नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का ग्यारहवां (Eleventh) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
"डायरी के पन्नों से" के दसवें भाग में मैंने आपको अपनी शुरुआती शिक्षा और दशहरा के बारे में बताया था। अब आगे की कहानी.....
मानव मन का ऐसा है कि वह हमेशा से दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी तलाशता रहता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे गांव के, मेरे हमउम्र और जो बच्चे थे वह कारीगर से बत्तख, मोर, कोई चिड़िया,इत्यादि। छोटे-छोटे मिट्टी के खिलौने बनवाते रहते थे और वह कारीगर बच्चों की खुशी के लिए कुछ-ना-कुछ बना भी देते थे। जैसे की एक शेर हैं:-
अबके मौसम शरारत,
मेरे साथ हुई।
मेरा घर छोडके,
पूरे शहर बरसात हुई।
यह कथन तो मैंने कुछ दिन पूर्व ही लिखा हैं लेकिन मेरे साथ उस समय भी यही कुछ हुआ था। मैं संकोचवश उस मूर्तिकार से मूर्ति बनाने के लिए कुछ कह नहीं पाता था। एक बार बहुत हिम्मत जुटा कर उनसे कह दिया कि मेरे लिए भी एक खिलौना बना दीजिए ना!!! उस समय वो कुछ कार्य कर रहे थे तुरंत गुस्सा हो गए और कहे- दिन भर तुम लोगों का यही काम है। मैं खिलौने ही बनाता रहूं मुझे और कोई काम नहीं है। जाओ अपना काम करो। मैं एकदम से डर गया और चुप हो गया। फिर मैंने सोचा कि अब मैं कभी भी इन से खिलौने बनाने के लिए नहीं कहूंगा। खुद से ही निर्माण करूंगा।
मेरे घर से कुछ ही दूरी पर एक पोखर है, जिसे हम लोग "चकहरा" के नाम से जानते हैं उसमें से चिकनी मिट्टी प्राप्त होती है। आसपास के गांव के लोग मूर्ति निर्माण और मिट्टी के बर्तन के निर्माण के लिए मिट्टी यही से ले जाते हैं। वर्तमान में अभी भी दुर्गा पूजा में मां की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी यहीं से जाता है। मैं वहां गया और थोड़ी-सी मिट्टी निकाल कर लाया क्योंकि मैंने सोचा शुरुआत उसी मिट्टी से करते हैं जिस मिट्टी से वह कारीगर कार्य करते हैं। मिट्टी तो मैंने ला दी थी अब समस्या यह थी कि बनाए क्या? शुरुआत कैसे करें? फिर लगा कि दुर्गा पूजा के समय ही यह घटना हुई है और मैंने प्रण लिया है कि मैं भी खिलौने बनाउंगा तो खिलौना से पहले क्यों ना मैं माँ दुर्गा की ही प्रतिमा बनाता हूं। फिर उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए जैसा मैंने आपको पिछले भाग में बताया था सबसे पहले गणपति का मूर्ति बनाया फिर बाकी सभी देवताओं का। उस दिन कार्य में ऐसे लगा कि खाने-पीने की भी सुध नहीं रही। सुबह से दोपहर शाम हो गया लेकिन मैं लगातार कार्य करता रहा। दिन भर की मेहनत के पश्चात छोटे-छोटे प्यारे से सभी भगवान बन गए थे।
मूर्ति का निर्माण तो हो गया था अब उसमें रंग भरना था। एक बार इच्छा भी हुई कि कारीगर से जाकर थोड़ा-थोड़ा रंग मांग लें। फिर अपना प्रण याद आ गया कि मैंने तो उनसे मदद नहीं मांगने की सोची है और क्या पता वह रंग दे या नहीं दे। यही सोच कर खुद से ही रंग बनाने की सोची और सबसे पहले सेम के पत्ते को तोड़ा और उसे पत्थर पर घिसा जिससे मुझे हरे रंग की प्राप्ति हो गई। कोयला से काला रंग और लाल ईंट को घिसने से लाल रंग भी मुझे मिल गया। पीले रंग की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। तभी मेरी नजर एक ऐसे ईंट पर पड़ी जो हल्का सिंदूरी रंग का हो गया था। उससे पीला रंग तो नहीं लेकिन संतरा रंग मिल गया। जो कि मैंने पीला के समकक्ष मानकर उसका प्रयोग किया। सभी रंग तो प्राप्त हो गए थे अब बस ब्रश की आवश्यकता थी, जिससे कि मैं मूर्ति में रंग भर सकूँ। ब्रुस में मेरे पास बस टूथब्रश ही था। मैंने वह भी लाया और उसके उपरांत पेड़ की पतली-पतली डालियों को पत्थर पर कुच-कुच