मंगलवार, 10 जनवरी 2023

मौर्य कला (Mourya Art)

मौर्य कला (Mourya Art)


      भारतीय इतिहास का 'ऐतिहासिक युग' मौर्य कला (Mourya Art) से ही आरम्भ होता है। इस युग के दो महान विभूतियो भगवान महावीर तथा महात्मा बुद्ध के प्रादुभाव के कारण इसका महत्व विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों महापुरुषो ने सनातन हिन्दू धर्म मे नवीन सुधारवादी राह को जन्म देकर जैन और बौद्ध धर्म का सुत्रपात किया।

            छठी शताब्दी ई०पू० के प्रारम्भ से 324 ई. पू. मे चन्द्रगुप्त मौर्य के सतासीन होने तक के मध्य काल का 'प्राक मौर्य काल' के रूप मे सुविख्यात है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास मे मौर्य युग का महत्वपूर्ण स्थान है। उस युग मे शान्ति, सुरक्षा एवं आर्थिक समृद्धि के परिमाण का समुचित विकाश हुआ। भारतीय कला का वास्तविक स्वरूप मौर्य-कला मे ही देखने को मिलता है जिसका श्रेय मौर्यवंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य तथा उसके पोते सम्राट अशोक को दिया जा सकता है।


       मौर्यकला को अध्ययन की दृष्टि से दो वर्गों मे  विभाजित किया जा सकता है।


  1. राजकीय कला
  2. लोक कला


(1) राजकीय कला:- इस कला के अन्तर्गत  स्थापत्य (Architecture) में नगर निवेश, राज प्रसाद स्तूप, गुहा एवं पाषाण-स्तम्भों की निर्माण को रखा जा सकता है। 'तक्षण कला' (Instant art) मे अशोक कालीन स्तम्भो के विभिन्न अंग तथा शीर्ष की पशु आकृतियाँ विशेष उल्लेखनीय है।


(2) लोक-कला (Folk art):- लोक-कला के अन्तर्गत मनके, मिट्टी की मूर्तियाँ (Terracotta) विशेषतया यक्ष-यक्षिणी की विशाल मूर्तियाँ तथा उत्तरी काली चमकीले मृत्पात्र को दर्शाया जा सकता है। 


         मौर्य काल मे 'कला एवं स्थापत्य' का चारो तरफ विकाश हुआ। अतः भवन सामग्री के रूप मे अब काष्ठ के साथ-साथ पकाई हुई ईटो तथा प्रस्तर का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया जाने लगा। पर्वतीय-चट्टानो को खोदकर उनमे गुहाओं का निर्माण-कार्य भी इसी युग मे आरम्भ हुआ। स्थापत्य के क्षेत्र मे अर्जित इन सभी उपलब्धियों के बाद भी 'नगर नियोजन' (Town Planning) का विकाश हुआ। नगर तथा गाँव के अवासीय भवन नगर ईंट, काष्ठ प्रस्तर तथा मिट्टी से कार्य किये जाते थे। प्रत्येक घर के निर्माण से पहले उसके चारो कोने (corners) पर लोहे की कील गाड़कर सीमा निर्धारित किया जाता था। सूर्य का प्रकाश कमरे मे आ सके जिसके लिये 'खिड़की' के उपर 'रोशनदार' निर्मित करे जाते थे। सधारणतया सभी भवनो मे शौचालय, नालियाँ तथा कुएँ प्रावधान होता था। प्रत्येक घर मे भोजनालय एवं बीच मे आंगन होता था।


         मौर्य काल के आवासीय भवन एक मंजिले तथा बहुमंजिले भी देखने को मिलते थे, जिसमे बहुमंजिले मकानो के उपर जाने हेतु सोपान भी होते थे मौर्य कालीन नगरो के सम्बध मे हमे जानकारी साहित्यिक, अभिलेखीय साक्ष्यो से प्राप्त होता है मौर्य - युग के नगरो मे भवनो का निर्माण पकी हुई ईंटो से प्रारम्भ हो गया था जो कि भवनो के अवशेष हमे तक्षशिला, अहिच्छत्र, अतिरंजी खेड़ा, मधुरा, कौशाम्बी, श्रृंगवेरपुर, राजघाट, वैशाली इत्यादी  जगहो पर हुए उत्खननों से हमे देखने को मिलता है। काष्ठ  निर्मित भवनो के अवशेष पाटलिपुत्र से प्राप्त हुए हैं


