रविवार, 18 अक्टूबर 2020

“डायरी के पन्नों से”

           नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का दशवां (Ten) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
        डायरी के पन्नों के अंतर्गत हम नौवां (Nine) भाग में बात किए थे अपने बचपन के बारे में अब आगे ही कहानी....
25/06/2016 दिन- शनिवार
     मेरी चित्रकला की यात्रा बचपन से ही शुरू हुई थी जो आज जब मैं 23 साल की उम्र में डायरी लिख रहा हूं आज तक मेरे साथ है और मेरी जिंदगी-भर साथ ही रहेगी। चित्रकला की यात्रा शुरू तो हो गई थी लेकिन आगे बढ़ने के लिए एक गुरु की जरूरत होती है जो राह में आ रही रुकावटो से कैसे निपटना है? उसका समाधान भी बताए। इस मामले में मैं थोड़ा अनलकी (Unlucky) रहा क्योंकि मेरी शुरुआती शिक्षा गांव के ही एक शिक्षक के द्वारा चलाए जा रहे इंग्लिश स्कूल से हुई। मेरे पहले शिक्षक थे शिवनारायण सर और दूसरे संजय सर। उस विद्यालय में और भी कई शिक्षक थे जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा है क्योंकि यह उक्त बातें 1995-96 की है जब मैं पहली बार स्कूल गया क्योंकि उस जमाने में कोई प्ले स्कूल (Play School) नहीं हुआ करता था। शिवनारायण सर और संजय सर का नाम आज भी मुझे इसलिए याद है क्योंकि शिवनारायण सर गणित पढ़ाते थे और संजय सर अंग्रेजी। दोनों विषय को समझना मेरे लिए टेढ़ी खीर था। अक्सर मैं दोनों क्लास बंक (यानी वर्ग से बिना अनुमती लिए भाग जाना) मारने की फिराक में रहता लेकिन कभी सफल नहीं हो पाया क्योंकि शिवनारायण सर पापा के अच्छे दोस्त और मेरे गांव के ही थे। उनका मेरे घर से अच्छा आना जाना था क्योंकि मेरे भैया को भी वहीं पढ़ाए थे। मेरी मां हमेशा कहा करती की उनके बड़े लड़के और मेरे भैया दोनों साथ-साथ पढ़े हैं। शिवनारायण सर जो हैं वह मेरे घर आ कर रोज साइकिल के आगे और पीछे भैया को और वह अपने लड़के जिसका नाम विभाष है दोनों को साइकिल पर बैठाकर विद्यालय ले जाते और शाम में घर तक छोड़ते। उनका क्लास तो मैं बंक कर ही नहीं सकता। क्योंकि वो मुझे प्यार भी बहुत करते थे और मारते कभी नहीं थे और दूसरे सर जो थे संजय सर। वह इस सर से बिल्कुल अलग थे बस एक समान बात यह थी कि यह भी मेरे गांव से ही आते थे- कोइरी-गाँवा। वह हम सभी को अंग्रेजी पढ़ाते थे पता नहीं क्यों इतना गुस्सैल रहते थे कि सारे बच्चे उनके नाम से ही डरते थे। बच्चों को मारना ही बस उनका काम था ऐसा मुझे लगता था, लेकिन मैं गलत था। वो पढ़ाते भी बहुत अच्छे थे। लेकिन उनका क्लास बंक करने वाले को वह अगले दिन सब कुछ डबल देते थे मतलब डबल होमवर्क, डबल पिटाई, इत्यादि। इसीलिए सारे बच्चे और मैं भले ही किसी सर का क्लास बंक कर दें लेकिन संजय सर का क्लास कभी भी बंक नहीं करते थे।
            मैं शिवनारायण सर के विद्यालय में लगभग 3 साल पढ़ाई की। चूंकि वो विद्यालय प्राइवेट था इस कारण वहां क्लास एक से पहले नर्सरी (Nursery) एल.के.जी. (L = Little=छोटे, K=Kinder=बाल, G=Garten=विहार.) यू.के.जी. (U=Upper, K= Kinder, G=Garten) होता था। मैं वहां यू.के.