My skills and Characteristics are Painting, Fashion Photography, Heritage Photography, Logo Designing, Writing, Blogging and Getting things Done in Creative Way.
बुधवार, 28 अक्टूबर 2020
मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020
"कोरोना, दुर्गा पूजा और मैं"
शीर्षक पढ़ कर आप डरिये नहीं, यहां हम आपको कोरोना से कैसे बचना है? और दुर्गा पूजा कैसे मनानी है? इसके बारे में नहीं बताएंगे। यह कार्य तो सरकार ने अपने जिम्मे ले रखा है। वह तो धन्य हो कि बिहार में चुनाव आ गया, नहीं तो क्या पता? कब तक हमें यह मीडिया वाले डराते रहते। वर्तमान में दुर्गा पूजा में भीड़ नहीं लगानी है। मेला नहीं लगेगा। लोकल ट्रेन नहीं चलेगी। क्योंकि कोरोना फैल जायेगा और बसों में जो ठूंस-ठूंस कर लोग यात्रा कर रहे हैं, चुनाव रैलियां हो रही है इससे कोरोना नहीं फैलेगा।
खैर हम अपने विषय पर लौटते हैं। कोरोना पर बात तो हो गई। अब "दुर्गा पूजा और मैं" पर चर्चा करते हैं। ऐसे भी जब शीर्षक में कोरोना है तो इतनी बातें जरूरी भी थी। दुर्गा पूजा से सभी को बहुत लगाव रहता है मेरा कुछ ज्यादा ही था। आप यूं समझ लीजिए कि मेरी कला की यात्रा यहीं से शुरू ही हुई थी। यदि आप प्रत्येक रविवार को मेरी रचना:- "डायरी के पन्नों से" पढ़ते होंगे तो आपको ज्ञात होगा। उसका लिंक यह नीचे दिया गया आप क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
“डायरी के पन्नों से” का दशवां (Ten) अंक।
“डायरी के पन्नों से” का ग्यारहवां (Eleventh) अंक।
2020 की दुर्गा पूजा कहां मनाये? इस पर एक महीना पहले से ही विचार चल रहा था। तय यह हुआ कि पटना जाएंगे और राजवर्धन जी के साथ कुछ खरीदारी के उपरांत दशहरा घूमते हुए घर जाएंगे। राजवर्धन जी मेरे कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के सहपाठी हैं, अभी वर्तमान में सीवान जिले में तक्षशिला में कार्यरत हैं। परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पटना जाने का निर्णय त्यागना पड़ा और घर जाने का निर्णय हो गया। इसी पर बातें चल ही रही थी कि चुनाव की तिथि आ गई। जिसमें पता चला कि शेखपुरा में चुनाव 28/10/2020 को है और दशहरा का समापन 26/10/2020 को हो रहा है। यदि मैं 27 तारीख को घर से चलता हूं तो यहां आने में परेशानी हो सकती है। यही सब सोचकर मैंने घर जाने का भी निर्णय त्याग दिया। अब घर नहीं गए, पटना नहीं गए लेकिन दुर्गा पूजा को कैसे जाने देते। यही सोचकर शेखपुरा जाने का निर्णय हुआ।
24/10/2020 को शेखपुरा जाने के लिए 10:00 बजे तैयार हो गए। जैसे निकलने वाले थे कि फोन की घंटी बजी। वह कॉल मेरे एक दोस्त का था पता चला कि उसे कुछ पैसों की आवश्यकता है और तुरंत चाहिए। मैंने उससे कहा BHIM का QR (Quick Response) Code भेजो, मैं पैसे भेज देता हूं। उसने मुझे QR Code भेजा लेकिन उससे पैसा नहीं गया। फिर उसने UPI ID दी, वहीं भी फेल हो गया। तब उसने कहा कि उसका बैंक पहले विजया बैंक में था अब बैंक ऑफ बड़ौदा हो गया है। मैंने उसे सलाह दिया कि एक बार बैंक जाकर यू.