नमस्कारआप सभी का पुनः हमारे Blog पर स्वागत है। आज से हम एक नई श्रृंखला शुरु कर रहे हैं- “डायरी के पन्नों से” इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। चूंकि इस श्रृंखला का यह पहला Post हैं इसीलिए मैं डायरी के पन्नों का परिचय आपसे कराता हूं। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।
तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का पहला अंश
……….उस दिन दीपावली था। घर से बाहर रहने वाले अधिकतर छात्र होली, दीपावली और छठ पूजा में घर जरूर जाते हैं लेकिन मैं दीपावली में भी घर नहीं जाता क्योंकि दीपावली की रात मुझे आतिशबाजियो की फोटोग्राफी करनी रहती और अगले दिन यानी कि गोवर्द्धन पूजा के दिन गाँधी मैदान के पास प्रदर्शित होने वाले घरौंदा एवं रंगोली प्रतियोगिता में भाग लेना होता था। इसके बारे में हम आगे जिक्र करेंगे
प्रभात खबर में प्रकाशित मेरे द्वारा निर्मित रंगोली
पहले उस घटना के बारे में बात करते हैं जो दीपावली की रात मेरे साथ घटित हुई थी। दीपावली के दिन सभी लोग अपने-अपने घरों को सजाते हैं। सुंदर-सुंदर पकवान/मिठाई खाते हैं लेकिन मैं उस दिन सुबह से शाम तक पटना की सड़कों पर घूम फोटोग्राफी करता रहता। मेरे साथ मेरे और कई मित्र थे जो फोटोग्राफी के पीछे पागल थे। जिनमें एक देवराज भी था। देव अपने घर वालों के साथ पटना में रहता फिर भी समय निकाल कर वह मेरे साथ हो लेता। दीपावली के दिन प्रत्येक घर में दिया जलता है। इसीलिए शाम होने से पूर्व रूम पर जाना पड़ता, दिया जला कर विधिवत लक्ष्मी-गणेश की पूजा अर्चना कर फिर तुरंत कैमरा के साथ मैं बाहर निकल जाता।
चूंकि मुझे कभी पूजा-पाठ में उतना मन लगा नहीं इसीलिए मेरी पूजा भी जल्दी ही सम्पन्न हो जाती। मन में तो बस यह ख्याल रहता कि बाहर के दृश्य को कैमरे में कैद करना है।
उस दिन फोटोग्राफी की शुरुआत पटना के बांस घाट स्थित काली मंदिर से शुरू किये और फिर पुलिस लाइन होते हुए गांधी मैदान के आसपास के इलाकों में फोटो क्लिक की। फोटोग्राफी करने के उपरांत लगभग रात के 11:00 बजे रूम पहुंचे। उस समय सभी लोग खाना खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे चूंकि दिन भर मैंने घूमते हुए ही बिताई थी इसलिए भूख भी तेज लग रही थी सोचा कि फटाफट कुछ बना लेता हूं। ऐसी परिस्थिति के लिए मेरे पास मैग्गी (Maggi) हमेशा रहता था। अभी मैग्गी बनाने को सोच ही रहे थे कि तभी छोटू आया। छोटू एक किराएदार का लड़का था उसका नाम तो कुछ और था लेकिन पूरे बिल्डिंग में सबसे छोटा होने की वजह से सभी उसे छोटू ही बुलाते थे। हम जिस मकान में रहते थे वहां के सभी किराएदार एवं मकान मालिक सभी लोग एक फैमिली की तरह रहते थे । छोटू ने कहा कि- आप को भैया बहुत देर से छत पर खोज रहे हैं जल्दी चलिए, और हां कैमरा लेकर आइएगा। मैंने समय देखा 11:20 हो रहा था। मैग्गी को एक साइड में रखा और कैमरा एवं ट्राइपॉड (Tripod) को लेकर छत पर गया। छत पर जाकर देखा कि उन सभी के द्वारा बहुत ही सुंदर सजावट की गई है और वह उसकी फोटोग्राफी कराने के लिए मुझे बुला रहे थें। सबकी इच्छा को सम्मान करते हुए मैंने सब की फोटो क्लिक की और अपनी फोटो भी साथ में खिंचवाई। इन सब कार्य में 30 मिनट से अधिक लग गए। तब मैंने उन सभी से कहा कि मुझे पटाखों की फोटोग्राफी करनी है तब जाकर उनकी फोटोशूट बंद हुई और वह सभी वहीं बैठकर ताश खेलने लगे। दीपावली के दिन जुआं खेलने की परंपरा शुरू किसने की यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इस परंपरा का पालन आज भी सभी के द्वारा किया जाता है।
