मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

क्या याद मेरी आती नहीं....😓

 एक बेटी,  उलाहना (शिकायत) की पाती (चिट्ठी) अपने पिताजी के पास लिखते✍️ हुए कहती हैं।


 सच बात पूछती हूं,

बताना ना बाबूजी।

 छुपाना ना बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 पैदा हुई घर में,

मेरे मातम सा छाया था।

 पापा तेरे खुश थे,

माँ ने बताया था।


 ले ले नाम प्यार,

 जताते मुझे ही थे।

आते थे कहीं से तो,

बुलाते मुझे ही थे।


 मैं हूं नहीं तो किसे,

बुलाते हो बाबूजी।

 रुलाते हो बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


हर जिद्द मेरी पूरी हुई,

हर बात थे मानते।

 बेटी थी लेकिन बेटों से,

ज्यादा थे मानते।


 घर में कभी होली,

कभी दिवाली है आई।

 सैंडल भी मेरी आई,

 फ्रॉक भी मेरी आई।


 अपने लिए बंडी भी ना,

लाते थे बाबूजी।

क्या कमाते थे बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 सारी उम्र खर्चे में,

कमाई में लगा दी।

दादी बीमार थी तो,

दवाई में लगा दी।

बाकी बचा जिसे मेरी सगाई में लगा दी।


 अब किसके लिए,

इतना कमाते हो बाबूजी।

रुलाते हो बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 संजय सिंह✍️

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