* नगर नियोजन :- नगरों को पूर्णतया नियोजित आधार पर बनाये जाने की परम्परा अत्यंत प्राचीन है। पाटलिपुत्र मौर्य सम्राज्य की राजधानी नगर के रूप मे उल्लिखित है। पटना के समीप बुलन्दीबाग नामक स्थल की 1915-1916 तथा 1923 ई0 मे डॉ. डी.वी. स्पूनर द्वारा उत्खनन हुआ जिसमें बुलन्दीबाग मे नगर के शाल-प्रकार के अवशेष फुट 450 लम्बा प्रकाश मे आया। बुलन्दीबाग के उत्खनन से यह निश्चित रूप से प्रतिष्ठापित हो गया कि. मौर्य कालीन राजधानी नगर पाटलिपुत्र की 'रक्षा- प्राचीर काष्ठ निर्मित थी जहाँ कि काष्ठ निर्मित दीवार तथा खण्डित काष्ठ स्तम्भ प्राप्त हुए है जो मोटे लठो से बनाई गई थी। 

         इस लठो के नीचे एक कंकड़ों से निर्मित (Concrete floor) फर्श पाया गया है जिसका विस्तार पूर्व की ओर 350 फुट तक पाया गया है इस तरह 'शहतीरों से निर्मित छत' (Roof) 'परकोटे की भित्ति' के अन्दर बनाया गया प्राप्त हुआ है जो की अनुमान किया जाता है की वह एक गुप्त मार्ग रहा होगा। जितनी गहराई मे ये काष्ठ निर्मित अवशेष प्राप्त हुए है उससे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ये अवशेष पाटलिपुत्र के चारों तरफ बनी तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद का ही भाग है। 


          नगर-योजना की दृष्टि से पाटलिपुत्र के अतिरिक्त जिन अन्य प्रमुख नगरो का विवरण प्राप्त होता है उनमें से तक्षशिला, कौशाम्बी, उज्जयिनी, विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे मिट्टी एवं पकी ईटों के ध्वंशावशेष स्मारक प्रकाश में आया है। नगर के बीच मे राज प्रासाद का निर्माण किया जाता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी अपनी राजधानी पाटलिपुत्र के निर्माण मे इसी तरीका  को अपनाया था। वास्तु विद्याचार्यों के अनुसार नगर के कुल क्षेत्र के 9वें भाग मे राजमहल का निर्माण किया जाता था। जिसका प्रवेश-द्वार अधिकांश पूर्व मुख या उत्तर दिशा मे होता था। राजप्रसाद मे आने-जाने के लिए 'गुप्तद्वार' भी बनाए जाते थे। 


       पटना के समीप कुम्हरार नामक स्थान पर सन् 1912 - 1916 ई. मे सम्पादित उत्खननो मे डी.वी. स्पूनर तथा एल. ए. बैडेल को मौर्यकालीन 'राजप्रसाद' के अवशेष प्राप्त हुए थे यहाँ ईंटों से निर्मित अनेक अवशेष प्रकाश में आया है जिनमें से अधिकांशत: मौर्यकालीन है इसी क्रम में सन् 1955- 1956 ई0 मे पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रोफेसर बी. पी. सिन्हा के निर्देशन में पटना नगर के चार स्थलों पर उत्खनन कराया गया जिनमें तीन सांस्कृतिक-कालो से सम्बन्धित पुराविशेष प्राप्त हुए। इन सभी पुरावशेष से पाटलिपुत्र की प्राचीन वास्तुकला पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है वास्तव मे जो पुरावशेष कुमहरार से प्राप्त हुए वह अपनी विशालता, भव्यता एवं कलात्मक सुन्दरता के कारण प्रसिद्ध है


        कुमहरार से एक प्रस्तर के 80 स्तम्भों युक्त एक 'विशाल सभागार' के अवशेष प्राप्त हुए है ये छः मीटर से अधिक एकाश्म स्तम्भ आठ पंक्तियों मे विभाजीत है तथा पूर्व से पश्चिम की ओर जाने वाली प्रत्येक पंक्ति मे दस स्तम्भ हैं। इस 'सभागार' के छत एवं फर्श काष्ठ निर्मित थे जो अग्निकाण्ड में नष्ट हो गये। यह भवन 'राजप्रासाद' ही रहा होगा। उसके दक्षिण मे काष्ठ निर्मित सात चबूतरे मिले है। प्रत्येक मंच 09 मीटर लम्बा 01.50 मीटर चौड़ा तथा 01.35 मीटर ऊंचा है इस प्रकार के राज-प्रसाद तथा सभा भवन की वास्तुगत विशेषताओ के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है की मौर्य काल मे भारतीय स्थापत्य किस श्रेष्ठता को प्राप्त था


* स्तूप (stupa):- स्तूप-निर्माण का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से जोड़ा जाता है किन्तु प्राय: यह परम्परा वैदिक काल मे आरम्भ हो गई थी। ऐसे मिट्टी के टीले महापुरुषों की मृत्यु के बाद उनकी "भस्म अवशेषो'' को भूमि के नीचे गाड़कर निर्मित किये जाते थे। बौद्ध-धर्म मे स्तूप शब्द का प्रयोग 'मृतदेह के भस्मावशेषो' के उपर निर्मित समाधि के अर्थ मे हुआ है  

       बौद्ध परम्परा के अनुसार प्राचीन सम्राट अशोक ने प्राचीन स्तूपों मे बुद्ध की शरीर धातु निकलवाकर उसके उपर 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया था। मौर्यकालीन स्तूपो मे अशोक द्वारा निर्मित अधिकांश स्तूप नष्ट प्राय हो चुके है। इनमें सारनाथ का 'धर्मराजिका स्तूप' भरहुत साँची तथा बोधगया के स्तूप मूलतः अशोक द्वारा निर्मित माना जाता है सारनाथ के 'धर्मराजिका स्तूप' का भग्नावेश अशोक स्तम्भ के समीप ही विद्यमान है जिसके चारो तरफ मनौती स्तूप (Votive stupes) निर्मित है सारनाथ का ईटो का बना गोलाकार मौर्य स्तूप लगभग  6० फुट व्यास का रहा होगा और यह स्तूप एक दुसरे के उपर ६: बार आच्छादित किया गया था। उसके समीप ही दक्षिण की ओर एक ही प्रस्तर को काटकर बनाई गई वेदिका प्रकाश मे आई है। यह वेदिका प्रारम्भ मे सम्भवतः धर्मराजिका स्तूप की 'हार्मिका' के रूप में बनी होगी।

          पुरातात्विक उत्खननों से ज्ञात होता है कि मूलरूप में अशोक द्वारा निर्मित धर्मराजिका स्तूप ईंटों  से बना था जिसका व्यास 44 फुट 03 इंच था।


* शैलकर्ता गुहा (Rock-cat Caves) :- शैलकर्त्त गुहा निर्माण का सूत्रपात तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था जब मौर्य सम्राट अशोक ने बिहार में लगभग 24 किलो मीटर उत्तर दिशा में मौजूद 'बराबर एवं नागार्जुनी' की ठोस चट्टानो को काटकर गुहा निर्माण की तकनीक प्रारम्भ कराई  बराबर की पहाड़ी मे चार तथा नागार्जुनी पहाड़ी में तीन शैलकर्ता गुहा है जो भारतीय स्थापत्य के क्षेत्र मे विशिष्ट मानी जाती है। सम्राट अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ ने इन गुफाओं को बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए बनवाया था

         वास्तुकला की दृष्टि से सुदामा तथा लोमस ऋषि गुहा विशेष उल्लेखनिय है- इनमे बराबर पहाड़ी की सुदामा गुफा को सबसे प्राचीन माना जाता है  सुदामा एवं लोमस ऋषि दोनों गुफायें एक दूसरे के निकट बनाई गई है तथा दोनों के सामने का आकार लकड़ी तथा फूस द्वारा आकार निर्मित झोपड़ियाँ के सदृस्य देखने को मिलता है


