सोमवार, 29 अगस्त 2022

छाया कठपुतली नाटक की परंपरा पेपर - 04 कला का इतिहास एवं बिहार की कला परंपरा, जिला कला एवं संस्कृति पदाधिकारी के मुख्य परीक्षा का नोट्स। Notes of Main Examination of District Art and Culture Officer.


          भारत में छाया कठपुतलियों से जुड़ी अलग-अलग शैलियों की समृद्ध विरासत रही है। छाया कठपुतलियों का आकार बिल्कुल सपाट होता है। इन्हें चमड़े से तैयार किया जाता है। छाया कठपुतलियों को परदे के पीछे से नियंत्रित किया जाता है और पीछे से तेज रोशनी मुहैया कराई जाती है। परदे और रोशनी के बीच संयोजन से दर्शकों के लिए रंगीन छायाएं तैयार होती हैं।


        छाया कठपुतलियों की परंपरा ओडिशा, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में है। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में छाया कठपुतली नाटक से जुड़ी छह शैलियां हैं। इन्हें स्थानीय तौर पर इस तरह जाना जाता है :- 

  1. महाराष्ट्र में चमाद्याचा बाहुल्य 
  2. आंध्र प्रदेश में थोलू बोम्मलाटा 
  3. कर्नाटक में तोगालु गोमबेयाट्टा  
  4. तमिलनाडु में टोलु बोम्मलाट्टम 
  5. केरल में तोलपव कुथु 
  6. ओडिशा में रावणछाया ।


          कर्नाटक में छाया नाटक को तोगालु गोमवेयाट्टा के नाम से जाना जाता है। इन कठपुतलियों का आकार इनकी सामाजिक हैसियत से अलग-अलग होता है। उदाहरण के लिए, राजा और धार्मिक किरदारों से जुड़ी कठपुतलियों का आकार बड़ा होता है, जबकि आम लोगों से जुड़े किरदारों का आकार छोटा होता है।


        आंध्र प्रदेश के इस छाया नाटक की परंपरा बेहद समृद्ध और मजबूत है। थोलू बोम्मलाटा शैली की कठपुतलियों का आकार बड़ा होता है और इसमें जरूरी सामग्री के जरिये कमर, कंधे, कुहनी और घुटने को भी दिखाया जाता है। कठपुतलियों को दोनों तरफ से रंगा जाता है। इस वजह से ये कठपुतलियां परदे पर रंगीन छाया के तौर पर नजर आती हैं। इसमें संबंधित क्षेत्र का शास्त्रीय संगीत भी पेश किया जाता है और कठपुतली नाटक का विषय रामायण, महाभारत और पुराणों पर आधारित होता है।


        ओडिशा की रावण छाया कठपुतली शैली वाले नाटक भी काफी दिलचस्प होते हैं। इस शैली में कठपुतलियों में किसी तरह का 'जोड़' नहीं होता है। इसे तैयार करने में काफी मेहनत लगती है। साथ ही, इसे बनाते समय प्रमुख नाटकीय भंगिमाओं को ध्यान  में रखा जाता है। इंसान और पशुओं से जुड़े किरदारों के अलावा, पेड़, पहाड़, रथ आदि की छवियों का भी इस्तेमाल किया जाता है। हालांकि, रावणछाया कठपुतलियों का आकार छोटा होता है। सबसे बड़ी कठपुतली दो फुट से ज्यादा की नहीं होती। इस शैली में बेहद संवेदनशील और काव्यात्मक अंदाज देखने को मिलता है।


       बेशक इन शैलियों की अपनी अलग-अलग पहचान, भाषाएं और बोलियां हैं, मगर उनकी विषय-वस्तु, सौंदर्य और नजरिया एक जैसा है। इन कठपुतली शैलियों से जुड़ी कहानियां मुख्य तौर पर रामायण और महाभारत, पुराण, लोक कथाओं आदि पर आधारित होती हैं। इन नाटकों में मनोरंजन के अलावा ग्रामीण समुदाय के लोगों के लिए महत्वपूर्ण संदेश भी होता है। नाटकों का प्रदर्शन गांव के किसी सार्वजनिक स्थान या मंदिर के प्रांगण में किया जाता है। कठपुतलियों के किरदार हास्य रस का भी अनुभव कराते हैं। छाया कठपुतली से जुड़ी सभी नाटक परंपराओं में नृत्य और लय भी मौजूद होता है। इन कठपुतलियों को परदे के पीछे से नियंत्रित किया जाता है। छाया पैदा करने के लिए परदे के पीछे से रोशनी भी मुहैया कराई जाती है। कठपुतलियों के नाटक और नृत्य हमारे त्योहारों का हिस्सा रहे हैं।


        ग्रामीण इलाकों में कभी-कभी बुरी चीज़ों को खत्म करने और इंद्र देवता को प्रसन्न करने के लिए ऐसे प्रदर्शन आयोजित किए जाते हैं। भारत में छाया कठपुतलियों की छह परंपराएं देश के अलग-अलग हिस्सों से हैं। देश के पश्चिम हिस्से महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण भारतीय राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल में भी यह परंपरा मौजूद है। इसके अलावा देश के पूर्वी हिस्से ओडिशा में इसकी मौजूदगी है। आंध्र प्रदेश में किलेकायत/अरे कपू समुदाय के लोग इससे जुड़े हैं, जबकि कर्नाटक में किलेकायत/दायत समुदाय इस कला के लिए काम करते हैं। इसी तरह, केरल में नायर समुदाय, महाराष्ट्र में ठक्कर समुदाय के लोग इस कला से जुड़े हैं। ओडिशा में भाट समुदाय के लोग इसका प्रदर्शन करते हैं तमिलनाडु में किलेकायत समुदाय के लोग इससे जुड़े हैं।

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