पी.आई. आई.डी. सही करा लो। तब उसने मुझे बैंक खाता नंबर और आई.एफ.एस.सी. कोड दिया और कहा कि इससे प्रयास कीजिए। मुझे तो गुस्सा आया की एक तो मुझे लेट हो रहा है और यह बंदा है कि पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। मैंने समय देखा 10:20 हो चुका था। मैंने अंतिम प्रयास किया लेकिन फिर असफल रहा। पैसा तो नहीं गया लेकिन मेरा 30 मिनट समय चला गया। अब मुझे लगा कि जब इतना समय बीत गया है तो क्यों ना पैसा भेज कर ही यहां से निकले। मैंने उससे कहा:- तुम्हारे पास कोई दूसरा बैंक खाता नहीं है, वह मुझे प्रदान करो उसमें मैं पैसा भेज देता हूं। तब उसने कहा:- एक खाता तो मुझसे संभल नहीं रहा दूसरा कैसे संभालेंगे। मैंने तुरंत फोन काटा और सबसे पहले मोबाइल की बैटरी चेक की 80%. मुझे लगा कि काम चल जाएगा और फटाफट निकले। तभी लगा कि एक Intro Video बना लेते हैं। जैसे ही वीडियो बनाना शुरू किया सामने से 10:30 वाली बस भी निकल गई। वह अपने नियत समय से 5 मिनट लेट थी। वीडियो बनाकर रोड पर पहुंचे तब तक 10:40 हो चुका था। उम्मीद थी कि 11:00 बजे तक कुछ न कुछ मिल जाएगा। 10:55 में एक हवा-हवाई आई। मैं उस में बैठ तो गया लेकिन उसकी स्पीड इतनी थी कि एक साइकिल वाला भी उसको पीछे कर दे रहा था। तभी मेरे महाविद्यालय में कार्य करने वाले एक व्यक्ति दिखे जो कि साइकिल से जा रहे थे उसने जब मुझे हवा-हवाई में देखा तो साइकिल की स्पीड कम की और बोले:- सर जी, घर जा रथिन ? (सर, घर जा रहे हैं क्या?) मैंने उनसे कहां:- यदि घर इससे जाएंगे तो कल भी नहीं पहुंच पाएंगे, फिलहाल बरबीघा पहुंच जाए यही बड़ी बात होगी। तब उसने हंसते हुए कहा:- ठीक हथीन आइथिन (ठीक है आइए) और वो साइकिल का पैडल मारते हुए मेरी आंखों से ओझल हो गए।
अभी कुछ दूर आगे बढ़े ही थे की एक और घटना घटा जो कि मुझे फोटोग्राफी का कार्य, विज्ञापन एजेंसी का कार्य और चित्रकला का कार्य को छोड़कर शिक्षक बनने की राह को चुनने का निर्णय लेना मेरे लिए कितना सही था। यह बताने के लिए काफी था। हुआ यूं कि अचानक से मेरे महाविद्यालय में कुछ दिन ही पढ़ा प्रशिक्षु दिखा। "कुछ दिन" शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उसने महाविद्यालय में नामांकन लिया और उधर उसका बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी लग गई लेकिन वह जितने दिन महाविद्यालय आया वर्ग की समाप्ति के बाद 10 से 20 मिनट मेरे पास जरूर आता। उसे मेरे बारे में जानने की बहुत उत्सुकता रहती। जैसे उसने मुझे हवा-हवाई में देखा तुरंत उसे रुकने का इशारा किया और सबसे पहले तो पैर छूकर प्रणाम किया। ऐसी स्थिति में मैं थोड़ा असहज हो जाता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि अभी मेरी उम्र किसी को पैर पर झुकने की नहीं है। मैं तो सभी को दिल में रखता हूं। कुछ देर वार्तालाप के बाद मैंने उससे जाने को कहा। उसकी इच्छा थी और बात करने की क्योंकि लगभग 2 साल बाद वह मुझसे मिला था। मैंने उससे कहा:- आप महाविद्यालय