मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

"कोरोना, दुर्गा पूजा और मैं"

          शीर्षक पढ़ कर आप डरिये नहीं, यहां हम आपको कोरोना से कैसे बचना है? और दुर्गा पूजा कैसे मनानी है? इसके बारे में नहीं बताएंगे। यह कार्य तो सरकार ने अपने जिम्मे ले रखा है। वह तो धन्य हो कि बिहार में चुनाव आ गया, नहीं तो क्या पता? कब तक हमें यह मीडिया वाले डराते रहते। वर्तमान में दुर्गा पूजा में भीड़ नहीं लगानी है। मेला नहीं लगेगा। लोकल ट्रेन नहीं चलेगी। क्योंकि कोरोना फैल जायेगा और बसों में जो ठूंस-ठूंस कर लोग यात्रा कर रहे हैं, चुनाव रैलियां हो रही है इससे कोरोना नहीं फैलेगा। 

           खैर हम अपने विषय पर लौटते हैं। कोरोना पर बात तो हो गई। अब "दुर्गा पूजा और मैं" पर चर्चा करते हैं। ऐसे भी जब शीर्षक में कोरोना है तो इतनी बातें जरूरी भी थी। दुर्गा पूजा से सभी को बहुत लगाव रहता है मेरा कुछ ज्यादा ही था। आप यूं समझ लीजिए कि मेरी कला की यात्रा यहीं से शुरू ही हुई थी। यदि आप प्रत्येक रविवार को मेरी रचना:- "डायरी के पन्नों से" पढ़ते होंगे तो आपको ज्ञात होगा। उसका लिंक यह नीचे दिया गया आप क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

“डायरी के पन्नों से” का दशवां (Ten) अंक।

“डायरी के पन्नों से” का ग्यारहवां (Eleventh) अंक।

         2020 की दुर्गा पूजा कहां मनाये? इस पर एक महीना पहले से ही विचार चल रहा था। तय यह हुआ कि पटना जाएंगे और राजवर्धन जी के साथ कुछ खरीदारी के उपरांत दशहरा घूमते हुए घर जाएंगे। राजवर्धन जी मेरे कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के सहपाठी हैं, अभी वर्तमान में सीवान जिले में तक्षशिला में कार्यरत हैं। परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि पटना जाने का निर्णय त्यागना पड़ा और घर जाने का निर्णय हो गया। इसी पर बातें चल ही रही थी कि चुनाव की तिथि आ गई। जिसमें पता चला कि शेखपुरा में चुनाव 28/10/2020 को है और दशहरा का समापन 26/10/2020 को हो रहा है। यदि मैं 27 तारीख को घर से चलता हूं तो यहां आने में परेशानी हो सकती है। यही सब सोचकर मैंने घर जाने का भी निर्णय त्याग दिया। अब घर नहीं गए, पटना नहीं गए लेकिन दुर्गा पूजा को कैसे जाने देते। यही सोचकर शेखपुरा जाने का निर्णय हुआ। 

          24/10/2020 को शेखपुरा जाने के लिए 10:00 बजे तैयार हो गए। जैसे निकलने वाले थे कि फोन की घंटी बजी। वह कॉल मेरे एक दोस्त का था पता चला कि उसे कुछ पैसों की आवश्यकता है और तुरंत चाहिए। मैंने उससे कहा BHIM का QR (Quick Response) Code भेजो, मैं पैसे भेज देता हूं। उसने मुझे QR Code भेजा लेकिन उससे पैसा नहीं गया। फिर उसने UPI ID दी,  वहीं भी फेल हो गया। तब उसने कहा कि उसका बैंक पहले विजया बैंक में था अब बैंक ऑफ बड़ौदा हो गया है। मैंने उसे सलाह दिया कि एक बार बैंक जाकर यू.पी.आई. आई.डी. सही करा लो। तब उसने मुझे बैंक खाता नंबर और आई.एफ.एस.सी. कोड दिया और कहा कि इससे प्रयास कीजिए। मुझे तो गुस्सा आया की एक तो मुझे लेट हो रहा है और यह बंदा है कि पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। मैंने समय देखा 10:20 हो चुका था। मैंने अंतिम प्रयास किया लेकिन फिर असफल रहा। पैसा तो नहीं गया लेकिन मेरा 30 मिनट समय चला गया। अब मुझे लगा कि जब इतना समय बीत गया है तो क्यों ना पैसा भेज कर ही यहां से निकले। मैंने उससे कहा:- तुम्हारे पास कोई दूसरा बैंक खाता नहीं है, वह मुझे प्रदान करो उसमें मैं पैसा भेज देता हूं। तब उसने कहा:- एक खाता तो मुझसे संभल नहीं रहा दूसरा कैसे संभालेंगे। मैंने तुरंत फोन काटा और सबसे पहले मोबाइल की बैटरी चेक की 80%. मुझे लगा कि काम चल जाएगा और फटाफट निकले। तभी लगा कि एक Intro Video बना लेते हैं। जैसे ही वीडियो बनाना शुरू किया सामने से 10:30 वाली बस भी निकल गई। वह अपने नियत समय से 5 मिनट लेट थी। वीडियो बनाकर रोड पर पहुंचे तब तक 10:40 हो चुका था। उम्मीद थी कि 11:00 बजे तक कुछ न कुछ मिल जाएगा। 10:55 में एक हवा-हवाई आई। मैं उस में बैठ तो गया लेकिन उसकी स्पीड इतनी थी कि एक साइकिल वाला भी उसको पीछे कर दे रहा था। तभी मेरे महाविद्यालय में कार्य करने वाले एक व्यक्ति दिखे जो कि साइकिल से जा रहे थे उसने जब मुझे हवा-हवाई में देखा तो साइकिल की स्पीड कम की और बोले:- सर जी, घर जा रथिन ? (सर, घर जा रहे हैं क्या?) मैंने उनसे कहां:- यदि घर इससे जाएंगे तो कल भी नहीं पहुंच पाएंगे, फिलहाल बरबीघा पहुंच जाए यही बड़ी बात होगी। तब उसने हंसते हुए कहा:- ठीक हथीन आइथिन (ठीक है आइए) और वो साइकिल का पैडल मारते हुए मेरी आंखों से ओझल हो गए। 

        अभी कुछ दूर आगे बढ़े ही थे की एक और घटना घटा जो कि मुझे फोटोग्राफी का कार्य, विज्ञापन एजेंसी का कार्य और चित्रकला का कार्य को छोड़कर शिक्षक बनने की राह को चुनने का निर्णय लेना मेरे लिए कितना सही था। यह बताने के लिए काफी था। हुआ यूं कि अचानक से मेरे महाविद्यालय में कुछ दिन ही पढ़ा प्रशिक्षु दिखा। "कुछ दिन" शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उसने महाविद्यालय में नामांकन लिया और उधर उसका बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी लग गई लेकिन वह जितने दिन महाविद्यालय आया वर्ग की समाप्ति के बाद 10 से 20 मिनट मेरे पास जरूर आता। उसे मेरे बारे में जानने की बहुत उत्सुकता रहती। जैसे उसने मुझे हवा-हवाई में देखा तुरंत उसे रुकने का इशारा किया और सबसे पहले तो पैर छूकर प्रणाम किया। ऐसी स्थिति में मैं थोड़ा असहज हो जाता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि अभी मेरी उम्र किसी को पैर पर झुकने की नहीं है। मैं तो सभी को दिल में रखता हूं। कुछ देर वार्तालाप के बाद मैंने उससे जाने को कहा। उसकी इच्छा थी और बात करने की क्योंकि लगभग 2 साल बाद वह मुझसे मिला था। मैंने उससे कहा:- आप महाविद्यालय आइए, फिर वार्तालाप करेंगे। पुनः उसकी इच्छा थी पैर छूने की लेकिन मैंने ही पहले नमस्ते🙏 बोल दिया और हवा-हवाई को चलने का इशारा किया। मेरे सहयात्री मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे ऐसा दृश्य पहली बार देखा हो। मैं उनके चेहरे का भावो को पढ़ लिया। वह सभी सोच रहे थे कि इन दोनों की उम्र तो लगभग एक जैसी है जहां तक उसी की उम्र ज्यादा लग रही थी लेकिन यह दृश्य कैसा था? मैंने उन सभी के शंका का निवारण नहीं किया क्योंकि किसी ने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं। भोजपुरी में एक कहावत है:- 

गुरु गुड़े रह गइले औरी चेला चीनी हो गइले। 

    यानी गुरु जी जो थे वह, वहीं रह गए और उनके शिष्य बहुत आगे बढ़ गए। मेरी एक खासियत यह है कि मैं किसी को चेला (शिष्य) बनाता ही नहीं हूं सभी को गुरु ही बनाता हूं क्योंकि गुरु बनाने के उपरांत में उससे ताउम्र सीखता रहता हूं यदि मैं उसे चेला (शिष्य) बना लिया तो मैं उससे सीखना बंद कर दूंगा। 