कर के छोटे-छोटे ब्रश भी मैंने बनाएं। क्योंकि मैंने देखा था मूर्तिकार जो थे वह बहुत सारे ब्रश रखते थे। कोई बहुत बड़ा तो कोई एकदम छोटा। मैंने उसी के समकक्ष कुछ बड़े एवं कुछ छोटे ब्रश का निर्माण किया। ब्रश के इकठ्ठा हो जाने के उपरांत मैंने मूर्ति में रंग भरना शुरू किया। बहुत बारीकी से रंग भरने के उपरांत, जब कार्य समाप्त हो गया तो मैंने मूर्ति को देखा। खुशी तो ऐसे मिल रही थी जैसे मानो कोई बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर ली हो। लेकिन उस खुशी को मेरे साथ में मनाने वाला कोई नहीं था मैं अकेले ही अपनी खुशी मना रहा था। मूर्ति को लाकर के धूप में अपने द्वार के पास रख दिया। क्योंकि मैं सोचा कि यदि धूप लग जाएगा तो रंग और स्थाई हो जाएगा। जैसे कोई बगुला कैसे एक पैर पर खड़े होकर एकटक अपने शिकार को देखता है वैसे ही मैं मूर्ति को धूप में रखकर एकटक उसे देख रहा था, ताकि कोई उसका अनिष्ट न कर दे।
मैं उस परिवेश में इतना खो गया कि आसपास क्या हो रहा है, उससे अज्ञान रहा। बहुत देर से एक बाबा मेरे द्वार पर आकर के आवाज लगा रहे थे और मैं था कि उनको सुन भी नहीं रहा था। बार-बार आवाज लगाने से मेरी दादी घर से निकल कर आयी तो उसने देखा कि मैं वहीं पर बैठा हूं और बाबा बार-बार आवाज लगाए जा रहे हैं लेकिन मैं सुन ही नहीं रहा हूं। सबसे पहले वह मेरे पास आई और बोली:-
क्या कर रहे हो यहां पर? कोई द्वार पर आता है तो उसे देखना नहीं चाहिए?
मैं एकदम से अपने ख्यालों से बाहर आया और बोला कि-
हां...हां... कौन आया है?
तब तक वह बाबा भी मेरे पास आ गए और उन्होंने उस मूर्ति को देखा तो एकदम से देखते रह गए मानो जैसे कि कोई आकर्षित वस्तु देख ली हो। तब उसने पूछा कि:- यह कौन बनाया है? मैं कुछ बोलता उससे पहले ही मेरी दादी बोल पड़ी।
यही बनाया है। पढ़ता-लिखता कुछ नहीं है। दिन-भर यही सब बनाते रहता है। फालतू का समय व्यर्थ करते रहता है।
तब उन्होंने मेरी दादी को समझाते हुए कहा:- इस लड़के में मुझे कुछ अलग दिख रहा है। यह आगे कुछ बेहतर जरूर करेगा। इसे आप लोग डांटे नहीं, इसकी कला को पहचानिए। फिर उन्होंने मेरे तरफ मुड़ कर देखा और कहां:-
बेटा, अभी तुम यह सब ना बनाओ पढ़ाई पर भी ध्यान दो भविष्य में तुम बेहतर कार्य करोगे। बेहतरीन कलाकृतियां भी बनाओगे।
पहली बार कोई मुझे मिला जो मेरी कला की तारीफ की हो नहीं तो उससे पूर्व केवल डांट-फटकार ही मिली थी। मैं उनकी बातों से इतना खुश हो गया की आगे की बात सुनने की इच्छा ही ना रही। वहां से भाग करके चला गया और उसके बाद ना जाने बहुत देर तक दादी से उन्होंने क्या-क्या बातें की। उसके उपरांत मैंने यह अनुभव किया कि दादी ने मुझे कभी भी कलाकृति बनाने से नहीं रोका। जैसे ही मुझे थोड़ी सी दादी के तरफ से छूट मिली मैं पुनः जा कर के वहां से मिट्टी लाया और अबकी बार मैंने खिलौने बनाने की चेष्टा करने लगा। जो कि कारीगर के पास देखा था। अब तो मुझे इस कार्य में मजा आने लगा। मैं हमेशा वहां जाने लगा एवं मिट्टी लाता और कुछ ना कुछ बनाता रहता। घर में प्रयोग होने वाले बर्तन मेरे सबसे ज्यादा पसंदीदा विषय थे। ज्यादातर रसोई-घर में प्रयोग होने वाले बर्तनो को ही मैं बनाता रहता। जब घर पर खाना बन जाता तब चूल्हे में बच्ची आग में पकने के लिए मैं अपने खिलौने को डाल देता था। जिससे की खिलौने मजबूत हो जाते और फिर उन्हीं खिलौनों से मैं खेला करता क्योंकि खिलौने खरीदकर खेलने के लिए पैसे नहीं होते थे। यह भी एक कारण था खिलौने बनाने का। इसी तरह दुर्गा पूजा, दीपावली एवं छठ सारे त्यौहार एक-एक करके बीतते जाते और मैं यूं ही बस खेलता कूदता रहता था।
क्रमशः
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