रविवार, 31 मई 2020

कार्य केंद्रित शिक्षणशास्त्र की समझ (Understanding of work-oriented teaching) D.El.Ed. 2nd Year. S-3.




कार्य केंद्रित शिक्षणशास्त्र की समझ (Understanding of work-oriented teaching)

         राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में समाजिक रूप से उपयोगी उत्पादक कार्य SUPE (Socially Useful Productive Work) की  अवधारणा को स्वीकार किया और इसे उद्देश्यपूर्ण एवं अर्थपूर्ण शारीरिक कार्य माना। इसमें यह सिफारिश की गई है कि इसे प्रचलित शिक्षा के सभी स्तरों पर एक महत्वपूर्ण घटक माना जाए और इसे अच्छी तरह से संगठित और व्यवस्थित कार्यक्रम के रूप में  प्रस्तुत किया जाए।

इसमें उत्पादक कार्यक्रम को अपनाए जाने के लिए मुख्यतः 6 (छः) क्षेत्रों का सुझाव दिया गया है-

  1. स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान (Health and Health Sciences.)
  2. भोजन और पोषण (Food and nutrition.)
  3. आवास (Residence)
  4. कपड़े (Clothes)
  5.  संस्कृति और मनोरंजन (Culture and Entertainment.)
  6. सामुदायिक कार्य एवं समाज सेवा (Community work and social service)
प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर पाठ्यक्रम में तीन मुख्य कारक होंगे:-

  1. पर्यावरण अध्ययन और उसका उपयोग
  2. सामग्री, उपकरण और उनके प्रयोगों के तरीके तथा अभ्यास
  3. बच्चों और उनके परिवारों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति।
        अपने आस-पास किये जाने वाले उत्पादक कार्य और सेवाओं में  कार्यानुभव बहुत महत्वपूर्ण है। केवल एक बार ऐसा करने से यह तय नहीं किया जा सकता है कि बच्चे इसे पूरी तरह से समझ गए हैं या इस कला में महारत हासिल कर चुके हैं। सतत अभ्यास (Continuous Practice) से ही यह  दक्षता (Efficiency), क्षमता उनमें आ सकती है।
             कार्यानुभव की गतिविधियों और परियोजनाओं का वास्तविक चयन उसे स्थान विशेष के प्राकृतिक, भौतिक, मानव संसाधन तथा सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि के आधार पर किया जाना चाहिए। इन गतिविधियों और योजनाओं के चयन में विविधता होनी चाहिए। पर्यावरण संबंधी कुछ गतिविधियां निम्न है:-

  • बच्चों द्वारा अपने घरों से स्कूल आते समय अपने चारों ओर दिखने वाले घरों, पेड़ो, दुकानो, आदि। का अवलोकन करना। यह प्रक्रिया उन्हें संवेदनशील बनाती है और वे स्वयं को उनसे संबंधित कर पाते हैं।
  • बड़ों के साथ मिलकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहयोग करना। जैसे:-  अपने आस-पास के जगहो एवं पार्कों से कचरा और पॉलिथीन एकत्रित कर उन्हें नष्ट करना, ठहरे हुए पानी की निकासी एवं खरपतवार को निकालना, आवारा पशुओं द्वारा अव्यवस्था फैलाने के संबंध में संबंधित संस्था को सूचित करना। इत्यादि।
  • बगीचे एवं खेत में फसलों के पकने का अवलोकन करना। बच्चों की जिज्ञासाओं का समाधान उनसे प्रश्न पूछ कर करना।
  • सांस्कृति एवं धार्मिक पर्वों के कार्यक्रम में सहभागिता एवं गतिविधियों का अवलोकन करना।
  • अपने आसपास के पोस्ट ऑफिस, बैंक, हॉस्पिटल, इत्यादि। में चल रहे विभिन्न गतिविधियों का अवलोकन करना।
  • अपने घर के आसपास के पेड़ों के नाम और उनकी उपयोगिता जानना और उनकी देखभाल करना।
इसी प्रकार की और कौन-कौन सी गतिविधियां हो सकती है। उनकी एक सूची तैयार करें।

पाठ्यचर्या में कार्य की भूमिका (Role of work in curriculum) D.El.Ed.2nd Year. S-3.





पाठ्यचर्या में कार्य की भूमिका (Role of work in curriculum)
     
           ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही बच्चों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा की आवश्यकता को महसूस किया गया था।  इस समस्या के समाधान के लिए ऐसी नीति की आवश्यकता थी जो राष्ट्रीय उद्देश्य को प्राप्त करने में मार्गदर्शक कर सके। जो समाज की आवश्यकताओं को बुनियादी स्तर पर समझ सके तथा साहित्य, विज्ञान, कला तथा तकनीकी के द्वारा विकास की संभावनाओं को भी खोज सके अतः ऐसी शिक्षा प्रणाली पर विचार किया गया जो घटते सामाजिक मूल्य पर अंकुश लगा सके यह कार्य तथा शिक्षा के मध्य अंतर के लिए सेतु का कार्य कर सकें। 

कार्य शिक्षा को निम्नलिखित परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।

  • यह बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आदतों तथा सकारात्मक दृष्टिकोण को विकसित करती है।
  • अपने परिवेश के प्रति जागरूकता तथा मानवता एवं पर्यावरण के मध्य अंतनिर्भरता (Interdependence) की समझ विकसित करती हैं।
  • शारीरिक श्रम तथा कार्य के प्रति गर्व महसूस करने के अवसर प्राप्त होते है।
  • सामाजिक रुप से मान्य मूल्यों की समझ विकसित करने में मदद मिलती है। नियमितता,(Regularity) समय की पाबंदी (Punctuality), स्वच्छता (Cleanliness), आत्मनियंत्रण (Self control), कर्तव्य(Obligation), भावनाओं की समझ (Understanding of feelings), सामाजिक संवेदनशीलता(Social sensitivity), इत्यादि। केवल पुस्तकीय अध्ययन या उपदेशों को सुनकर विकसित  नहीं की जा सकती। इनके विकास के लिए आवश्यक है कि बच्चे आपस में मिलकर गतिविधियां करें ताकि सामाजिक रुप से मान्य मूल्य या  वांछनीय गुण स्वभाविक रूप से विकसित हो सकें।
  • कार्य शिक्षा पोषण, संक्रामक रोग, स्वच्छता से संबंधित नियमों की जानकारी देता है। जिससे व्यकितगत तथा सामुदायिक स्वच्छता के बारे में जागरूकता उत्पन्न होती है।



कार्य शिक्षा की अवधारणा (CONCEPT OF WORK EDUCATION) D.El.Ed. 2nd Year. S-3




कार्य शिक्षा की अवधारणा (CONCEPT OF WORK EDUCATION)


        प्रत्येक देश में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ऐसी शैक्षिक प्रणाली का विकास करना है जो कि प्रत्येक बच्चों में प्रतिभा और कौशलों के विकसित होने के अवसर प्रदान कर सके। अतः यह अनिवार्य है कि कार्य को शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाए। कार्य शिक्षा उद्देश्यपूर्ण तथा अर्थपूर्ण शारीरिक श्रम मानी जाती है। यह शैक्षिक प्रक्रिया का अंतर्निहित (Ingrained) "दीर्घस्थाई" भाग है। जिसमें बच्चे आनंद और खुशी को प्रदर्शित करते हैं। कार्य शिक्षा शैक्षिक गतिविधियों में ज्ञान, समझ एवं व्यवहारिक कौशलों को शामिल करने पर भी जोर देती है।

कार्य शिक्षा की अवधारणा को निम्नलिखित कारकों (Factors, Case) के आधार पर समझा जा सकता है।

कार्य शिक्षा(Work Education):-
  • हाथों तथा मस्तिष्क में समन्वय द्वारा
  • शैक्षिक गतिविधियों में सामाजिक रूप से उपयोगी शारीरिक श्रम को सम्मिलित करके।
  • किसी कार्य में संलग्न रहना सीखने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण घटक है।
  • समुदाय के लिए उपयोगी सेवाओं तथा उत्पादक कार्य के रूप में।
  • सभी पहलुओं में एक आवश्यक कारक के रूप में।
  • यह "करके सीखना'' सिद्धांत पर आधारित है
रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार-

           संस्कृतिक पुनः जागृति के लिए शिक्षा से शारीरिक श्रम को अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक छात्र को अपने समुदाय विशेष के क्षेत्र से बाहर आकर मानव सेवा के कार्यों में सहभागिता करनी चाहिए।  कार्य को शिक्षा के माध्यम के रूप में लिया जाना चाहिए, क्योंकि अनुभव मस्तिष्क की खिड़कियां होते है।

स्वमूल्यांकन:-

  • रहीम एक ऐसी शाला में पढ़ता है जहां विषय आधारित शिक्षा दी जाती है जबकि जागेश्वरी कि शाला में विषयों को कार्यों से जोड़कर पढ़ाया जाता है। आपके अनुसार इन दोनों के विकास में क्या अंतर होगा। और क्यों?
  • कार्य शिक्षा किस प्रकार बच्चों को सामुदायिक सेवा से संबंधित गतिविधियों से परिचित कराती है उदाहरण के द्वारा समझाइए।


कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer) Part - 4


कंप्यूटर की संरचना (Anatomy of Computer) D.El.Ed. 1st Year. Part - 4 Video Link:-  https://www.youtube.com/watch?v=bslF3rRhBVE

कम्प्यूटर चलाने का ज्ञान: चालू एवं बंद करना, B.Ed. 1st Year EPC - 3 Part - 4, Video Link:-  https://www.youtube.com/watch?v=GfNYNNU9ipU&t=90s


कंप्यूटर से लाभ (Advantages of Computer)

कंप्यूटर के उपयोग करने से हमें अनेको लाभ प्राप्त होते हैं। 

  1. समय की बचत (Saving of Time):- ऐसे बहुत से कार्य होते हैं जिनको हाथ से करने में हमें कई घंटे या कई दिन लग जाते, कंप्यूटर की मदद  से कुछ ही मिनटों या घंटो में वह सभी कार्य संपन्न हो जाते हैं।
  2. धन की बचत (Saving of Money):- कंप्यूटर के द्वारा कोई भी कार्य कम समय और कम परिश्रम में  पूरा हो जाने के कारण धन की बहुत बचत होती है।
  3. कार्य क्षमता में वृद्धि (Increased functionality.) कंप्यूटर अपनी तेज गति और शुद्धता के साथ गणनाऍ करने के कारण बहुत से जटिल कार्य बिना गलती किए पूरा करता है जिससे मनुष्य की कार्य क्षमता बढ़ जाती है।
  4. रोजगार में वृद्धि (Increase in employment.):- कंप्यूटर के व्यापक उपयोग से इससे संबंधित क्षेत्रों में रोजगार के नए-नए अवसर भी प्राप्त हुए हैं।
  5. जीवन स्तर में वृद्धि (Standard of Living):-  कंप्यूटर के उपयोग के कारण समाज के जीवन स्तर में बहुत सुधार हुआ है।
इन सभी के अलावा कंप्यूटर के और भी लाभ है जो निम्न है-

तेज़ गती

कंप्यूटर एक प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक मशीन है जो किसी भी कार्य को बहुत  तेजी से संपन्न करता  है। हालांकि कंप्यूटर पर कार्य करने के लिए एक कंप्यूटर ऑपरेटर की जरूरत होती है। लेकिन एक कंप्यूटर 10 से 15 लोगों का काम अकेले कर सकता है और उसके साथ ही कंप्यूटर से किसी भी प्रकार की गलती बिल्कुल ना के बराबर होते है।

काम की शुद्धता

कंप्यूटर द्वारा किए गए कार्य  में अत्यधिक शुद्धता होती है। आप यह कह सकते है की कंप्यूटर  द्वारा किए गए काम में 99.99 प्रतिशत गलती नहीं होती है। अगर कोई गलती होती है तो वह कंप्यूटर ऑपरेटर की वजह से हो सकती है। कंप्यूटर द्वारा प्रोसेस किए गए डेटा में किसी  प्रकार की गलती कभी भी देखने को हमें नहीं मिल सकती है। 

 
कंप्यूटर से हानियां (Disadvantages of Computer)

इस संसार की प्रत्येक वस्तु में कई गुणों के साथ कुछ अवगुण भी होते हैं। कोई भी वस्तु हो उसमें फायदों के साथ-साथ नुकसान भी देखने को मिलता हैं। हालांकि ऐसा हो सकता है कि किसी भी चीज के फायदे अधिक हो और नुकसान कम। कंप्यूटर भी इसका अपवाद नहीं है। कंप्यूटर के फायदे तो बहुत हैं लेकिन फायदों के साथ-साथ कंप्यूटर के कई प्रकार के नुकसान भी है।  कंप्यूटर के अत्यधिक उपयोग से जहां रोजगार के नए-नए क्षेत्र उत्पन्न हुए वही बहुत से पुराने क्षेत्रों के रोजगार के अवसर घट गए हैं।इसके साथ ही साथ कंप्यूटर पर अत्यधिक निर्भरता भी मानव जाति के हित में नहीं है यदि हम उदाहरण की बात करें तो हम पाते हैं कि यदि बैंक के कार्य में कंप्यूटर की खराबी आ जाए तो सारा कार्य ठप हो जाता है और लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ता है।  कंप्यूटर के कुछ अवगुण निम्न हैं-

विवेक क्षमता का अभाव

कंप्यूटर के बढ़ते उपयोग ने लोगों की मानसिक शक्ति को कमजोर किया है। क्योंकि पहले लोग सभी प्रकार की गणनाए अपने दिमाग से करते थे। लेकिन जैसे ही कंप्यूटर आया है कंप्यूटर द्वारा सभी गणनाए हो रही है। लोग अपने दिमाग का प्रयोग करना छोड़ रहे हैं। ऐसे में मनुष्य के दिमाग की  कसरत नहीं हो पाती और मानसिक तौर पर लोग कमजोर होते जा रहे हैं।

मनुष्य पर निर्भर

कंप्यूटर को स्वचालित मशीनकहा जाता है। लेकिन फिर भी एक कंप्यूटर को चलाने के लिए कम से कम एक ऑपरेटर की जरूरत अवश्य होती है। कंप्यूटर का कोई भी कार्य ऐसा नहीं है जो मनुष्य द्वारा ऑपरेट किए बिना ही हो सके। क्योंकि कंप्यूटर द्वारा डाटा प्रोसेसिंग तभी संभव हो पाएगा जब मनुष्य द्वारा इनपुट डाला जाएगा। कंप्यूटर मुख्य रूप से मनुष्य पर निर्भर है और मनुष्य द्वारा ऑपरेट किया जाता है।


साफ-सुथरा वातावरण

कंप्यूटर के कार्य को संपादित करने के लिए एक साफ-सुथरे वातावरण की जरूरत पड़ती है। अन्यथा कंप्यूटर की कार्य क्षमता बहुत अधिक प्रभावित होती है और कंप्यूटर में कई प्रकार के वायरस और धूल-कण जमा हो जाते है जो कंप्यूटर में कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करते है।

बिजली की आवश्यकता 

  कंप्यूटर पर कार्य करने के लिए स्वच्छ वातावरण के साथ-साथ बिजली की भी आवश्यकता होती है। बिना बिजली के कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। हालांकि कई प्रकार की बैटरी के आधार पर कुछ समय तक कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन लंबे समय तक बिना  बिजली कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं होगा।

निष्कर्ष

कंप्यूटर के आने से वक्त कितना बदल चुका है ये आपसभी अच्छे से समझते हैं। पहले जहां किसी व्यक्ति को कोई कार्य करने के लिए महीनो लगते थे आज वही कार्य कंप्यूटर की मदद से कुछ सेकंडो या मिनटों  में किया जा सकता है, हालांकि कंप्यूटर एक मशीन है लेकिन यह मशीन किसी भी व्यक्ति से ज्यादा कार्य करने और अच्छा परिणाम देने को क्षमता रखता है। 
 
           यदि कंप्यूटर के उपयोग को लेकर यदि हम तुलना करें तो हम पाते हैं कि हानियों की तुलना में लाभों का पलड़ा बहुत ही भारी है। इसीलिए आज के परिपेक्ष्य में कंप्यूटर का उपयोग बढ़ता ही जा रहा हैं।

शनिवार, 30 मई 2020

कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer) Part - 3

कम्प्यूटर स्मृति (Computer Memory)



कंप्यूटर की संरचना (Anatomy of Computer) Part - 3, F-12,  D.El.Ed. 1st Year. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=iqBVP5Dkkys&t=13s



कंप्यूटर चलाने का ज्ञान : चालू एवं बंद करना B.Ed. 1st Year. EPC - 3, Unit - 2, Part - 3,  Video Link:-  https://www.youtube.com/watch?v=zBDJ2j5yFNg&t=116s


         स्मृति (Memory) यह  कंप्यूटर का वह भाग होता है जिसमें सभी डाटा और प्रोग्राम स्टोर किए जाते हैं।  कंप्यूटर के  मेमोरी को हम 02 श्रेणीयों में बांट सकते हैं।

  1. मुख्य स्मृती (Main Memory)
  2. सहायक स्मृती (Auxiliary Memory)

  1. मुख्य स्मृती (Main Memory):-  मुख्य स्मृति को आंतरिक या प्राइमरी मेमोरी भी कहा जाता है क्योंकि यह कंप्यूटर के सीपीयू(C.P.U.) का ही एक भाग होती है। कंप्यूटर के मुख्य मेमोरी का आकार प्रायः  के KB, MB. GB, इत्यादि। में मापा जाता हैं।
मेमोरी मापने की इकाईयों का सारांश निम्न है-



मुख्य मेमोरी के भी 2 भाग होते हैं:-


  1. RAM (Random Access Memory)
  2. ROM (Read only Memory)
     1. RAM (Random Access Memory):-  इस मेमोरी को संक्षेप में रैम (RAM) कहा जाता है रैम (RAM) में स्टोर की जाने वाली सूचनाएं अस्थाई होती है और जैसे ही कंप्यूटर की बिजली बन कर दी जाती है वैसे ही वे समस्त सूचनाएं नष्ट हो जाती है।