        आखिरकार 10 मिनट के सफर को मैंने 30 मिनट में पूरा किया। जब हवा-हवाई वाले ने 10 की जगह 15 किराया मांगा तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि सुबह से मेरे साथ आश्चर्य ही हो रहा था। हवा-हवाई से जैसे उतरे शेखपुरा जाने वाली बस खुल रही थी। बस पूरी तरह से भर गई थी। सीट को तो छोड़ दीजिए खड़े होने की जगह नहीं थी। फिर भी बस का कंडक्टर लगातार मुझे बुलाये जा रहा था और उसके पीछे बस वाला मुझे अपने बस में बैठने के लिए कह रहा था, जो कि बिल्कुल खाली थी। तभी मेरी नजर सामने लगे पोस्टर पर गई। जिस पर लिखा था2 गज की दूरी, सुरक्षा जरूरी। मैंने इसका पालन करते हुए बस में विंडो सीट पर बैठ गया और बगल में कैमरा एवं टाइपोर्ट से भरा बैग रख दिया ताकि दूरी बनी रहे। धीरे-धीरे बस भरने लगी और सोशल-डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ने लगी। अक्सर हम लोग बस या ट्रेन में रुमाल या अपना बैग रखकर सीट रिजर्व कर लेते हैं, ताकि कोई उस पर नहीं बैठे। मैंने भी अपनी बगल की सीट पर बैग रखा हुआ था, उसको छोड़ कर जब पूरी सीट भर गई तभी एक सज्जन की नजर मेरे बैग पर पड़ी और उसने मेरे पास आकर कहा:- भैया यहां कोई बैठा है क्या? मैंने कहा:- नहीं। वह तो बस यही सुनना चाह रहे थे। मैंने अपना बैग अपनी गोद में लिया और वह अपना आसान वही जमा लिये। 30 मिनट से ऊपर हो गए थे मुझे बस में बैठे हुए लेकिन बस अभी खुली नहीं थी। बस में लोग ऐसे खड़े थे कि यदि कोरोना बीच में आ जाए तो दबकर वही मर जाए। मैंने खिड़की के पास सीट ले रखा था, इसलिए मुझे राहत थी। खैर बस खुली और वह मुझे गिरिहिंदा चौक उतार दी। ये बस वाला भी मुझ से 15 की जगह 30 किराया लिया। गनीमत यह थी कि उसने 30 का टिकट भी दिया। वह टिकट मैं आप सभी के साथ साझा करने के लिए रखा था, लेकिन कहा जाता है ना की भ्रष्टाचार के कुछ सबूत बचता नहीं है। मेरे साथ भी यही हुआ जब यात्रा समाप्ति के बाद शर्ट को धोने के लिए दिए तो टिकट भी उसमें धुल गया। लेकिन मैंने भी हार नहीं मानी और उस टिकट को सुखाया एवं आयरन करने के उपरांत आप सभी के बीच साझा कर रहा हूं। 

     गिरिहिंदा चौक के पास ही दुर्गा माता का पंडाल बना हुआ था। उनका दर्शन कर, फिर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चले यानी गिरिहिंदा पहाड़ी की ओर। कुल 292 सीढ़ियां चढ़ कर ऊपर पहुंचे। लगभग एक-दो घंटा वहीं पर फोटो एवं वीडियो रिकॉर्ड किए। एक बेहतरीन VLog का निर्माण हो गया, जिसका लिंक नीचे 👇👇है।

#शेखपुरा गिरिहिंडा पहाड़ जिस पर महाभारत काल में भीम की पत्नी राक्षसी हिडिम्भा का निवास स्थान था VLog

       गिरिहिंदा पहाड़ी पर चढ़ने के लिए दो रास्ते हैं एक सीढ़ी से और एक सड़क से। पहाड़ी के ऊपर जाने का कार्य तो मैंने सीढ़ी से किया लेकिन उतरने का कार्य सड़क से। जैसे ही पहाड़ से नीचे उतरे मुझे लगा कि कहीं में सिंधु घाटी की सभ्यता में तो नहीं आ गया हूं क्योंकि वहां पर अभी भी वैसे ही मिट्टी के घर दिख रहे थे। शेखपुरा में ऐसा दृश्य मैंने पहले कभी नहीं देखा था। आगे बढ़ता गया ताकि कहीं कोई रास्ता दिख जाये लेकिन रास्ता दिख नहीं रहा था। कहां भी गया है कि जब रास्ता नहीं दिखे तब टॉर्च जला लेना चाहिए। मैंने भी ऐसे ही एक टॉर्च की खोज की, मेरे प्रशिक्षु के रूप में। जिसका घर शेखपुरा में ही है, मैंने उसे कॉल किया, उसने मुझे राह दिखाई और जैसे ही उसे मालूम चला कि मैं शेखपुरा में आया हूं वह मुझसे मिलने की जिद्द करने लगा। मैंने उससे उसका लोकेशन मांगा और उसी का अनुसरण करते हुए पुनः गिरिहिंदा देवी स्थान के पास आ गये। मेरे उस प्रशिक्षु से मेरी व्यक्तिगत बात भी होती है और वह अपनी समस्याओं को मेरे समक्ष खुलकर रखता है। इसलिए मैंने भी अपनी समस्याओं का समाधान उसी से प्राप्त किया। कुछ दिनों पूर्व उसकी जिंदगी में ना भूलने वाले कष्ट आ गए थे मैंने माता रानी से विनती की ऐसे कष्ट या ऐसी परेशानियां पुनः कभी ना आने पाए। हां हम मानते हैं की परेशानियों से आदमी सीखता है, लेकिन अंदर से टूट भी जाता है। उस समय तो और भी ज्यादा जब कोई ढाढस बढ़ाने वाला ना हो। माता रानी से आशीर्वाद ले मैंने कुछ मिठाईयां ली ताकि उसकी जिंदगी में हमेशा मिठास बनी रहे, कड़वाहट कभी ना आने पाए। उससे मुलाकात गिरिहिंदा चौक पर ही हो गई। वह तो बस मेरे आने का इंतजार ही कर रहा था। उसके द्वारा की गई सेवा-सत्कार पुनः मुझे शिक्षक बनने पर गौरवान्वित कर रही थी। वहां से मैं विदा लेकर सीधे चांदनी चौक गया। तब-तक मोबाइल की बैटरी ने साथ छोड़ दिया। अफसोस यह रहा कि पावर बैंक लेकर चले ही नहीं थे। फिर वहां से पुनः हम प्रस्थान कर गए। बस में बैठे-बैठे आज दिन भर के कार्यों की विवेचना करने लगे........

रविवार, 25 अक्टूबर 2020

सिन्धु घाटी सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता)

सिन्धु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के प्रमुख स्थल, उत्खननकर्ता, ई., नदी, वर्तमान स्थिति एवं प्राप्त महत्वपूर्ण साक्ष्य.

  • सर्वप्रथम 1921 ई में रायबहादुर दयाराम साहनी ने तकालीन भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में हड़प्पा नामक स्थल की खुदाई कर इस सभ्यता की खोज की। 
  •  हड़प्पा के पश्चात 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो नामक स्थल की खोज की। 
  • रेडियो कार्बन C14 विश्लेषण पद्धति के द्वारा सिन्धु सभ्यता की सर्वमान्य तिथि 2250 ई. पू. से 1750 ई. पू. मानी गई हैं।  
  • सिधु सभ्यता के अन्य नदी-घाटियों तक विस्तृत स्वरूप का पता चलने के कारण इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से अधिक जाना जाता है। हड़प्पा को इस नगरीय सभ्यता का प्रथम उत्खनन स्थल होने के कारण नामकरण का यह सम्मान प्राप्त हुआ। 
  • भारत में सर्वाधिक सैन्धव स्थल गुजरात में पाए गए हैं। 
  • सिन्धु घाटी सभ्यता (हडप्पा सभ्यता) कास्ययुगीन सभ्यता थी।  
  • मोहनजोदड़ो को "मृतकों का टीला" भी कहा जाता है। 
  • कालीबंगा का अर्थ "काले रंग की चूड़ियाँ" होता है। 
  • सिन्धु घाटी सभ्यता की महत्वपूर्ण विशेषता नगर-निर्माण योजना का होना था। एक सुव्यवस्थित जल-निकास प्रणाली, इस सभ्यता के नगर-निर्माण योजना की प्रमुख विशेषता थी। 
  • हड़प्पा सभ्यता का समाज मातृसत्तात्मक (Matriarchal) था। 
  • कृषि तथा पशुपालन के साथ-साथ उद्योग एवं प्यापार भी अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार थे।  
  • हड़प्पा सभ्यता के आर्थिक जीवन का मुख्य आधार कृषि था। 
  • विश्व में सर्वप्रथम यही के निवासियों ने कपास की खेती प्रारम्भ की थी। मेसोपोटामिया में कपास के लिए 'सिन्धु' शब्द का प्रयोग किया जाता था। यूनानियों ने इसे सिण्डन कहा, जो सिन्धु का ही यूनानी रूपान्तरण है। 
  • हड़प्पा सभ्यता में आन्तरिक तथा विदेशी दोनों प्रकार का व्यापार होता था। व्यापार वस्तु-विनिमय के द्वारा होता था। 
  • माप - तौल की इकाई संभवतः 16 के अनुपात में थी। 
  • हड़प्पा सभ्यता में प्रशासन संभवतः वणिक वर्ग (Merchant class) "हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था। के द्वारा चलाया जाता था। 
  • इस सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रमुख स्थान था। इसके साथ-ही-साथ पशुपति, लिग, योनि वृक्षों एवं पशुओं की भी पूजा की जाती थी। 
  • पशुओं में कूबड़ वाला सांड सर्वाधिक महत्वपूर्ण पशु था और उसकी पूजा का प्रचलन था। 
  • इस काल में मन्दिर के अवशेष नहीं मिले है।  
  • इस सभ्यता के निवासी मिट्टी के बर्तन- निर्माण, मुहरों के निर्माण, मूर्ति-निर्माण आदि कलाओं में प्रवीण थे।
  • मुहरें अधिकांशत: सेलखड़ी की बनी होती थी। 
  • हड़प्पा सभ्यता की लिपि, भाव-चित्रात्मक हैं। यह लिपि प्रथम पंक्ति में दाएँ से बाएँ तथा दूसरी पंक्ति में बाएँ से दाएँ लिखी गई। इस लेखन पद्धति को ब्रुस्त्रोफेदम कहाँ गया हैं। इसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता में शवों को दफनाने एवं जलाने की प्रथा प्रचलित थी।
प्रमुख स्थल