आइए, फिर वार्तालाप करेंगे। पुनः उसकी इच्छा थी पैर छूने की लेकिन मैंने ही पहले नमस्ते🙏 बोल दिया और हवा-हवाई को चलने का इशारा किया। मेरे सहयात्री मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे ऐसा दृश्य पहली बार देखा हो। मैं उनके चेहरे का भावो को पढ़ लिया। वह सभी सोच रहे थे कि इन दोनों की उम्र तो लगभग एक जैसी है जहां तक उसी की उम्र ज्यादा लग रही थी लेकिन यह दृश्य कैसा था? मैंने उन सभी के शंका का निवारण नहीं किया क्योंकि किसी ने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं। भोजपुरी में एक कहावत है:-
गुरु गुड़े रह गइले औरी चेला चीनी हो गइले।
यानी गुरु जी जो थे वह, वहीं रह गए और उनके शिष्य बहुत आगे बढ़ गए। मेरी एक खासियत यह है कि मैं किसी को चेला (शिष्य) बनाता ही नहीं हूं सभी को गुरु ही बनाता हूं क्योंकि गुरु बनाने के उपरांत में उससे ताउम्र सीखता रहता हूं यदि मैं उसे चेला (शिष्य) बना लिया तो मैं उससे सीखना बंद कर दूंगा।
आखिरकार 10 मिनट के सफर को मैंने 30 मिनट में पूरा किया। जब हवा-हवाई वाले ने 10 की जगह 15 किराया मांगा तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि सुबह से मेरे साथ आश्चर्य ही हो रहा था। हवा-हवाई से जैसे उतरे शेखपुरा जाने वाली बस खुल रही थी। बस पूरी तरह से भर गई थी। सीट को तो छोड़ दीजिए खड़े होने की जगह नहीं थी। फिर भी बस का कंडक्टर लगातार मुझे बुलाये जा रहा था और उसके पीछे बस वाला मुझे अपने बस में बैठने के लिए कह रहा था, जो कि बिल्कुल खाली थी। तभी मेरी नजर सामने लगे पोस्टर पर गई। जिस पर लिखा था- 2 गज की दूरी, सुरक्षा जरूरी। मैंने इसका पालन करते हुए बस में विंडो सीट पर बैठ गया और बगल में कैमरा एवं टाइपोर्ट से भरा बैग रख दिया ताकि दूरी बनी रहे। धीरे-धीरे बस भरने लगी और सोशल-डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ने लगी। अक्सर हम लोग बस या ट्रेन में रुमाल या अपना बैग रखकर सीट रिजर्व कर लेते हैं, ताकि कोई उस पर नहीं बैठे। मैंने भी अपनी बगल की सीट पर बैग रखा हुआ था, उसको छोड़ कर जब पूरी सीट भर गई तभी एक सज्जन की नजर मेरे बैग पर पड़ी और उसने मेरे पास आकर कहा:- भैया यहां कोई बैठा है क्या? मैंने कहा:- नहीं। वह तो बस यही सुनना चाह रहे थे। मैंने अपना बैग अपनी गोद में लिया और वह अपना आसान वही जमा लिये। 30 मिनट से ऊपर हो गए थे मुझे बस में बैठे हुए लेकिन बस अभी खुली नहीं थी। बस में लोग ऐसे खड़े थे कि यदि कोरोना बीच में आ जाए तो दबकर वही मर जाए। मैंने खिड़की के पास सीट ले रखा था, इसलिए मुझे राहत थी। खैर बस खुली और वह मुझे गिरिहिंदा चौक उतार दी। ये बस वाला भी मुझ से 15 की जगह 30 किराया लिया। गनीमत यह थी कि उसने 30 का टिकट भी दिया। वह टिकट मैं आप सभी के साथ साझा करने के लिए रखा था, लेकिन कहा जाता है ना की भ्रष्टाचार के कुछ सबूत बचता नहीं है। मेरे साथ भी यही हुआ जब यात्रा समाप्ति के बाद शर्ट को धोने के लिए दिए तो टिकट भी उसमें धुल गया। लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी और उस टिकट को सुखाया एवं आयरन करने के उपरांत आप सभी के बीच साझा कर रहा हूं।