1. सुदामा-गुहा:- सुदामा गुहा सम्पूर्ण गुहा समूह मे प्राचीन माना जाता हैं  चट्टानों को तराश  कर इस गुहा में दो कक्ष बनाये गये है इसका मुख्य कक्ष 'वृताकार' है तथा उपकक्ष 'आयताकार' है। उस गुहा के छत ढलुआ बनाया गया है इसके वृताकार कक्ष में एक छोटा प्रवेश-द्वार भी है। सुदामा गुहा 10.85 मीटर लम्बी तथा 5.85 मीटर चौडी तथा 3.70 मीटर ऊँची है।


लोमश ऋषि गुहा :- इस गुहा के निर्माण मे भारतीय 'काष्ठ-कला' को प्रस्तर मे तराश कर उतार दिया गया है किंतु सुदामा गुहा से इसकी वास्तुगत समानता को देखते हुए इसे मौर्यकाल मे ही निर्मित माना जाता है इसमें भी दो कक्ष है जो एक दुसरे दरवाजे से जुड़े हैं। 'गजवृताकार छत' को सहारा देने वाले सामने की ओर निर्मित आयताकार स्तम्भ उपर की ओर जाकर एक दुसरे के निकट हो गये है। इन दोनो स्तम्भों के बीच मे थोड़ी अन्दर की ओर धंसी हुई बनाया गया है। 

         लोमश ऋषि गुहा को अत्यंत अलंकृत बनाया गया हैं। इस गुहा के प्रसिद्धी का आधार मौर्य ओप (Mauryan Polish) है। इसके अन्दर की दीवारों तथा छत (ceiling), पर ओप (Polish) के कारण ये शीशे भी भांति चमकते है। इस गुफा का चैत्य कक्ष अण्डाकार है तथा प्रवेश द्वार भी काष्ठ द्वारा ही प्रतिकृत होता हुआ लगता  है।  


एकाश्म स्तम्भ (Monolithic pillars):-

                 वास्तुकला के क्षेत्र मे मौर्य की प्रमुखता 'शिल्प स्तम्भों' के निर्माण बहुत ही कौशल ढंग से किया गया हैं ये स्तम्भ निसंदेह रूप से अशोक कालीन मूर्तिकला के सार है। इनके निर्माण मे शिल्प का अद्भुत कौशल देखने को मिलता है। 

         अशोक कालीन इन  पाषाण-स्तम्भों की अनुमानित संख्या तीस बतलाई जाती है जिनमे कितने स्तम्भ नष्ट भी हो चुके है। अशोक के कुछ 'पन्दह स्तम्भ' देखने को मिले है जिनमें दस मे अभिलेख उत्कीर्ण है। अशोक के सातो स्तम्भ-लेख केवल दिल्ली (टोपरा) मे ही उपलब्ध है। पाषाण स्तम्भ वास्तव में भारतीय कला के सबसे मौलिक एवं सुन्दर निर्माणों मे से एक रहे हैं मौर्यकालीन पाषाण स्तम्भों का निर्माण एक ही लम्बी शिला को तराश कर बनाया गया हैं और उसमे कहीं जोड़ भी नहीं है। इन पाषाण स्तम्भों की लम्बाई 40 से 50 फिट तक  माना जाता है। इन स्तम्भों के ऊपरी भाग का व्यास (Dia) है। 01 फिट 06 इंच से लेकर तक 02 फिट 01 इंच तक है। इन स्तम्भों के प्रमुख निम्न भाग:-


  1. स्तम्भ यष्टि (shaft)
  2. स्तम्भ यष्टि की चोटी पर स्थापित ' घण्टाकृति 
  3. स्तम्भ पटिका (Abacus) 
  4. स्तम्भ शीर्ष पर मूर्त पशु आकृति (Crowning Animal)


            इन सभी स्तंभों पर जो पशु मूर्ति का अंकन हमे देखने को मिलता है उन सभी को उच्चकोटि के 'बलुआ प्रस्तर' (Sand Stone) से निर्मित किया गया है। इन पाषाण स्तम्भो की यष्टि (shaft) नीचे से उपर की ओर क्रमश: पतला होता गया है। 


            अशोक कालीन के पाषाण - स्तम्भों मे सबसे सुरक्षित अवस्था मे लौरिया नन्दनगढ़ का सुनिर्मित स्तम्भ देखने को मिलता है जिसके शीर्ष पर सिंह एवं सांढ की मूर्तिया देखने को मिलते हैं। 


         शिल्पकला की दृष्टि से सारनाथ के पाषाण स्तम्भ पर बनी चार सिंहो की मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर है। उन सिंहो के निर्माण मे उनकी पुष्ट मांसपेशियो को अंकित करने एवं उसके उपर प्राकृतिक शौर्य का प्रदर्शन करने मे कलाकार की कुशलता एवं दक्षता सहज रूप से देखने को मिलता है। सारनाथ स्तम्भ की गोल चौकी भाग पर चार छोटे धर्म चक्र और वृषभ, गज, अश्व एवं सिंह की आकृतियाँ बुद्ध एवं वैदिक पर‌म्परा के प्रतिक हैं। पट्टिका के उपर चार सिंह जो चार दिशाओ मे मुँह बैठे हैं। इस स्तम्भ का वज्र-लेप (Mauryan Polish) इसकी प्रमुख विशेषता है। सारनाथ स्तम्म शीर्ष के सिंहो का रूपायन मौर्य कला का उदाहरण है जिसकी समता विश्व मे कहीं भी देखने को नहीं मिलता है।  

           मौर्य राजप्रासाद की कल्पना एवं कलाकृतियो की प्रेरणा का श्रेय सम्राट अशोक को दिया जाता है। 

       मौर्य कला मे स्तूप स्थापत्य का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है मौर्य कला में सम्राट अशोक ने बौद्ध स्तूपो के निर्माण की जो परम्परा डाली वह शुंग कला में और अधिक विकशीत हुई। संस्कृत शब्द स्तूप जिसे एक "थुहा" तथा पाली भाषा मे "धूप" कहा जाता है


        अशोक ने साँची में एक महत्वपूर्ण स्तूप का निर्माण (भोपाल के निकट) किया था, जिसे सांची स्तूप, के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि है यह स्तूप अपने पुर्ण रूप मे सुरक्षित मिळता है। इस प्रकार साँची  स्तूप के मुख्य भाग इस प्रकार है-


  1. अण्ड
  2. बेदिका
  3. प्रदक्षिणा पथ
  4. मेधी
  5. छत्र
  6. सोपान 
  7. हर्मिका


           अवधे अर्थात कटोरानुमा आकार स्तूप का यह ठोस भाग अण्ड कहलाता है और वस्तुतः यही स्तूप का मुख्य भाग होता था अण्ड के उपरी भाग में प्राय: अस्थि पेटिका गाड़ कर रखी जाती थी उसके चारो ओर से जो उपरी भाग घेर दिया जाता था उसे हर्मिका कहते है। तोरण द्वार से प्रवेश करने पर स्तूप और वेदिका के बीच जो स्थान परिकर्मा करने के लिए रहता था उसे प्रदक्षिण पथ कहते है। मेधि उस गोल चबुतरो को कहते थे जिसके उपर स्तूप का मुख्य अंग रहता था। अस्थि पेटिका के उपर पत्थर कि यष्टि बनी होती थी और उसके शीर्ष पर तीन छत्र होते थे है ये छत्र प्राय: तीन दिखाया जाता था जिससे बुद्ध के तीनों लोको का अधिकार सुचित होता है।, मेधी प्राय: उचाँई पर बने होने के कारण इसके लिए सोपान का प्रयोग किया जाता था


लोक कला (Folk-art):- मौर्य काल के कलाकारों ने समाजिक एवं धार्मिक जीवन से संबधित ऐसे-ऐसे महत्वपूर्ण लोकप्रिय शिल्प सृजन किया है जिसके अन्तर्गत 'यक्ष-यक्षणी' प्रस्तर मूर्तियाँ, मृण्मूर्तियाँ (Teracodta) मनके एवं मृत्पात्र विशेष रूप सं उल्लेखनीय है।


            मौर्य-काल में मूर्ति शिल्प का समुचित विकास हुआ था जिनमें 'यक्ष-यक्षिणी' पाषाण-मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती है। संभवतः यक्षो की मूर्तियाँ मथुरा से शिशुपालगढ़ वाराणसी से विदिशा एवं पाटलिपुत्र से शूरपारक तक के विस्तृत एरिया मे प्राकाश मे आया हूँ। इन मूर्तियाँ मे मधुरा जनपद से प्राप्त यक्ष की मूर्ति जो, परखम् नामक स्थान से प्राप्त हुई है जो सबसे प्रसिद्ध मानी जाती है। यह मूर्ति जिस चौकी पर प्रतिष्ठापित है उस पर एक लेख उत्कीर्ण है। यह मूर्ति 07 फीट ऊँचे बलुए प्रस्तर की बनी हैं तथा इसपर "बज्रलेप" है। उसकी दोनो भुजायें कन्धो के नीचे से खण्डित है। यह मौर्य-कालीन वेश-भूषा से अलंकृत है। यह मूर्ति अभी मधुरा के डैम्पीयर नगर - म्यूजियम मे रखा गया है। 


           इसी प्रकार यक्षिणी की मूर्तियाँ भी प्रकाश मे आया है जो पटना नगर के दीदारगंज से प्राप्त "चामर-लिए यक्षिणी की मूर्ति" तथा बेसनगर की यक्षिणी की मूर्ति विशेष उल्लेखनिय है। 


        पटना के दीदारगंज से प्राप्त आदमकद यक्षिणी की मूर्ति पटना संग्रहालय (वर्तमान में बिहार संग्रहालय) मे सुरक्षित है। उस मूर्ति बाई - हाथ खण्डित है परंतु दाहिने हाथ में  "चामर" लिए है। उस मूर्ति पर चमकदार मौर्यकालीन - लेप किया गया है कला की दृष्टि से यह प्रतिमा स्त्री सौन्दर्य के आदर्श को प्रस्तुत करती है। 


          बेसनगर से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति भी सम्मुख दर्शन एवं "भंगहीन मुद्रा" मे सीधे खड़े होने  के कारण विशिष्ट है। ये सभी यज्ञ तथा यक्षी मूर्तियाँ  लोक-धर्म की प्रमुख अधार थी। उत्खननो मे अहिच्छत्र, मधुरा, हस्तिनापुर, भीटा, राजघाट, बुलन्दरीबाग, कुमहरार (पटना) इत्यादि से मृणमूर्तियाँ (Terracotta) प्राप्त हुई है, जिनमें पशु-पक्षी के अतिरिक्त मानव मूर्तियाँ भी सम्मिलित है। इन मानव-मूर्तियाँ को 'साँचे में ढालकर' बनाये गये है। इन विभिन्न प्रकार के मूर्तियाँ से लोक कला एवं लोक जीवन पर विशेष प्रभाव होता है। पशु मूर्तियों मे हाथी, घोड़ा, बैल, कुत्ता, भेड़ एवं हिरण आदि उल्लेखनीय है। अधिकांश मूर्तियाँ लाल रंग के है जिस पर गेरू का लेप (Slip) चढ़ाया हुआ देखने को मिलता है इनकी आँखो को वृत के अन्दर छेद करके बनाया गया है।  

          बक्सर से प्राप्त उस काल खण्ड की पशु मृणमूर्तियाँ पीले रंग की पड़ी रेखाओ से अलकृत है। ये सभी कलात्मक एवं अत्यंत आकर्षक है। इसके अतिरिक्त मानव मृण्मूर्तियाँ मे नारी मृणमूर्तियाँ तत्कालीन कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। जो एक नारी मूर्ति पटना संग्रहालय मे देखने को मिलता है। इन मूर्ति के केश को  रेखांकन के द्वारा सजाया गया है। एवं इसे घाघरा पहने हुए दर्शाया गया हैं। बुलन्दीबाज के नारी की मूर्ति मे 'डमरू' लिए हुए देखने को मिलता है। पटना संग्रहालय मे ऐसी कितने विचित वेशभूषा युक्त नारी मूर्तियाँ देखने को मिलेंगे जिसके सिर पर टोप, झाल्लदार अधोवस्त्र तथा कमर मे बन्ध है, ये सभी नारी मूर्तियाँ  कला की उत्कृष्ट उदाहरण है।