  1. हड़प्पा : पंजाब (पाकिस्तान) के मौन्टगोमरी जिले में स्थित है। हड़प्पा के टीले की सर्वप्रथम जानकारी चार्ल्स मैसन / मेसोन (Charles Mason) ने 1826 में दी। 1921 में दयाराम साहनी ने इसका सर्वेक्षण किया और 1923 से इसका नियमित उत्खनन आरम्भ हुआ। 1926 में माधोस्वरूप वत्स ने तथा 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने व्यापक स्तर पर उत्खनन कराया यहाँ से निम्नलिखित तथ्य मिले हैं- छ: अन्नागार (15.25 मी. x 6.09 मी .) जिनका सम्मिलित क्षेत्रफल मोहनजोद्दो से प्राप्त विशाल अन्नागार 838.1025 वर्ग मी. के बराबर हैं।
  2. मोहनजोदड़ो : सिंधी में इसका शाब्दिक अर्थ मृतकों का टीला हैं। यह सिंध (पाकिस्तान) के लरकाना जिले में सिंधु तट पर स्थित हैं। सर्वप्रथम इसकी खोज आर. डी. बनर्जी ने 1922 में की थी। 1922-30 तक सर जान मार्शल के नेतृत्व में विभिन्न पुराविदों ने उत्खनन किया। प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है कि यह शहर सात बार उसड़कर बसा था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है-  विशाल स्नानागार (Great Bath), विशाल अत्रागार (Great Granary), महाविद्यालय भवन (Collegiate Building) , सभा भवन (Assembly Hall), कांसे की नृत्यरत नारी की मृति (Bronze Statue Of Dancing Girl), पूजारी(योगी) को मूर्ति, मुद्रा पर अंकित पशुपतिनाथ (शिव) (Seal inscribed Pashupatinath), अंतिम स्तर पर बिखरे हुए एवं कुएं में प्राप्त नरकंकाल, सड़क के मध्य कुम्हार का आवा, गीली मिट्टी पर कपड़े का साक्ष्य, इत्यादि।
  3. चन्हूदडो : मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में स्थित इस स्थल की सर्वप्रथम खोज एन. जी. मजूमदार (N.G . Majumdar) ने 1931 में की थी। 1935 में इसका उत्खनन मैके (Mackey) ने किया यहाँ सैन्धय संस्कृति के अतिरिक्त प्राक-हड़प्पा संस्कृति (Pre-Harappan Culture), जिसे झूकर संस्कृति (Jhukcr Culture) और झांगर संस्कृति (Jhanger Culture) कहते हैं, के भी अवशेष मिले हैं। यही के निवासी मुख्यत: कुशल कारीगर थे। इसकी पुष्टि इस बात से हो जाती है कि यहाँ मनके, सीप, अस्थि तथा मुद्रा (Seal making) बनाने का प्रमुख केन्द्र था। यहां से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है- 1.अलंकृत हाथी, 2 खिलौना, 3 .एक कुत्ते के बिल्ली का पीछा करते पद-चिन्ह, इत्यादि। यहाँ किसी दुर्ग का अस्तित्व नहीं मिला है। 
  4. लोथल : अहमदाबाद जिले (गुजरात) के सरागवाला ग्राम में स्थित इस स्थल की सर्वप्रथम खोज डा. एस. आर. राव. (S. R. Rao) ने 1954 में की थी। सागर तट पर स्थित यह स्थल पश्चमी-एशिया से व्यापार का प्रमुख बंदरगाह था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है- 1 बंदरगाह (Dockyard), 2 मनके बनाने का कारखाना (Beads factory), 3. धान (चावल) का साक्ष्य (Evidence of rice), मृण्मृति 4. फारस की मोहर (Persian Seal) . 5 घोड़े की लघु मृणमूर्ति (Terracotta figurine of a Horse), इत्यादि।  
  5. कालीबंगा (Kalibangan) : राजस्थान के गंगानगर जिले में स्थित इस प्राक-हड़प्पा पुरास्थल की खोज सर्वप्रथम ए. घोष (A.Ghose) ने 1953 में की। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में प्रमुख है - 1. हल के निशान (जुते हुए खेत) (Ploughed field), 2 ईटों से निर्मित चबूतरे (Brick platform), हवनकुण्ड (Fire Altar), 4 अत्रागार (Granary), 5 घरों के निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग, इत्यादि। नोट : यहाँ दो सांस्कृतिक अवस्थाओं - हड़प्पा कालीन के दर्शन होते है। 
  6. बनवाली (Banawali) : हरियाणा के हिस्सार जिले में इस पुरास्थल की खोज आर. एस. विष्ट (रवीन्द्र सिंह विष्ट) (R.S. Bisht) ने 1973 में की। यहाँ प्राक-हड़प्पा (Pre Harappan) और हड़प्पा संस्कृति (Harappan Culture) दोनों के चिन्ह दृष्टिगोचर होते है। मोहनजोदडो की ही भांति यह भी एक कुशल-नियोजित शहर था, यहाँ पकी ईटों का प्रयोग किया गया था । प्राप्त अवशेषा में प्रमुख है- 1. हल की आकृति (आकृति को रूप में) 2. जौ, तिल तथा सरसों का ढेर (Barley, Sesamum & Mustard), 3. सड़कों और जल-निकास के अवशेष (Remains of Streets and Drains)। 
  7. आलमगीरपुर (Alamgirpur) : उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित इस पुरास्थल की खोज 1958 में की गई। सैन्धव सभ्यता का  पूर्वी छोर निर्धारित करता यह स्थल हड़प्पा संस्कृति की अंतिम अवस्था (Last phase) से संबंधित है। उल्लेखनीय है, यहाँ से अभी तक एक भी मुहर प्राप्त नहीं हुई हैं। 

“डायरी के पन्नों से”

             नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का ग्यारहवां (Eleventh) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
          "डायरी के पन्नों से" के दसवें भाग में मैंने आपको अपनी शुरुआती शिक्षा और दशहरा के बारे में बताया था। अब आगे की कहानी.....
        मानव मन का ऐसा है कि वह हमेशा से दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी तलाशता रहता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। मेरे गांव के, मेरे हमउम्र और जो बच्चे थे वह कारीगर से बत्तख, मोर, कोई चिड़िया,इत्यादि। छोटे-छोटे मिट्टी के खिलौने बनवाते रहते थे और वह कारीगर बच्चों की खुशी के लिए कुछ-ना-कुछ बना भी देते थे। जैसे की एक शेर हैं:- 
अबके मौसम शरारत,
 मेरे साथ हुई।
 मेरा घर छोडके,
 पूरे शहर बरसात हुई। 
        यह कथन तो मैंने कुछ दिन पूर्व ही लिखा हैं लेकिन मेरे साथ उस समय भी यही कुछ हुआ था। मैं संकोचवश उस मूर्तिकार से मूर्ति बनाने के लिए कुछ कह नहीं पाता था। एक बार बहुत हिम्मत जुटा कर उनसे कह दिया कि मेरे लिए भी एक खिलौना बना दीजिए ना!!! उस समय वो कुछ कार्य कर रहे थे तुरंत गुस्सा हो गए और कहे- दिन भर तुम लोगों का यही काम है। मैं खिलौने ही बनाता रहूं मुझे और कोई काम नहीं है। जाओ अपना काम करो। मैं एकदम से डर गया और चुप हो गया। फिर मैंने सोचा कि अब मैं कभी भी इन से खिलौने बनाने के लिए नहीं कहूंगा। खुद से ही  निर्माण करूंगा।
      मेरे घर से कुछ ही दूरी पर एक पोखर है, जिसे हम लोग "चकहरा" के नाम से जानते हैं उसमें से चिकनी मिट्टी प्राप्त होती है। आसपास के गांव के लोग मूर्ति निर्माण और मिट्टी के बर्तन के निर्माण के लिए मिट्टी यही से ले जाते हैं। वर्तमान में अभी भी दुर्गा पूजा में मां की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी यहीं से जाता है। मैं वहां गया और थोड़ी-सी मिट्टी निकाल कर लाया क्योंकि मैंने सोचा शुरुआत उसी मिट्टी से करते हैं जिस मिट्टी से वह कारीगर कार्य करते हैं। मिट्टी तो मैंने ला दी थी अब समस्या यह थी कि बनाए क्या? शुरुआत कैसे करें? फिर लगा कि दुर्गा पूजा के समय ही यह घटना हुई है और मैंने प्रण लिया है कि मैं भी खिलौने बनाउंगा तो खिलौना से पहले क्यों ना मैं माँ दुर्गा की ही प्रतिमा बनाता हूं। फिर उसी परंपरा का निर्वहन करते हुए जैसा मैंने आपको पिछले भाग में बताया था सबसे पहले गणपति का मूर्ति बनाया फिर बाकी सभी देवताओं का। उस दिन कार्य में ऐसे लगा कि खाने-पीने की भी सुध नहीं रही। सुबह से दोपहर शाम हो गया लेकिन मैं लगातार कार्य करता रहा। दिन भर की मेहनत के पश्चात छोटे-छोटे प्यारे से सभी भगवान बन गए थे।