2.ROM (Read only Memory):- इस मेमोरी को संक्षेप में रोम (ROM) कहा जाता है रोम (ROM) में स्टोर की जाने वाली सूचनाएं स्थाई होती है और कंप्यूटर को बंद करने के पश्चात भी सभी सूचनाएं मौजूद रहती है।

2. सहायक मेमोरी (Auxiliary Memory):- इस प्रकार की मेमोरी C.P.U. से बाहर होती है, इसलिए इसे वाह्य (external) या सेकेंडरी मेमोरी भी कहा जाता है। इस  मेमोरी की कीमत तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम और डाटा स्टोर करने की कि क्षमता (Capacity) बहुत अधिक होती है। इसमें एक ही कमी है इन माध्यमों में डाटा को स्टोर तथा प्राप्त करने में समय अधिक लगता है इसी कारण से हम ऐसी सूचनाएं स्टोर करते हैं जिन्हें लम्बे समय तक सुरक्षित रखना हो तथा जिनकी लगातार आवश्यकता  नहीं पड़ती हो।

नोट:-  सहायक मेमोरी का  उपयोग बैकअप (BACKUP) के लिए भी किया जाता है।

A.L.U. (Arithmetic & Logic Unit):- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है CPU के लिए सभी प्रकार की अंक गणितीय क्रियाए अथवा गणनाएं और तुलनाएं इसी यूनिट में कि जाती है। यह  यूनिट ऐसे इलेक्ट्रॉनिक परिपथो  से बनी हुई होती है जिसमें सारी बाइनरी क्रियाए संपन्न होती है।

Control Unit:- यह  कंप्यूटर का सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भाग होता है। कंप्यूटर के सभी कार्य पर नजर रखता है और उनमें परस्पर  तालमेल बैठाने के लिए उचित आदेश भी देता है।

गुरुवार, 28 मई 2020

कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer) Part - 2





कंप्यूटर चलाने का ज्ञान : चालू एवं बंद करना Part -2 B.Ed. 1st Year EPC-3 Munger University , Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=IlVCDR7FM-k

कंप्यूटर की संरचना (Anatomy of Computer) Part - 2, D.El.Ed. 1st Year. F-12 इकाई - 2, B.S.E.B. Patna. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=x0H4CR2zgbo&t=1s 


कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer)

Input-Output Device :- कंप्यूटर में Input- Output के साधनों का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि एक उपयोगकर्ता का सीधा संबंध इन्हीं उपकरणों से होता है और इन्हीं के माध्यम से वह कंप्यूटर से अपना कोई कार्य संपन्न करता है।  Input के उपकरणों का कार्य यह है कि हम अपनी भाषा में उसे जो भी Data या आदेश देते हैं उसे वो Binary Code में बदलकर कंप्यूटर के C.P.U. में भेज देता हैं।  इसी प्रकार Output उपकरण कंप्यूटर के C.P.U.  से प्राप्त होने वाले परिणामों की Binary Code में होते हैं।  हमारे लिए उचित संकेतो, भाषा तथा चित्रो में बदलकर हमें उपलब्ध कराते हैं। 
                               Input तथा Output Device के द्वारा निम्न कार्य किए जाते हैं।

Input:-
  1. यह  उपयोगकर्ता द्वारा दिए गए निर्देशों को पढ़ता है एवं कंप्यूटर के समझने योग्य बनाता है।
  2. एक आधुनिक कंप्यूटर में इनपुट के रूप में कीबोर्ड, माउस और स्केनर इत्यादि।  होते हैं।
Output:-
  1. यह कंप्यूटर द्वारा दिए गए परिणामों को स्वीकार करता है जो कि Binary  Code  के रूप में होते हैं और उन्हें हमारे समझने योग्य बनाता है।
  2. एक आधुनिक कंप्यूटर में आउटपुट के रूप में मॉनिटर, प्रिंटर, स्पीकर, इत्यादि।  होते हैं।

Central Processing Unit (C.P.U.) :- Central Processing Unit (C.P.U.) ही वास्तविक कंप्यूटर है।  इसे हम लोग कंप्यूटर का मस्तिष्क भी कह सकते हैं, CPU के तीन मुख्य भाग होते हैं :- 
  1. मेमोरी या भंडारण 
  2. अंकगणितीय तथा तार्किक ईकाई 
  3. कंट्रोल यूनिट
                                  
अंकगणितीय तथा तार्किक ईकाई:-   जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है सीपीयू के लिए सभी प्रकार की अंकगणितीय क्रियाएं अथवा गणनाएँ और  तुलनाएं इसी Unit (इकाई) में की जाती है। यह Unit (इकाई) ऐसे इलेक्ट्रॉनिक परिपथो से बनी हुई होती है जिसमें सारी Binary क्रियाए संपन्न होती है।

कंट्रोल यूनिट:-  यह कंप्यूटर का सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण भाग होता है एवं कंप्यूटर के सभी कार्यों पर नजर रखता है एवं उनमें परस्पर तालमेल बैठाने के लिए उचित आदेश भी देता है।

बुधवार, 27 मई 2020

कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer) Part - 1




कंप्यूटर चलाने का ज्ञान : चालू एवं बंद करना B.Ed. 1st Year. EPC - 3 Munger University, Munger Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=leko-xLZJvk

कंप्यूटर की संरचना (Anatomy of Computer) D.El.Ed. 1st Year. F -12 Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=_lhJ3vMsnVU&t=25s

कम्प्यूटर की संरचना (Anatomy Of Computer)


      कंप्यूटर की कार्य प्रणाली को समझने के लिए सबसे पहले हमें उसकी संरचना (Anatomy) को समझना अत्यंत आवश्यक है।

कम्प्यूटर के मुख्य भाग (Main Parts of  a Computer)

प्रत्येक कम्प्यूटर के 5 मुख्य भाग होते हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. Input Unit (इनपुट इकाई)
  2. Output Unit  (आउटपुट इकाई)
  3. Memory (मेमोरी)
  4. Arithmetic and Logic Unit (गणितीय एवं तार्किक इकाई)
  5. Control Unit (कंट्रोल इकाई)




Main Parts of  a Computer

        इनपुट इकाई द्वारा हम अपना डाटा निर्देश या प्रोग्राम कम्प्यूटर में प्रवेश कराते हैं जो A.L.U.  के द्वारा ग्रहण किया जाता है और मेमोरी में उचित स्थान पर store कर दिया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर A.L.U. मेमोरी से ही डाटा तथा निर्देश ले लेती हैं।  जहां कंट्रोल यूनिट के आदेश के अनुसार उन पर विभिन्न क्रियाएं की जाती है और परिणाम आउटपुट इकाई को प्रेषित कर दिए जाते हैं। या फिर मेमोरी में ही स्टोर कर दिया जाता है। अन्य सभी यूनिट  Control Unit के नियंत्रण में ही कार्य का संपादन करते है।

     कम्प्यूटर के पांच भागों में से अंतिम तीन भागों-  Memory,  A.L.U. तथा Control Unit  को सम्मिलित रूप से Central Processing Unit (C.P.U.)  कहा जाता है।  शेष दो भागो Input एवं Output  तो उपयोगकर्ता को संवाद या संपर्क (Interface) कराने के माध्यम है। Input Unit के द्वारा हम अपनी बात कंप्यूटर तक पहुंचाते हैं, वहीं  Output Unit के द्वारा कम्प्यूटर अपनी बात हमारे पास पहुँचाता हैं।


एक आधुनिक कम्प्यूटर




मंगलवार, 26 मई 2020

Log in और Sign In में क्या अंतर होता हैं। B.Ed. 1st Year EPC - 3 Unit - 3.

EPC - 3
Critical Understanding of ICT

Unit - 3
Visualizing ICT - Supported Classroom

Log in और Sign In में क्या अंतर होता हैं।



Sign In:- 
               जब भी हम किसी website में sign In  करते हैं तो website आपके द्वारा Access  किए गए Data को Store नहीं करता है। अर्थात, आपने उस वेबसाइट पर क्या-क्या Activity की,  क्या-क्या update किया और किस चीज पर click किया यह सभी जानकारियां उस website  के Database में Store नहीं होता है यानी  जब भी हमें किसी Website  में Sign In. का Option  दिखे तो समझना चाहिए कि उस  Website  में कोई भी Activity Record  नहीं होगी।

Example:-
                   Gmail, Google Plus(+), BOI (Bank of India) Mobile Application.etc.


Log in:-
               Login के अंतर्गत जब हम किसी website  पर Visit  करते हैं तब वह हमारी सारी Activity को अपने  Server पर Store  कर लेता है उदाहरण के तौर पर यदि हम FACEBOOK  की बात करें तो हम पाते हैं कि Login  के साथ ही Facebook हमको Track करना शुरू कर देता है। Facebook को पता होता है कि कौन सी Photo हमने कब Upload की और किस Photo को Like एवं Dislike (नापसंद)  किया है। यह सभी Login Features (विशेषताएं)  के कारण होता है। 

Example:-
                  Facebook, Instagram, Online Shoping Site- Flip kart, Amazon, Banking App- Bhim, IRCTC Rail Connect.etc. 

नाटक के स्वरूप: एकल, समूह (Forms of Drama) Solo, Group. B.Ed. 1st Year. EPC - 1

Unit - 1
Drama as Performing Art

नाटक के स्वरूप: एकल, समूह


         रंगमंच अभिनेता का माध्यम है, किंतु दुर्भाग्यवश रंगमंच में अभिनेता की अलग पहचान नहीं बन पाई है।  इस पहचान के बिना रंगमंच की पहचान भी संभव नहीं है। एकल अभिनव पूरी तरह अभिनेता का रंगमंच हैं। यह एक अभिनेता को उसके द्वारा अर्जित अनुभव कार्य दक्षता और कल्पनाशीलता के प्रदर्शन का स्वतंत्र अवसर उपलब्ध करता है और उसे उसकी जादुई शक्ति के साथ रंगमंच का प्रतिष्ठापित भी करता है। एकल नाट्य (एकल अभिनव) किसी भी स्तर पर सामूहिकता का निषेध नहीं करता। बल्कि यह सामुदायिक जीवन का एक अंग है क्योंकि यह व्यापक दर्शक समुदाय को संबोधित करता हैं।
     एकल अभिनय भले ही सरल लगता हो किंतु वास्तव में यह समूह अभिनय से ज्यादा जटिल है। कल्पनाशीलता तथा नाट्य कौशल में सिद्धहस्त अभिनेता ही एकल नाटक की प्रस्तुति कर सकता है। समूह अभिनय में जहां अनेक अभिनेताओं की क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा नाटक को प्रस्तुत किया जाता है। वहीं एकल नाटक में एक व्यक्ति के द्वारा ही सारे कार्य को संपादित करना होता है।
      बांग्ला रंगमंच में, एकल अभिनय की परंपरा काफी वर्षो से है। कुछ वर्षो से हिंदी, कन्नड़, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं में एकल अभिनय के प्रयोग किए गए हैं। यदि हम बिहार के परिपेक्ष्य में बात करें तो हम पाते हैं कि पटना के अनेकों रंगकर्मियों के द्वारा भी एकल अभिनय के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए गए हैं।
         रंगमंच एवं रंगकर्मी के लिए किसी भी नाटक की प्रस्तुति एक जैसी ही होती है। इसलिए एकल अभिनय एक सामान्य नाटक  की तरह ही होता है। जिसमें अकेले अभिनेता के अतिरिक्त किसी दूसरे अभिनेता की उपस्थिति आवश्यक नहीं होती और इसकी सफलता भी इसी में है की दर्शकों को किसी भी पल किसी अन्य अभिनेता के ना होने का अहसास ना हो।
      एकल अभिनय  को रंगमंच  के एक प्रकार अथवा शैली के रूप में दर्शकों की स्वीकृति भी मिल रही है। जो कि रंगमंच के हित में है।

निष्कर्ष (Conclusion)

          रंगमंच में कुछ भी  एकल नहीं हो सकता। यहां तक कि अगर एक लैम्प/light  भी मंच पर जल रहा हैं। और दर्शक उसे देख रहे है तो यह एक सामूहिक प्रक्रिया है। मेरे विचार में यह नाटक के स्वरूप (एकल/समूह) एक शैली है।
         एकल यानी अकेला, अगर एक व्यकित बोल रहा है और दूसरा सुन रहा है तो इसे एक एकल नहीं कहेंगे। क्योंकि एक अभिनेता है और दूसरा दर्शक। इन दोनों के संयोजन से यहां रंगमंच का निर्माण हो रहा है। जिसे हम एकल अभिनय का नाम देते हैं वहां तो एक विशाल जनसमूह मौजूद रहता है। जहां से शैली तो एकल है लेकिन उसका प्रभाव नहीं। प्रभाव सामूहिक हैं।

सोमवार, 25 मई 2020

शिक्षा में रंगमंच की अवधारणात्मक समझ तथा उपयोगिता, इकाई - 3 प्रदर्शन कला (Performance art) D.El.Ed. 1st Year.

इकाई - 3 प्रदर्शन कला (Performance art)

शिक्षा में रंगमंच की अवधारणात्मक समझ तथा उपयोगिता




शिक्षा में रंगमंच की अवधारणात्मक समझ तथा उपयोगिता D.El.Ed. 1st Year. इकाई-3 Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=JF1-ay3vYGM&t=2s

    शिक्षा में रंगमंच के अंतर्गत विद्यार्थी अपने भाव-पक्ष तथा तर्क-पक्ष को सृजनात्मकता से जोड़कर स्वस्थ मनोरंजन के साथ ज्ञान लाभ भी प्राप्त कर सकता है। यह गतिविधियां विद्यार्थी को अधिक विचारशील, सकारात्मक, सृजनशील एवं चतुर  बनाती है।
         शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों का सर्वागीण विकास करना होता है। सर्वागीण विकास से तात्पर्य बौद्धिक (Intellectual) शारीरिक, सामाजिक एवं नैतिक विकास (Moral development)  करने से है।
        शिक्षा का उद्देश्य बालक एवं बालिकाओं को सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से विकसित करना होता हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु पाठ्य-पुस्तकों तथा पाठ्य-सहगामी (Text Concomitant)  रचनात्मक गतिविधियों के मध्य संतुलन आवश्यक है।
        पाठ्यक्रम के साथ-साथ  चलने वाली गतिविधियों को पाठ्य सामग्री अभिक्रिया कहते हैं।  यह  विद्यार्थियों को अपने कौशलों एवं रचनात्मक क्षमता को प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान करती है। इन गतिविधियों के अंतर्गत कला (Art), संगीत (Music), नाटक (Drama), नृत्य (Dance), इत्यादि। रचनात्मक गतिविधियां सम्मिलित है।ऐसी कलाएं रचनात्मकता से परिपूर्ण होती है। यह बच्चों की कल्पनाओं को यथार्थ रूप में धरातल प्रदान करती है। बच्चे इन गतिविधियों में भाग लेकर अपने मन की कल्पनाओं को कला के माध्यम से प्रस्तुत कर सकते हैं।
     ऐसी गतिविधियां जो विद्यालय अथवा महाविद्यालय द्वारा आयोजित की जाती है तथा पाठ्यक्रम का अभिन्न हिस्सा होती है तथा शैक्षिक संस्थान का महत्वपूर्ण भाग भी होती है।
       बच्चों के व्यक्तित्व-विकास हेतु किसी भी विद्यालय के पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी गतिविधियों (Curriculum Related Activity) को सम्मिलित किया जाना चाहिए। यह गतिविधियां व्यवहारिक रूप से बालक- बालिकाओं में वाद-विवाद, भाषण, विभिन्न ज्वलंत विषयों पर विचार-विमर्श के माध्यम से स्वतंत्र विचार एवं चिंतन की ओर अग्रसर करती है। यह गतिविधियां तर्कशक्ति नेतृत्व क्षमता का भी विकास करती है। यह  गतिविधियां न केवल बच्चों को क्रियाशील एवं उर्जावान बनाती है अपितु उनकी आंतरिक क्षमताओं को भी उजागर करती है। इनके माध्यम से बच्चों में सहयोग एवं समन्वय की भावना का विकास किया जा सकता है। इनके माध्यम से बच्चे को उसकी क्षमताओं के प्रदर्शन के अवसर देकर उसका मनोवैज्ञानिक स्तर पर विकास कर समाज को सुगठित (Compact, Shapely)  किया जा सकता है।
        हम सभी को ज्ञात है कि प्रत्येक बालक अपने आप में विशिष्ट होता है। प्रत्येक बच्चे में अपनी कुछ क्षमताएं एवं गुण होते हैं। बच्चे असीम ऊर्जा से भरे होते हैं। रचनात्मक एवं पाठ्य सहगामी गतिविधियां उनकी ऊर्जा एवं क्षमताओं को उचित दिशा प्रदान करती है जिससे उनके भावों को अभिव्यक्ति का माध्यम मिलता है। इन गतिविधियों के माध्यम से बच्चे के व्यक्तित्व में संतुलन लाया जा सकता है।

रविवार, 24 मई 2020

नाट्य: अवधारणा की समझ और शिक्षा में इसका महत्व (Understanding the concept of Drama and its relevance for Education)



नाट्य: अवधारणा की समझ और शिक्षा में इसका महत्व

Tell me and i will forget,
Teach me and i remember,
Involve me and i learn.

अर्थात्, 
        मुझे बताओ और मैं भूल जाऊंगा,
 मुझे पढ़ाओ और मुझे याद है,
 मुझे शामिल करो और मैं सीखता हूं।

           बेंजामिन फ्रेंकलिन का उपरोक्त कथन नाट्य कला के महत्व को समझने के लिए अत्यंत उपयुक्त है।  नाट्य कला आत्माभिव्यक्ति का एक सुंदर माध्यम प्रस्तुत करता है।  नाट्य कला शिक्षा किसी समस्या का हल ढूंढने में प्रशिक्षुओं को सृजनात्मक रूप से प्रेरित  करता है यह प्रशिक्षुओं को स्वयं तथा विश्व के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी निरूपित करता है।
         नाट्य कला प्रशिक्षुओं के गहरे भावों, विचारों जो यथार्थ रूप में धरातल पर नहीं आ पाते हैं। उनको प्रस्तुत करने का एक सुंदर माध्यम प्रदान करता है।  नाट्य कला शिक्षा में विद्यार्थियों को सृजनात्मक  रूप से उत्प्रेरित (Inspire) कर विश्व के प्रति उनके दृष्टिकोण को निरूपित भी करता है। विद्यार्थी कुछ क्षणों के लिए ही सही दूसरी भूमिका निभा सकता है। इस कार्य के दौरान वह अपने निजी जीवन की समस्याओं के हल भी प्राप्त कर सकता है। नाट्य कला की प्रस्तुति के दौरान प्रतिभागियों को जनसमूह के मध्य बोलने तथा विचार रखने में कठिनाई नहीं होती वे अपनी बात को प्रभावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करने में समर्थ हो जाते हैं एवं दूसरों के दृष्टिकोण को समझने में भी सफल रहते हैं। 
        'नाटक' विद्यार्थियों को समूह (Team) में कार्य करने हेतु तैयार करता है नाटक सहनशीलता तथा सहानुभूति की भावना का विकास करता है। एक अभिनेता के लिए यह आवश्यक है कि वह दूसरे पात्र को पूर्णता समझे तथा यह जाने कि उसके दृष्टि से इस का किरदार कैसा है?  इस प्रकार हम पाते हैं कि नाटक विश्व को अच्छे नागरिक प्रदान कर सकता है।  ऐसे विद्यार्थी जो नाटक में प्रतिभागी होते हैं वह ऐतिहासिक तथा वर्तमान घटनाओं को समझने में सक्षम होते हैं। नाटक साहित्य को समझने में भी सुगमता प्रदान करता है।
             नाट्य कला एक ऐसी विशिष्ट कला है। एक ऐसा उपकरण है जिसके माध्यम से मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है। नाट्यकला विद्यार्थियों की ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा अंग-संचालन संबंधी क्षमताओं का विकास करता है। विभिन्न संस्कृतियों (Cultures, Civilization) में नाट्य कला मानवीय व्यवहार के दर्पण के रूप में उपयोग में लाई गई है।

         नाट्य कला एक विशिष्ट कौशल है जो विद्यार्थियों में- 
  1. कल्पनाशीलता का विकास करता है।  
  2. सृजनात्मक आत्माभिव्यक्ति(Creative Self-esteem Expression) की शक्ति का विकास करता है।
  3. निर्णय तथा समस्या के हल संबंधी क्षमता का विकास करता है। 
  4. विश्व एवं स्वयं को समझने में सहायता करता है। 
  5. आत्मविश्वास योग्यता के महत्व की समझ का विकास करता है। 
  6. दूसरों के प्रति उदारता के भाव को विकसित करता है।

भारतीय परिदृश्य में शिक्षकों के स्व में परिवर्तन: गुरु से प्रोफेशनल तक Part.-2. B.Ed. 2nd Year, EPC - 4. Unit - 1 Munger University, Munger.


भारतीय परिदृश्य में शिक्षकों के स्व में परिवर्तन:  गुरु से प्रोफेशनल तक

            भारतीय परिदृश्य की बात की जाए तो हम पाते हैं कि शिक्षकों के स्वयं में परिवर्तन हुए हैं एवं वह सभी आज गुरु से व्यवसायिक (Professional)  बन गए हैं। शिक्षा में इतनी विषमता (Disparity) पहले कभी नहीं थी जितनी आज हमें दिखती है। कुछ विद्यालय और महाविद्यालय बहुत महंगे हैं और सब की पहुंच से दूर है। दूसरी और अधिकतर स्कूल ऐसे हैं जहां ना पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं हैं और ना ही विद्यार्थियों के अनुपात में शिक्षक।
           यदि हम पाठ्यक्रम की बात करें तो अधिकतर व्यवसायिक पाठ्यक्रम वाले महाविद्यालयों में नामांकन पाने की होड़ मची रहती है क्योंकि सभी को यह लगता है कि इस प्रकार के कोर्स (course) कार्यप्रणाली श्रृंखला से अच्छे भविष्य का रास्ता खुलता है। लेकिन इन कॉलेजों में प्रवेश पाना भी पैसों की ताकत पर निर्भर करता है वहां बस पैसों की मांग(Ask) होती है ना की योग्यता की।
          इन्हीं सब परिस्थितियों ने शिक्षक एवं समाज को बदलना शुरू कर दिया। फलस्वरूप भारत में शिक्षा भी प्रभावित हुई और उसका स्वरूप भी बदलने लगा।  90 के दशक में लागू की गई नई आर्थिक नीतियों के कारण सरकार ने स्वयं को कई जिम्मेदारियों से मुक्त करना शुरू कर दिया और राज्य के द्वारा संचालित अनेक क्षेत्रों को बाजार के हवाले कर दिया गया।  इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण की बाढ़ सी आ गई। बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों और गांवों तक प्राइवेट स्कूलों तथा महाविद्यालयों की भरमार हो गई । शिक्षा अब सरकारी नीतियों से तय ना होकर बाजार के नियमों से संचालित होने लगी। एक प्रतिस्पर्धा-सी हर जगह मच गई और यह स्पष्ट हो गया कि यदि अस्तित्व बचाना है तो बाजार के नियमों के अनुसार चलना होगा। बाजार के नियम क्या है?  बाजार परंपरागत रूप से लाभ और आपूर्ति तथा मांग के नियम से संचालित होता है यह प्रतिस्पर्धा पर चलता है।
             इस प्रकार से देखा जाए तो जिस तरह से समाज बदला बाकी चीजें भी उसी तरह से बदलने लगी और इसका सबसे बड़ा प्रभाव शिक्षा के ऊपर पड़ा।  यदि शरीर के लिए भोजन जरूरी है तो ठीक उसी प्रकार शिक्षा तन और मन दोनों के लिए जरूरी है लेकिन भारत में दो प्रकार की शिक्षा व्यवस्था लागू की गई। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में दोहरी नीति का पालन किया गया और सरकारी के साथ-साथ गैर सरकारी संस्थाओं को चलाने की स्वीकृति दे दी गई । परन्तु सरकारी संस्थाओं की तुलना में गैर सरकारी संस्थाएं बहुत तेजी से आगे बढ़ी। ऐसी स्थिति में हम स्वयं या अनुमान लगा सकते हैं कि इस बदलते परिवेश में शिक्षा की क्या भूमिका रही होगी आज के परिदृश्य में शिक्षक को विचारों आदर्शों तथा जीविकोपार्जन,रोजी-रोटी (Livelihood) में से किसी एक को चुनना होगा। इस दोहरी शिक्षा नीति के बीच दो प्रकार के शिक्षक हमारे समक्ष हैं। एक वे जिन्हें सरकारी संरक्षण प्राप्त है और दूसरे वह जो पूरी तरह बाजार के खेल पर आश्रित हैं । ऐसे हालत में जहां एक शिक्षक को दूसरे शिक्षक से प्रतिस्पर्धा है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा के स्तर में गिरावट आना लाजिमी है। यदि हमें शिक्षा के स्तर में सुधार लाना है और बेहतर समाज का निर्माण करना है तो दोनों तरह के शिक्षकों को अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी और अपनी गुणवत्ता में सुधार लाना होगा।

      यदि हम आज की शिक्षा प्रणाली को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि इस शिक्षा प्रणाली में बहुत ही सकारात्मक बातें भी देखी जा सकती है इसका सबसे बड़ा सकारात्मक प्रभाव यह है कि शिक्षा उन जगहों पर भी पहुंच गई जहां कोई सोच भी नहीं सकता था और न ही सरकार इसे कर पाने में सक्षम हो पाती दूसरा फायदा यह हुआ है कि इस दबाव के कारण शिक्षकों को अपनी गुणवत्ता बढ़ाने का मौका मिला है आज के दौर में शिक्षकों की भूमिका और बढ़ गई है जिसे सकारात्मक दिशा में ले जाकर नए नए रास्तों की तलाश की जा सकती है।

निम्नलिखित में से कौन सा कथन एक आदर्श शिक्षक के विशेष अभिलक्षणों को दर्शाता है।

  1. कक्षा में पाठ्यक्रम को पूर्ण करवाता है।
  2. अधिगम में छात्रों की सहायता करता है। 
  3. एक मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक की भांति व्यवहार करता है।
  4. एक कठोर अनुशासक की भांति व्यवहार करता है।

Ans.- 3.एक मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक की भांति व्यवहार करता है।


भारतीय परिदृश्य में शिक्षकों के स्व में परिवर्तन: गुरु से प्रोफेशनल तक Part.-1 B.Ed. 2nd Year, EPC - 4. Unit - 1 Munger University, Munger.


भारतीय परिदृश्य में शिक्षकों के स्व में परिवर्तन: गुरु से प्रोफेशनल तक

       आज शिक्षा के बदलते स्वरूप और भारतीय शिक्षा प्रणाली को देखते हुए इस विषय पर गंभीर विमर्श की जरूरत है और इसके लिए हमें कुछ अति महत्वपूर्ण बुनियादी सवालों से जूझना होगा सबसे पहला प्रश्न यह है कि शिक्षा क्या है?  और वह कौन सा परिवेश है जिसमें शिक्षा बदल रही है ? शिक्षा के इस बदलते परिवेश में शिक्षकों की नई भूमिका क्या होनी चाहिए।
        मनुष्य अपनी प्राकृतिक अवस्था से निकलकर सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में संगठित हुआ तभी से शिक्षा उसका अभिन्न अंग बन गई। दूसरे शब्दों में कहें तो शिक्षा के चलते ही मनुष्य अपने पशु समान जीवन से मुक्त हो सका।

संस्कृत में 1 श्लोक है-

ज्ञानेन हिना:  पशुभि:  समाना:
(ज्ञानहीन पशु के समान है)

         यदि हम प्रारंभिक अवस्था की बात करें तो उस समय मनुष्य की सबसे बड़ी अवस्था थी भूख मिटाना तथा अपने जीवन की रक्षा करना। इसके साथ ही साथ उसकी एक और बड़ी जरूरत थी इस दुनिया के बारे में जानकारी प्राप्त करना।  यहीं से उसके अंदर ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा जागृत हुई। इसलिए कहा गया है कि जहां ज्ञान साध्य है वहीं शिक्षा उस ज्ञान को प्राप्त करने का साधन।

  • साधन और साध्य में क्या अंतर है?
साध्य- 
          वह लक्ष्य, मंजिल या मुकाम जहां आप पहुंचना चाहते हैं।

साधन-
          वह सब जिसका उपयोग साध्य हासिल करने हेतु करते हैं।
eg-
       आप कॉलेज जाना चाहते हैं। यह हुआ आपका - साध्य । कॉलेज जाने के लिए बस/बाइक का प्रयोग करते हैं तो बस/बाइक हुआ -साधन।  इसलिए कहते हैं यातायात के साधन।

आप नौकरी करना चाहते हैं तो यह हुआ आपका -साध्य
कोचिंग, किताबें, मॉक टेस्ट यह  हुए आपके - साधन

इन साधनों में ही आप पूरा ध्यान लगा दे बाकी सब भूल जाए तब वह हुई आपकी - साधना

एक अति महत्वपूर्ण प्रश्न है- 

 क्या अच्छे साध्य की प्राप्ति हेतु- बुरे साधनों को अपनाया जा सकता है। 
 जैसे:-  छल, कपट, मिथ्या वचन, अर्धसत्य,  (जैसे:- अश्वत्थामा मृतो गत: नर ना गज:) इत्यादि

"अश्वत्थामा की मृत्यु की झूठी खबर फैला कर महाभारत में द्रोणाचार्य की हत्या की गई थी।"

       इसीलिए पंचतंत्र में भी कहा गया है कि साम, दाम, दंड और भेद चार प्रकार के साधन हैं। और आधुनिक युग में Everything is fair, Love and War. यहाँ  प्रेम की प्राप्ति और युद्ध में जीत साध्य है और पूरी दुनिया ही साधन।
मेरा उद्देश्य बस बाजी जीतने से है इसके लिए रानी कुर्बान करना पड़े या फिर प्यादा। -रुस्तम

       सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हमें किस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ?? कुछ विद्वानों के अनुसार ज्ञान को जीवन की जरूरतों के साथ जोड़कर देखा गया है जिसे इहलौकिक ज्ञान ( Academic Knowledge) कहा गया है। इसके विपरीत कुछ विद्वानों का मानना है कि जीवन के बाद की दुनिया यानी दैवीय सत्ता, स्वर्ग-नर्क, पुनर्जन्म इत्यादि।  की कल्पना कर परलोक के साथ जोड़कर देखा जाए उसे पारलौकिक या आध्यात्मिक ज्ञान कहाँ जाता है। इसी के कारण अनेकों विषयों का जन्म हुआ।
           असल में शिक्षा मुक्ति और आजादी का सशक्त माध्यम है। शिक्षा ऐसी ताकत है जो भय, अंधकार, अज्ञान, अंधविश्वास, घृणा तथा हीन भावना से मुक्त करती है इसमें किसी प्रकार का अवसाद (Depression) या किसी भी तरह की हताशा (Desperation), निराशा, मायूसी नहीं होती
शिक्षा में सापेक्षता (Relativity, Relativeness) की भावना निहित (Contained, Inherent) होती है। शिक्षा जहां अपनी तकलीफों के प्रति सचेत करती है वही दूसरों के दुख को अनुभव करने की क्षमता भी उत्पन्न करती है। इसीलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो हमारे मन में ज्ञान के लिए भूख पैदा करें।  यदि वह असंख्य प्रश्नों को जन्म दे तो अनेकों प्रश्नों के उत्तर भी तैयार करें।

शिक्षक के रूप में स्वयं के दृष्टिकोण B.Ed. 2nd Year, EPC - 4, Munger University, Munger.






शिक्षक के रूप में स्वयं के बारे में एक दार्शनिक दृष्टिकोण (Philosophical Perspective towards self  of a teacher)

        हमारे धर्म शास्त्रों में माता-पिता और शिक्षक को बालक के जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण माना गया है।  माता-पिता जहां बच्चों का पालन-पोषण करते हैं वही शिक्षक उसके बौद्धिक, आत्मिक एवं  चारित्रिक गुणों का विकास करते हैं। इसी वजह से एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि वह स्वयं उन्नति हेतु ज्ञान को आधार बनाए। ज्ञान के द्वारा स्वयं उन्नत होने से भिन्न-भिन्न शक्तियों का विकास होता है तथा उत्तम एवं श्रेष्ठ आत्मसम्मान की रचना होती है।  ज्ञान की गहराई में गोता लगाने से सभी भटकाव एवं अज्ञानता समाप्त हो जाती है।
      एक शिक्षक का दायित्व बनता है कि वह अपने विचारों पर गहन मंथन करें।  मंथन से शिक्षक के व्यक्तित्व एवं उसके कक्षा-कक्ष (Class-Room) में अध्ययन एवं अध्यापन के समय उसके व्यवहार में बहुत परिवर्तन आ सकता है।
       यदि एक अध्यापक के रूप में हम अपने दैनिक जीवन का केवल 15 मिनट वास्तविकता की समझ को गहरा करने में व्यतीत करते हैं तो यह कौशल धीरे-धीरे एक योग्यता एवं आंतरिक गुण में विकसित हो जाएगी।

स्वयं को पहचानने के निम्न चरण हो सकते हैं:-

  1. आत्मनिरीक्षण और आत्मचिंतन
  2. आंतरिक ईमानदारी और अपने संकल्पों एवं कमजोरियों को स्वीकार करना।
  3. स्वयं सशक्तिकरण (Self-Empowerment)

शिक्षक के रूप में स्वयं के बारे में एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण (Cultural Perspective towards self in role of a teacher.)

           शिक्षा व्यवस्था समाज से अलग होकर कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि वह स्वयं उसका एक भाग है। समाज में फैली जातिगत कुरीतियां, सांस्कृतिक विविधता, लैंगिक असमानता के कारण शिक्षा की प्राप्ति और विद्यालयों मे बच्चों की सहभागिता प्रभावित होती रहती है। शिक्षा व्यवस्था समाज से अलग होकर कार्य नहीं कर सकती, क्योंकि वह स्वयं उसका एक भाग है। समाज में फैली जातिगत कुरीतियां, सांस्कृतिक विविधता, लैंगिक असमानता के कारण शिक्षा की प्राप्ति और विद्यालयों में बच्चों की सहभागिता प्रभावित होती रहती है। विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक समुदायों के बीच जो गहरी विषमता (Asymmetry)  दिखाई देती है। उससे यह प्रतिबिंबित होता है कि विद्यालयी  व्यवस्था स्वयं में कई स्तरों पर बटी हुई है और बच्चों को असाधारण रूप से अलग-अलग शैक्षिक अनुभव भी प्रदान करती है।

         असमान संबंध ना केवल वर्चस्व को बढ़ावा देते हैं अपितु तनाव भी पैदा करते हैं तथा मानवीय क्षमताओं के पूर्ण विकास की स्वतंत्रता में बाधा भी पहुंचाते हैं। यह संपूर्ण परिदृश्य इस तथ्य को प्रस्तुत करता है कि शिक्षक को एक सांस्कृतिक कार्यवाही को भी अंजाम देना होता है।

एक शिक्षक को स्वयं की प्रगति के लिए निम्न 10 सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।

  1. अपने कार्य अथवा व्यवसाय में निष्पक्ष ईमानदार स्पष्ट और गंभीर होना चाहिए जिससे हमारी वाणी मन और कर्म में समानता बनी रहे
  2. दूसरों के साथ हमारा व्यवहार झूठे विश्वास, झूठी शान तथा सामाजिक, आर्थिक,  लैंगिक, जातीय, इत्यादि। शोषण की भावना से पूर्णत: मुक्त होना चाहिए।
  3. हमारे समस्त कार्यों का मूल सिद्धांत सार्वभौमिक प्रेम, सहानुभूति, सद्भाव, सहयोग, शांति और बेहतरी की भावना से ओत-प्रोत होना चाहिए।
  4. अपने विवादों को आपसी बातचीत, विचार-विमर्श एवं कानूनी प्रक्रियाओं के द्वारा ही निपटाना चाहिए।
  5. अपने विद्यार्थियों को स्नेह पूर्वक पढ़ाना चाहिए तथा मानवता के लक्ष्यों की प्राप्ति कैसे की जाए?  इस कार्य हेतु उन्हें प्रेरित भी करना चाहिए।
  6. अध्ययन एवं अध्यापन के कार्य में कभी भी आलस्य को  स्थान नहीं देना चाहिए तथा इसे आनंदित होकर पूर्ण करना चाहिए।
  7. हमें प्रतिदिन अपने आत्मविकास के लिए कुछ समय आध्यात्मिक और नैतिक विकास के लिए आत्मनिरीक्षण, ध्यानाभ्यास एवं अध्ययन के लिए अवश्य देना चाहिए।
  8. शिक्षक के लिए विद्यार्थियों का हित सर्वोच्च होता हैं। शिक्षक को विद्यार्थियों के हित के लिए जो भी आवश्यक कार्य हो उसे संपादित करना चाहिए।
  9. शिक्षक को अध्यापन कर्म का आनंद लेना चाहिए।
  10. शिक्षको को सदा गुणग्राही (Qualitative) बनकर आत्मिक शांति की स्थिति का अनुभव करना चाहिए।


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शनिवार, 23 मई 2020

वार्तालाप एक आदर्श शिक्षकों के विचार B.Ed. 2nd Year, EPC-4, Munger University, Munger.


 आदर्श शिक्षक कैसे हो??

           एक सामान्य और सर्वोत्तम शिक्षक में अंतर सिर्फ एक प्रेरणा (Inspiration, Motive) का ही होता है और यह पूर्णत: सत्य भी हैं। जहॉ एक  सामान्य अध्यापक सिर्फ जानकारियों को बताता है वहीं एक सर्वोत्तम अध्यापक छात्र की जिज्ञासा को प्रेरणा रूपी पंख लगाकर ज्ञान के असीम आकाश में उड़ना सिखाता हैं।
          
            अथर्ववेद का एक श्लोक शिक्षकों की विशेषताओं का बखूबी चित्रण करता है-

पुनरेही  वाचस्पते देवेन मनसा सह:।
वसोष्यतेनि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम ।।

-अथर्ववेद
अर्थात,
           हे वाणी के पति! देव मन के साथ फिर आइए, वसु के पति! निरंतर रमण कराइए मुझमें सुना हुआ मुझ में ही रह जाए।

यदि इस श्लोक को हम गौर से पढ़े तो हम पाते हैं कि इसमें शिक्षक की चार विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। पहला-  एक अध्यापक को वाचस्पति होना चाहिए अर्थात वाणी का अधिपति होना चाहिए। एक ऐसा अध्यापक जिसका अपनी बोली पर पूर्णयता  अधिकार हो जिसके शब्दों पर मजबूत पकड़ हो और संवाद शैली प्रखर (Sharp) हो मतलब जो वह कहना या समझाना चाहता हो उसे वह छात्रों के समक्ष बखूबी तौर पर रख सकें। क्योंकि अगर आप एक कुशल प्रवक्ता (Spokesman) नहीं है तो आप अपने विद्यार्थियों के समक्ष अपने विचारों को सही तरीके से व्यक्त नहीं कर पाएंगे।  जिस विषय में आप उन्हें शिक्षित करना चाहते हैं वह उद्देश्य अपूर्ण ही रह जाएगा। दूसरा, शिक्षक को देवमन से युक्त होना चाहिए यानी  मन पर संयम होना चाहिए।  तीसरा, एक अध्यापक को वसुपति भी होना चाहिए । वसुपति का अर्थ होता हैं - सूर्य, कुबेर सब में निवास करने वाला।चौथी योग्यता है अध्यापक के पढ़ाने का ढंग इतना रमणीय और रोचक होना चाहिए कि एक बार विद्यार्थी को सुनने के बाद उनको हमेशा के लिए याद हो जाये।

एक आदर्श शिक्षक के विचार

        शिक्षा का हर व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति बड़ी-बड़ी सफलताएं आसानी से प्राप्त करता है और यह शिक्षा जो हमें प्रदान करते हैं उन्हें हम शिक्षक कहते हैं शिक्षक (Teacher)  का नाम सुनते ही हमारे सामने साधारण सा दिखने वाला बुद्धिमान व्यक्ति नजर आने लगता है।  शिक्षक अपने ज्ञान से साधारण  छात्रों को भी श्रेष्ठ बना देते हैं एवं उनके जीवन को एक नई दिशा देते हैं, जो उनको सफलता की राह की ओर ले जाता है। शिक्षक का हमारे समाज और व्यक्ति का जीवन बनाने में खास योगदान होता है।

महान व्यक्तियों  द्वारा शिक्षकों के बारे में कहे गए कुछ अनमोल वचन इस प्रकार है-

  1. टेक्नोलॉजी सिर्फ एक उपकरण है। बच्चों को प्रेरित करने के लिए शिक्षक सबसे महत्वपूर्ण है। -Bil Gates
  2. मैंने यह सीखा है कि गलतियां भी उतनी अच्छी शिक्षक हो सकती है, जितना की सफलता।      -जैक वेल्च
  3. सबसे महान शिक्षक जिसे मैं जानता हूं, वह है आपका कार्य।                                          -जेम्स कैश पेनी
  4. सभी कठिन कार्यों में सबसे कठिन कार्य है, एक अच्छा शिक्षक बनना।                               -मैगी गैलीघर
  5. किसी विद्यालय की सबसे बड़ी संपत्ति शिक्षक का व्यक्तित्व होता है।                                    -जॉन स्ट्रेचन
  6. एक बेहतर शिक्षक वह होता है। जो अपने छात्रों को पढ़ाने के अलावा, उन में पढ़ाई की ललक पैदा करने के लिए प्रेरित करें। -Blog Author
  7. एक अच्छा शिक्षक बाहर से जितना साधारण नजर आता है। अंदर से उतना ही रोचक होता है। -Blog Author
  8. शिक्षक दो तरह के होते हैं। एक जो आपको डरा-धमका कर रखते हैं और दूसरे वो जो थोड़ी सी आपकी पीठ थपथपा देते हैं और आप आसमान छू लेते हैं। -रॉबर्ट फ्रॉस्ट (Robert Frost)
  9. एक गुरु जो अपने शिष्यों को सीखने के लिए प्रेरित किए बिना ही सिखाता है वह ठंडे लोहे पर चोट करने के समान ही होता हैं। -होरेस मेन (Horace Mann)
  10. बिना किसी गुरु के दस लाख लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति ही बुद्धिमान बन सकता है।              -बोधिधर्म



शुक्रवार, 22 मई 2020

आत्म की समझ (A Sense of Self)


आत्म की  समझ

          आत्म (स्वयं) एक ऐसा आकर्षण का केंद्र है जिसके इर्द-गिर्द (आस-पास) अनेक आवश्यकताएं और लक्ष्य संगठित होते हैं।  और आत्म (Self) दूसरों मनुष्य के संबंध में विचारों और कार्यों की चेतना है। आत्म से अभिप्राय है:-  स्वयं के प्रति दृष्टिकोणो के विकास का परिणाम।
                 एक मनुष्य स्वयं की पहचान यह कह कर कर सकता है कि, "मेरा घर", "मेरी पाठशाला", "मेरा परिवार", "मेरी जाती", "मेरे मित्र", इत्यादि।  यह सभी बातें उसके अहम् के दृष्टिकोण को दर्शाती है।  व्यक्ति स्वयं के बारे में क्या सोचता है । यह आपस में जुड़े आत्म  के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति के व्यवहार में स्थिरता लाता है।  व्यक्ति के विभिन्न दृष्टिकोणो में एक विशेष संबंध होता है। आत्म विकासात्मक प्रक्रिया है।  जिसमें दूसरे व्यक्तियों के दृष्टिकोण भी शामिल होते हैं यह  एक विकासात्मक प्रतिफल है।

क्रेचफील्ड के अनुसार,  
                                  आत्म वह एक तरीका है जिसमें कोई व्यक्ति स्वयं को देखता है।

जेम्स ड्रिक्ट के अनुसार, 
                             आत्म शब्द का प्रयोग अहम् के अर्थ में किया जाता है। उसके अनुसार आत्म सामान्यत: अहम के अर्थ में एक घटक के रूप में जाना जाता है जो अपनी पहचान की निरंतरता के लिए चेतन रहता है।

यंग के अनुसार,   
                  आत्म को हम वैसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जैसे वह अपने को अंतः क्रिया के संदर्भ में स्वयं देखता या जानता हो।

