गुदगुदा कर छोड़ दिया है और व्यंग  में  ऐसी बाते कह दी जाती है की श्रोता सोचने पर मजबूर हो जाता है  कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा??
There is a lot of difference between laughter and sarcasm. In laughter, one is left tickled and in sarcasm, such things are said that the listener is forced to think why did they say so?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें