बिहार की धरती पर बिहारवासी द्वारा ही फिल्म निर्माण के क्षेत्र के सफल और सार्थक प्रणेता हैं- देव राज्य के तत्कालीन महाराजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह ‘किंकर’। राजा साहेब ने सन् 1930 में ‘छठ मेला’ नामक 16 एमएम के चार रीलों के एक वृत्तचित्र फिल्म का निर्माण करके बिहार में फिल्म निर्माण की प्रथम नींव डाली थी, जिस कारण उन्हें बिहार का दादा साहब फाल्के कहा जाता है।
Note.- भारत के सिनेमाई इतिहास में 1913 में दादा साहेब फाल्के ने मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द’ का निर्माण कर फिल्म निर्माण की पहल की थी।
देव स्थित सूर्य मंदिर की धार्मिक महत्ता को स्थापित करने के उद्देश्य से राजा साहेब ने इस वृत्त चित्र का निर्माण किया था। फिल्म के निर्माता, लेखक और निर्देशक की भूमिका राजा साहेब ने स्वयं की थी तथा रेखांकन और चित्रांकन गौरी शंकर सिंह रैन जी ने किया था। फिल्म का एडिटिंग लंदन से आए ब्रूनो ने की। देव के सूर्य मंदिर और छठ पूजा की महत्ता और उसकी सम्पूर्णता को उजागर करने वाली कुल चार रीलों की बनी यह डाक्यूमेन्ट्री फिल्म लगभग 32 दिनों में पूरी तरह बनकर तैयार हो गई थी। 1930 में इसका प्रथम प्रदर्शन देव स्थित राजा साहेब के गढ़ के भीतर ही किया गया था। देव राज्य के साथ-साथ औरंगाबाद एवं गया के निकटवर्ती क्षेत्रों के कई नामी-गिरामी कलावंत और लोकप्रिय निवासी इस ऐतिहासिक अवसर पर उपस्थित थे। बिहार में ऐसा प्रथम प्रयास था, जिसमें 1930 में बिहार के सिनेमाई सफर की सफल और सार्थक शुरुआत की थी।
14 मार्च 1931 को मुम्बई में भारत की पहली सवाक फिल्म ‘आलमआरा’ का निर्माण किया गया था, जिसके निर्माता-निर्देशक अर्देशीर इरानी थे। राजा साहेब ने अपनी पहली सफलता के बाद महालक्ष्मी मूवी टोन के बैनर तले 1932 में ‘विल्वमंगल’ यानी सूरदास की प्रेमकथा पर एक पूर्ण कथा चित्र टाॅकी फिचर फिल्म का निर्माण किया था, जिसने पूरे देश को चमत्कृत कर दिया था। कथा और संवाद-लेखक थे स्वयं राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह, पटकथा-लेखक एवं निर्देशक थे धीरेन गाँगुली, फिल्म के छायांकन ए.के. सेन और एस. डेविड ने संयुक्त रुप से किया था और इसकी निर्माण व्यवस्था मन्नी गोपाल भट्टटाचार्य ने की थी। फिल्म की शूटिंग देव और गया के विभिन्न स्थलों के साथ-साथ राजा साहेब द्वारा निर्मित कराये गये अस्थायी स्टूडियों में भी की गयी थी। इसके प्रमुख कलाकारों में बिल्वमंगल की भूमिका में गया के वकील अवधबिहारी प्रसाद और चिंतामणि की भूमिका में आरती देवी जिनका मूल नाम था - रैचल सोफिया। बालकृष्ण के रुप में महाराज के बड़े पुत्र कुंवर इन्द्रजीत सिंह और स्वयं महाराज ने विल्वमंगल के पिता का चरित्र निभाया था। इन महत्वपूर्ण भूमिकाओं के अलावा छोटे-बड़े किरदारों में देव और गया के कई स्थानीय कलाकारों ने भी अभिनय किया था। फिल्म की सार्वजनिक प्रदर्शन पहली बार 1933 के जनवरी महीने में रतन टाॅकिज, राँची में समारोह पूर्वक सम्पन्न किया गया था तथा बिहार और उड़ीसा के तत्कालीन राज्यपाल सर माॅरिस हेलेट ने उद्घाटन किया था। इस फिल्म निर्माण के लिए राजा साहेब ने 1929 में इंगलैण्ड जाकर फिल्म निर्माण से प्रदर्शन तक की प्रक्रिया में काम आने वाले सभी उपकरण कैमरा, साउन्ड रिकाॅडिंग, एडीटिंग मशीन, टेलीफोटो लेन्स, रिफ्लेक्टर, आर्क लैम्प और फिल्म की प्रोसेसिंग मशीन यानी डेवलपमेंट और प्रिंटिंग के विभिन्न साधनों से लेकर प्रोजेक्टर मशीन के साथ सात व्यक्तियों के अमले के साथ उस समय के मशहुर फिल्म एपरेट्स कम्पनी ‘बाॅल एण्ड हेवेल कम्पनी’ से खरीद कर लाये थे।
Note.- फिल्म पत्रकार बद्री प्रसाद जोशी द्वारा प्रकाशित चर्चित पुस्तक ‘हिन्दी सिनेमा का सुनहरा सफर’ में इस फिल्म का उल्लेख किया गया है।
देव महाराज जगन्नाथ प्रसाद सिंह की इच्छा अपने बैनर से लगातार फिल्में बनाने की थी, लेकिन 15 जनवरी 1934 को बिहार में आए भयंकर विनाशकारी भूकम्प में सारे मूल्यवान उपकरण एवं मशीन बुरी तरह नष्ट हो गये और उसी वर्ष अप्रैल माह में राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह की असामयिक मृत्यु हो गई और इसके साथ ही बिहार का सुनहरी फिल्मी सफर अधुरी कहानी बनकर रह गयी।
मृत्युजंला कुमारी सिन्हा ✍️
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