TRIPOD को SET कर मै फोटो क्लिक करने लगा। लेकिन इच्छा यह हो रही थी यदि और ऊंचाई से फोटो क्लिक करेंगे तो बेहतर तस्वीर आएगी। यह सोचकर मैंने उस छत के ऊपर बने सीढ़ी घर जिस पर पानी की टंकी रखी हुई थी और थोड़ी सी जगह ही शेष बच रही थी। वहां खड़े होकर फोटो क्लिक करने को सोची। लेकिन वहां जाना मुश्किल था क्योंकि उस पर जाने के लिए कोई सीढ़ी भी नहीं था। कभी उस पर जाना भी रहता तो एक बांस की सीढ़ी थी जिसकी लंबाई भी कम थी। 2 लोग मिलकर सीढ़ी को सीधे दीवाल पर खड़ा करते तब कोई तीसरा उसपर जा पाता। जब पानी की टंकी को साफ करना होता था तभी ही कोई उसपर जाता। उस समय रात के 12:00 बज चुके थे। मैंने ऊपर जाने की इच्छा उन सभी से व्यक्त की जिनकी फोटो मैंने कुछ देर पहले Click की थी। एक बार तो उन सभी ने मना कर दिया उनका कहना यह था कि इतनी रात को कौन सीढ़ी लाये। लेकिन जब मैंने दोबारा अनुरोध किया तब वह मान गए और जुआं को बीच में ही रोककर सिढ़ी लाए और मैंने कैमरा और ट्राइपॉड को संभालते हुए ऊपर चढ़ा। मेरे ऊपर जाने के उपरांत वह सभी सीढ़ी को वही किनारे रखकर अपने कार्य में लग गए और मैं भी पटाखों के साथ-साथ सितारों की फोटोग्राफी में खोया रहा। अमावस्या होने की वजह से सितारों की रोशनी कुछ ज्यादा थी और बीच-बीच में पटाखों का आकर फूटना एक मनोरम दृश्य को जन्म दे रहा था। मैं इसी अनुपम दुनिया में खोता चला गया।
मैं इस दुनिया से बाहर तब आया जब मेरी आंख झपकी। सुबह से घुमने के कारण और दो-तीन घंटे से वही एक ही जगह पर फोटोशूट की वजह से थोड़ा थकावट का अनुभव हो रहा था। इच्छा हो रही थी कि जाकर सोया जाए। समय देखने के लिए मोबाइल को ढूंढा तो पता चला कि उसको मैंने रूम में ही छोड़ दिया है। डिजिटल कैमरा की एक खासियत यह है कि इसमें समय और डेट भी दिखाता है जब मैंने समय देखा तो पाया कि 3:30 हो रहा है। मुझे लगा कि अब जाकर थोड़ा विश्राम करना चाहिए। जैसे ही मैंने नीचे देखा तो पाया कि वहां कोई नहीं था यानी वह तो कब के जा चुके थे।
सीढ़ी भी छत के किनारे रखा हुआ था। अब मेरे पास समस्या यह थी कि यहां से नीचे कैसे उतरे? मोबाइल भी नहीं था कि किसी को बुलाते भी, नींद भी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई थी। एक कहावत का मुझे स्मरण हो रहा था- भूख ना जाने झूठी थाल, और नींद न जाने टूटी खाट। टूटी खाट तो छोड़ ही दीजिए वहां पर इतनी भी जगह नहीं थी कि अच्छे से आदमी लेट सके। 5 फुट 7 इंच (5’7″) मेरी लंबाई है कभी-कभी लंबा होना की समस्या उत्पन्न करता है। यह बातें मैंने सुनी थी यहां साक्षात अनुभव कर रहा था। पुनः कैमरा को ऑन किया और समय देखा सुबह के 4:00 बज रहे थे। कैमरा बंद कर सुबह होने का इंतजार करने लगा। बैठे-बैठे कब आंख लग गई पता ही नहीं चला। पटना के दक्षिणी मंदिरी में मेरा रूम था। जिस मकान में हम रहते थे उसके पास एक बड़ा एवं बहुत ऊंचा मकान था जिसमें केवल छात्र ही रहते थे। यूँ समझिये की बॉयज हॉस्टल (Boys Hostel) की तरह। सबसे पहले उन लोगों ने देखा कि पानी की टंकी के पास कोई है। ऐसे भी लड़कों को सुबह-सुबह दूसरों की छतों पर ताका झांकी करने की आदत रहती हैं। धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले में यह बात फैल गई कि इनके छत की टंकी के पास कोई है। पूरे मोहल्ले वाले उनके घर के पास जमा हो गए। कुछ ने तो हिम्मत करके छत पर भी आए लेकिन सीढ़ी से ऊपर चढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि एक तो सीढ़ी की लंबाई कम थी और दूसरा उससे चढ़ने का तरीका भी पता नहीं था। आसपास के घरों में भी सीढ़ी ढूंढा गया लेकिन किसी के पास नहीं मिला। शहर में तो लोग बस जरूरत के हिसाब से ही सामग्री रखते हैं और जगह की इतनी कमी होती है कि गांव के किचन के बराबर उनका रूम होता है और बाथरूम में बस बैठने जितना ही जगह होता है। खैर सीढ़ी तो नहीं मिला लेकिन उस हल्ला-गुल्ला की वजह से मेरी नींद खुल गई। जब तक मैं ऊपर से कुछ कहता तब तक रात में जो सभी छत पर जुआं खेल रहे थे वह भी जल्दी-जल्दी छत पर आए। उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हो रहा था। फिर सभी को समझाते हुए वहां से जाने का अनुरोध किये। लेकिन वह सभी बिना मुझे देखे जाने को तैयार नहीं थे वह बस एक झलक देखना चाह रहे थे कि वह है कौन? बस गनीमत यह रही कि इसमें से किसी ने पुलिस को फोन नहीं किया नहीं तो मामला कुछ और ही हो जाता। जैसे ही मैं नीचे आया सभी लोग एक पागल छायाकार (Crazy Photographer) को गंभीर नजरों से देख रहे थे……………..
Biswajeet bhai Puja paath mein man Nahin lagta idhar bhi 😇❤️ jivant kar deti Hain aapki story ❤️
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