रविवार, 16 अगस्त 2020

डायरी के पन्नों से (Diary ke panno se.)

    

        नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का दुसरा अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।


      ...तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का दुसरा अंश

                   

                    ............मेरी आदत यह रही है कि कहीं भी मैं समय से पहले पहुंचता हूं। स्कूल टाइम में भी सबसे पहले मैं ही अपने स्कूल में पहुंचता था। उस दिन कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में प्रवेश के लिए, प्रवेश परीक्षा थी। 11:00 बजे से परीक्षा शुरू होने वाली थी और मैं घर से 04:00 बजे सुबह ही चल दिया।


        उस दिन मेरे बड़े भैया जिनका नाम सुजीत कुमार है वह भी मेरे साथ पटना आये थे। 08:00 बजे तक मैं महाविद्यालय के परिसर में था। उस दिन भी मैं सबसे पहले महाविद्यालय पहुंचा था चूंकी महाविद्यालय का बॉयज हॉस्टल महाविद्यालय के परिसर में ही था  इसीलिए वहां रहने वाले सभी विद्यार्थी हॉस्टल में ही थे, परिसर में कोई नहीं था। मैं बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ था। तभी एक लड़का हॉस्टल से बाहर निकला भैया ने उनको बुलाया उनका नाम चिंटू था। बातचीत से पता चला कि वह मूर्तिकला विभाग से बी०एफ०ए० कोर्स कर रहे हैं और उनका फोर्थ ईयर चल रहा है। उन्होंने मेरा स्केचिंग देखा और कुछ ट्रिक वगैरा बताएं एवं साथ-ही-साथ परीक्षा से संबंधित 02-04 प्रश्न भी उन्होंने मुझे बताएं। जैसे:- महाविद्यालय की स्थापना कब हुई थी? कौन किए थे? इत्यादि। और इत्तेफाक से यह सारे प्रश्न परीक्षा में पूछे भी गए थे। 2010 में फीफा वर्ल्ड कप हुआ था और उसी समय मेरा आर्ट कॉलेज में प्रवेश परीक्षा भी था। मेरे घर पर न्यूज़पेपर हमेशा से आते रहा है इसी कारण मैं current News से अपडेट था। परीक्षा में जो सामान्य जानकारी के प्रश्न पूछे गए थे वह सब भी मेरा सही हो गया। आर्ट कॉलेज में प्रवेश के लिए 2 परीक्षाये आयोजित की गई थी। एक  थ्योरी और एक प्रैक्टिकल।

             थ्योरी के तुरंत बाद प्रैक्टिकल शुरू हो गया। एक घटना मुझे याद आ रहा है जब चिंटू भैया मुझे स्केचिंग बता रहे थे उस समय मेरे पास केवल एच बी (HB) पेंसिल ही था तब वह बोले कि महाविद्यालय में नामांकन लेने के लिए और परीक्षा में पास होने के लिए मुझे और कई नंबरों की पेंसिल की आवश्यकता पड़ेगी। पेंसिल में भी नंबर और कई प्रकार होते हैं यह मुझे ज्ञात नहीं था। फिर मैंने महाविद्यालय के पास स्थित महाविद्या आर्ट सेंटर गया, जहां से मैंने कुछ पेंसिले खरीदी।

         मुझे आज भी याद है कि जब मैं दुकान पर गया तो दुकानदार ने पूछा कि आर्ट कॉलेज में नाम लिखाना है क्या? मैंने कहा:- हाँ। तब उसने मुझे Tambo Company का पेंसिल दिया 4B, 6B और 8B और बोला कि इसको लेकर जाइए आपका एडमिशन हो जाएगा। एक पेंसिल की कीमत थी  60 से 80 रुपये। मैंने सोचा कि शायद इतनी महंगी पेंसिल से फोटो बनाने के बाद मेरा नामांकन हो जाए।  

            समय से परीक्षा शुरू हुई पहले थ्योरी का एग्जाम हुआ। अधिकतर प्रश्न समकालीन घटनाओं से ही थे इस वजह से मुझे ज्यादा परेशानी नहीं हुई। कुछ प्रश्न आर्ट कॉलेज से ही थे एवं कुछ कला सामग्री से। लिखित परीक्षा के तुरंत बाद प्रायोगिक परीक्षा शुरू हो गई। 20" x 30" व्हाइट पेपर सभी विद्यार्थी को दिया गया एवं उस पर नाम रौल नंबर अंकित भी करवाया गया। उसके बाद जो पर्यवेक्षक मेरे रूम में थे बाहर चले गए। हम सभी सोच रहे थे कि आखिर करना क्या है?  उस व्हाइट बोर्ड पर बनाना क्या है? कोई शीर्षक तो उन्होंने दिया ही नहीं। हम सभी विद्यार्थी यही सोच रहे थे कि अचानक एक व्यक्ति का प्रवेश कमरे में होता है। बाल एकदम सफेद अपने सफेद होते बालों को जबरन मेहंदी लगाकर मेहंदी के रंग में रंगने की भरपूर कोशिश उन्होंने की थी लेकिन फिर भी सफेदी बालों में झलक रही थी। मस्तक पर चंदन का टीका लगाए, लंबी चोटी रखे हुए और मुंह में पान चबाते हुए हम सभी के समक्ष एक अद्धभुत व्यक्ति प्रस्तुत हुए।