गिरिहिंदा चौक के पास ही दुर्गा माता का पंडाल बना हुआ था। उनका दर्शन कर, फिर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चले यानी गिरिहिंदा पहाड़ी की ओर। कुल 292 सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर पहुंचे। लगभग एक-दो घंटा वहीं पर फोटो एवं वीडियो रिकॉर्ड किए। एक बेहतरीन VLog का निर्माण हो गया, जिसका लिंक नीचे 👇👇है।
#शेखपुरा गिरिहिंडा पहाड़ जिस पर महाभारत काल में भीम की पत्नी राक्षसी हिडिम्भा का निवास स्थान था VLog
गिरिहिंदा पहाड़ी पर चढ़ने के लिए दो रास्ते हैं एक सीढ़ी से और एक सड़क से। पहाड़ी के ऊपर जाने का कार्य तो मैंने सीढ़ी से किया लेकिन उतरने का कार्य सड़क से। जैसे ही पहाड़ से नीचे उतरे मुझे लगा कि कहीं में सिंधु घाटी की सभ्यता में तो नहीं आ गया हूं क्योंकि वहां पर अभी भी वैसे ही मिट्टी के घर दिख रहे थे। शेखपुरा में ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था। आगे बढ़ता गया ताकि कहीं कोई रास्ता दिख जाये लेकिन रास्ता दिख नहीं रहा था। कहां भी गया है कि जब रास्ता नहीं दिखे तब टॉर्च जला लेना चाहिए। मैंने भी ऐसे ही एक टॉर्च की खोज की, मेरे प्रशिक्षु के रूप में। जिसका घर शेखपुरा में ही है, मैंने उसे कॉल किया, उसने मुझे राह दिखाई और जैसे ही उसे मालूम चला कि मैं शेखपुरा में आया हूं वह मुझसे मिलने की जिद्द करने लगा। मैंने उससे उसका लोकेशन मांगा और उसी का अनुसरण करते हुए पुनः गिरिहिंदा देवी स्थान के पास आ गये। मेरे उस प्रशिक्षु से मेरी व्यक्तिगत बात भी होती है और वह अपनी समस्याओं को मेरे समक्ष खुलकर रखता है। इसलिए मैंने भी अपनी समस्याओं का समाधान उसी से प्राप्त किया। कुछ दिनों पूर्व उसकी जिंदगी में ना भूलने वाले कष्ट आ गए थे मैंने माता रानी से विनती की ऐसे कष्ट या ऐसी परेशानियां पुनः कभी ना आने पाए। हां हम मानते हैं की परेशानियों से आदमी सीखता है, लेकिन अंदर से टूट भी जाता है। उस समय तो और भी ज्यादा जब कोई ढाढस बढ़ाने वाला ना हो। माता रानी से आशीर्वाद ले मैंने कुछ मिठाईयां ली ताकि उसकी जिंदगी में हमेशा मिठास बनी रहे, कड़वाहट कभी ना आने पाए। उससे मुलाकात गिरिहिंदा चौक पर ही हो गई। वह तो बस मेरे आने का इंतजार ही कर रहा था। उसके द्वारा की गई सेवा-सत्कार पुनः मुझे शिक्षक बनने पर गौरवान्वित कर रही थी। वहां से मैं विदा लेकर सीधे चांदनी चौक गया। तब-तक मोबाइल की बैटरी ने साथ छोड़ दिया। अफसोस यह रहा कि पावर बैंक लेकर चले ही नहीं थे। फिर वहां से पुनः हम प्रस्थान कर गए। बस में बैठे-बैठे आज दिन भर के कार्यों की विवेचना करने लगे........
रविवार, 25 अक्टूबर 2020
सिन्धु घाटी सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता)
सिन्धु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के प्रमुख स्थल, उत्खननकर्ता, ई., नदी, वर्तमान स्थिति एवं प्राप्त महत्वपूर्ण साक्ष्य.
