प्रबंधन में संकट
(Crisis in Management)
प्रबन्ध में संकट का अर्थ
(Meaning of Crisis in Management)
प्रबन्ध में संकट से अभिप्राय है दो पक्षों के मध्य विचारों में भिन्नता और असामंजस्य की स्थिति, अर्थात् जब परस्पर विरोधी विचारधारा के कारण आपस में सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता, तब संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए, उसका समाधान खोजना प्रबन्ध का कार्य होता है, इसी को प्रबन्ध में संकट कहा जाता है। शैक्षिक प्रबन्ध में विभिन्न स्तरों पर कई संकटों का सामना करना पड़ता है, कई प्रकार के संघर्ष का सामना करना पड़ता है और कई प्रकार की समस्याओं से रू-ब -रू होना पड़ता है। प्रबन्ध संकट के समय निर्णय लेने और मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण करने की विधि है जिससे पूर्व निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके।
मार्टन डेउश (Morton Deutch) महोदय का मत है कि- "संकट एक अतुलनीय प्रयास है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक अनोखे लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। इससे जो उपलब्धि होगी वह दूसरों के आधार पर होगी। संकट की स्थिति में विजय वा पराजय कोई भी स्थिति हो सकती है किन्तु प्रयास यही किया जाता है कि पराजय न हो और विजय ही मिले।"
इस स्थिति में समूहों के मध्य परस्पर प्रतियोगिता हो जाती है। यह प्रतियोगिता संघर्ष को जन्म देती है। इसके फलस्वरूप वैचारिक भिन्नता बढ़ती है और द्वेष भावना प्रारम्भ हो जाती है। इस द्वेष भावना से प्रबन्ध में संकट पैदा होता है।
(Crisis is the Pursuit of incompatible or at least seemingly incompatible goals, such that gains to one side come out at the expense of the other.)
अतः कहा जा सकता है कि शैक्षिक संस्थाओं के अनेक कार्य होते हैं और उन्हें अनेक भूमिकाओं का निर्वहन करना होता है तथा विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों और शैक्षिक कार्यकर्त्ताओं से सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है। भूमिका निर्वाह में आवश्यक नहीं है कि हमेशा सामान्य सम्बन्ध बने रहें, इसमें अनेक संघर्षों का सामना भी करना होता है। संघर्ष से सम्बन्ध प्रभावित होते हैं, समन्वय प्रभावित होता है और फिर संस्था के कार्य प्रभावित होते हैं। कार्य प्रभावित और विवेकपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाता है तो प्रबन्ध में संकट पैदा हो जाता है। प्रबन्धन को होने से समस्याएँ पैदा होती हैं। इन समस्याओं के समाधान में यदि प्रधानाध्यापक उचित इस संकट से मुक्ति का मार्ग ढूँढना होता है।
प्रबन्ध में संकट के कारण
(Causes of Crisis in Management)
प्रबन्ध में संकट के कारणों के विषय में कुछ कहना अत्यन्त कठिन है क्योंकि परिस्थितियों में परिवर्तन होता रहता है इसलिए कारण भी बदलते रहते हैं। फिर भी कुछ कारणों के विषय में स्पष्टीकरण निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है -
(1) नियम विरुद्ध निर्णय लेना - जब प्रधानाचार्य किसी कारणवश नियमों के प्रतिकृत कोई निर्णय ले लेता है तो शिक्षक, छात्र, अभिभावक आदि सम्बन्धित व्यक्ति इसके विरोध में हो जाते हैं। ये उसके विरुद्ध आन्दोलन शुरू कर देते हैं। इस प्रकार गलत निर्णय लेने से प्रबन्ध में संकट पैदा हो जाता है।
(2) दलबन्दी - विद्यालय में जब कई समूह अलग-अलग संघों के रूप में स्थापित हो जाते हैं, तो विचारधारा में अन्तर आ जाता है। यह विचारधारा व्यक्तियों को अलग-अलग नेताओं के दलों में बाँट देती है जैसे- छात्र संघ, शिक्षक संघ, अभिभावक संघ, आदि। ये संघ रचनात्मक कम होते हैं, आन्दोलनकारी अधिक होते हैं। ये प्रबन्धन की कमजोरियों का पता लगाकर उसके विरुद्ध दल बना लेते हैं। ये दल प्रबन्ध में संकट पैदा करते हैं।
(3) उद्देश्य और आवश्यकताओं में भिन्नता - विद्यालय के अन्तर्गत क्रियाशील दलों की आवश्यकताएँ और उनके उद्देश्यों में भिन्नता होती है। इसलिए ये एक - दूसरे के विरुद्ध विरोध की भावना से ग्रसित रहते हैं। फलस्वरूप ये विरोध के लिए भी विरोध करते रहते हैं जबकि आपसी प्रेम और समन्वय को ठुकरा देते हैं। यह उद्देश्य भिन्नता प्रबन्ध में संकट का कारण बन जाती है।
(4) समन्वय का अभाव तथा परिस्थिति को सही रूप में न समझना - मानव की प्रकृति और प्रवृत्ति यह है कि वह स्वयं जैसा सोचता है वैसा ही वह देखना चाहता है। इसलिए वह परिस्थिति को समझने का प्रयास नहीं करता है। यही कारण है कि आपसी समन्वय नहीं हो पाता है और वह अच्छे कार्यों में एवं रचनात्मक कार्यों में सहयोग नहीं करता है। अतः समन्वय के अभाव के कारण प्रबन्ध में संकट पैदा होता है।
(5) कर्त्तव्य की अपेक्षा अधिकारों की अधिक माँग करना - शिक्षा के क्षेत्र में जागरूकता बढ़ी है। इससे बालक को अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों का ज्ञान हुआ है। किन्तु जब यह ज्ञान केवल अधिकारों तक ही सीमित हो जाता है, अधिकार न मिलने पर आन्दोलन किये जाते हैं तब यह आन्दोलन ही प्रबन्ध के सम्मुख संकट पैदा करते हैं।
(6) उपलब्ध स्रोतों का अभाव और प्रतियोगिता - विद्यालय में उपलब्ध स्रोतों से सबकी पूर्ति नहीं होती है। इसलिए इन्हें प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता प्रारम्भ हो जाती है। और इस प्रतियोगिता के कारण विद्यालय का एक घटक दूसरे घटक के कार्यों पर अधिकार जमाने का प्रयास करता है। यह प्रयास ही आपसी द्वेष बढ़ाता है और प्रबन्ध के सम्मुख संकट पैदा कर देता है।
(7) रचनात्मक कार्यों का अभाव अथवा अधिकता - कभी-कभी रचनात्मक कार्यों का अभाव संकट का कारण बनता है तो कभी रचनात्मक कार्यों की अधिकता। विद्यालयक के सभी घटक किसी एक बात से सहमत न होकर अलग-अलग मत रखते हैं और जो कार्य प्रारम्भ किया जाता है उसका विरोध करते हैं। यदि कोई कार्य प्रारम्भ न किया जाये तो दुसरे घटक विरोध करते हैं। इस प्रकार विद्यालय में किसी भी नवीन परिवर्तन का विरोध करते हैं और विद्यालय के घटक दल एक-दूसरे पर अधिकार जमाना चाहते हैं। इस कारण प्रबन्ध में संकट पैदा हो जाता है।
अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि संस्था में प्रबन्ध में संकट के अनेक कारण है। इन्हें किसी सीमा में बाँधना कठिन है क्योंकि कब किसकी भावात्मक स्थिति, अथवा मानसिक स्थिति समन्वय करने से इंकार कर दे और संकट पैदा कर दे। यह भी कहना है कि आकस्मिक रूप से कब, कौन, कैसी परिस्थिति पैदा कर दे और प्रबन्ध की कमजोरियों पर प्रहार कर संकट उत्पन्न कर दे।