जी. तक पढ़ाई की। फिर घरवालों को लगा कि सरकारी स्कूल में भी नामांकन होना चाहिए क्योंकि उस समय बिहार सरकार, सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले प्रत्येक छात्रों को हर 3 महीने में चावल देती थी। मेरा भी नामांकन सरकारी विद्यालय में इसलिए हुआ क्योंकि प्रत्येक तीन महीने में चावल मिलता रहे। एक मध्यम वर्गीय परिवार को और क्या चाहिए? सरकारी फंड का कुछ फायदा तो हो। मेरा नामांकन सरकारी विद्यालय में करने की सबसे बड़ी वजह यह थी की वहां पर पढ़ाई करने का कोई फीस नहीं लगता था। एक मध्यम वर्गीय परिवार के जिसके तीन लड़के एक साथ पढ़ाई कर रहे हो और ऊपर से घर चलाना, विद्यालय का फीस देना, थोड़ा मुश्किल भरा होता है। शायद यह कारण भी रहा हो मुझे प्राइवेट स्कूल से सरकारी विद्यालय भेजने का। लेकिन मैं सरकारी विद्यालय जा कर बहुत खुश हुआ क्योंकि यहां पर ना कोई शिवनारायण सर जैसे  शिक्षक थे जो मुझे लाड़-प्यार से गणित पढ़ा सके और ना ही अंग्रेजी के संजय सर जो होमवर्क ना करने पर मेरी पिटाई करें। यानी यहां पूरी मस्ती थी। ना पढ़ाई का टेंशन, और ना ही होमवर्क की चिंता यानी फुल मस्ती।
29/08/2016 दिन-सोमवार 
       उर्दूमकतब विद्यालय में मेरा नामांकन तीसरी कक्षा में हुआ, क्योंकि तीन साल मैं पहले से ही प्राइवेट स्कूल में पढ़ चुका था और साथ में मेरी छोटी बहन का भी नामांकन हुआ उसी विद्यालय में, पहली कक्षा में। उक्त बातें 1998 की है। 1998 मेरे एवं मेरे परिवार के लिए बहुत ही खुशहाल रहा। एक तो मुझे पढ़ाई से लगभग मुक्ति मिल गई थी और दूसरी उसी समय 25/09/1998 को केंद्र संख्या-180 केंद्र का नाम:- कोइरी-गाँवा में मेरी मां का चयन  आंगनबाड़ी सेविका पद के लिए हुआ। उस समय मैं बहुत खुश था। मेरी मां आंगनबाड़ी सेविका बन गई थी और मैं वहां के बच्चों का लीडर। मेरी उम्र उस समय आंगनबाड़ी में जानेवाले बच्चों के बराबर नहीं थी फिर भी सप्ताह में दो दिन आंगनबाड़ी जाता था। इसका कारण यह था कि मेरा नामांकन उर्दुमकतब विद्यालय में हुआ था वह उर्दू विद्यालय था और वह विद्यालय उर्दू कैलेंडर के अनुसार चलता था। यानी गुरुवार को हाफ डे, शुक्रवार को हॉलीडे और शनिवार एवं रविवार को फुल डे। जिस कारण में गुरुवार को हाफ डे और शुक्रवार को फुल डे आंगनबाड़ी केंद्र पर मां एवं छोटे-छोटे बच्चों के साथ समय बिताना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उर्दूमकतब विद्यालय में मेरा और मेरी बहन का नामांकन एक साथ हुआ था चूंकि मेरी बहन पहली बार स्कूल जाना शुरू की थी और मेरा घर एकदम मेन रोड पर ही है। दिनभर बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलती रहती है जिस कारण मैं और मेरी छोटी बहन दोनों साथ-साथ स्कूल जाते और शाम में वापस आते। सुबह-सुबह तैयार होकर सबसे पहले हम लोग ही विद्यालय पहुंचते क्योंकि बचपन से ही मुझे समय से पहले कहीं भी पहुंचने की आदत रही है जो अभी भी है। हम लोग स्कूल जाने से पहले रोज मां से ₹1 लेते थे, रास्ते में कुछ खाने पीने के लिए। यह हम लोगो का रोज का नियम था। जिस दिन पैसे नहीं मिलते उस दिन कहते थे आज विद्यालय नहीं जाएंगे। तो फिर माँ, पापा के पैकेट से ₹2 निकालकर हमें देती तो हम लोग विद्यालय जाते थे। ₹2 को हम लोग खर्च भी बहुत ही हिसाब से करते थे। जैसे 25-25 पैसे की टॉफी, 25 पैसे में दो आने वाली आइसक्रीम 25 पैसे भविष्य के लिए बचाकर अपने थैले में डाल देते थे ताकि किसी दिन कोई अच्छी चीज दिख जाए तो उसे खरीदने के लिए और बच्चे ₹1 की कुछ सामान खरीदकर घर भी ले जाते। जैसे:- कोई उड़ने वाला तोता, सिटी, ₹1 में 16 आने वाली टॉफी, इत्यादि। जिसे हम लोग घर ले जाकर सभी बड़ों के बीच बांटते थे। जैसे मैंने आपको पिछले रविवार को बताया था कि मेरे घर पर हमेशा मेरी दादी की जिद्द पर