       देखने से तो लग रहा था कि वह कलाकार है और शायद इस महाविद्यालय के प्रोफेसर भी हो। मेरा अनुमान एकदम सही था उन्होंने आते ही सबसे पहले हम सभी को परीक्षा में सफल होने की शुभकामनाएं दी और व्हाइट बोर्ड के लिए विषय भी दिया। "पांच अध्ययनरत छात्र एवं छात्राएं" इसी विषय पर हम सभी को पेंसिल स्केच तैयार करना था। सभी अपने-अपने कार्यों में लग गए।

    "सर का नाम अजय कुमार चौधरी था, वह ड्राइंग के प्रोफ़ेसर थे एवं महाविद्यालय में चौधरी सर के नाम से ही प्रसिद्ध थे।" उक्त बातें मुझे महाविद्यालय ज्वाइन करने के बाद मालूम चली।

      ड्राइंग शीट मिलते ही सभी छात्र अपने कार्य में ऐसे लग गये जैसे की दशरथ मांझी पहाड़ तोड़ने में लग गए थे। सबके मन में यही चल रहा था की - जब तक तोड़ेगे नहीं तब तक छोड़ेगे नहीं। लेकिन मैं बैठा रहा क्योंकि वहां पर अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके आकृतियों का निर्माण करना था और इससे पहले मैंने कभी भी इस तरह के चित्रों का निर्माण नहीं किया था। मैं तो बस सामने चित्र को रखकर या फिर उसे देख-देख कर बनाता था लेकिन यहां तो एक अलग ही समस्या उत्पन्न हो गई। मैंने उसका भी समाधान निकाला। परीक्षा के दरम्यान प्रत्येक विद्यार्थी एक कला जानता है जिसे नकल करना कहाँ जाता है। लेकिन इस कला को भी हर कोई नहीं कर सकता। कहाँ  भी गया है कि नकल करने के लिए अक्ल की आवश्यकता होती है और शायद मेरे अंदर यह कला बचपन से ही विद्यमान हैं। वैसे भी बिहार के सरकारी विद्यालय से पढ़ने वाला विद्यार्थी इस कला में महारत हासिल कर ही लेता है और इसी वजह से यह कला मुझ में भी विद्यमान है। उस दिन की परीक्षा में मैंने इस कला का प्रयोग किया। सबसे पहले मैं अपने आसपास देखा लेकिन प्रायोगिक परीक्षा होने की वजह से और व्हाइट पेपर का साइज बड़ा होने की वजह से सभी विद्यार्थियों को दूर-दूर बैठाया गया था दूरी इतनी ज्यादा थी कि वह क्या बना रहा है दूसरा विद्यार्थी उसे देख भी नहीं सकता था।

        तब मुझे लगा कि यहां चोरी तो नहीं चल सकती इसलिए अपने ख्याल से ही कुछ बनाना चाहिए। फिर मैं अपने आप को अपने गांव की तरफ ले गया। मुझे सबसे पहले जो दृश्य  दिखाई दिया वह यह था कि एक बड़ा सा पीपल का पेड़, उसके नीचे चबुतरा बना हुआ है और उस पर बैठे अनगिनत लोग कुछ ताश खेल रहे थे और कुछ आपस में बातें कर रहे थे। यह दृश्य मेरे घर के पास का ही है। यह एक सार्वजनिक जगह है और पूरे गांव का बरात या फिर कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम यहीं पर संपन्न होता है। कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के लिए मुझे वहां जाना भी नहीं पड़ता था अपने घर की छत पर से ही मैं सारा कार्यक्रम देख लेता था। इस जगह से मेरा जुड़ाव बचपन से ही रहा है इसी कारण जब कल्पना से चित्र बनाने की बात आई तो सबसे पहले यही दृश्य मेरे स्मृति में आया और मैंने फटाफट स्केच बनाना शुरू कर दिया। बड़ा सा विशाल पीपल का पेड़ और चबूतरा जैसे पूर्ण किया अचानक से याद आया की यहाँ तो पाँच अध्ययनरत छात्र-छात्राओं की तस्वीर बनाने को मिला है। फिर मेरा हाथ रुक गया कि अब बच्चों की तस्वीर कहां से लाएं?