प्रबन्ध में संकट के प्रकार
(Types of Crisis in Management)
प्रबन्ध में संकट को किसी एक अवस्था (Stage) या स्तर पर बाँधना कठिन है। संकट के अनेक कारण और परिस्थितियाँ हैं। कहीं दबाव (Stress) है तो कहीं तनाव (Tension) है, कहीं शत्रुता (Hostility) है तो कहीं दुष्चिन्ता (Enxiety) अथवा ईर्ष्या (Jealousy) है और ये सब अवस्थाएँ स्वतन्त्र नहीं हैं बल्कि एक-दूसरे से अन्तः सम्बन्धित है। अतः प्रबन्ध में संकट के विविध प्रकारों के रूप में इन अवस्थाओं (Stages) को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है -
(1) आन्तरिक संकट (Latent Crisis) - यह संकट संस्था के अन्दर गुप्त रूप से पनपता है।
(2) अभिव्यक्ति संकट (Manifest Crisis) - यह संकट व्यक्त रूप में अर्थात् प्रकट रूप में सामने होता है। इसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट कर दी जाती है।
(3) अनुभव (प्रत्यक्षीकरण) संकट (Perceived Crisis) - जब संकट का अनुभव कर लिया जाता है, फिर उसका समाधान खोजा जाता है, वह अनुभव संकट कहलाता है। इसमें संकट का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।
(4) अनुभूति संकट (Felt Crisis) - जब संकट की अनुभूति हो जाती है अर्थात् उसे महसूस कर लिया जाता है, तब उसका समाधान खोजा जाता है।
(5) पारस्परिक संकट या अन्तः वैयक्तिक संकट (Inter - personal) - यह संकट व्यक्तियों में आपस में द्वेष, प्रतिस्पर्द्धा, ईर्ष्या आदि के कारण पनपता है।
(6) संगठन के अन्तर्गत संकट (Intra - organization Crisis) - यह संकट संगठन के अन्तर्गत होता है जो व्यवस्था से सम्बन्धित होता है।
(7) विद्यालय समुदाय का संकट (School - Community Crisis) - यह संकट विद्यालय और समुदाय के सम्बन्धों से सम्बन्धित होता है। समुदाय विद्यालय से और विद्यालय समुदाय से अपेक्षा रखता है। इनकी पूर्ति में कमी के कारण संकट पैदा होता है।
(8) व्यक्तिगत-संस्थागत संकट (Individual - Institutional Crisis) - यह संकट व्यक्ति और संस्था के सम्बन्धों में कटूता के कारण उत्पन्न होता है। व्यक्ति की अपनी अपेक्षाएं होती हैं और संस्था के अपने नियम व शर्त होती हैं। अतः अपेक्षापूर्ति में कमी संकट को जन्म देती है।
(9) सांस्कृतिक संकट (Cultural Crisis) - मार्च एवं साइमन (March and Simon) महोदय ने इस संकट को स्वीकार करते हुए कहा है- "जब निर्णय की प्रक्रिया का स्तर गिर जाता है तब परिस्थितियों में गलत ढंग से विद्यालयों में कार्य करने की प्रवृत्ति होने लगती है। इसके कारण विद्यालय में संकट उत्पन्न होते हैं।" निर्णय प्रक्रिया का स्तर गिरना सांस्कृतिक मूल्यों पर निर्भर करता है। सांस्कृतिक मूल्यों में गिरावट से शिक्षक और छात्रों की रचनात्मक प्रवृत्ति में कमी अर्थात् उनमें सकारात्मक सोच का अभाव और नकारात्मक सोच की अधिकता हो जाती है। इसलिए वे द्वेष, ईर्ष्या, हानि की प्रवृत्ति के कारण संकट पैदा कर देते हैं। सकारात्मक सोच के अभाव में शैक्षिक क्षेत्र में अनेक जटिल समस्याएँ पनप रही हैं और ये नये संकट पैदा कर रही है।
अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रबन्ध में संकट विविध प्रकार से उपस्थित हो जाता है। यह संकट चाहे आन्तरिक है या अन्य किसी प्रकार से, सम्पूर्ण व्यवस्था को अव्यवस्थित कर देता है। इसे सांस्कृतिक मूल्यों को उच्चतर बनाकर और सकारात्मक सोच से सुगमता से दूर किया जा सकता है।
प्रबन्ध में संकट को करने की विधियाँ
(Methods to Remove Crisis in Management)
प्रबन्ध में संकट को दूर करने हेतु विद्वानों ने अनेक विधियाँ और प्रतिमान विकसित किये हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित रूप में व्यक्त किये जा सकते हैं
(1) सौदाकारी अथवा समझौता विधि (Bargaining Method) - यह विधि मूलतः समझौते पर आधारित है। इसमें संकट समाधान के लिए मोल - भाव किया जाता है और कुछ आदान-प्रदान के आधार पर संकट को दूर किया जाता है। इसके अतिरिक्त विद्यालय के सभी संसाधनों, स्रोतों और सुविधाओं को केन्द्रीकृत कर दिया जाता है। इसमें सभी पक्ष इनका उपयोग करते हैं और इनका उपयोग करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि संस्था को कोई हानि न हो। इस विधि में समस्या समाधान के लिए सभी पक्ष अपनी आवश्यकताओं को कम करके भी समझौता कर सकते हैं। अतः इस विधि में दो पक्षों के मध्य सौदा करके अथवा समझौता करके संकट का समाधान खोजा जाता है।
(2) अधिकारी तन्त्र (नौकरशाही) विधि (Bureaucratic Method) - यह विधि मुख्यतः अधिकारी वर्ग और कर्मचारी वर्ग के सम्बन्धों में होने वाले वैचारिक मतभेद से सम्बन्धित है। उच्च अधिकारी जब अपने अधीनस्थ कर्मचारी को अधिक नियन्त्रित करने का प्रयास करता है तब यह स्थिति अधीनस्थ को सहन नहीं होती है तो संकट की स्थिति पैदा हो जाती है। इसके अतिरिक्त जब उच्च अधिकारी अपने अधिकारों का दुरूपयोग करने लगता है, तब स्थिति असन्तुलित हो जाती है और संकट की स्थिति पैदा हो जाती है। अतः इसका समाधान तभी सम्भव है जब उच्च अधिकारी निष्पक्ष रूप में हस्तक्षेप करे और अत्यधिक कठोर साधना का प्रयोग न करें। समस्या की जटिलता बढ़ने से पूर्व ही अधिकारी को लिखित आदेशों को आधार मानकर व्यक्तिगत रूप से समस्या का समाधान करना चाहिए।
(3) प्रणाली विश्लेषण विधि (System Analysis Method) - इस विधि के अन्तर्गत पहल संकट की स्थिति का पता लगाया जाता है, संकट के करण खोज जाते हैं और उसकी प्रकृति तथा आकस्मिक दशाओं का विश्लेषण किया जाता है और यह प्रयत्न किया जाता है। कि प्रधानाचार्य, शिक्षक और छात्रों में मधुर सम्बन्ध बने रहें और प्रत्येक प्रकार के संकट को दूर करने के प्रयास किया जाए। ये संकट चाहे समान्तर स्थिति के हो अथवा लम्बवत् स्थिति के इन्हें दूर करने के लिए एक क्रम बनाया जाता है ताकि कार्य संचालन निर्बाध गति से एक प्रवाह के रूप में होता रहे। अतः इस संकट को दूर करने हेतु एक प्रणाली के रूप में सेवा सुविधाओं की उपलब्धता, नियमों में एकरूपता और सामूहिक कार्यों का वितरण अत्यन्त सावधानीपूर्वक किया जाना आवश्यक है।