            मूर्ति का निर्माण तो हो गया था अब उसमें रंग भरना था। एक बार इच्छा भी हुई कि कारीगर से जाकर थोड़ा-थोड़ा रंग मांग लें। फिर अपना प्रण याद आ गया कि मैंने तो उनसे मदद नहीं मांगने की सोची है और क्या पता वह रंग दे या नहीं दे। यही सोच कर खुद से ही रंग बनाने की सोची और सबसे पहले सेम के पत्ते को तोड़ा और उसे पत्थर पर घिसा जिससे मुझे हरे रंग की प्राप्ति हो गई। कोयला से काला रंग और लाल ईंट को घिसने से लाल रंग भी मुझे मिल गया। पीले रंग की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। तभी मेरी नजर एक ऐसे ईंट पर पड़ी जो हल्का सिंदूरी रंग का हो गया था। उससे पीला रंग तो नहीं लेकिन संतरा रंग मिल गया। जो कि मैंने पीला के समकक्ष मानकर उसका प्रयोग किया। सभी रंग तो प्राप्त हो गए थे अब बस ब्रश की आवश्यकता थी, जिससे कि मैं मूर्ति में रंग भर सकूँ। ब्रुस में मेरे पास बस टूथब्रश ही था। मैंने वह भी लाया और उसके उपरांत पेड़ की पतली-पतली डालियों को पत्थर पर कुच-कुच कर के छोटे-छोटे ब्रश भी मैंने बनाएं। क्योंकि मैंने देखा था मूर्तिकार जो थे वह बहुत सारे ब्रश रखते थे। कोई बहुत बड़ा तो कोई एकदम छोटा। मैंने उसी के समकक्ष कुछ बड़े एवं कुछ छोटे ब्रश का निर्माण किया। ब्रश के इकठ्ठा हो जाने के उपरांत मैंने मूर्ति में रंग भरना शुरू किया। बहुत बारीकी से रंग भरने के उपरांत, जब कार्य समाप्त हो गया तो मैंने मूर्ति को देखा। खुशी तो ऐसे मिल रही थी जैसे मानो कोई बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर ली हो। लेकिन उस खुशी को मेरे साथ में मनाने वाला कोई नहीं था मैं अकेले ही अपनी खुशी मना रहा था। मूर्ति को लाकर के धूप में अपने द्वार के पास रख दिया। क्योंकि मैं सोचा कि यदि धूप लग जाएगा तो रंग और स्थाई हो जाएगा। जैसे कोई बगुला कैसे एक पैर पर खड़े होकर एकटक अपने शिकार को देखता है वैसे ही मैं मूर्ति को धूप में रखकर एकटक उसे देख रहा था, ताकि कोई उसका अनिष्ट न कर दे। 
         मैं उस परिवेश में इतना खो गया कि आसपास क्या हो रहा है, उससे अज्ञान रहा। बहुत देर से एक बाबा मेरे द्वार पर आकर के आवाज लगा रहे थे और मैं था कि उनको सुन भी नहीं रहा था। बार-बार आवाज लगाने से मेरी दादी घर से निकल कर आयी तो उसने देखा कि मैं वहीं पर बैठा हूं और बाबा बार-बार आवाज लगाए जा रहे हैं लेकिन मैं सुन ही नहीं रहा हूं। सबसे पहले वह मेरे पास आई और बोली:-
 क्या कर रहे हो यहां पर? कोई द्वार पर आता है तो उसे देखना नहीं चाहिए? 
मैं एकदम से अपने ख्यालों से बाहर आया और बोला कि- 
हां...हां... कौन आया है?
तब तक वह बाबा भी मेरे पास आ गए और उन्होंने उस मूर्ति को देखा तो एकदम से देखते रह गए मानो जैसे कि कोई आकर्षित वस्तु देख ली हो। तब उसने पूछा कि:- यह कौन बनाया है? मैं कुछ बोलता उससे पहले ही मेरी दादी बोल पड़ी। 
यही बनाया है। पढ़ता-लिखता कुछ नहीं है। दिन-भर यही सब बनाते रहता है। फालतू का समय व्यर्थ करते रहता है।
तब उन्होंने मेरी दादी को समझाते हुए कहा:- इस लड़के में मुझे कुछ अलग दिख रहा है। यह आगे कुछ बेहतर जरूर करेगा। इसे आप लोग डांटे नहीं, इसकी कला को पहचानिए। फिर उन्होंने मेरे तरफ मुड़ कर देखा और कहां:- 
बेटा, अभी तुम यह सब ना बनाओ पढ़ाई पर भी ध्यान दो भविष्य में तुम बेहतर कार्य करोगे। बेहतरीन कलाकृतियां भी बनाओगे।
पहली बार कोई मुझे मिला जो मेरी कला की तारीफ की हो नहीं तो उससे पूर्व केवल डांट-फटकार ही मिली थी। मैं उनकी बातों से इतना खुश हो गया की आगे की बात सुनने की इच्छा ही ना रही। वहां से भाग करके चला गया और उसके बाद ना जाने बहुत देर तक दादी से उन्होंने क्या-क्या बातें की। उसके उपरांत मैंने यह अनुभव किया कि दादी ने मुझे कभी भी कलाकृति बनाने से नहीं रोका। जैसे ही मुझे थोड़ी सी दादी के तरफ से छूट मिली मैं पुनः जा कर के वहां से मिट्टी लाया और अबकी बार मैंने  खिलौने बनाने की चेष्टा करने लगा। जो कि कारीगर के पास देखा था। अब तो मुझे इस कार्य में मजा आने लगा। मैं हमेशा वहां जाने लगा एवं मिट्टी लाता और कुछ ना कुछ बनाता रहता। घर में प्रयोग होने वाले बर्तन मेरे सबसे ज्यादा पसंदीदा विषय थे। ज्यादातर रसोई-घर में प्रयोग होने वाले बर्तनो को ही मैं बनाता रहता। जब घर पर खाना बन जाता तब चूल्हे में बच्ची आग में पकने के लिए मैं अपने खिलौने को डाल देता था। जिससे की खिलौने मजबूत हो जाते और फिर उन्हीं खिलौनों से मैं खेला करता क्योंकि खिलौने खरीदकर खेलने के लिए पैसे नहीं होते थे। यह भी एक कारण था खिलौने बनाने का। इसी तरह दुर्गा पूजा, दीपावली एवं छठ सारे त्यौहार एक-एक करके बीतते जाते और मैं यूं ही बस खेलता कूदता रहता था।
क्रमशः

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

लोकगीत की परंपरा आज समाप्त होते जा रही है। एक लोकगीत को प्रस्तुत करते हुए विवेचना करें कि यह समाज के लिए क्यों जरूरी है। (The tradition of folklore is ending today. While presenting a folk song, explain why it is important for society.)


     
#लोकगीत पर विवेचना, विषय:- लोकगीत की परंपरा आज समाप्त होते जा रही है। EPC-1 Unit-3 Munger University, Munger Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=fIvIln_J7xA&t=31s

लोकगीत

 परिचय:- पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित एवं क्षेत्र विशेष के लोगों की समस्याओं को अभिव्यक्त करने की परंपरा या अनुभूति ही लोकगीत कहलाती है। इसकी रचना अंधविश्वास, धार्मिक भावनाओं, वर्तमान में उपस्थित समस्याओं, इत्यादि। से प्रेरित होकर रचित की जाती है। भारतीय लोक-गीत जन समुदाय के बीच की एक कला है। इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय सभ्यता। लोक कलाकारों ने प्रत्येक ईस्वी में लोकगीतों का निर्माण किया होगा परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि हम इसे प्राप्त नहीं कर पाए। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे हम लोग लोक कला के नाम से जानते हैं।

        लोकगीत को प्रस्तुत करने से पूर्व हम इस लोक गीत की रचना के पीछे की कहानी को बताते हैं:- एक बेटी का बाप शादी के लिए लड़के वालों के पास जाता है और लड़का का घर उसे बहुत पसंद आता है। वह उसके घर को ही देखकर अपनी बेटी की शादी उस घर में कर देता है। लेकिन जब लड़की घर आती है तो उसे अनेकों प्रकार की यातनाएं और परेशानियां झेलनी पड़ती है। कई दिनों के उपरांत जब वृद्ध पिता अपनी बेटी से मिलने आते है तो उसके घर की जो सास-ससुर, ननद और उसके पति जो होते हैं उन्हें लगता है कि वह अपने पिता से हम लोग की शिकायत करेगी इसीलिए वह एक छोटी बच्ची को उसके पास बैठा देते हैं ताकि वह कुछ भी बातें कहे तो तुरंत आ करके उसको बता सके। दुल्हन जो होती है वह उनकी चाल को समझ जाती है। जैसे ही पिता अपनी बेटी से मिलने आते हैं पहले तो उनसे आराम से बात करती है फिर रोने लगती है और रो-रोकर के ही गीत के माध्यम से अपनी पूरी अपनी दु:खद कहानी को गाते हुए कहती है:-  

काकावां रे काकावा, 

कईलाs बियाह देखी घर पाकवां रे काकवां.......

पिता को जब यह बात पता चलती है तो उन्हें बहुत अफसोस होता है वो सोचने लगते हैं कि काश मैंने पहले से सोच समझकर निर्णय लिया होता तो आज बेटी इतने कष्ट में ना होती। फिर भी भी वो अपनी बेटी को समझाते हुए कहते है:- बेटी चुप हो जाओ, हम इस दु:ख का निवारण करने का प्रयास करेंगे। पिता जब अपनी बेटी को समझा-बुझा कर चले जाते हैं तब उसके घर वाले उस छोटी बच्ची को बुलाते हैं और पूछते हैं कि वह अपने पिता से हमारी क्या शिकायत की है? तब वो लड़की कहती है वो कहां कुछ बोली, केवल लगातार रोए जा रही थी। उसने कुछ नहीं कहा आप लोगो के बारे में। आप इस घटना से लोकगीत की महत्ता को आसानी से समझ सकते हैं।

प्रश्न के अनुसार प्रस्तुत हैं एक भोजपुरी लोकगीत

        चूंकि प्रश्न में लोकगीत की प्रस्तुति के बाद उसकी विवेचना करनी है और यह बताना है कि यह समाज के लिए क्यों जरूरी है? जब हम इस बात पर चर्चा करते हैं तो हम पाते हैं कि यह लोकगीत समाज के लिए जरूरी है क्योंकि लोकगीत के माध्यम से एक औरत (महिला) अपना दर्द बयां कर रही है। यदि लोकगीत उपलब्ध नहीं होता तो शायद वह महिला अपना दर्द बयां नहीं कर पाती। उसने इस लोक गीत के माध्यम से बताया है कि वह कितने अधिक कष्ट में है। लोकगीत के जरिए एक बेटी अपने पिता को अपना दर्द बयां कर रही है। इसमें वह कह रही है कि पापा आपने कैसे घर में मेरा विवाह कर दिया? आपने केवल पक्का का घर देखा था लेकिन इन लोगों का व्यवहार नहीं देखा। इस घर में ना तो सास को कुछ  गलतीयां दिखाई देती है और ना ही ननद को। ससुर को तो जैसे मालूम पड़ता है कि लकवा ही मार दिया है। खाने में केवल बाजरा का रोटी और चावल ही मिलता है। उसमें भी कभी-कभी भूखे भी सोना पड़ता है। एक टूटा हुआ घर मेरे हिस्से में मुझे मिला है। यदि बारिश होने लगती है तो सीधे पानी मेरे बिस्तर पर गिरता है। और तो और मेरे जो पतिदेव हैं वह भी हमेशा नशे में ही रहते हैं। आपने दान-दहेज में जितना भी पैसा और गहना दिया था वह सब को बेचकर के दारु पी गए हैं। सारे घर के कर्म कुल का नाश हो रहा है। तो हम यहां देख पा रहे हैं कि एक लोक-गीत के माध्यम से कैसे एक बेटी ने अपने दु:ख भरी दास्तां को अपने पिता के सामने प्रकट किया है।
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि आज का जो आधुनिक समय है इसमें लोकगीत की परंपरा को धीरे-धीरे समाप्त होते हम देख रहे हैं लेकिन लोकगीत की परंपरा को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ताकि जो हमारी परंपरा है जो हमारी शैली है वह हमेशा जीवित रहे।


मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020

स्वयं का मूल्यांकन कैसे करें ? How to evaluate yourself ? Hindi and English Notes.