          दीदारगंज से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति मे एक विशेष प्रकार की कलात्मकता हमे देखनी को मिलता है। दाहिने हाथ में चामर लिये खड़ी यक्षी की आदमकद मूर्ति, विलक्षण रूप, सौन्दर्य, लम्बी कद, सुन्दर सुडौल आकृति, पूर्ण यौवन, मांसल देह, लचीला कमर तथा नाभि के निम्न भाग उदर की लोचदार मांस पेशी  पत्थर पर इस कदर उभारी गयी है कि वास्तविकता को भी मात कर देता है। इसके बाल विशेष रूप से सँवारे गये है। ठुढ़ी, गालों और आखों के आस-पास की आश्चर्यजनक संवेदनशीलता देखने को मिलता है। ये मूर्ति लाल बलुवा पत्थर से बनायी गई है जिसपर एक विशेष पालिश की गई है जो आज भी देखने को मिलता है। 


* मनके :- मृण्मूर्तियों के सादृस्य मौर्यकाल के मनके भी महत्वपूर्ण अंश माने जाते है। कुम्हार  कौशाम्बी, श्रृंगवेरपुर, राजूघाट, वैशाली, कुम्हरार एवं चम्पा आदि पुरास्थलों के उत्खनन मे मौर्यकालीन स्तर के गोमेद, रेखांकित करकेतन, तथा मिट्टि के मनके प्राप्त हुए है। इनका आकार, पंचभुजाकार, चतुरभुज, वृताकार एवं बेलनाकार रूप मे देखने को मिलता है। इनमे से अधिकांश मनके 'कलात्मक दृष्टि से महत्पूर्ण है।


मृंदभांड:- (pottery) भारतीय इतिहास के सभी कलात्मकता के क्षेत्र मे मृंदभांड का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कौशाम्बी क्षेत्र के उत्खनन में जो मृंदभांड प्रकाश मे आया है वो सभी उल्लेखनीय है जिससे प्रमाणित होता है कि 400 ई० पू० मे इस प्रकार के मृदभाण्ड का प्रचलन था। उस प्रकार के मृदभाण्ड पश्चिम मे अफगनिस्तान के वेगराम से लेकर पूर्व मे बंगलादेश एवं पहाड़पुर तथा उत्तर मे नासिक तक के सम्पूर्ण क्षेत्र मे प्रचलित था। तेज गति के चाक पर इसे निर्मित किया जाता था। ये मृंदभांड हल्के एवं पटले होते थे।


* मौर्यकला पर विदेशी प्रभाव :- मौर्यकता समस्त भारतीय कला मे अनुपम है लेकिन मौर्य कला की उपलब्धियों एवं सार्वभौम व्यापकता के कारण कुछ पाश्चात्य विद्वानो का यह मानना है कि मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव है। ऐसे विद्वानो मे रोलैण्ड एवं डा. विन्सेन्ट स्मिथ ने यह मत प्रतिपादित किया कि मौर्यकालीन राजप्रसाद तथा सभामंडप ईरानी कला से लिया गया है। उसके अतिरिक्त सिनार्ट ने यह कह डाला की अशोक द्वारा चट्टानों पर लेख खुदवाने तथा धर्मानुशासन के लिये स्तम्भों की निर्माण-पद्धति एवं कला ईनानियों से नकल किया गया है। शायद यह बैक्ट्रिया के यूनानी कलाकार ही थे जिसने सारनाथ के स्तम्भ पर चार सिहों इत्यादि को बनाया होगा। उनके अनुसार यह कहना है कि भारतीय मे इतने कुशल, चित्रकार एवं कलाविद नहीं थे इसलिए अशोक ने सभी कार्य ईरानियों से सीखे। लेकिन स्वतन्त्र स्तम्भ, जो किसी भवन के अविभाज्य अंग न हो, बनाने का विचार न ईरानी है और न ही यूनानी, बल्कि भारतीय है। भारतीय कला के मर्मज्ञो ने भी भारतीय कला पर विदेशी प्रभाव खण्डन किया है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें