बुधवार, 12 अगस्त 2020

बिहारी लोक कवि : भिखारी ठाकुर Bihari Lok Kavi : Bhikhari Thakur.



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        भिखारी ठाकुर (1887-1971) भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे। वे बहु आयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं। वे एक महान लोक कलाकार थे जिन्हें 'भोजपुरी का शेक्शपीयर' कहा जाता है। 

         भिखारी ठाकुर एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाया। भिखारी ठाकुर का जन्म सन् 1887 ई ० में हुआ था और उनका निधन सन् 1971 ई ० में हुआ । भिखारी ठाकुर का जन्म  बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दलसिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था। इसलिए सारन  जिले से उनका बड़ा घनिष्ठ संबंध जीवनपर्यंत बना रहा।

      भिखारी ठाकुर अधिक पढ़े - लिखे नहीं थे लेकिन उनमें ऐसी  काव्य - प्रतिभा थी जैसी कबीर में । कबीर ने कहा है-

"मसिद कागद छुओ नहीं , कलम गही नही हाथ"

निहित शब्द – मसिद – फ़क़ीर , कागद – कागज़ , गही – गई।

व्याख्या –

कबीर स्वयं को बताते हैं कि वह कभी कागज – कलम को नहीं छुएं। उन्होंने कभी स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की किंतु साधु संगति से ही उन्हें इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त हुआ है।

कबीर की यह पक्ति भिखारी ठाकुर  पर भी लागू होती है। 

           भिखारी ठाकुर को 84 वर्षों की लंबी आयु नसीब हुई। औपचारिक शिक्षा के नाम पर उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ। होश संभालते ही वे अपने पुश्तैनी पेशा नाईगिरी से जुड़ गये। ऐसी स्थिति में जितना अवदान भिखारी  के साहित्य में हुआ, वह आश्चर्यजनक और महत्त्वपूर्ण है। लोक भाषा भोजपुरी में लिखने से भिखारी ठाकुर को जो ख्याति प्राप्त हुई वह आज तक कायम है। भिखारी ठाकुर अपने बारे में कहते हैं -

“अबहीं नाम भईल बा थोरा, जब इ छुट जाई तन मोरा।

 एकरा बाद नाम हो जईहन् ,पंडित, कवि, सज्जन, पशु गइहन।"

          भिखारी ठाकुर के काव्य में बड़ा वैविध्य है। उनके हृदय में भक्ति की धारा बहती थी। ऐसे वे अपने को शक्ति के उपासक मानते थे। लेकिन उनके काव्य में राम और कृष्ण के अधिकांश उपासना दिखाई पड़ती है। संपूर्ण राम चरित्र अथवा संपूर्ण कृष्ण चरित्र से उनका संबंध नहीं था। संबंध था दोनों चरित्रों के मधुर भाव से। राम चरित्र में उनका प्रिय विषय राम विवाह प्रसंग था और कृष्ण के चरित्र में से पनघट की दृश्यावली माधुर्यपासना (Melody) के भीतर श्रृंगार के उभय पक्ष-संयोग और वियोग का चित्रण उनका अभीष्ट था। जिस तरह वियोग का जीता-जागता दृश्य "बिदेसिया" नाटक में आया है, उसी तरह संयोग शृंगार "राधेश्याम बहार" में। इसमें पनघट के कृष्ण की ललित क्रीड़ा , उनका गोपियों के साथ छेड़-छाड़ और गोपियों की माता यशोदा के सामने उपालम्भ (complaint) और यशोदा का गोपियों को फटकार उभरकर आया है। 

        अपने नाटकों में शास्त्र के नियमानुसार संजीव संवाद योजना तो उन्होंने किया ही है , ग्रंथारंभ में प्राचीन परंपरा के अनुसार मंगला चरण भी है। श्री गणेश, शिव, संत समाज, राम, कृष्ण और भवानी आदि की चरण-वंदना भी उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया हैं।  

जिस प्रकार सूरदास उपालंभ(किसी के व्यवहार,कार्य आदि से दुखी होकर उससे या उसके किसी संबंधित से उत्पन्न दुख कहने की क्रिया; किसी के अनुचित या अशिष्ट व्यवहार के कारण उससे की जानेवाली शिकायत/उलहना) प्रस्तुत करने में बेजोड़ कवि थे उसी तरह भिखारी ठाकुर उपालंभ के सुन्दर कवि थे। उन्होंने एक गोपी द्वारा यशोदा से कृष्ण की छेड़खनियों की चर्चा करते हुए कहा है-

 "बान्हल केस हमनी के अझुरवलन, धइलन अंचरवा के कोर। 

कहत भिखारी केहु के बसे नाही दिहितन्, तनी भर रहितन जे गोर।"

      भिखारी के काव्य में शृंगार, करूणा, भक्ति रस और हास्य रस की मनोरम योजना है। द्रोपदी के चीर-हरण के प्रसंग में उसकी आत्मपुकार का बड़ा सजीव वर्णन किया हैं।

       उन्होंने कबीर और रैदास के प्रभाव से सक्रिय भक्ति की साधना की। जगत का कर्म तो भक्त को करना ही पड़ेगा। कर्म से छुटकारा कहाँ है ?  यह संसार कर्म क्षेत्र हैं।

         भिखारी का कहना है कि राम नाम को केन्द्र बनाकर कर्म में लगे रहिए। भक्ति उस ऊँचाई पर पहुँच जाय कि स्वत : सांस में राम समाविष्ट हो जाये। उस स्तर पर पहुंचने के लिए अभ्यास के बिना दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिए वे कहते हैं- 

 "जपल कर राम नाम मणि माला

 राम-राम बइठल उठत में, ऊँचा चढ़त चाहें खाला"

राम नाम की महिमा भिखारी खूब जानते थे क्योंकि गोस्वामी जी का उन पर गहरा प्रभाव था। गोस्वामी जी की घोषणा थी-

 "नाम लेत भव सिन्धु सुखाही

करहु विचार सुजन मन माही।"

"भाव कुभाव अनख आलसहूँ ,

नाम जपतमंगल दिसी दसहूँ "

भिखारी ने भी इसी भाव को बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा है-

 "असुहं, हँसहूँ, तहसहूँ राम नाम कहूँ जीवे।"

 "राम नाम मणि उर में घरीह,  गऊ,  गरीब, साघु से डरीह। 

माता-पिता, गुरु, विप्र के सेव, एह से ऊपर ता देसर देव ।"

        भिखारी ठाकुर की बहुत कविताओं का संबंध समाज सुधार से है। वे अपनी मिट्टी से जुड़े रचनाकार थे। वे समाज को सुधारना चाहते थे। बेटी -वियोग का पात्र चटक अपनी जवान बेटी उत्पातों को एक बूढे के हाथ बेच देता है। गांववालों को इस बात की कुछ भी जानकारी नहीं होती है। पता तब लगता है जब बकलोलपुर से झन्तुस दूल्हे की बरात आकर चटक के दरवाजे लग जाती है, दूल्हे को परीछने के वक्त महिलाएं जो गीत गा रही है, उसमें दूल्हे की व्यंग्यात्मक व्याख्या हो जाती है। 

"चलनी के चालत दूल्हा सूप के झटकारत हे। 

दियाका लागल बर के दुआरे बाजा बाजत हे ।। 

आवा के पाकल दूल्हा झाँवा के झारल हे । 

कलछुल के दागल दूल्हा बकलोलपुर से भागल हे

       भिखारी वस्तुतः सामाजिक चेतना के कवि थे। ये समाज का नैतिक उत्थान चाहते थे। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में सामाजिक मर्यादा और समाज-सुधार का उपदेश दिया गया हैं। भिखारी चाहते थे कि मर्यादा का उल्घंन नहीं होना चाहिए। वे मातृ भक्त भी थे। इसी से मातृ भक्ति का उपदेश बार बार देते थे। उनके नाटको के जो पात्र माँ को नहीं मानते है उनको वे बड़ा धिक्कारते हैं।

     वे नहीं चाहतें थे कि कोई पति अपनी पत्नी का निरादर करे, उपेक्षा करे। इसी से गवना करा कर जो पति अपनी पत्नी को विरह कि आग में  झोंक कर कमाने के लिए परदेश चले जाते थे, उसकी उन्होंने खूब खबर ली हैं। उनकी विरहिनी नायिका की वेदना बड़ी गम्भीर हैं।

 "गवना करा के सईया  परदेसे गइलन। 

कइलन ना प्यारी से उदेश

हरदम -रटत बा जीया, 

फिकिर परल बा हरमेश। 

युवापन बीती जइहन,

 कबले दो अइहन् 

कुछ दिन में पाक जइहन केश। 

गवना करा के सईया परदेसे गइलन। 

       भिखारी ठाकुर का भोजपुरी पर पूर्ण अधिकार था। उनकी कृति की सबसे बड़ी खूबी थी कि उन्होंने अनगढ़ तथा गवारू भोजपुरी के भीतर छिपी हुई काव्यात्मा और काव्य-शक्ति का अनुसंधान किया। 

          उनकी रचनाएं मुहावरेदार, सरस, अनुभाव और संचारी भाव से युक्त उनके कवित्व और मौलिकता को स्पष्ट करती हैं। इनकी प्रमुख रचनाओं में कलयुग प्रेम, भाई-विरोध, पुत्र-वध, गंगा-स्नान, विधवा-विलाप, बेटी-बेचवा/बेटी -वियोग, ननद -भौजाई, आदि हैं। वस्तुतः भिखारी ठाकुर भोजपुरी के मौलिक कवि व नाटककार थे। 




बिश्वजीत कुमार

सहायक प्राध्यापक 

(मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर) 

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