(4) कैनीथ थामस विधि (Kenneth Thomas Method) - इस विधि का प्रतिपादन कैनीथ थामस महोदय ने किया। यह एक व्यावहारिक विधि है। इसमें प्रशासक उस संकट का भागीदार होता है तब वह इस विधि का उपयोग प्रत्यक्ष रूप में कर सकता है। प्रबन्ध में संकट को दूर करने के लिए व्यक्ति स्वेच्छा से तैयार होता है, सकारात्मक अभिवृत्तियों का विकास और परस्पर सहयोग की भावना विकसित की जाती है। इस प्रकार इसमें दो समूह बन जाते हैं। एक समूह वह जो स्वयं की आवश्यकताओं से पूर्ण है और दूसरा वह समूह जो अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर सकता है। इस संकट को दूर करने के पाँच आधार थामस महोदय ने बताए हैं, ये पाँच आधार इस प्रकार हैं -
(1) ध्यान न देना (Neglect or Avoid) - इस संकट को दूर करने के लिए उच्च अधिकारी को छोटी - छोटी बातों पर ध्यान न देना अर्थात् किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न करना।
(2) समायोजित करना अथवा उन्हें प्रसन्न करना (Accommodate and Appeasement) - इस विधि का आधार स्वेच्छा है अर्थात् इस आधार पर व्यक्ति स्वेच्छा से के साथ कितना समायोजन कर सकता है अथवा उसे कितना प्रसन्न कर सकता है। अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए, भविष्य के लिए हितकारी मानते हुए और संकट को अधिक लम्बे समय तक उपयोगी न मानते हुए कुछ आदान - प्रदान करके भी संकट को दूर किया जा सकता है और स्वयं को समायोजित किया जा सकता है।
(3) प्रतियोगिता एवं प्रभुत्व (Competition Domination) - यह एक ऐसी स्थिति है जब व्यक्ति अपनी मांग पूर्ण करने पर अड़ जाता है, किसी प्रकार का कोई सहयोग करने को तैयार नहीं होता है और किसी प्रकार भी सन्तुष्ट नहीं होता है। ऐसी स्थिति में प्रबन्धक प्रतियोगिता की भावना का विकास कर सकता है। प्रतियोगिता से उनमें हार - जीत की भावना का विकास होगा और आवश्यकतानुसार नियम व कानूनों का सहारा भी लिया जा सकता है। इस प्रकार प्रतियोगिता और प्रभुत्व दोनों तरीकों से संकट को दूर करने का प्रयास किया जा सकता है।
(4) समन्वय अथवा एकीकरण (Collaboration or Integration) - इस स्थिति में प्रत्येक संकट का समाधान चाहता है। सभी सदस्य मिल-जुलकर कार्य करना चाहते हैं। और सभी का लक्ष्य जीतना होता है। यह स्थिति समन्वय की स्थिति होती है। अतः सभी समन्वित रूप में कार्य करके संकट का समाधान करते हैं। वास्तव में इसमें आपसी समझ बूझ से संकट को दूर किया जाता है।
(5) भागीदारी अथवा समझौता (Sharing or Compromise) - इस स्थिति में भी दोनों पक्ष लाभ की स्थिति में होने से सहयोगी भावना रखते हैं और वे इसलिए प्रसन्न होते हैं यदि किसी को कुछ खोना पड़े तो वह और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। इसमें भी मोल-भाव अथवा समझौते की स्थिति होती है।
अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्रबन्ध में संकट के विविध कारण हैं और उसके समाधान की विविध विधियाँ हैं। थोड़ी सी सावधानी से, सकारात्मक सोच से विविध उपायों को ध्यान में रखकर संकट को दूर किया जा सकता है और संस्था को निर्बाध गति से प्रवाहशील बनाया जा सकता है।
Reference :-
शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबंध (Educational Administration & Management)
लेखक - डॉक्टर गजेंद्र सिंह तोमर
अध्याय - 18 प्रबंधन में संकट
(Crisis in Management)
पृष्ठ संख्या - 233-238.
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