बकरी पाली जाती और एक भैंस भी रखी जाती थी। जब हम कोई चीज बड़ों के बीच बांटते तो उन दोनों यानी बकरी और भैंस को भी उनका हिस्सा देते चाहे वह बिस्कुट हो या फिर टॉफ़ी। मुझे लगता था कि वह दोनों भी हमारे परिवार की एक अभिन्न अंग है। सामग्री देने के बाद बाकी से तो नहीं पूछते थे की कैसा लगा? लेकिन उन दोनों से जरूर पूछते थे और वह सर हिला कर ना  समझ आने वाली भाषा में अपनी प्रतिक्रिया भी देती थी। ऐसी चल रही थी हमारी और हमारी छोटी बहन की दिनचर्या।
         जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूं की मैं पढ़ने-लिखने में हमेशा औसत विद्यार्थी ही रहा हूं। और वह जो मेरा विद्यालय था उसमें शिक्षकों की बहुत कमी थी दो या तीन शिक्षको के भरोसे ही पूरा स्कूल चल रहा था। शिक्षकों की कमी के चलते दोपहर के बाद कभी-कभी प्रथम और द्वितीय क्लास के बच्चों की छुट्टी कर दी जाती थी। उस समय मै तृतीय क्लास में था और मेरी बहन प्रथम में, जिस कारण उसकी तो छुट्टी हो जाती थी लेकिन मेरी नहीं। उसके बाद मैं अपना खुराफाती दिमाग लगाता क्योंकि पढ़ाई से बचने के लिए मेरे पास बहुत से बहाने रहते थे लेकिन पढ़ने के लिए एक भी नहीं। मैं अपनी बहन के साथ ही घर आ जाता और घर पर बोल देता कि प्रथम, द्वितीय और तृतीय वर्ग को हाफ डे के बाद छुट्टी हो गई केवल चतुर्थ और पंचम वर्ग के विद्यार्थी ही पढ़ेंगे। उसके बाद मैं अपनी बहन के साथ ही खेलने में लग जाता। 
           मेरे घर के पास में ही दुर्गा माता की प्रतिमा का निर्माण होता था। दुर्गा पूजा आते ही मोहल्ले के सारे बच्चों का वहीं पर अड्डा रहता और मेरा भी।


       हम लोग दिनभर वहीं पर खेल-कूद करते रहते। मैं प्रतिमा निर्माण की विधि को बहुत ही गौर से देखा करता, दिन भर, रात तक। मेरा बस एक ही कार्य था। प्रतिमाओं के निर्माण को देखना। वह शायद मुझे अच्छा लगता था और मैं बस उसे देखता रहता था। कई बार इच्छा होती थी कि कारीगर से कहूं की मुझे भी कुछ सिखा दो या कुछ करने के लिए दो लेकिन संकोचवश कुछ कह नहीं पाता था। बस चुपचाप बैठ कर देखता रहता था लेकिन ऐसा कहां भी जाता है कि मन में जब प्रबल इच्छा हो तो पूरी भी होती है। मेरी भी इच्छाओं की पूर्ति हुई। मूर्तियों के निर्माण के बाद उसे सूखने के लिए कुछ दिनों तक छोड़ दिया जाता है। उसके उपरांत उसमें रंग भरा जाता है। मूर्तियों के सूखने के बाद जब कारीगर उसमें रंग भरने आए तो पता नहीं उन्हें क्या सुझा इतने सारे बच्चों में वह मुझे बुलाए। मैं डरते-डरते उनके पास गया। तब वो मुझे चुने का बाल्टी देते हुए बोले- लो मूर्ति में रंग भरो। मुझे तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि जो कार्य करने के लिए मैं कितने सालों से सोचा करता था लेकिन संकोचवश कभी कह नहीं पाया। आज वह कार्य मुझे मिल रहा है। मैंने भगवान को नमन🙏 किया और बाल्टी और ब्रश ले लिया। फिर सोचा की शुरुआत किस भगवान से करू? मेरे दिमाग में ख्याल आया की सबसे पहली पूजा या कोई भी कार्य सबसे पहले गणपति (गणेश) से शुरू की जाती है। इसलिए मैंने भी सबसे पहले रंग लगाना गणेश जी से ही शुरू किया। और उसके बाद बाकी सभी देवताओं को रंगा। उस दिन तो ऐसा लगा कि मेरा कोई बहुत बड़ा सपना पूरा हो गया। मैं पूरे दशहरा अपने मित्रों से कहां करता। देखो:- गणपति जी को मैंने रंगा है।
क्रमशः
ये तस्वीर तो 2019 की हैं लेकिन जगह वही हैं


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