- सर्वप्रथम 1921 ई में रायबहादुर दयाराम साहनी ने तकालीन भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में हड़प्पा नामक स्थल की खुदाई कर इस सभ्यता की खोज की।
- हड़प्पा के पश्चात 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो नामक स्थल की खोज की।
- रेडियो कार्बन C14 विश्लेषण पद्धति के द्वारा सिन्धु सभ्यता की सर्वमान्य तिथि 2250 ई. पू. से 1750 ई. पू. मानी गई हैं।
- सिधु सभ्यता के अन्य नदी-घाटियों तक विस्तृत स्वरूप का पता चलने के कारण इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से अधिक जाना जाता है। हड़प्पा को इस नगरीय सभ्यता का प्रथम उत्खनन स्थल होने के कारण नामकरण का यह सम्मान प्राप्त हुआ।
- भारत में सर्वाधिक सैन्धव स्थल गुजरात में पाए गए हैं।
- सिन्धु घाटी सभ्यता (हडप्पा सभ्यता) कास्ययुगीन सभ्यता थी।
- मोहनजोदड़ो को "मृतकों का टीला" भी कहा जाता है।
- कालीबंगा का अर्थ "काले रंग की चूड़ियाँ" होता है।
- सिन्धु घाटी सभ्यता की महत्वपूर्ण विशेषता नगर-निर्माण योजना का होना था। एक सुव्यवस्थित जल-निकास प्रणाली, इस सभ्यता के नगर-निर्माण योजना की प्रमुख विशेषता थी।
- हड़प्पा सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक (Matriarchal) था।
- कृषि तथा पशुपालन के साथ-साथ उद्योग एवं प्यापार भी अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार थे।
- हड़प्पा सभ्यता के आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि था।
- विश्व में सर्वप्रथम यही के निवासियों ने कपास की खेती प्रारम्भ की थी। मेसोपोटामिया में कपास के लिए 'सिन्धु' शब्द का प्रयोग किया जाता था। यूनानियों ने इसे सिण्डन कहा, जो सिन्धु का ही यूनानी रूपान्तरण है।
- हड़प्पा सभ्यता में आन्तरिक तथा विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार होता था। व्यापार वस्तु-विनिमय के द्वारा होता था।
- माप - तौल की इकाई संभवतः 16 के अनुपात में थी।
- हड़प्पा सभ्यता में प्रशासन संभवतः वणिक वर्ग (Merchant class) "हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था। के द्वारा चलाया जाता था।
- इस सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रमुख स्थान था। इसके साथ-ही-साथ पशुपति, लिग, योनि वृक्षों एवं पशुओं की भी पूजा की जाती थी।
- पशुओं में कूबड़ वाला सांड सर्वाधिक महत्वपूर्ण पशु था और उसकी पूजा का प्रचलन था।
- इस काल में मन्दिर के अवशेष नहीं मिले है।
- इस सभ्यता के निवासी मिट्टी के बर्तन- निर्माण, मुहरों के निर्माण, मूर्ति-निर्माण आदि कलाओं में प्रवीण थे।
- मुहरें अधिकांशत: सेलखड़ी की बनी होती थी।
- हड़प्पा सभ्यता की लिपि, भाव-चित्रात्मक हैं। यह लिपि प्रथम पंक्ति में दाएँ से बाएँ तथा दूसरी पंक्ति में बाएँ से दाएँ लिखी गई। इस लेखन पद्धति को ब्रुस्त्रोफेदम कहाँ गया हैं। इसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका हैं।
- हड़प्पा सभ्यता में शवों को दफनाने एवं जलाने की प्रथा प्रचलित थी।
- हड़प्पा : पंजाब (पाकिस्तान) के मौन्टगोमरी जिले में स्थित है। हड़प्पा के टीले की सर्वप्रथम जानकारी चार्ल्स मैसन / मेसोन (Charles Mason) ने 1826 में दी। 1921 में दयाराम साहनी ने इसका सर्वेक्षण किया और 1923 से इसका नियमित उत्खनन आरम्भ हुआ। 1926 में माधोस्वरूप वत्स ने तथा 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने व्यापक स्तर पर उत्खनन कराया यहाँ से निम्नलिखित तथ्य मिले हैं- छ: अन्नागार (15.25 मी. x 6.09 मी .) जिनका सम्मिलित क्षेत्रफल मोहनजोद्दो से प्राप्त विशाल अन्नागार 838.1025 वर्ग मी. के बराबर हैं।