           आत्म शब्द का प्रयोग किसी एक व्यक्ति की क्रियाओं और व्यवहारों के कुल जोड़ के लिए किया जाता है । यह  इस बात का प्रतिनिधित्व करता है कि कोई व्यक्ति व्यवहार की दृष्टि से क्या है। व्यक्ति के आत्म में वह सब कुछ शामिल होता है जिसे वह अपना कह सके।आत्म वह है जिससे हम परिचित हैं। आत्म व्यक्ति के स्वयं के प्राप्त अनुभव से निर्मित होता है। यह व्यक्ति का आंतरिक संसार है। यह व्यक्ति के विचारों और भावनाओं, आशाओं और निराशाओं, भय और कल्पनाओं एवं उसका स्वयं के प्रति विचार कि वह क्या है? वह क्या था? वह क्या बन सकता है? और उसका स्वयं के बारे में क्या दृष्टिकोण है।
             व्यक्ति की स्वयं के प्रति अभिवृत्ति (Aptitude, Attitude) के ज्ञानात्मक पहलू का अर्थ आत्म की विषय वस्तु से है।
जैसे:-  मैं लंबा हूं, मैं सुंदर हूं, मुझे सब कुछ आता है। इत्यादि। इसी प्रकार के स्वयं के प्रति अभिवृत्ति के भावनात्मक पहलू का अर्थ उन भावनाओं से है जो व्यक्ति अपने स्वयं के प्रति रखता है।

 "यह कार्य मैं कर सकता हूं। यह हुआ आपका ज्ञान।
 लेकिन यह कार्य सिर्फ मैं ही कर सकता हूं यह हो गया आपका अभिमान।।

        इन भावनाओं  को शब्दों में व्यक्त करना कठिन कार्य होता है मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आत्म जन्मजात नहीं होता यह सामाजिक स्थितियों की क्रिया का अर्जित परिणाम है।

जैसे भोजपुरी में एक कहावत है-

संगत से गुण आवत है, औऱ संगत से गुण जात।


स्वयं की अवधारणा से तात्पर्य  (Meaning of the Concept of Self):-  व्यक्ति स्वयं के बारे में जो सोचता है तथा अपने बारे में जो अवधारणा विकसित करता है उसे ही हम स्वयं की अवधारणा (concept of self) कहते हैं।
             इसे हम लोग दो रूपों में विभाजित कर सकते हैं-
  •  वास्तविक स्वम् (Real Self)  
  • आदर्शात्मक स्वम् (Ideal Self)
वास्तविक स्वमं  का तात्पर्य होता है व्यक्ति अपने बारे में क्या सोचता है।  जैसे वह कौन है?  उसमें क्या-क्या विशेषताएं हैं? इत्यादि।  आदर्शत्मक स्वयं का अर्थ  होता हैं। वह कैसा होना चाहता  है? तथा आगे चलकर कैसा बनना चाहता है? इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वयं के दोनों रूपों में से प्रत्येक का संबंध शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों पहलूओ से होता है। शारीरिक दृष्टिकोण में शारीरिक अनुभव एवं शारीरिक क्षमता तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण में बुद्धि कौशल एवं अन्य लोगों के साथ मानसिक क्षमताओं का प्रदर्शन इत्यादि से स्वयं संबंधित होता है।

          व्यक्तित्व के विकास में अनुवांशिक कारक (Hereditary Factors) तथा परिवेशीय कारक (Environmental Factors)  दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि अनुवांशिकता तथा पर्यावरण के बीच सही ढंग से समायोजन (Adjustment) स्थापित नहीं होगा तो व्यक्तित्व का विकास होना असंभव होता है। व्यक्तिगत अनुभव भी व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करते हैं।

स्वयं का विकास ( The Development of Self):- स्वयं के विकास में सामाजिकीकरण (Socialization) की अहम भूमिका होती है।  बच्चों के प्रारंभिक स्वयं के स्वरूप पर माता-पिता तथा सहोदरों (Siblings) का अधिक प्रभाव पड़ता है।  क्योंकि वे प्रारंभिक वर्षों में उन्हीं के संपर्क में सर्वाधिक रहते हैं।  जिस बालक के छोटे भाई-बहन होते हैं। उनकी भूमिका परिवार में एक जिम्मेदार बालक की हो सकती है। इसका भी प्रभाव बालक के स्वयं के विकास (Development of self)  पर पड़ता है।  बालक जब  विद्यालय में प्रवेश करता है तब उसका सामाजिक दायरा बढ़ता है। बालक को विभिन्न वस्तुओं, व्यक्तियों एवं घटनाक्रमों के प्रति अभिवृत्तिया (Expressions) उन अभिवृत्तियों से प्रभावित होती है जो उसके जीवन में प्रमुख अभिकर्ता (Main Agent) जैसे:-  शिक्षक, माता-पिता, पड़ोसी, मित्र, आदि के रूप में होते हैं।

स्वयं के बारे में एक दार्शनिक दृष्टिकोण (Philosophical perspective towards Self):- स्वयं के संदर्भ में जो सबसे महत्वपूर्ण विचार या परिपेक्ष्य है वह है अस्तित्ववादी परिप्रेक्ष्य (Existential Perspective)  यह परिपेक्ष्य व्यक्ति के विचारों एवं व्यवहार पर बल देता है। इसकी विशेष रूचि व्यक्ति के स्वयं में, स्वयं के मूल्यांकन में, भावनाओं (Emotions) एवं संवेदनाओं (Condolences) के अध्ययन में होता है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सारे विचार और सिद्धांत उसके चिंतन का ही परिणाम है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपना सिद्धांत स्वयं खोजना या बनाना चाहिए। दूसरों के द्वारा निर्मित या प्रतिपादित सिद्धांतों को स्वीकार करना उसके लिए आवश्यक नहीं होता।
               संसार को स्वयं की अभिव्यक्ति कभी नहीं समझना चाहिए, ना ही संसार को एक मात्र साधन या आत्मपरिचय को प्राप्त करने का उपाय। इससे यही आशय स्पष्ट होता है कि जीवन का अर्थ स्थिर नहीं है और ना ही इसका कोई किनारा। हम जीवन के अर्थ को तीन तरीकों से ढूंढ सकते हैं-

  • कर्म के माध्यम से 
  • किसी के या किसी वस्तु के मूल्य को अनुभव करके 
  • पीड़ा से
        जीवन के अर्थ को पहले तरीके से पूर्ण करना अत्यंत लाभदायक होता है। दूसरे तरीके के द्वारा जीवन में अर्थ का प्रवेश होता है। और वो अनुभव से ही प्राप्त होता है। यह शिक्षा हमें प्रकृति से, संस्कृति से या फिर किसी को अनुभव करके, अनुभव करना यानी प्रेम के द्वारा प्राप्त की जा सकती है। तीसरा तरीका जो मनुष्य को अपने जीवन के अर्थ को खोजने में सहायता करता है वह है, पीड़ा। मनुष्य जब भी असहाय या ऐसी परिस्थिति से गुजरता है जिसका परिणाम उसके हाथ में ना हो । जैसे:-  कोई लाइलाज बीमारी। उसी वक्त एक इंसान को अपनी पहचान को बोध करने का भरपूर मौका मिलता है। अर्थात कष्ट को झेलकर  ही जीवन का सबसे बड़ा अर्थ पाने का अवसर प्राप्त होता है।

स्वयं के बारे में एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण(Cultural Perspective towards Self):- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह कथन महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का है अरस्तू प्लेटो के शिष्य थे एवं सिकंदर के गुरु भी थे।मानव समूहों के बीच रहता है। विश्व के समस्त जीवधारियों में केवल यही संस्कृति का निर्माता है कोई भी संस्कृति प्रकृति प्रदत नहीं होती यह मानव समाज के द्वारा ही निर्मित होती है। संस्कृति स्वयं (self) के निर्माण में अहम भूमिका निभाती है। संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि में सकारात्मक परिवर्तन भी लाती है यह हमारे धार्मिक कार्यों में,  मनोरंजन में, वर्ग संचालन एवं ज्ञान प्राप्त करने में और आनंद प्राप्त करने के तरीकों में भी देखी जा सकती है।
             संस्कृतिया व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करती है।  सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment) में भिन्नता के कारण लोगों के आचार-विचार में भी भिन्नता आ जाती है। जिस संस्कृति की जैसी मान्यता तथा विचारधारा होगी उसमें पोषित लोगों में उसी प्रकार के गुणों का विकास भी होता है। व्यक्तित्व संस्कृति का दर्पण होता है। सांस्कृतिक मान्यताओं का ही परिणाम है कि कुछ समाज के व्यक्ति अधिक धर्मार्थ, शांत और विनम्र होते हैं। जबकि कुछ समाज के सदस्य ईर्ष्यालु  एवं आक्रामक होते हैं। सांस्कृतिक तत्वों का प्रभाव बालक  के व्यक्तित्व पर बड़े ही विचित्र ढंग से पड़ता है।

कबीर के दोहे


उज्जल बूंद आकाश की, 
परी गई भूमि विकार। 
माटी  मिली भई कीच सो, 
बिन संगति भौउ छार।।
अर्थात, आकाश से गिरने वाली वर्षा की बूंदें निर्मल और उज्जवल होती है किंतु जमीन पर गिरते ही गंदी हो जाती है। मिट्टी में मिलकर वह कीचड़ हो जाती है इसी तरह मनुष्य  भी अच्छी संगति के अभाव से बुरा हो जाता है।

चन्दन जैसे संत हैं,  
सरूप जैसे संसार। 
वाके अंग लपटा रहै, 
भागै नहीं विकार।।
अर्थात, संत चन्दन की भांति होते हैं और यह संसार सांप की तरह विषैला है।  किंतु सांप यदि संत के शरीर में बहुत दिनों तक लिपटा रहे तब भी सांप का विष-विकार समाप्त नहीं होता है।