शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

“डायरी के पन्नों से”

नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का नौवां (Nine) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
    "डायरी के पन्नों से" के अंतर्गत अभी तक आपने जितने भी भाग को पढ़ा था वह मेरी आत्मकथा के कही-कही का अंश था। आज से हम "डायरी के पन्नों से के अंतर्गत अपनी आत्मकथा को शुरू से शुरू कर रहे हैं। मुझे आत्मकथा लिखने की प्रेरणा जिसने दी उसको स्मरण करते हुए आज से हम शुरुआत करते हैं............
Note:- एक जरूरी बात मैं आपको यहां बताना चाहता हूं। मैंने अपनी आत्मकथा को लिखने की शुरुआत 19/06/2016 दिन- रविवार से की थी तो जिस-जिस दिन को मैं जितनी बातें लिखा हूं आपको उसी के अनुरूप दिनांक के अनुसार मैं आपको आगे प्रस्तुत करते चला चला जाऊंगा ताकि आप उस समयावधि एवं परिवेश को समझते हुए मेरी आत्मकथा को अच्छे से समझ सके। धन्यवाद🙏.
19/06/2016 दिन- रविवार
      आज Father's Day है। आज यूं ही बैठे-बैठे ख्याल आया कि अपनी आत्मकथा लिखते हैं। ये ख्याल ऐसे आया कि अचानक से मेरे वर्ग सहपाठी रविकान्त के द्वारा बताई गई बातों का स्मरण हो आया। एक दिन रविकान्त ने मुझे अपनी आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरणा देते कहा था कि आपने इतना सारा पुरस्कार प्राप्त किया वह भी इतने कम उम्र में। आपको अपनी एक जीवनी लिखनी चाहिए। आप अपनी आत्मकथा लिखिए। उसने तर्क सहित मुझे समझाते हुए कहा था एक ऐसा लड़का जो गांव में पढ़ाई करता है वह भी हिंदी माध्यम से। परीक्षाओं में नंबर भी औसत लाता है। लेकिन यहां पर इतने सारे पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करता है। तब मुझे भी लगा था शायद वह ठीक ही कह रहा है। फिर उसके उपरांत मैं उस बात को भूल गया था और आज अचानक से याद आया तो कलम डायरी उठाकर लिखने बैठ गया अब बस लिखते जाना है जहां तक लिखा जाए.........

        शुरू कहां से करूं- बचपन से ही करता हूं। 14-06-1993 दिन:- सोमवार को मेरा जन्म बिहार राज्य के सिवान जिले के अंतर्गत बड़हरिया, कोइरी-गावां  में हुआ था। चूंकि बचपन में मैं थोड़ा मोटा-ताजा, गोलू-मोलू जैसा था और पूरे घर में मैं सबसे छोटा था इसीलिए सभी मुझे प्यार से छोटू-छोटू बुलाने लगे। 
My Childhood Pic. I’m always know. I’m be a PHOTOGRAPHER. So I’m weeping in front of camera....... When photographer say to me PLEASE SMILE😊


