रविवार, 24 मई 2020

शिक्षक के रूप में स्वयं के दृष्टिकोण B.Ed. 2nd Year, EPC - 4, Munger University, Munger.






शिक्षक के रूप में स्वयं के बारे में एक दार्शनिक दृष्टिकोण (Philosophical Perspective towards self  of a teacher)

        हमारे धर्म शास्त्रों में माता-पिता और शिक्षक को बालक के जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण माना गया है।  माता-पिता जहां बच्चों का पालन-पोषण करते हैं वही शिक्षक उसके बौद्धिक, आत्मिक एवं  चारित्रिक गुणों का विकास करते हैं। इसी वजह से एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि वह स्वयं उन्नति हेतु ज्ञान को आधार बनाए। ज्ञान के द्वारा स्वयं उन्नत होने से भिन्न-भिन्न शक्तियों का विकास होता है तथा उत्तम एवं श्रेष्ठ आत्मसम्मान की रचना होती है।  ज्ञान की गहराई में गोता लगाने से सभी भटकाव एवं अज्ञानता समाप्त हो जाती है।
      एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि वह अपने विचारों पर गहन मंथन करें।  मंथन से शिक्षक के व्यक्तित्व एवं उसके कक्षा-कक्ष (Class-Room) में अध्ययन एवं अध्यापन के समय उसके व्यवहार में बहुत परिवर्तन आ सकता है।
       यदि एक अध्यापक के रूप में हम अपने दैनिक जीवन का केवल 15 मिनट वास्तविकता की समझ को गहरा करने में व्यतीत करते हैं तो यह कौशल धीरे-धीरे एक योग्यता एवं आंतरिक गुण में विकसित हो जाएगी।

स्वयं को पहचानने के निम्न चरण हो सकते हैं:-

  1. आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन
  2. आंतरिक ईमानदारी और अपने संकल्पों एवं कमजोरियों को स्वीकार करना।
  3. स्वयं सशक्तिकरण (Self-Empowerment)

शिक्षक के रूप में स्वयं के बारे में एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण (Cultural Perspective towards self in role of a teacher.)

           शिक्षा व्यवस्था समाज से अलग होकर कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि वह स्वयं उसका एक भाग है। समाज में फैली जातिगत कुरीतियां, सांस्कृतिक विविधता, लैंगिक असमानता के कारण शिक्षा की प्राप्ति और विद्यालयों मे बच्चों की सहभागिता प्रभावित होती रहती है। शिक्षा व्यवस्था समाज से अलग होकर कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि वह स्वयं उसका एक भाग है। समाज में फैली जातिगत कुरीतियां, सांस्कृतिक विविधता, लैंगिक असमानता के कारण शिक्षा की प्राप्ति और विद्यालयों में बच्चों की सहभागिता प्रभावित होती रहती है। विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक समुदायों के बीच जो गहरी विषमता (Asymmetry)  दिखाई देती है। उससे यह प्रतिबिंबित होता है कि विद्यालयी  व्यवस्था स्वयं में कई स्तरों पर बटी हुई है और बच्चों को असाधारण रूप से अलग-अलग शैक्षिक अनुभव भी प्रदान करती है।

         असमान संबंध ना केवल वर्चस्व को बढ़ावा देते हैं अपितु तनाव भी पैदा करते हैं तथा मानवीय क्षमताओं के पूर्ण विकास की स्वतंत्रता में बाधा भी पहुंचाते हैं। यह संपूर्ण परिदृश्य इस तथ्य को प्रस्तुत करता है कि शिक्षक को एक सांस्कृतिक कार्यवाही को भी अंजाम देना होता है।

एक शिक्षक को स्वयं की प्रगति के लिए निम्न 10 सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।

  1. अपने कार्य अथवा व्यवसाय में निष्पक्ष ईमानदार स्पष्ट और गंभीर होना चाहिए जिससे हमारी वाणी मन और कर्म में समानता बनी रहे
  2. दूसरों के साथ हमारा व्यवहार झूठे विश्वास, झूठी शान तथा सामाजिक, आर्थिक,  लैंगिक, जातीय, इत्यादि। शोषण की भावना से पूर्णत: मुक्त होना चाहिए।
  3. हमारे समस्त कार्यों का मूल सिद्धांत सार्वभौमिक प्रेम, सहानुभूति, सद्भाव, सहयोग, शांति और बेहतरी की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिए।
  4. अपने विवादों को आपसी बातचीत, विचार-विमर्श एवं कानूनी प्रक्रियाओं के द्वारा ही निपटाना चाहिए।
  5. अपने विद्यार्थियों को स्नेह पूर्वक पढ़ाना चाहिए तथा मानवता के लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे की जाए?  इस कार्य हेतु उन्हें प्रेरित भी करना चाहिए।
  6. अध्ययन एवं अध्यापन के कार्य में कभी भी आलस्य को  स्थान नहीं देना चाहिए तथा इसे आनंदित होकर पूर्ण करना चाहिए।
  7. हमें प्रतिदिन अपने आत्मविकास के लिए कुछ समय आध्यात्मिक और नैतिक विकास के लिए आत्मनिरीक्षण, ध्यानाभ्यास एवं अध्ययन के लिए अवश्य देना चाहिए।
  8. शिक्षक के लिए विद्यार्थियों का हित सर्वोच्च होता हैं। शिक्षक को विद्यार्थियों के हित के लिए जो भी आवश्यक कार्य हो उसे संपादित करना चाहिए।
  9. शिक्षक को अध्यापन कर्म का आनंद लेना चाहिए।
  10. शिक्षको को सदा गुणग्राही (Qualitative) बनकर आत्मिक शांति की स्थिति का अनुभव करना चाहिए।


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