- मोहनजोदड़ो : सिंधी में इसका शाब्दिक अर्थ मृतकों का टीला हैं। यह सिंध (पाकिस्तान) के लरकाना जिले में सिंधु तट पर स्थित हैं। सर्वप्रथम इसकी खोज आर. डी. बनर्जी ने 1922 में की थी। 1922-30 तक सर जान मार्शल के नेतृत्व में विभिन्न पुराविदों ने उत्खनन किया। प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि यह शहर सात बार उसड़कर बसा था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है- विशाल स्नानागार (Great Bath), विशाल अत्रागार (Great Granary), महाविद्यालय भवन (Collegiate Building) , सभा भवन (Assembly Hall), कांसे की नृत्यरत नारी की मृति (Bronze Statue Of Dancing Girl), पूजारी(योगी) को मूर्ति, मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ (शिव) (Seal inscribed Pashupatinath), अंतिम स्तर पर बिखरे हुए एवं कुएं में प्राप्त नरकंकाल, सड़क के मध्य कुम्हार का आवा, गीली मिट्टी पर कपड़े का साक्ष्य, इत्यादि।
- चन्हूदडो : मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में स्थित इस स्थल की सर्वप्रथम खोज एन. जी. मजूमदार (N.G . Majumdar) ने 1931 में की थी। 1935 में इसका उत्खनन मैके (Mackey) ने किया यहाँ सैन्धय संस्कृति के अतिरिक्त प्राक-हड़प्पा संस्कृति (Pre-Harappan Culture), जिसे झूकर संस्कृति (Jhukcr Culture) और झांगर संस्कृति (Jhanger Culture) कहते हैं, के भी अवशेष मिले हैं। यही के निवासी मुख्यत: कुशल कारीगर थे। इसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि यहाँ मनके, सीप, अस्थि तथा मुद्रा (Seal making) बनाने का प्रमुख केन्द्र था। यहां से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है- 1.अलंकृत हाथी, 2 खिलौना, 3 .एक कुत्ते के बिल्ली का पीछा करते पद-चिन्ह, इत्यादि। यहाँ किसी दुर्ग का अस्तित्व नहीं मिला है।
- लोथल : अहमदाबाद जिले (गुजरात) के सरागवाला ग्राम में स्थित इस स्थल की सर्वप्रथम खोज डा. एस. आर. राव. (S. R. Rao) ने 1954 में की थी। सागर तट पर स्थित यह स्थल पश्चमी-एशिया से व्यापार का प्रमुख बंदरगाह था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है- 1 बंदरगाह (Dockyard), 2 मनके बनाने का कारखाना (Beads factory), 3. धान (चावल) का साक्ष्य (Evidence of rice), मृण्मृति 4. फारस की मोहर (Persian Seal) . 5 घोड़े की लघु मृणमूर्ति (Terracotta figurine of a Horse), इत्यादि।
- कालीबंगा (Kalibangan) : राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित इस प्राक-हड़प्पा पुरास्थल की खोज सर्वप्रथम ए. घोष (A.Ghose) ने 1953 में की। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है - 1. हल के निशान (जुते हुए खेत) (Ploughed field), 2 ईटों से निर्मित चबूतरे (Brick platform), हवनकुण्ड (Fire Altar), 4 अत्रागार (Granary), 5 घरों के निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग, इत्यादि। नोट : यहाँ दो सांस्कृतिक अवस्थाओं - हड़प्पा कालीन के दर्शन होते है।