 


      एक सफल जीवन जीने की चाह भला किसे नहीं होती? हर इंसान इस उम्मीद से जीता है कि एक दिन उसे सफलता जरूर मिलेगी, लेकिन इसके लिए कुछ प्रयास हमें भी करने चाहिए। हमें हमेशा तत्पर रहना चाहिए। ए०पी०जे० अब्दुल कलाम ने कहा है:- 

इंतजार करने वाले को सिर्फ 
उतना ही मिलता है। 
जितना, 
कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।

     अब्दुल कलाम साहब की यह पंक्ति हमें खुद को झकझोरने पर मजबूर कर देती है। हमें पता नहीं चलता कि हम किसका इंतजार कर रहे हैं? दुनिया का कोई भी इंसान आपको सफल नहीं बना सकता जब तक आपकी स्वयं की इच्छा नहीं हो। महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं:-  

हे अर्जुन तुम बस कर्म करते जाओ फल की इच्छा मत करो क्योंकि फल तुम्हारे वश में नहीं है।

   अर्थात, भगवान कृष्ण ने भी हमें फल रहित कर्म करने की सलाह दी है वैसे ढेर सारे उदाहरण आपको अपने चारों ओर के परिदृश्य में देखने को मिल जाएंगे। अब सवाल यह उठता है कि कर्म करने के लिए स्वयं को प्रेरित कैसे करें? आखिर कौन सा कारक है, जो हमें कर्म करने से रोकता है। इसका सबसे सही जवाब है "स्वयं" स्वयं का मूल्यांकन करना।

         "स्वयं का मूल्यांकन" का तात्पर्य है हमें अपने आपको समय-समय पर स्वयं को जांचने परखते रहना चाहिए। अक्सर हम अपनी गलती को किसी दूसरे के ऊपर डालकर झूठ का सहारा लेते हैं। हम अपनी गलतियों पर ध्यान नहीं देते हैं जिससे भविष्य में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और हम झूठ के जाल में फंसते चले जाते हैं। गांधी जी ने सत्य और अहिंसा को मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य माना है। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर ही मनुष्य स्वयं को आगे बढ़ा सकता है। स्वयं का मूल्यांकन का सबसे अच्छा उपाय है हम प्रत्येक दिन खुद को थोड़ा समय दे तथा खुद से सवाल करे कि हम में क्या कमी रह गई है? जब सभी प्रश्नों का उत्तर हम स्वयं में ढूंढने में सक्षम हो जाते हैं तो जिंदगी में भी सफलता मिलना  सुनिश्चित हो जाता है।


 Who doesn't want to lead a successful life?  Every person lives with the hope that one day he will definitely get success, but for this we should also make some efforts.  We should always be ready.  APJ Abdul Kalam has said:-

 Those who wait get only that much, those who try give up.

 This line of Abdul Kalam sahib compels us to shake ourselves.  We don't know what are we waiting for?  No human in the world can make you successful unless you have your own will.  In the Mahabharata, Krishna while preaching to Arjuna says:-

 O Arjuna, just go on doing your work, don't desire for the fruit, because the fruit is not in your control.

 That is, Lord Krishna has also advised us to do fruitless deeds, although you will find many examples in the landscape around you.  Now the question arises that how to motivate oneself to act?  After all, what is the factor, which prevents us from doing Karma.  The best answer to this is "Self" Evaluate yourself.

 "Self-evaluation" means we should keep checking ourselves from time to time.  Often we resort to lies by blaming our fault on someone else.  We do not pay attention to our mistakes, due to which we have to face a lot of difficulties in future and we keep getting caught in the web of lies.  Gandhiji considered truth and non-violence as the most important facts of human life.  Only on the path of truth and non-violence can a man advance himself.  The best way to evaluate ourselves is to give ourselves some time each day and ask ourselves what are we missing?  When we are able to find the answer to all the questions in ourselves, then success in life is ensured.

रविवार, 18 अक्टूबर 2020

“डायरी के पन्नों से”

           नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का दशवां (Ten) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
        डायरी के पन्नों के अंतर्गत हम नौवां (Nine) भाग में बात किए थे अपने बचपन के बारे में अब आगे ही कहानी....
25/06/2016 दिन- शनिवार
     मेरी चित्रकला की यात्रा बचपन से ही शुरू हुई थी जो आज जब मैं 23 साल की उम्र में डायरी लिख रहा हूं आज तक मेरे साथ है और मेरी जिंदगी-भर साथ ही रहेगी। चित्रकला की यात्रा शुरू तो हो गई थी लेकिन आगे बढ़ने के लिए एक गुरु की जरूरत होती है जो राह में आ रही रुकावटो से कैसे निपटना है? उसका समाधान भी बताए। इस मामले में मैं थोड़ा अनलकी (Unlucky) रहा क्योंकि मेरी शुरुआती शिक्षा गांव के ही एक शिक्षक के द्वारा चलाए जा रहे इंग्लिश स्कूल से हुई। मेरे पहले शिक्षक थे शिवनारायण सर और दूसरे संजय सर। उस विद्यालय में और भी कई शिक्षक थे जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा है क्योंकि यह उक्त बातें 1995-96 की है जब मैं पहली बार स्कूल गया क्योंकि उस जमाने में कोई प्ले स्कूल (Play School) नहीं हुआ करता था। शिवनारायण सर और संजय सर का नाम आज भी मुझे इसलिए याद है क्योंकि शिवनारायण सर गणित पढ़ाते थे और संजय सर अंग्रेजी। दोनों विषय को समझना मेरे लिए टेढ़ी खीर था। अक्सर मैं दोनों क्लास बंक (यानी वर्ग से बिना अनुमती लिए भाग जाना) मारने की फिराक में रहता लेकिन कभी सफल नहीं हो पाया क्योंकि शिवनारायण सर पापा के अच्छे दोस्त और मेरे गांव के ही थे। उनका मेरे घर से अच्छा आना जाना था क्योंकि मेरे भैया को भी वहीं पढ़ाए थे। मेरी मां हमेशा कहा करती की उनके बड़े लड़के और मेरे भैया दोनों साथ-साथ पढ़े हैं। शिवनारायण सर जो हैं वह मेरे घर आ कर रोज साइकिल के आगे और पीछे भैया को और वह अपने लड़के जिसका नाम विभाष है दोनों को साइकिल पर बैठाकर विद्यालय ले जाते और शाम में घर तक छोड़ते। उनका क्लास तो मैं बंक कर ही नहीं सकता। क्योंकि वो मुझे प्यार भी बहुत करते थे और मारते कभी नहीं थे और दूसरे सर जो थे संजय सर। वह इस सर से बिल्कुल अलग थे बस एक समान बात यह थी कि यह भी मेरे गांव से ही आते थे- कोइरी-गाँवा। वह हम सभी को अंग्रेजी पढ़ाते थे पता नहीं क्यों इतना गुस्सैल रहते थे कि सारे बच्चे उनके नाम से ही डरते थे। बच्चों को मारना ही बस उनका काम था ऐसा मुझे लगता था, लेकिन मैं गलत था। वो पढ़ाते भी बहुत अच्छे थे। लेकिन उनका क्लास बंक करने वाले को वह अगले दिन सब कुछ डबल देते थे मतलब डबल होमवर्क, डबल पिटाई, इत्यादि। इसीलिए सारे बच्चे और मैं भले ही किसी सर का क्लास बंक कर दें लेकिन संजय सर का क्लास कभी भी बंक नहीं करते थे।
            मैं शिवनारायण सर के विद्यालय में लगभग 3 साल पढ़ाई की। चूंकि वो विद्यालय प्राइवेट था इस कारण वहां क्लास एक से पहले नर्सरी (Nursery) एल.के.जी. (L = Little=छोटे, K=Kinder=बाल, G=Garten=विहार.) यू.के.जी. (U=Upper, K= Kinder, G=Garten) होता था। मैं वहां यू.के.जी. तक पढ़ाई की। फिर घरवालों को लगा कि सरकारी स्कूल में भी नामांकन होना चाहिए क्योंकि उस समय बिहार सरकार, सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले प्रत्येक छात्रों को हर 3 महीने में चावल देती थी। मेरा भी नामांकन सरकारी विद्यालय में इसलिए हुआ क्योंकि प्रत्येक तीन महीने में चावल मिलता रहे। एक मध्यम वर्गीय परिवार को और क्या चाहिए? सरकारी फंड का कुछ फायदा तो हो। मेरा नामांकन सरकारी विद्यालय में करने की सबसे बड़ी वजह यह थी की वहां पर पढ़ाई करने का कोई फीस नहीं लगता था। एक मध्यम वर्गीय परिवार के जिसके तीन लड़के एक साथ पढ़ाई कर रहे हो और ऊपर से घर चलाना, विद्यालय का फीस देना, थोड़ा मुश्किल भरा होता है। शायद यह कारण भी रहा हो मुझे प्राइवेट स्कूल से सरकारी विद्यालय भेजने का। लेकिन मैं सरकारी विद्यालय जा कर बहुत खुश हुआ क्योंकि यहां पर ना कोई शिवनारायण सर जैसे  शिक्षक थे जो मुझे लाड़-प्यार से गणित पढ़ा सके और ना ही अंग्रेजी के संजय सर जो होमवर्क ना करने पर मेरी पिटाई करें। यानी यहां पूरी मस्ती थी। ना पढ़ाई का टेंशन, और ना ही होमवर्क की चिंता यानी फुल मस्ती।
29/08/2016 दिन-सोमवार 
       उर्दूमकतब विद्यालय में मेरा नामांकन तीसरी कक्षा में हुआ, क्योंकि तीन साल मैं पहले से ही प्राइवेट स्कूल में पढ़ चुका था और साथ में मेरी छोटी बहन का भी नामांकन हुआ उसी विद्यालय में, पहली कक्षा में। उक्त बातें 1998 की है। 1998 मेरे एवं मेरे परिवार के लिए बहुत ही खुशहाल रहा। एक तो मुझे पढ़ाई से लगभग मुक्ति मिल गई थी और दूसरी उसी समय 25/09/1998 को केंद्र संख्या-180 केंद्र का नाम:- कोइरी-गाँवा में मेरी मां का चयन  आंगनबाड़ी सेविका पद के लिए हुआ। उस समय मैं बहुत खुश था। मेरी मां आंगनबाड़ी सेविका बन गई थी और मैं वहां के बच्चों का लीडर। मेरी उम्र उस समय आंगनबाड़ी में जानेवाले बच्चों के बराबर नहीं थी फिर भी सप्ताह में दो दिन आंगनबाड़ी जाता था। इसका कारण यह था कि मेरा नामांकन उर्दुमकतब विद्यालय में हुआ था वह उर्दू विद्यालय था और वह विद्यालय उर्दू कैलेंडर के अनुसार चलता था। यानी गुरुवार को हाफ डे, शुक्रवार को हॉलीडे और शनिवार एवं रविवार को फुल डे। जिस कारण में गुरुवार को हाफ डे और शुक्रवार को फुल डे आंगनबाड़ी केंद्र पर मां एवं छोटे-छोटे बच्चों के साथ समय बिताना मुझे बहुत अच्छा लगता था। उर्दूमकतब विद्यालय में मेरा और मेरी बहन का नामांकन एक साथ हुआ था चूंकि मेरी बहन पहली बार स्कूल जाना शुरू की थी और मेरा घर एकदम मेन रोड पर ही है। दिनभर बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलती रहती है जिस कारण मैं और मेरी छोटी बहन दोनों साथ-साथ स्कूल जाते और शाम में वापस आते। सुबह-सुबह तैयार होकर सबसे पहले हम लोग ही विद्यालय पहुंचते क्योंकि बचपन से ही मुझे समय से पहले कहीं भी पहुंचने की आदत रही है जो अभी भी है। हम लोग स्कूल जाने से पहले रोज मां से ₹1 लेते थे, रास्ते में कुछ खाने पीने के लिए। यह हम लोगो का रोज का नियम था। जिस दिन पैसे नहीं मिलते उस दिन कहते थे आज विद्यालय नहीं जाएंगे। तो फिर माँ, पापा के पैकेट से ₹2 निकालकर हमें देती तो हम लोग विद्यालय जाते थे। ₹2 को हम लोग खर्च भी बहुत ही हिसाब से करते थे। जैसे 25-25 पैसे की टॉफी, 25 पैसे में दो आने वाली आइसक्रीम 25 पैसे भविष्य के लिए बचाकर अपने थैले में डाल देते थे ताकि किसी दिन कोई अच्छी चीज दिख जाए तो उसे खरीदने के लिए और बच्चे ₹1 की कुछ सामान खरीदकर घर भी ले जाते। जैसे:- कोई उड़ने वाला तोता, सिटी, ₹1 में 16 आने वाली टॉफी, इत्यादि। जिसे हम लोग घर ले जाकर सभी बड़ों के बीच बांटते थे। जैसे मैंने आपको पिछले रविवार को बताया था कि मेरे घर पर हमेशा मेरी दादी की जिद्द पर बकरी पाली जाती और एक भैंस भी रखी जाती थी। जब हम कोई चीज बड़ों के बीच बांटते तो उन दोनों यानी बकरी और भैंस को भी उनका हिस्सा देते चाहे वह बिस्कुट हो या फिर टॉफ़ी। मुझे लगता था कि वह दोनों भी हमारे परिवार की एक अभिन्न अंग है। सामग्री देने के बाद बाकी से तो नहीं पूछते थे की कैसा लगा? लेकिन उन दोनों से जरूर पूछते थे और वह सर हिला कर ना  समझ आने वाली भाषा में अपनी प्रतिक्रिया भी देती थी। ऐसी चल रही थी हमारी और हमारी छोटी बहन की दिनचर्या।
         जैसा कि मैं आपको पहले ही बता चुका हूं की मैं पढ़ने-लिखने में हमेशा औसत विद्यार्थी ही रहा हूं। और वह जो मेरा विद्यालय था उसमें शिक्षकों की बहुत कमी थी दो या तीन शिक्षको के भरोसे ही पूरा स्कूल चल रहा था। शिक्षकों की कमी के चलते दोपहर के बाद कभी-कभी प्रथम और द्वितीय क्लास के बच्चों की छुट्टी कर दी जाती थी। उस समय मै तृतीय क्लास में था और मेरी बहन प्रथम में, जिस कारण उसकी तो छुट्टी हो जाती थी लेकिन मेरी नहीं। उसके बाद मैं अपना खुराफाती दिमाग लगाता क्योंकि पढ़ाई से बचने के लिए मेरे पास बहुत से बहाने रहते थे लेकिन पढ़ने के लिए एक भी नहीं। मैं अपनी बहन के साथ ही घर आ जाता और घर पर बोल देता कि प्रथम, द्वितीय और तृतीय वर्ग को हाफ डे के बाद छुट्टी हो गई केवल चतुर्थ और पंचम वर्ग के विद्यार्थी ही पढ़ेंगे। उसके बाद मैं अपनी बहन के साथ ही खेलने में लग जाता। 
           मेरे घर के पास में ही दुर्गा माता की प्रतिमा का निर्माण होता था। दुर्गा पूजा आते ही मोहल्ले के सारे बच्चों का वहीं पर अड्डा रहता और मेरा भी।


       हम लोग दिनभर वहीं पर खेल-कूद करते रहते। मैं प्रतिमा निर्माण की विधि को बहुत ही गौर से देखा करता, दिन भर, रात तक। मेरा बस एक ही कार्य था। प्रतिमाओं के निर्माण को देखना। वह शायद मुझे अच्छा लगता था और मैं बस उसे देखता रहता था। कई बार इच्छा होती थी कि कारीगर से कहूं की मुझे भी कुछ सिखा दो या कुछ करने के लिए दो लेकिन संकोचवश कुछ कह नहीं पाता था। बस चुपचाप बैठ कर देखता रहता था लेकिन ऐसा कहां भी जाता है कि मन में जब प्रबल इच्छा हो तो पूरी भी होती है। मेरी भी इच्छाओं की पूर्ति हुई। मूर्तियों के निर्माण के बाद उसे सूखने के लिए कुछ दिनों तक छोड़ दिया जाता है। उसके उपरांत उसमें रंग भरा जाता है। मूर्तियों के सूखने के बाद जब कारीगर उसमें रंग भरने आए तो पता नहीं उन्हें क्या सुझा इतने सारे बच्चों में वह मुझे बुलाए। मैं डरते-डरते उनके पास गया। तब वो मुझे चुने का बाल्टी देते हुए बोले- लो मूर्ति में रंग भरो। मुझे तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि जो कार्य करने के लिए मैं कितने सालों से सोचा करता था लेकिन संकोचवश कभी कह नहीं पाया। आज वह कार्य मुझे मिल रहा है। मैंने भगवान को नमन🙏 किया और बाल्टी और ब्रश ले लिया। फिर सोचा की शुरुआत किस भगवान से करू? मेरे दिमाग में ख्याल आया की सबसे पहली पूजा या कोई भी कार्य सबसे पहले गणपति (गणेश) से शुरू की जाती है। इसलिए मैंने भी सबसे पहले रंग लगाना गणेश जी से ही शुरू किया। और उसके बाद बाकी सभी देवताओं को रंगा। उस दिन तो ऐसा लगा कि मेरा कोई बहुत बड़ा सपना पूरा हो गया। मैं पूरे दशहरा अपने मित्रों से कहां करता। देखो:- गणपति जी को मैंने रंगा है।
क्रमशः
ये तस्वीर तो 2019 की हैं लेकिन जगह वही हैं


शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

ना होती है मेरी कोशिशे, बेअसर कभी-कभी।

       मेरे द्वारा शुक्रवार यानी 09 अक्टूबर को एक रचना पोस्ट की गई थी जिसका शीर्षक था कभी-कभी। "From the Depths of the Heart."❣️ जिस का लिंक 👉CLICK HERE हैं। उस रचना को पढ़ने के बाद एवं मेरे व्यक्तिगत जीवन को समझने के उपरांत मेरे महाविद्यालय के H.O.D Sir श्री बालदेव प्रसाद ने उस कविता में सुझाव देते हुए मुझे कुछ पंक्तियो में बदलाव करने के लिए कहा था। उनका कहना था कि Labour Never Goes Invain (परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता) जैसे आपने लिखा है:-  हो जाती है मेरी कोशिशे, बेअसर कभी-कभी। इस पंक्ति में कुछ ज्यादा नकारात्मकता दिख रही है। इसे आप यूं लिखिए:- ना होती है मेरी कोशिशे, बेअसर कभी-कभी। उनके इसी सुझाव पर मैंने इस कविता को पुनः लिखने का प्रयास किया है और आप सभी के साथ साझा कर रहा हूं। उम्मीद है यह रचना आपको पसंद आएगी।

ना होती है मेरी कोशिशे,  
बेअसर कभी-कभी। 
मिलते रहते हैं राहों में रहबर, 
मगर कभी-कभी।  
ना होती है मेरी कोशिशे.........  

प्रेरणा प्राप्त होती है मुझे, 
उनके कटाक्षों से। 
लिख लेता हूं कुछ रचनाएं, 
मगर कभी-कभी। 
ना होती है मेरी.........  

कार्यों की हो जब, लंबी फेहरिस्त।  
लगने लगे जब, सब नामुमकिन। 
ढूंढने लगती है नजरे उनकी,
 भूल-चूक मेरी कभी-कभी।
ना होती है मेरी.........  
 
इतना भी आसान नहीं होता है, 
सभी से हंस कर बात कर लेना। 
इस नामुमकिन कार्य को भी कर लेता हूं,
 मुमकिन कभी-कभी। 

ना होती है मेरी कोशिशे,  
बेअसर कभी-कभी। 
मिलते रहते हैं राहों में रहबर, 
मगर कभी-कभी।  
ना होती है मेरी कोशिश.........  
बिश्वजीत कुमार 


गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

मेरी रचना, मुक्तक✍🏻

अच्छे कार्यों के दुश्मन अनेक होते हैं, 
मेरी खुशियों में हर पल वो शूल बोते हैं।
भ्रामक खबरों से नींदे उड़ा परिवार की 
वो, 
रात दिन चैन से खूब सोते हैं।
मेरी रचना, मुक्तक✍🏻



 

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

अजी!!! कुछ तो बोलो (Ajii!!! kuch to bolo)


अजी !!! कुछ तो बोलो


संशय से झुकी चक्षुओं को,
धीरे से उठालो।
स्नेह से देखो मुझको,
अजी !!! कुछ तो बोलो। --2

मद से भरे नयन तुम्हारे,
जब भी है हमको पुकारे।
हर बार करें हम इजहार प्यार का,
ना जाने तुम क्यो हो शर्माते। 

ऐसा कैसे चलेगा जानु,
जरा मेरा भी वार्तालाप सुन लो।
स्नेह से देखो मुझको,
अजी!!! कुछ तो बोलो। --2

इन्टरनेट पर आभाषी दोस्तो के संग, 
करती हो तुम खुब ठिठोली।
मै भी इधर ऑनलाईन हुँ,
मुझे भी दे दो एक इमोजी ।

इधर मैं खड़ा दिल का मारा,
कभी मेरा मैसेज भी सीन कर लो। 
स्नेह से देखो मुझको,
अजी !!! कुछ तो बोलो। --2

-विश्वजीत कुमार
 

प्राचीन भारत (पाषाण काल)

 

पाषाण काल
  • पाषाण काल को तीन भागों में बाँटा गया है:- पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल तथा नवपाषाण काल। 
  • पुरापाषाण काल में मनुष्य की जीविका का मुख्य आधार शिकार था। इस काल को आखेटक तथा खाद्य-संग्राहक काल भी कहा जाता है।
  • लगभग 36,000 ई.पू. में आधुनिक मानव पहली बार अस्तित्व में आया। आधुनिक मानव को 'होमो-सेपियन्स (Homo-Sapiens) भी कहा जाता है।
  • मानव द्वारा प्रथम पालतू पशु कुत्ता था, जिसे मध्यपाषाण काल में पालतू बनाया गया।
  • आग की जानकारी मानव को पुरापाषाण काल से ही थी, किन्तु इसका प्रयोग नवपाषाण काल से प्रारम्भ हुआ था।
  • नवपाषाण काल से मानव ने कृषि कार्य प्रारम्भ किया, जिससे उसमे स्थायी निवास की प्रवृत्ति विकसित हुई।
  • भारत में पाषाणकालीन सभ्यता का अनुसन्धान सर्वप्रथम रॉबर्ट बूस फुट ने 1863 ई . में प्रारम्भ किया।
  • भारत में व्यवस्थित कृषि का पहला साक्ष्य मेहरगढ़ (बलूचिस्तान ,पाकिस्तान में पुरातात्विक स्थल) से प्राप्त हुआ है।
  • बिहार के चिरांद (छपरा से ११ किलोमीटर दक्षिण पूर्व में डोरीगंज बाजार के निकट स्थित चिरांद सारण जिला का सबसे महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थल है।) नामक  स्थल से नवपाषाण कालीन हड्डी  के औजार मिले हैं।
  • पाषाण काल के तीनों चरणों का साक्ष्य-बेलन घाटी इलाहाबाद से प्राप्त हुआ है।   
  • औजारों में प्रयुक्त की जाने वाली पहली धातु ताँबा थी तथा इस धातु का ज्ञान मनुष्य को सर्वप्रथम हुआ। 
  • लगभग 8000 ई. पू. चावल की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य लोहार देवा या लहुरा देवा (सन्त कबीर नगर), उत्तर प्रदेश से पाया गया है।
  • पहिये का आविष्कार नवपाषाणकाल में हुआ।

   

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

सभ्यता द्वार, पटना बिहार

 

सभ्यता द्वार, पटना बिहार VLog. Video Link:- CLICK HERE
         #सभ्यता #द्वार गंगा के किनारे निर्मित सभ्यता द्वार पाटलिपुत्र के गौरवशाली दौर में ले जाने में सक्षम होता है जब पाटलिपुत्र अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केंद्र था। पाटलिपुत्र की संस्कृति और सभ्यता से वशीभूत दुनिया के कोने-कोने से यात्री, विद्वान, और छात्र यहां आते थे। गेटवे ऑफ इंडिया और इंडिया गेट की श्रृंखला में सभ्यता द्वार देश का एक महत्वपूर्ण द्वार है, जो भारत में नई सभ्यता के उद्भव के केंद्र की स्मृति में ले जाता है। कंक्रीट (आर०सी०सी०) एवं सैंड स्टोन से निर्मित 34 मीटर ऊंचे सभ्यता द्वार की दीवारों पर चक्रवर्ती सम्राट अशोक, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, मेगास्थनीज की पाटलिपुत्र के महत्व और उसकी ऐतिहासिकता को शब्द देती वाणी प्रदर्शित है। सभ्यता द्वार के ऊपर राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह अशोक स्तंभ के चार सिंह तत्कालीन मगध और आधुनिक राष्ट्र के बीच सेतु का प्रतीक है। सभ्यता द्वार के सामने स्थापित संम्राट अशोक की प्रतिमा हमें सदा जीवन में त्याग और ज्ञान के महत्व के प्रति उत्प्रेरित करती रहेगी। वैशाली का अशोक स्तंभ देश की राष्ट्रीय पहचान हैं यहां स्थापित इसकी अनुकृति स्मरण दिलाती है कि सदियों तक बिहार का इतिहास ही भारत का इतिहास रहा है। 
🎇भवन निर्माण विभाग🎇


गिरिहिंडा पहाड़, जिस पर महाभारत काल में भीम की पत्नी राक्षसी हिडिम्भा का निवास स्थान था। शेखपुरा, बिहार।


 

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     गिरिहिंडा पहाड़ शेखपुरा जिले की एक पहचान है। यह पहाड़ करीब 800 फीट ऊंचा है। पहाड़ की चोटी पर स्थित है शिव-पार्वती मंदिर। जिसे बाबा कामेश्वर नाथ मंदिर के नाम से भी स्थानीय लोगों के द्वारा जाना जाता है। 

        इस मंदिर के मुख्य पुजारी श्री मिथिलेश पांडे के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण द्वापर युग में महाभारत काल के समय हुआ था। महाभारत काल में हिडिम्भा नाम की एक दानवी इसी गिरिहिंडा पहाड़ के शिखर पर रहती थी।

  
        पांडव पुत्रों को जब निर्वासन काल सहना पड़ा तो गदाधारी भीम अपने चार भाइयों एवं माता कुंती के साथ कुछ वक्त के लिए इसी गिरिहींडा के पहाड़ पर ठहरे थे। इस दौरान उन्होंने हिडिंभा के साथ गंधर्व विवाह भी किया जिससे घटोतकच्छ नामक राक्षस पैदा हुआ था। मान्यता के मुताबिक गदाधारी भीम ने ही गिरिहींडा के पहाड़ पर इस शिवलिंग की स्थापना की थी। जिसके बाद भगवान शिव के आदेश के बाद विश्वकर्मा जी ने रातों-रात इस मंदिर का निर्माण कराया। जो बाद में शिव-पार्वती मंदिर के नाम से जाने जाने लगा वर्तमान में यह मंदिर बाबा कामेश्वर नाथ मंदिर के रूप में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं। 


           इस मंदिर के कर्ताधर्ता श्री रामप्रवेश दास के अनुसार, शेखपुरा जिले के चहुवारा में एक बहुआरा बस्ती है वहां के निवासी कामेश्वरी लाल थे। उन्होंने ही सबसे पहले लगभग 200-250 साल पहले इस शिवलिंग को इस पहाड़ी पर देखा एवं उसे वह यहां से उठाकर अपने घर ले जाना चाहते थे। इसीलिए वह इसकी खुदाई करना शुरू किए लेकिन दिन-भर के कार्य के बाद भी वह शिवलिंग को निकाल नहीं पाए इसके उपरांत पुनः वह अगले दिन भी यही कार्य के लिए सुबह जैसे पहाड़ पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि जो गड्ढा उन्होंने कल खोद रखा था वह यथावत भरा हुआ है यानी ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे कोई कार्य वहां हुआ ही नहीं हो। 

 
       उन्होंने पुनः प्रयास किया लेकिन परिणाम असफल रहा। कई दिनों तक वह लगातार प्रयास करते रहे दिन-भर शिवलिंग को निकालने के लिए गड्ढा खोदते और सुबह वह गड्ढा पुनः भरा मिलता। एक दिन वह अपने साथ 20-30 मजदूरों को लेकर आए और शिवलिंग को निकालने का प्रयास किया लेकिन सभी असफल रहे। अंतत: उन्होंने हार मानकर शिवजी से माफी मांगी और उनकी पूजा अर्चना की। तभी से उन्हीं के नाम यानी कामेश्वरी लाल से कामेश्वर नाथ मंदिर के नाम से यह मंदिर विश्व विख्यात है।


    
        इस लेख में प्रयुक्त सारे फोटोग्राफ विश्वजीत वर्मा के द्वारा गिरीहिंदा की पहाड़ी, शेखपुरा बिहार पर से खींचे गए हैं।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

“डायरी के पन्नों से”

नमस्कार🙏 आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का नौवां (Nine) अंक। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
    "डायरी के पन्नों से" के अंतर्गत अभी तक आपने जितने भी भाग को पढ़ा था वह मेरी आत्मकथा के कही-कही का अंश था। आज से हम "डायरी के पन्नों से के अंतर्गत अपनी आत्मकथा को शुरू से शुरू कर रहे हैं। मुझे आत्मकथा लिखने की प्रेरणा जिसने दी उसको स्मरण करते हुए आज से हम शुरुआत करते हैं............
Note:- एक जरूरी बात मैं आपको यहां बताना चाहता हूं। मैंने अपनी आत्मकथा को लिखने की शुरुआत 19/06/2016 दिन- रविवार से की थी तो जिस-जिस दिन को मैं जितनी बातें लिखा हूं आपको उसी के अनुरूप दिनांक के अनुसार मैं आपको आगे प्रस्तुत करते चला चला जाऊंगा ताकि आप उस समयावधि एवं परिवेश को समझते हुए मेरी आत्मकथा को अच्छे से समझ सके। धन्यवाद🙏.
19/06/2016 दिन- रविवार
      आज Father's Day है। आज यूं ही बैठे-बैठे ख्याल आया कि अपनी आत्मकथा लिखते हैं। ये ख्याल ऐसे आया कि अचानक से मेरे वर्ग सहपाठी रविकान्त के द्वारा बताई गई बातों का स्मरण हो आया। एक दिन रविकान्त ने मुझे अपनी आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरणा देते कहा था कि आपने इतना सारा पुरस्कार प्राप्त किया वह भी इतने कम उम्र में। आपको अपनी एक जीवनी लिखनी चाहिए। आप अपनी आत्मकथा लिखिए। उसने तर्क सहित मुझे समझाते हुए कहा था एक ऐसा लड़का जो गांव में पढ़ाई करता है वह भी हिंदी माध्यम से। परीक्षाओं में नंबर भी औसत लाता है। लेकिन यहां पर इतने सारे पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करता है। तब मुझे भी लगा था शायद वह ठीक ही कह रहा है। फिर उसके उपरांत मैं उस बात को भूल गया था और आज अचानक से याद आया तो कलम डायरी उठाकर लिखने बैठ गया अब बस लिखते जाना है जहां तक लिखा जाए.........

        शुरू कहां से करूं- बचपन से ही करता हूं। 14-06-1993 दिन:- सोमवार को मेरा जन्म बिहार राज्य के सिवान जिले के अंतर्गत बड़हरिया, कोइरी-गावां  में हुआ था। चूंकि बचपन में मैं थोड़ा मोटा-ताजा, गोलू-मोलू जैसा था और पूरे घर में मैं सबसे छोटा था इसीलिए सभी मुझे प्यार से छोटू-छोटू बुलाने लगे। 
My Childhood Pic. I’m always know. I’m be a PHOTOGRAPHER. So I’m weeping in front of camera....... When photographer say to me PLEASE SMILE😊


22/06/2016 दिन- बुधवार
         मैं अपने घर में सबसे छोटा अपने सारे भाइयों में था। मेरे से बड़े मेरे चार भाई हैं। तीन बड़े पापा के लड़के और हमसे बड़े एक मेरे अपने भैया एवं हमसे छोटी मेरी एक बहन और मेरे मम्मी-पापा। हम लोग पूरे पांच लोग हैं। पांच लोगो का एक छोटा सा परिवार मेरा है।
        बचपन में मैं बहुत ही शर्मीले स्वभाव का था। बहुत ज्यादा ही शर्मीला इतना ज्यादा शर्मिला की कोई यदि मेरा नाम भी पूछ दे तो शर्म के मारे मैं नहीं बता पाता था। वजह बस शर्म थी। शायद यही कारण था कि विद्यालय में मेरे बहुत कम ही साथी/दोस्त बनते थे और यही हाल मेरे गांव पर भी था। सिर्फ वही मेरे दोस्त बने जो मेरे स्वभाव के थे। पूरे गांव में जो लड़का किसी से बात नहीं करता था या किसी से नहीं बोलता था वही मेरा दोस्त होता था आज भी मुझे याद है मेरे गांव के दो दोस्त एक रूपम (यशवंत) और विवेक जिसे हम लोग गणेश जी कह कर भी चिढ़ाते थे। यह दोनों मेरे खास दोस्त थें क्योंकि इन दोनों का कोई भी दोस्त गाँव में नहीं था, सिवाय मेरे। मेरे घर के लोग भी मुझसे बोलते थे कि गांव में जो किसी से नहीं बोलता है वह तुमसे बोलता है और मैं भी हां में सिर हिला देता था। मुझे पढ़ना-लिखना छोड़ कर सारे कार्य में बहुत मन लगता था। 
जैसे:- बकरी को चराने ले जाना, भैंस के लिए घास काट कर लाना एवं उसे खिलाना, मम्मी के बार-बार मना करने पर भी  किचन में चले जाना और खाना बनाने में उनकी मदद करना, इत्यादि। बकरी चराने जाने के बहाने दो-तीन घंटे का मनोरंजन हो जाता था। बकरी चराने को लेकर पापा हमेशा गुस्सा करते थे कि मैं बकरी फार्म ही खोल देता हूं तुम पढ़ना-लिखना छोड़ कर यही चलाते रहना लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि बकरी मेरी दादी की जिद्द पर पाली जाती थी नहीं तो घर के सारे सदस्य इसके खिलाफ थे। बकरी चराने को जाने से एक और फायदा यह होता था कि हम सभी बच्चे वहां खेतों में खेलते रहते थे। हम लोग का खेल भी निराला ही था। 
जैसे:- बुढ़िया कबड्डी, अंधा टोपी, आईस-बाईस, चोर-सिपाही, इत्यादि। खेले वहां पर चलती रहती थी और बकरिया खेतों में चरती रहती। बकरी को चराकर जब शाम में घर आता तो डांट पड़ती थी इस डांट से बचने के लिए मैंने एक अनोखा तरीका ढूंढ निकाला था। 
23/06/2016 दिन- गुरुवार
और वो तरीका ये था कि शाम में मैं यमुनागढ़ जो मेरे घर से लगभग 01 किलोमीटर की दूरी पर है वहाँ चला जाता। क्योंकि वहां शाम के समय गांव के ही 02 लड़कों के द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारत का एक, हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं। यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपेक्षा संघ या आर.एस.एस. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है।" wikipedia के द्वारा संचालित शाखा  का आयोजन होता है जिसमें खेल-खेल के माध्यम से विभिन्न प्रकार की ज्ञान की बातें बताई एवं सिखाई जाती। मैं प्रतिदिन वहां जाता था। क्योंकि उसका आयोजन गांव के ही दो युवाओं के द्वारा किया जाता था। जहां पर खेल-कूद के साथ-साथ ज्ञानवर्धक बातें भी होती जिस कारण मेरे द्वारा वहां पर बिताये घंटे दो घंटे मेरे घर के लोगों  को सही लगता था, इसके लिए मुझे कभी डांट नहीं पड़ी। दिन भर की थकान के बाद शाम को मम्मी की डांट या बार-बार कहने पर लालटेन जलाकर पढ़ने बैठने का नाटक करता। लेकिन पढ़ने बैठने के साथ ही लालटेन/दिया की रोशनी में कीट-पतंगों का आतंक शुरू हो जाता जो मेरी कॉपी-किताबों और पूरे शरीर पर फैल जाते थे। जैसे-जैसे उनका आतंक बढ़ता जाता वैसे-वैसे ही पढ़ाई से उठने का मन भी करता जाता। तभी मां के हाथों के बने खानों की महक से भूख और तेज हो जाती। फिर उसके बाद क्या? कॉपी-किताब एक तरफ कर, खाने की तरफ दौड़ता और खाना-पीना खाने के बाद वही काम बस "सोना"।
      कुछ ऐसी थी- मेरी बचपन की दिनचर्या। लेकिन मन के किसी कोने में बहुत ज्यादा प्रसिद्धि पाने की ललक उस समय भी थी और इतना कुछ हासिल करने के बाद आज भी है। शायद यही कारण है कि आज मुझे इतने लोग जानते हैं। नही तो इतने शर्मीले और संकोची बच्चे को तो घर के सदस्य के अलावा कोई तीसरा पहचानता तक नहीं। यही हालत लगभग मेरी भी थी और अभी भी गांव में थोड़ी बहुत है ही। आज मेरे गांव के लोगों को यह पता है कि मेरे गांव का एक लड़का है विश्वजीत जो पटना में रहता है। फोटोग्राफी में इतना कुछ किया है। लेकिन मैं ही विश्वजीत हूँ यह मुझे देख कर आज भी नहीं पहचानते हैं। इसका कारण यह है कि मेरी सारी खूबियां, जैसे:- अजंता की कलाकृतियां सफाई के बाद सामने आई थी उसी प्रकार मेरी उपलब्धियां कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना में नामांकन कराने के बाद निकल कर सामने आई। उसके पहले बचपन से बड़े होने तक कोई मुझे पहचानता तक नहीं एक-दो दोस्तों को छोड़कर। यदि कोई गलती से मेरे बारे में पूछ लिया तो मेरा परिचय ऐसे होता था कि सुजीत का भाई, विजय का लड़का। मेरी अपनी पहचान कहीं खो गई थी। फिर मुझे अपने नाम का स्मरण आया- विश्वजीत मतलब पूरे संसार को जीतने वाला पूरे संसार को जीतने वाले की खुद की कोई पहचान नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए। क्या करना चाहिए यह नहीं पता। लेकिन मन में था कि कुछ अलग करना है जो दुनिया कर रही है या जिसके पीछे सब भाग रहे हैं मुझे उसके पीछे नहीं भागना है। अपना एक अलग रास्ता बनाना है। मैंने यह निश्चय कर लिया। सबसे पहले मैंने सोचा कि आज से वह सब कार्य करूंगा जिसमें मुझे बहुत मन लगता हो और मेरा मन किताबों को पढ़ने से ज्यादा किताबों में बनी आकृतियों को बनाने में लगता था बस वहीं से शुरू हुई मेरी चित्रकला की यात्रा।

क्रमशः