रविवार, 23 अगस्त 2020

“डायरी के पन्नों से”

             नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का तीसरा अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।

तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का तीसरा अंश 

         कला एवं शिल्प महाविद्यालय में प्रवेश परीक्षा देने के उपरांत मेरा नामांकन हो गया। महाविद्यालय के प्रांगण में ही बॉयज हॉस्टल था। मैंने इच्छा जताई हॉस्टल में रहने के लिए, लेकिन चिंटू भैया जिनके चलते मेरा आर्ट कॉलेज में नामांकन हुआ था उन्होंने मना कर दिया


क्योंकि उस समय महाविद्यालय परिसर एवं हॉस्टल में रैंगिग बहुत चलता था और यदि जूनियर स्टूडेंट्स हॉस्टल चला गया तो उसकी खैर नहीं। इसके साथ-ही-साथ उन्होंने हॉस्टल की और भी खामियां बताई। जिसे मैं यहां प्रस्तुत नहीं कर सकता क्योंकि मेरे अधिकतर पाठक आर्ट कॉलेज एवं आर्ट कॉलेज की दुनिया से वाकिफ नहीं है। फिर भी मैं इतना जरूर कहूंगा। Do Sketch Without clothes. ऐसी गतिविधियां हॉस्टल में हमेशा चलती रहती। जिस वजह से मैंने हॉस्टल में रहने का निर्णय त्याग दिया और उन्हीं को कॉलेज के आस-पास रूम ढूंढ कर मुझे कॉल करने के लिए कह  मैं अपने घर चला गया।


        नामांकन के बाद लगभग 1 महीने बीत गए लेकिन ना तो उनका कोई कॉल आया और ना ही कोई सूचना। बीच-बीच में मैं फोन करता तो वो कहते कि- आरे...यार....!!! तुम पहले आओ ना.... उसके बाद ना रूम देखेंगे। उनको लग रहा था कि मैं पहले पटना आऊं और मैं सोच रहा था कि पहले रुम की व्यवस्था हो जाए उसके बाद मैं पटना जाऊं। और इसी तरह इंतजार में 1 महीने से अधिक का समय हो गया पापा ने कई लोगों से बात की लेकिन रूम की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। आखिरकार एक रास्ता दिखा मेरे मां के मामा के लड़के की पत्नी का कोई रिश्तेदार पटना के जगदेव पथ के पास रहता था। उनका नाम प्रदीप था और वह उस समय आर०पी०एस० कॉलेज से इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहे थे। वर्तमान में Er. Pradip Kumar के नाम से फेसबुक पर पहचाने जाते हैं। उनसे बात हुई और मैं पापा के साथ पटना गया।
       मीठापुर बस स्टैंड से ऑटो से हम लोग पटना के बेली रोड में स्थित जगदेव पथ पहुंचे और फिर उन्हें कॉल किया। जगदेव पथ से 3-4 किलोमीटर और अंदर उनका रूम था। हम लोग वहां गए। पापा ने मुझे उनके रूम पर पहुंचा कर पुनः वापस घर लौट गए और उन्हें  मेरे लिए रूम ढूंढ कर मुझे वहां शिफ्ट करने के लिए भी कह गए। प्रदीप के रूम से मेरे कॉलेज की दूरी लगभग 10-11 किलोमीटर थी। मुझे प्रत्येक दिन ऑटो के लिए 2 किलोमीटर पैदल भी चलना पड़ता था उसके बाद मैं ऑटो से अपने आर्ट कॉलेज जाता था। 2-4 दिन मैं उनके यहां से ही कॉलेज गया उसके बाद उनके ही किसी रिश्तेदार में किसी लड़के को पटना शिफ्ट होना था उनका नाम सुमित था। उन्होंने हम दोनों के लिए एक रूम ढूंढ दिया। 2010 में पटना के जगदेव पथ के पास वाले इलाके में जिसे नहर बोला जाता था वहाँ पर 1000/-₹  में हम लोगों को रूम मिला। दो रूम एक ही में था जिसे एक को हम लोगों ने कैंटीन और दूसरे को स्टडी रूम बना लिया। बाथरूम चार-पांच रूम पर दो था और स्नान करने के लिए बाहर ही खुला जगह था जहाँ बर्तन धोना एवं स्नान करना दोनों कार्य एक जगह पर सम्पन्न होते थे। ऐसे मैं  पटना में पहली बार आया था और सुमित भी। 
      आज के समय में यदि किसी के पास दो मोबाइल नम्बर हो तो उसे दूसरा नंबर याद नही रहता लेकिन जैसे ही मैं रूम पर गया तो सबसे पहले सुमित ने मेरा मोबाइल नंबर याद किया और मुझे भी वह अपना मोबाइल नंबर याद कराया जो कि मुझे आज भी याद है- 977****621. जब मैंने इस का वजह जानने का प्रयास किया तब उसने कहां कि मान लीजिए कभी ऐसी परिस्थिति आ जाए की आप का मोबाइल चार्ज ना हो या फिर कही खो जाएं तो कम-से-कम रूम पार्टनर से किसी और के मोबाइल से आप बात तो सकते है। कभी कोई समस्या ना हो इसलिए नंबर याद रखना बहुत जरूरी है। मुझे उसकी यह सोच बहुत अच्छी लगी। उस दिन के बाद आज तक मेरे जितने भी करीबी हैं लगभग सभी का मैं नंबर याद ही रखता हूं मोबाइल की स्मृति के साथ-साथ अपनी मन की स्मृति में भी।
          हम B.F.A. कोर्स कर रहे थे और वह M.B.A. चूंकि सुमित का कॉलेज R.P.S. था जो कि वहां से नजदीक था इसलिए उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती थी, कॉलेज जाने में। लेकिन मेरे कॉलेज की दूरी 10-11 किलोमीटर हो जाने की वजह से रोज ऑटो किराया लगता था। इसीलिए मैंने फैसला किया कि घर से साइकिल लेकर आने के लिए। साइकिल लाने के बाद मैं रोज साइकिल से ही कॉलेज आने लगा। इससे ऑटो किराया बच जाता और शाम के लिए सब्जी की व्यवस्था भी हो जाती।
          पटना में रहने के दरम्यान मैं अधिकतर चीजें घर से ही लाता केवल हरी सब्जी और गैस पटना में लेते थे बाकी सब घर से ही लेकर आते। मुझे तो खाना बनाना बिल्कुल भी नहीं आता था लेकिन सुमित को बहुत अच्छे तरीके से खाना बनाने आता था। लेकिन मैंने उनको सहयोग कर-करके बहुत कुछ सीख लिया। यूं समझिये की कला सीखने से पूर्व मैंने खाना बनाना ही सीखा। मेरे खाना बनाने की ट्रेनिंग रूम से ही शुरु हुई। आप कह सकते हैं कि रूम पर मेरे खाना बनाने की ट्रेनिंग होती थी और कला महाविद्यालय में चित्र बनाने की। इसी संयोजन के साथ मैंने पटना में पूरे 5 साल का समय पूरा किया।

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