- बनवाली (Banawali) : हरियाणा के हिस्सार जिले में इस पुरास्थल की खोज आर. एस. विष्ट (रवीन्द्र सिंह विष्ट) (R.S. Bisht) ने 1973 में की। यहाँ प्राक-हड़प्पा (Pre Harappan) और हड़प्पा संस्कृति (Harappan Culture) दोनों के चिन्ह दृष्टिगोचर होते है। मोहनजोदडो की ही भांति यह भी एक कुशल-नियोजित शहर था, यहाँ पकी ईटों का प्रयोग किया गया था । प्राप्त अवशेषा में प्रमुख है- 1. हल की आकृति (आकृति को रूप में) 2. जौ, तिल तथा सरसों का ढेर (Barley, Sesamum & Mustard), 3. सड़कों और जल-निकास के अवशेष (Remains of Streets and Drains)।
- आलमगीरपुर (Alamgirpur) : उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित इस पुरास्थल की खोज 1958 में की गई। सैन्धव सभ्यता का पूर्वी छोर निर्धारित करता यह स्थल हड़प्पा संस्कृति की अंतिम अवस्था (Last phase) से संबंधित है। उल्लेखनीय है, यहाँ से अभी तक एक भी मुहर प्राप्त नहीं हुई हैं।
“डायरी के पन्नों से”
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020
लोकगीत की परंपरा आज समाप्त होते जा रही है। एक लोकगीत को प्रस्तुत करते हुए विवेचना करें कि यह समाज के लिए क्यों जरूरी है। (The tradition of folklore is ending today. While presenting a folk song, explain why it is important for society.)
#लोकगीत पर विवेचना, विषय:- लोकगीत की परंपरा आज समाप्त होते जा रही है। EPC-1 Unit-3 Munger University, Munger Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=fIvIln_J7xA&t=31s
लोकगीत
परिचय:- पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित एवं क्षेत्र विशेष के लोगों की समस्याओं को अभिव्यक्त करने की परंपरा या अनुभूति ही लोकगीत कहलाती है। इसकी रचना अंधविश्वास, धार्मिक भावनाओं, वर्तमान में उपस्थित समस्याओं, इत्यादि। से प्रेरित होकर रचित की जाती है। भारतीय लोक-गीत जन समुदाय के बीच की एक कला है। इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय सभ्यता। लोक कलाकारों ने प्रत्येक ईस्वी में लोकगीतों का निर्माण किया होगा परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि हम इसे प्राप्त नहीं कर पाए। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे हम लोग लोक कला के नाम से जानते हैं।
लोकगीत को प्रस्तुत करने से पूर्व हम इस लोक गीत की रचना के पीछे की कहानी को बताते हैं:- एक बेटी का बाप शादी के लिए लड़के वालों के पास जाता है और लड़का का घर उसे बहुत पसंद आता है। वह उसके घर को ही देखकर अपनी बेटी की शादी उस घर में कर देता है। लेकिन जब लड़की घर आती है तो उसे अनेकों प्रकार की यातनाएं और परेशानियां झेलनी पड़ती है। कई दिनों के उपरांत जब वृद्ध पिता अपनी बेटी से मिलने आते है तो उसके घर की जो सास-ससुर, ननद और उसके पति जो होते हैं उन्हें लगता है कि वह अपने पिता से हम लोग की शिकायत करेगी इसीलिए वह एक छोटी बच्ची को उसके पास बैठा देते हैं ताकि वह कुछ भी बातें कहे तो तुरंत आ करके उसको बता सके। दुल्हन जो होती है वह उनकी चाल को समझ जाती है। जैसे ही पिता अपनी बेटी से मिलने आते हैं पहले तो उनसे आराम से बात करती है फिर रोने लगती है और रो-रोकर के ही गीत के माध्यम से अपनी पूरी अपनी दु:खद कहानी को गाते हुए कहती है:-
काकावां रे काकावा,
कईलाs बियाह देखी घर पाकवां रे काकवां.......
पिता को जब यह बात पता चलती है तो उन्हें बहुत अफसोस होता है वो सोचने लगते हैं कि काश मैंने पहले से सोच समझकर निर्णय लिया होता तो आज बेटी इतने कष्ट में ना होती। फिर भी भी वो अपनी बेटी को समझाते हुए कहते है:- बेटी चुप हो जाओ, हम इस दु:ख का निवारण करने का प्रयास करेंगे। पिता जब अपनी बेटी को समझा-बुझा कर चले जाते हैं तब उसके घर वाले उस छोटी बच्ची को बुलाते हैं और पूछते हैं कि वह अपने पिता से हमारी क्या शिकायत की है? तब वो लड़की कहती है वो कहां कुछ बोली, केवल लगातार रोए जा रही थी। उसने कुछ नहीं कहा आप लोगो के बारे में। आप इस घटना से लोकगीत की महत्ता को आसानी से समझ सकते हैं।
प्रश्न के अनुसार प्रस्तुत हैं एक भोजपुरी लोकगीत
मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020
स्वयं का मूल्यांकन कैसे करें ? How to evaluate yourself ? Hindi and English Notes.
रविवार, 18 अक्टूबर 2020
“डायरी के पन्नों से”
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020
ना होती है मेरी कोशिशे, बेअसर कभी-कभी।
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020
मेरी रचना, मुक्तक✍🏻
बुधवार, 14 अक्टूबर 2020
अजी!!! कुछ तो बोलो (Ajii!!! kuch to bolo)
अजी !!! कुछ तो बोलो
प्राचीन भारत (पाषाण काल)
- पाषाण काल को तीन भागों में बाँटा गया है:- पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल तथा नवपाषाण काल।
- पुरापाषाण काल में मनुष्य की जीविका का मुख्य आधार शिकार था। इस काल को आखेटक तथा खाद्य-संग्राहक काल भी कहा जाता है।
- लगभग 36,000 ई.पू. में आधुनिक मानव पहली बार अस्तित्व में आया। आधुनिक मानव को 'होमो-सेपियन्स (Homo-Sapiens) भी कहा जाता है।
- मानव द्वारा प्रथम पालतू पशु कुत्ता था, जिसे मध्यपाषाण काल में पालतू बनाया गया।
- आग की जानकारी मानव को पुरापाषाण काल से ही थी, किन्तु इसका प्रयोग नवपाषाण काल से प्रारम्भ हुआ था।
- नवपाषाण काल से मानव ने कृषि कार्य प्रारम्भ किया, जिससे उसमे स्थायी निवास की प्रवृत्ति विकसित हुई।
- भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसन्धान सर्वप्रथम रॉबर्ट बूस फुट ने 1863 ई . में प्रारम्भ किया।
- भारत में व्यवस्थित कृषि का पहला साक्ष्य मेहरगढ़ (बलूचिस्तान ,पाकिस्तान में पुरातात्विक स्थल) से प्राप्त हुआ है।
- बिहार के चिरांद (छपरा से ११ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में डोरीगंज बाजार के निकट स्थित चिरांद सारण जिला का सबसे महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थल है।) नामक स्थल से नवपाषाण कालीन हड्डी के औजार मिले हैं।
- पाषाण काल के तीनों चरणों का साक्ष्य-बेलन घाटी इलाहाबाद से प्राप्त हुआ है।
- औजारों में प्रयुक्त की जाने वाली पहली धातु ताँबा थी तथा इस धातु का ज्ञान मनुष्य को सर्वप्रथम हुआ।
- लगभग 8000 ई. पू. चावल की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य लोहार देवा या लहुरा देवा (सन्त कबीर नगर), उत्तर प्रदेश से पाया गया है।
- पहिये का आविष्कार नवपाषाणकाल में हुआ।
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020
सभ्यता द्वार, पटना बिहार
गिरिहिंडा पहाड़, जिस पर महाभारत काल में भीम की पत्नी राक्षसी हिडिम्भा का निवास स्थान था। शेखपुरा, बिहार।
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