         तभी मेरे सामने बैठा लड़का उठकर बाहर गया मैंने उसकी ड्राइंग शीट को देखा तो पाया कि वह 5 लड़के एवं लड़कियों को खड़े होकर हाथ में किताब लिए हुए फोटो बनाया है। मैंने फटाफट तस्वीर बनानी शुरू कर दी। जब तक मैंने एक तस्वीर बनाई वह पुनः वापस आ गया और अपनी तस्वीर को पूर्ण करने लगा उसके आने से पूर्व मैंने उसकी एक तस्वीर कॉपी कर ली थी। अब जरूरत थीं चार और व्यक्तियों की। फिर से मैंने अपने बचपन की तरफ देखा तब मुझे अपने होम ट्यूशन का दृश्य याद आया। जब मैं रात्रि में लालटेन की रोशनी में पढ़ने जाया करता था वहां पर एक लड़का था उसका नाम था- राजू । राजू अक्सर  पढ़ते समय लेट जाया करता था और लेटे-लेटे ही पढ़ाई करता था। उससे ज्यादा देर तक बैठकर पढ़ाई नहीं हो पाती थी। वही चेहरा मेरे समक्ष आया और उसी चबूतरे पर उसे लेट कर पढ़ते हुए बनाया। प्रश्न में छात्र-छात्राओं दोनों का जिक्र था इसीलिए मुझे छात्रा का भी अंकन करना था। फिर मैंने अपने आस-पास देखा तो पाया कि एक लड़की ने कुछ बच्चों का स्केच बनाया हैं मैंने वहां से दो लड़कियों का स्केच कॉपी किया। अब मेरे व्हाइट बोर्ड पर दो लड़के एवं दो लड़कियों की तस्वीर बन चुकी थी। एक और तस्वीर की कमी थी और वह तस्वीर मेरे जेहन में नहीं आ रहा था तभी वही शिक्षक जो कुछ देर पहले प्रश्न देकर गए थे पुनः वर्ग में आए और बोले कि आप सभी के पास मात्र 30 मिनट शेष बचे हैं। अपना-अपना कार्य संपादित कीजिए। सभी विद्यार्थी अपना-अपना पेंटिंग पूरा करने में लग गए और मैं बैठा सोचता रहा की एक तस्वीर कैसे पूर्ण होगी।

         वो सर क्लास में घूमने लगे। घुमते-घूमते मेरे पास आते ही रुक गए और बोले- अरे वाह!!! तुमने तो आधे घंटे पहले ही अपनी कलाकृति पूर्ण कर दी है। अब तो तुम्हारा नामांकन जरूर होगा। लेकिन मैंने कहा- नहीं सर, अभी एक तस्वीर बाकी है मैंने चार ही तस्वीर को पूर्ण किया हैं। तब वह बोले कि कोई बात नहीं बेटा। अभी समय शेष है उसको भी पूर्ण कर लो। यह कह कर वह आगे बढ़ गए अब मेरे पास अपनी चित्र को पूर्ण करने के लिए दो कारण थे। एक सर की बातों को सही साबित करना था, क्योंकि उन्होंने कहा था तुम्हारा नामांकन तो जरूर होगा और दूसरा मेरी इच्छा भी थी क्योंकि यदि मेरा नामांकन यहाँ नहीं होता तो सभी को यह लगता कि इससे आर्ट भी नहीं चलेगा और मुझे फिर किसी तीसरे राह की ओर मोड़ दिया जाता। लेकिन मैंने फिर पेंसिल उठाई और एक बार फिर से तस्वीर बनानी शुरू की।

       इस बार ना ही मुझे किसी की ड्राइंग शीट से आकृति की नकल करना पड़ा और ना ही मुझे अपने ख्यालों में जाना पड़ा। अचानक से हाथ में किताब लेकर मुस्कुराते हुए एक बालक की तस्वीर का अंकन हो गया। मैं सोचने लगा कि इस बालक को मैंने कब और कहां देखा है? और इसकी तस्वीर कैसे बन गई? यह सब मैं सोच ही रहा था कि तभी घंटी बज गई और सभी व्हाइट पेपर को जमा करने के लिए कहा गया। मैंने अपनी पेंटिंग जमा कर तो दी थी लेकिन उस बालक की छवि अभी भी मेरे दिमाग में घूम रही थी कि अचानक से वो छवि कैसे प्रकट हुई? और उसका अंकन भी हो गया। उस दिन से लेकर आज तक मैं उस छवि को ढूंढता रहता हूं और अपने प्रत्येक विद्यार्थी में मैं छवि को पाता हूं जब भी मैं किसी छात्र को  स्केचिंग, पेंटिंग या फिर फोटोग्राफी  बताता हूं मेरे सामने वही छवि विराजमान हो जाती है चाहे मेरे सामने एक विद्यार्थी हो या 1000 प्रत्येक व्यक्ति में मैं उसको पाता हूं और मुझे लगता है कि इस एक आकृति ने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया। अगर आज मैं उसे पुनः कुछ दे पाऊं तो मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझूंगा। इसीलिए जब भी मैं क्लास लेता हूं या फिर किसी को कुछ बताता हूं तो मुझे लगता है कि मैं उसका ऋण चुका रहा हूं और यह ऋण शायद मैं पूरी जिंदगी में ना चुका पाऊं।

       जिस दिन मैंने पटना आर्ट कॉलेज में नामांकन लिया उस दिन ही मैंने यह निर्णय ले लिया था कि मैं एक कला शिक्षक बनकर ही अपनी जिंदगी बिताऊगा, इस महाविद्यालय से मैं जितना सीखूंगा वह सारा अपने विद्यार्थियों के बीच बांटता रहूंगा..............

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