22/06/2016 दिन- बुधवार
         मैं अपने घर में सबसे छोटा अपने सारे भाइयों में था। मेरे से बड़े मेरे चार भाई हैं। तीन बड़े पापा के लड़के और हमसे बड़े एक मेरे अपने भैया एवं हमसे छोटी मेरी एक बहन और मेरे मम्मी-पापा। हम लोग पूरे पांच लोग हैं। पांच लोगो का एक छोटा सा परिवार मेरा है।
        बचपन में मैं बहुत ही शर्मीले स्वभाव का था। बहुत ज्यादा ही शर्मीला इतना ज्यादा शर्मिला की कोई यदि मेरा नाम भी पूछ दे तो शर्म के मारे मैं नहीं बता पाता था। वजह बस शर्म थी। शायद यही कारण था कि विद्यालय में मेरे बहुत कम ही साथी/दोस्त बनते थे और यही हाल मेरे गांव पर भी था। सिर्फ वही मेरे दोस्त बने जो मेरे स्वभाव के थे। पूरे गांव में जो लड़का किसी से बात नहीं करता था या किसी से नहीं बोलता था वही मेरा दोस्त होता था आज भी मुझे याद है मेरे गांव के दो दोस्त एक रूपम (यशवंत) और विवेक जिसे हम लोग गणेश जी कह कर भी चिढ़ाते थे। यह दोनों मेरे खास दोस्त थें क्योंकि इन दोनों का कोई भी दोस्त गाँव में नहीं था, सिवाय मेरे। मेरे घर के लोग भी मुझसे बोलते थे कि गांव में जो किसी से नहीं बोलता है वह तुमसे बोलता है और मैं भी हां में सिर हिला देता था। मुझे पढ़ना-लिखना छोड़ कर सारे कार्य में बहुत मन लगता था। 
जैसे:- बकरी को चराने ले जाना, भैंस के लिए घास काट कर लाना एवं उसे खिलाना, मम्मी के बार-बार मना करने पर भी  किचन में चले जाना और खाना बनाने में उनकी मदद करना, इत्यादि। बकरी चराने जाने के बहाने दो-तीन घंटे का मनोरंजन हो जाता था। बकरी चराने को लेकर पापा हमेशा गुस्सा करते थे कि मैं बकरी फार्म ही खोल देता हूं तुम पढ़ना-लिखना छोड़ कर यही चलाते रहना लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि बकरी मेरी दादी की जिद्द पर पाली जाती थी नहीं तो घर के सारे सदस्य इसके खिलाफ थे। बकरी चराने को जाने से एक और फायदा यह होता था कि हम सभी बच्चे वहां खेतों में खेलते रहते थे। हम लोग का खेल भी निराला ही था। 
जैसे:- बुढ़िया कबड्डी, अंधा टोपी, आईस-बाईस, चोर-सिपाही, इत्यादि। खेले वहां पर चलती रहती थी और बकरिया खेतों में चरती रहती। बकरी को चराकर जब शाम में घर आता तो डांट पड़ती थी इस डांट से बचने के लिए मैंने एक अनोखा तरीका ढूंढ निकाला था। 
23/06/2016 दिन- गुरुवार
और वो तरीका ये था कि शाम में मैं यमुनागढ़ जो मेरे घर से लगभग 01 किलोमीटर की दूरी पर है वहाँ चला जाता। क्योंकि वहां शाम के समय गांव के ही 02 लड़कों के द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का एक, हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है।" wikipedia के द्वारा संचालित शाखा  का आयोजन होता है जिसमें खेल-खेल के माध्यम से विभिन्न प्रकार की ज्ञान की बातें बताई एवं सिखाई जाती। मैं प्रतिदिन वहां जाता था। क्योंकि उसका आयोजन गांव के ही दो युवाओं के द्वारा किया जाता था। जहां पर खेल-कूद के साथ-साथ ज्ञानवर्धक बातें भी होती जिस कारण मेरे द्वारा वहां पर बिताये घंटे दो घंटे मेरे घर के लोगों  को सही लगता था, इसके लिए मुझे कभी डांट नहीं पड़ी। दिन भर की थकान के बाद शाम को मम्मी की डांट या बार-बार कहने पर लालटेन जलाकर पढ़ने बैठने का नाटक करता। लेकिन पढ़ने बैठने के साथ ही लालटेन/दिया की रोशनी में कीट-पतंगों का आतंक शुरू हो जाता जो मेरी कॉपी-किताबों और पूरे शरीर पर फैल जाते थे। जैसे-जैसे उनका आतंक बढ़ता जाता वैसे-वैसे ही पढ़ाई से उठने का मन भी करता जाता। तभी मां के हाथों के बने खानों की महक से भूख और तेज हो जाती। फिर उसके बाद क्या? कॉपी-किताब एक तरफ कर, खाने की तरफ दौड़ता और खाना-पीना खाने के बाद वही काम बस "सोना"।
      कुछ ऐसी थी- मेरी बचपन की दिनचर्या। लेकिन मन के किसी कोने में बहुत ज्यादा प्रसिद्धि पाने की ललक उस समय भी थी और इतना कुछ हासिल करने के बाद आज भी है। शायद यही कारण है कि आज मुझे इतने लोग जानते हैं। नही तो इतने शर्मीले और संकोची बच्चे को तो घर के सदस्य के अलावा कोई तीसरा पहचानता तक नहीं। यही हालत लगभग मेरी भी थी और अभी भी गांव में थोड़ी बहुत है ही। आज मेरे गांव के लोगों को यह पता है कि मेरे गांव का एक लड़का है विश्वजीत जो पटना में रहता है। फोटोग्राफी में इतना कुछ किया है। लेकिन मैं ही विश्वजीत हूँ यह मुझे देख कर आज भी नहीं पहचानते हैं। इसका कारण यह है कि मेरी सारी खूबियां, जैसे:- अजंता की कलाकृतियां सफाई के बाद सामने आई थी उसी प्रकार मेरी उपलब्धियां कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना में नामांकन कराने के बाद निकल कर सामने आई। उसके पहले बचपन से बड़े होने तक कोई मुझे पहचानता तक नहीं एक-दो दोस्तों को छोड़कर। यदि कोई गलती से मेरे बारे में पूछ लिया तो मेरा परिचय ऐसे होता था कि सुजीत का भाई, विजय का लड़का। मेरी अपनी पहचान कहीं खो गई थी। फिर मुझे अपने नाम का स्मरण आया- विश्वजीत मतलब पूरे संसार को जीतने वाला पूरे संसार को जीतने वाले की खुद की कोई पहचान नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए। क्या करना चाहिए यह नहीं पता। लेकिन मन में था कि कुछ अलग करना है जो दुनिया कर रही है या जिसके पीछे सब भाग रहे हैं मुझे उसके पीछे नहीं भागना है। अपना एक अलग रास्ता बनाना है। मैंने यह निश्चय कर लिया। सबसे पहले मैंने सोचा कि आज से वह सब कार्य करूंगा जिसमें मुझे बहुत मन लगता हो और मेरा मन किताबों को पढ़ने से ज्यादा किताबों में बनी आकृतियों को बनाने में लगता था बस वहीं से शुरू हुई मेरी चित्रकला की यात्रा।

क्रमशः



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें