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कला समालोचना
(Art criticism)
आलोचना को समालोचना तथा समीक्षा आदि अनेक नामों से अभिहित (Designated) किया जाता है। इसका अंग्रेजी पर्याय Criticism होता है। इन तीनों शब्दों का सामान्य अर्थ "सम्यक निरीक्षण" होता है।
समालोचना का अर्थ -
इसका अर्थ अच्छी तरह अर्थात बराबर एक समान दृष्टि से देखना है किसी कृति या कृतिकार के गुण-दोषों का किया जाने वाला विवेचन, समालोचन कहलाता है।
कला समालोचन के सिद्धांत के तौर पर हम यह प्राप्त करते हैं की किसी भी कलाकृति की आलोचना के दो पक्ष माने गए हैं -
- दार्शनिक पक्ष
- भौतिकवादी/व्यवहारिक पक्ष
- दार्शनिक पक्ष :- दार्शनिक पक्ष के भी चार मुख्य भेद होते हैं-
(१) नैतिक या आदर्शवादी पक्ष - इसके विषय में क्लासिकल युग में सुकरात, प्लेटो, आदि दार्शनिकों ने विचार व्यक्त किया है।
(२) वाह्य सौंदर्य पक्ष - जर्मन चिंतकों में कान्त, हीगेल इत्यादि ने कला समालोचना के विचार व्यक्त किए हैं।
(३) मनोवैज्ञानिक पक्ष - इसके अंतर्गत फ्रायड, कोचे इत्यादि ने अभिव्यंजनावाद के तर्क को नकारते हुए अपना विचार दिया एवं किसी भी कलाकृति/अभिवृत्ति में सहजवृत्ति को मूल माना है।
(४) समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण - इसके अंतर्गत रूसी चिंतक लियो टॉलस्टॉय, कार्लमार्क्स, इत्यादि। ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी विचारधारा के ही अनुसार हम चित्रकला का आकलन करते हैं।
2. भौतिकवादी/व्यवहारिक पक्ष आधुनिक युग में भौतिकवादी पक्ष को लेकर के समालोचना के संदर्भ में दो विचार हमें प्राप्त होते हैं।
(१) पत्रकारिता का दृष्टिकोण - पत्रकारिता के दृष्टिकोण से भी आजकल कलाओं की समालोचना होती है।
(२) शिक्षाशास्त्र की समालोचना - इसके अंतर्गत विभिन्न शिक्षाशास्त्रीयो के द्वारा समालोचना की जाती है।
इन सभी के अलावा कुछ ऐसे समालोचनाए हैं जो हमारे व्यवहार में हमेशा से रही है इसे हम साधारण समालोचना कहते हैं।
कला समालोचना के लिए भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों के अलग-अलग दृष्टिकोण है। पाश्चात्य वृत्ति के अनुसार दृश्य कला के मूल तत्व एवं संयोजन के सिद्धांत के आधार पर समालोचना की जाती है। चित्र के गुण-दोष भी इसी आधार पर देखे जाते हैं।
भारतीय दृष्टिकोण में हमारे ग्रंथों के अनुसार चित्रकला की समालोचना की जाती है। सबसे प्रमाणिक ग्रंथ जो माना गया है वह हैं - "विष्णुधर्मोत्तर पुराण" विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अध्याय "चित्रसूत्र" को सबसे प्रमणिक माना गया है। चित्रसूत्र के अध्याय 41 के 9, 10 एवं 11 में चित्र के गुण बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं -
स्थान प्रमाण भूलंबो मधुररत्वम विभक्तता ।
सादृश्य क्षयवृद्धि च गुणचित्रस्य कृतिता ।।
इस श्लोक में चित्र के 08 गुण बताए गए हैं। ठीक उसी प्रकार एक और श्लोक है -
रेखा च वर्तनाचैव भूषणं वर्णमेव च ।
विज्ञेया मनुजश्रेष्ठम चित्रकर्मेषु भूषणं ।।
यहां पर रेखा के बारे में चर्चा की गई है। रेखा कितने प्रकार की होती है ? वर्तनाचैव का अर्थ छाया-प्रकाश से हैं। भूषणं का अर्थ हुआ - अलंकरण/डिजाइन, वर्ण का अर्थ तो आप सभी जानते होंगे - रंग। यहां यह कहां गया है कि एक चित्रकार को इन सभी सामग्रियों का प्रयोग करके बेहतर चित्र का निर्माण करना चाहिए, आगे इसमें कहा गया है कि जैसे ज्ञानी मनुष्य सर्वश्रेष्ठ होते हैं उसी प्रकार चित्र उनके भूषण यानी गहने का कार्य करती है।
श्लोक संख्या 11 में कहा गया है -
रेखां प्रशंसन्त्याचार्य वर्तना च विचक्षणा: ।
स्त्रियों भूषणं मिच्छन्ति वर्णाख्यम इतरेजना।।
अर्थ - रेखाओं की प्रशंसा आचार्य करते हैं, छाया-प्रकाश की प्रशंसा गुणीजन करते हैं, स्त्रियां आभूषणों की प्रशंसा करती है। रंगों की प्रशंसा सामान्यजन करते हैं।
इन सभी के अलावे भी विष्णुधर्मोत्तर पुराण के और कई जगह भी हमे ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं।
आपकी परीक्षा में इस तरह के प्रश्न आ सकते हैं -
(1). कला समालोचना के बारे में बताएं ?
(2) कला समीक्षा के संदर्भ में प्रकाश डालें ?
(3) चित्रकला के गुण एवं दोष को बताते हुए कला समालोचना सिद्धांत की व्याख्या करें।
Reference :-
https://www.vyakarangyan.com/2022/02/aalochna-kise-kahte-hain.html
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