जटायु की यह दशा देखकर सीता विलाप करने लगीं और अपनी रक्षा के लिए पुनः राम-लक्ष्मण को पुकारने लगीं। रावण का पूरा शरीर कोयले जैसे काला था, जो युद्ध और क्रोध के कारण अब और भी भयावह दिखने लगा। सीता का स्वर्ण जैसा सुनहला मुख शोक के कारण मलिन दिखाई देने लगा। भयभीत सीता इस पापकर्म के लिए पुनः रावण को धिक्कारने लगीं और अनेक प्रकार की करुणाजनक बातें कहने लगीं। लेकिन रावण पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह सीता को लेकर तीव्र वेग से आकाश-मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। व्यथित सीता को अपना कोई सहायक दिखाई नहीं दे रहा था, पर तभी अचानक मार्ग में उन्होंने एक पर्वत के शिखर पर पाँच श्रेष्ठ वानरों को बैठे देखा। शायद वे लोग सीता के अपहरण की बात श्रीराम को बता सकें, इस आशा में सीता ने अपनी सुनहरे रंग की रेशमी चादर उतारी और उसमें आभूषण लपेटकर उसे उन वानरों के बीच में फेंक दिया। रावण लंका पहुँचने की जल्दी में था, इसलिए सीता के इस कार्य पर उसका ध्यान नहीं गया। पंपा सरोवर को लांघकर और अनेक वनों, नदियों, पर्वतों, सरोवरों और अंततः समुद्र को भी आकाशमार्ग से पार करते हुए रावण ने सीता को लेकर लंका में प्रवेश किया। लंका नगरी का विस्तार बहुत बड़ा था। वहाँ अनेक विशाल राजमार्ग बने हुए थे और लंका के प्रवेश द्वार पर बहुत-से भीषण राक्षस पहरा दे रहे थे।
लंका में पहुँचकर रावण ने सीता को लेकर अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया। तब उसने भयंकर आकार वाली पिशाचिनों को बुलाकर आज्ञा दी, “तुम सब सावधान रहकर सीता की रक्षा करो। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी स्त्री-पुरुष सीता को देख या मिल न पाए। इसे मोती, मणि, स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण या जिस किसी भी वस्तु की इच्छा हो, वह तुरंत प्रस्तुत की जाए। यह मेरी आज्ञा है। तुम लोगों में से किसी ने यदि भूल से भी सीता से कोई अप्रिय बात कही या उसका अपमान किया, तो मैं समझूँगा कि तुम्हें अपना जीवन प्यारा नहीं है।” ऐसी आज्ञा देकर रावण अब आगे के बारे में सोचता हुआ अन्तःपुर से निकला और कच्चे माँस का भी आहार करने वाले आठ विकराल राक्षसों से तत्काल मिला। उन सबके बल और पराक्रम की प्रशंसा करके उसने कहा, “जिस जनस्थान में खर रहता था, वह इस समय उजाड़ पड़ा है। वहाँ के सभी राक्षस मार डाले गए हैं। राक्षस वीरों! तुम सब लोग अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उस सूने जनस्थान में जाओ और अपने पराक्रम से वहाँ जाकर निवास करो। राम ने वहाँ मेरी विशाल सेना के साथ-साथ खर और दूषण को भी मार डाला है। इसलिए मैं बहुत क्रोध में हूँ और उस शत्रु से बदला लेना चाहता हूँ। राम का वध होने पर ही मैं शान्ति पा सकूँगा। अतः जनस्थान में रहकर तुम लोग राम की गतिविधियों पर दृष्टि रखो और वह कब, क्या करता है इसकी सूचना मेरे पास भेजते रहो। तुम सब लोग सतर्क होकर वहाँ रहना और राम का वध करने के लिए सदा प्रयत्न करना। तुम लोग बड़े वीर हो, इसी कारण मैंने इस कार्य के लिए तुम सबको चुना है। यह आज्ञा पाकर उन राक्षसों ने रावण को प्रणाम किया और लंका को छोड़कर उन्होंने जनस्थान की ओर प्रस्थान किया।
कामासक्त रावण को तब पुनः सीता का स्मरण हो आया और वह सीता को देखने अपने अन्तःपुर में वापस गया। वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि राक्षसियों के बीच बैठी सीता दुःख में डूबी हुई हैं। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है शोक से व्याकुल होकर वे अत्यंत पीड़ित दिखाई दे रही हैं। दुःख और विवशता के कारण सिर झुकाकर चुपचाप बैठी हुई सीता के पास जाकर उस पापी रावण ने जबरन सीता को अपना पूरा महल दिखाया। उस महल में हजारों स्त्रियाँ निवास करती थीं। अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ कलरव करते थे। कई प्रकार के रत्न उस अन्तःपुर की शोभा बढ़ाते थे। उसके खंभों में हाथी दाँत, सोने, स्फटिक, मणि, चाँदी, हीरा, नीलम आदि सुन्दर रत्न जड़े हुए थे। वहाँ मधुर वाद्य बजते रहते थे। उस अन्तःपुर को तपे हुए सोने के आभूषणों से सजाया गया था और उसकी सीढ़ियाँ भी सोने की बनी हुई थीं। उस महल की खिड़कियाँ हाथी दाँत और चाँदी की बनी हुई थीं, और वहाँ सोने की जालियों से ढँकी हुई प्रासाद-मालाएँ भी दिखाई दे रही थीं। उसमें सुर्खी (ईंट का बुरादा) और चूने से बना पक्का फर्श था, जिसे मणियों से सजाया गया था। रावण ने सीता को लुभाने के लिए उन्हें यह सब दिखाया और अनेक बावड़ियाँ, सुन्दर सरोवर आदि भी दिखाए। इसके बाद वह नीच राक्षस उनसे बोला, “सीते! मेरे अधीन बत्तीस करोड़ राक्षस हैं। बूढ़े और बालक निशाचरों की संख्या इससे अलग है। मैं उन सबका स्वामी हूँ। अकेले मेरी सेवा में ही एक हजार राक्षस नियुक्त रहते हैं। चारों ओर से समुद्र से सुरक्षित इस लंका के राज्य का विस्तार सौ योजन है। सभी देवता और असुर मिलकर भी इसे जीत नहीं सकते। देवता, यक्ष, गन्धर्व, ऋषियों आदि में कोई ऐसा नहीं है, जो बल और पराक्रम में मेरा सामना कर सके। मेरा यह सारा राज्य और मेरा जीवन भी अब तुम्हें ही समर्पित है। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। मेरे अन्तःपुर में मेरी अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं। तुम उन सबकी स्वामिनी बनो। मेरी प्रिय भार्या बनो। यह यौवन सदा रहने वाला नहीं है, अतः राम के शोक में इसे नष्ट करने से अच्छा है कि तुम मुझे अंगीकार करो और मेरे साथ रमण करके यहाँ जीवन का आनंद लो। वह राम तो अपना ही राज्य गँवाकर दीन-हीन की भाँति वन में पैदल भटक रहा है। उस तुच्छ मानव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह यहाँ तक आने का विचार भी कर सके। उसके लिए तुम अपना जीवन व्यर्थ मत गँवाओ। देखो! यह सुन्दर पुष्पक विमान मैंने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक छीना था। यह अत्यंत रमणीय, विशाल और मन के समान तीव्र वेग से चलने वाला विमान है। आओ, तुम इस पर मेरे साथ बैठकर सुखपूर्वक विहार करो।
रावण की ऐसी बातें सुनकर दुःखी सीता ने अपने मुख को आँचल से छिपा लिया और शोक से बेचैन होकर वे श्रीराम के बारे में सोचते हुए धीरे-धीरे आँसू बहाने लगीं। यह देखकर निर्लज्ज रावण ने पुनः कहा, “विदेह नन्दिनी! तुम्हारा और मेरा तो अब स्नेह का संबंध है, अतः तुम्हें मुझसे लजाना नहीं चाहिए। मैं तो अब तुम्हारे ही चरणों का दास हूँ।” ऐसा कहकर रावण सोचने लगा कि ‘अब यह मेरे अधीन हो गई है’, किन्तु क्रोधित सीता एक तिनके की ओट करके निर्भय होकर उस पापी रावण से बोलीं, “अरे दुष्ट! केवल श्रीराम ही मेरे आराध्य और प्रिय हैं। उनका साहस सिंह के समान है। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ यहाँ आकर शीघ्र ही तेरा विनाश करेंगे। तूने जिन विकराल राक्षसों की चर्चा की है, श्रीराम के सामने जाते ही उन सबका भी निश्चित ही विनाश होगा। यदि तू श्रीराम के सामने मेरा अपहरण करता, तो अपने भाई खर के समान तू भी जनस्थान में ही मारा जाता, किन्तु अब तू निश्चित समझ ले कि इस लंका में ही तेरा अंत होगा। मेरा अपहरण करके तूने ऐसा भीषण कृत्य किया है कि अब तेरे साथ ही इन सभी राक्षसों का, तेरे समूचे अन्तःपुर का और लंका के इस पूरे राज्य का भी विनाश होगा। मैं पतिव्रता स्त्री हूँ और श्रीराम की धर्मपत्नी हूँ। तू कभी मुझे प्राप्त नहीं कर सकेगा।” सीता के इन कठोर वचनों को सुनकर रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने सीता को भय दिखाते हुए कहा, “मेरी बात सुन लो। मैं तुम्हें बारह मास का समय देता हूँ। यदि तब तक तुम स्वेच्छा से मेरे पास नहीं आई, तो मेरे रसोइये सुबह का नाश्ता बनाने के लिए तुम्हारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे। सीता से ऐसी भयंकर बातें कहकर रावण ने कुपित होकर उन राक्षसियों से कहा, - रक्त-माँस का आहार करने वाली विकराल भयंकर राक्षसियों! तुम शीघ्र ही इस सीता का अहंकार दूर करो। यह सुनते ही वे सब राक्षसियाँ उसे चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गईं। तब उन्हें सीता से कुछ दूर ले जाकर रावण ने कहा, “तुम लोग सीता को अशोक वाटिका में ले जाओ और चारों ओर से घेरकर इस पर दृष्टि रखो। वहाँ तुम पहले भयंकर बातें और गर्जना करके इसे डराना, फिर मीठी-मीठी बातों से समझा-बुझाकर इसे अपने वश में लाने की चेष्टा करना। इस आदेश को सुनकर वे राक्षसियाँ सीता को लेकर अशोक वाटिका में चली गईं। वह वाटिका अनेक प्रकार के फल-फूलों वाले वृक्षों से भरी हुई थी व कई प्रकार के पक्षी भी वहाँ निवास करते थे। उन मनोरम वाटिका में भी सीता का व्याकुल मन शांत नहीं हुआ। अपने भीषण दुःख और उन विकराल राक्षसियों से मिलने वाली डाँट-फटकार व अपमान के कारण वे और व्यथित हो गईं। ऐसी अवस्था में भय व शोक से पीड़ित होकर अपने पति और देवर का स्मरण करती हुईं सीता दुःख से अचेत हो गईं।
मारीच का वध करने के बाद श्रीराम तुरंत ही अपने आश्रम की ओर लौटे। वे यथाशीघ्र आश्रम वापस पहुँचना चाहते थे। तभी अचानक पीछे की ओर से एक सियारिन रोंगटे खड़े कर देने वाले कठोर स्वर में भयंकर चीत्कार करने लगी। श्रीराम ने इसे भीषण अपशुकन माना। मार्ग में उन्हें और भी कई अपशकुन दिखाई दिए। वन के मृग और पक्षी बड़ी भयंकर वाणी में कोलाहल कर रहे थे। वे सब उन्हें बायीं ओर करके चल रहे थे। तब श्रीराम सोचने लगे, “आज भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। अवश्य ही कोई अशुभ घटना हुई है। क्या सीता सकुशल होगी? राक्षस मारीच ने उन्हें भ्रमित करने के लिए ही मरते समय बड़े आर्त स्वर में मेरे जैसी वाणी में ही लक्ष्मण को पुकारा था। उससे चिंतित होकर सीता अवश्य ही लक्ष्मण को मेरी सहायता के लिए भेजेगी। जब हम दोनों भाई आश्रम में नहीं होंगे, तो क्या अकेली सीता वहाँ सुरक्षित रह पाएगी। जनस्थान में जो राक्षसों का संहार हुआ, उस कारण सभी राक्षसों का मुझसे बैर हो गया है। यह सब सोचते हुए श्रीराम तेजी से आगे बढ़े। इतने में ही उन्हें लक्ष्मण आते हुए दिखाई दिए। उनका मुख मुरझाया हुआ था और वे दुःख में डूबे हुए दिख रहे थे। लक्ष्मण को देखकर श्रीराम ने उनका बायाँ हाथ पकड़ लिया। बहुत आर्त होकर श्रीराम ने सीता को अकेली छोड़कर आने के लिए लक्ष्मण की निंदा की। फिर वे चिंतित स्वर में बोले, “सौम्य लक्ष्मण! मेरा मन अत्यंत दीन व अप्रसन्न हो रहा है। मेरे आस-पास अनेक अपशकुन हो रहे हैं। मेरी बायीं आँख भी फड़क रही है। ऐसा लगता है कि सीता अब कुशल नहीं है।, उससे यही लगता है कि निःसंदेह सीता आश्रम में नहीं है। कोई उसका हरण करके ले गया। तब लक्ष्मण ने उन्हें बताया, “भैया! मैं अपनी इच्छा से उन्हें अकेला छोड़कर नहीं आया। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि ‘देवताओं की भी रक्षा करने वाले मेरे भैया कभी भी अपने मुँह से ‘बचाओ! बचाओ!’ जैसे कायरतापूर्ण वचन नहीं कह सकते। लेकिन वे नहीं मानीं। उनके कठोर वचनों से विवश हो मुझे यहाँ आना पड़ा। ऐसी बातें करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस सूने आश्रम में प्रवेश किया। भूख-प्यास, शोक और परिश्रम से श्रीराम का मुँह सूख गया था। सारी पर्णशाला उजाड़ दिखाई दे रही थी। चारों ओर मृगचर्म और कुश बिखरे हुए थे। चटाइयाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। आश्रम में उन्होंने सीता के सभी प्रिय स्थानों को देखा, किन्तु वह कहीं दिखाई नहीं दी। आश्रम में सीता को न पाकर श्रीराम विषाद में डूब गए और अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगे। फिर उन्होंने सोचा कि सीता घबराकर कहीं छिप तो नहीं गई या वह कहीं फल-फूल या जल लाने के लिए वन में या नदी तट पर तो नहीं चली गई? अतः उन्होंने वन में भी चारों ओर सीता को खोजा। शोक के कारण उनकी आँखें लाल हो गईं और वे उन्मत्त दिखाई देने लगे।जब सीता कहीं नहीं मिलीं, तो शोक से व्याकुल होकर वे लक्ष्मण से कहने लगे, “लक्ष्मण! सीता के बिना मैं भी प्राण त्याग दूँगा। जीवित रहकर मैं किस मुँह से अयोध्या वापस जाऊँ और मरने पर परलोक जाकर भी मैं पिताजी को क्या मुँह दिखाऊँ? वे ताना देते हुए मुझसे कहेंगे कि “मैंने तुझे चौदह वर्षों के लिए वन में भेजा था, पर तू मेरा वचन झूठा करके समय पूरा होने से पहले ही यहाँ चला आया। तुझे धिक्कार है। तब मैं क्या उत्तर दूँगा!”
उनका शोक देखकर लक्ष्मण ने उन्हें समझाया, “भैया! आप इस प्रकार विषाद न करें। आप मेरे साथ मिलकर जानकी को ढूँढने का प्रयास करें। वे यहीं कहीं होंगी। हम साथ मिलकर खोजें, तो शीघ्र ही उन्हें ढूँढ निकालेंगे।” यह सुनकर दोनों भाई पुनः सीता की खोज में लग गए। बहुत ढूँढने पर भी उसे न पाकर श्रीराम अत्यंत शोक से विलाप करने लगे। सीता के शोक से व्याकुल होकर रोते हुए श्रीराम को देखकर लक्ष्मण का मन भी अत्यंत व्यथित हो गया और वे घबरा गए। फिर भी उन्होंने श्रीराम को सांत्वना दी और दोनों भाई पुनः वन में, नदी तट पर सर्वत्र सीता को खोजने लगे। अब श्रीराम वन के वृक्षों, पर्वतों, पुष्पों, भँवरों, मृगों, हाथियों और नदी से भी पूछने लगे कि ‘क्या तुमने सीता को कहीं देखा है? वे हर दिशा में ‘सीते! सीते!’ कहकर पुकारने लगे। उन्हें देखते ही मृगों का एक झुण्ड सहसा उठ खड़ा हुआ और मुड़-मुड़कर उसी दिशा में देखने लगा, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था। यह देखते ही बुद्धिमान लक्ष्मण ने कहा, “तात! जब आपने पूछा कि ‘सीता कहाँ है?’, तो ये मृग सहसा खड़े हो गए और दक्षिण दिशा की ओर हमारा ध्यान दिला रहे हैं। इससे मुझे लगता है कि हमें भी नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा की ओर ही जाना चाहिए।” तब श्रीराम ने उनकी बात मान ली और वे दोनों दक्षिण दिशा की ओर चले। मार्ग में उन्हें कुछ फूल गिरे हुए दिखाई दिए। तब श्रीराम ने दुःखी होकर लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। मैंने यही फूल सीता को दिए थे और उसने इन्हें अपने बालों में लगा लिया था। थोड़ा और आगे जाने पर उन लोगों को सीता के और उस राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़ों में बिखरा हुआ रथ आदि भी दिखे। यह सब देखकर श्रीराम का हृदय घबरा गया। तभी उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ये देखो! सीता के आभूषणों में लगे सोने के घुंघरू यहाँ बिखरे पड़े हैं। उसके अनेक हार भी यहाँ टूटकर बिखरे हुए हैं। यहाँ की पूरी भूमि रक्त की बूँदों से सनी हुई दिखाई दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इच्छाधारी राक्षसों ने सीता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए होंगे और मिल-बाँटकर उसे यहाँ खा लिया होगा? लक्ष्मण! यह मोतियों और मणियों से विभूषित अत्यंत सुन्दर और विशाल धनुष किसका हो सकता है? इसमें वैदूर्यमणि (नीलम) के टुकड़े जड़े हुए हैं। उधर सोने का कवच गिरा हुआ है। वह किसका होगा? न जाने यह छत्र किसका है, रथ किसका है? ये बाण और तरकस किसके हैं? ये अवश्य ही किसी राक्षस के पदचिह्न हैं। अवश्य ही सीता का अपहरण या हत्या हो गई है अथवा क्रूर राक्षसों ने उसे मारकर खा लिया है। अब राक्षसों के प्राण लेकर ही उनसे मेरा वैर समाप्त होगा। मुझे निर्बल मानकर उन राक्षसों ने मेरी स्त्री का अपहरण कर लिया है। अब यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, किन्नर और मनुष्य कोई भी चैन से नहीं रह पायेंगे। अब तीनों लोक मेरे पराक्रम को देखेंगे।”
ऐसा कहकर श्रीराम अत्यंत क्रोधित होकर बार-बार अपने धनुष की ओर देखने लगे और उन्होंने उसकी डोरी चढ़ा ली। तब लक्ष्मण ने पुनः समझाया, “आर्य! यहाँ केवल एक ही रथ के चिह्न दिख रहे हैं, दो रथों के नहीं। यहाँ किसी विशाल सेना के पदचिह्न भी नहीं हैं। इससे लगता है कि सीता का अपहरण करने वाला कोई एक राक्षस ही था। आप क्रोधित होकर अपने स्वभाव को न छोड़ें। किसी एक के अपराध का दण्ड सारे संसार को न दें। मैं यह पता लगाने का प्रयास करता हूँ कि यह रथ किसका है। हम लोग सारे वनों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों में हर कहीं सीता को खोजेंगे। बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता लेकर उसका पता लगाएँगे। शान्ति से पूछने पर भी यदि सारे संसार में कहीं सीता का पता न मिला, तो अवश्य ही आप क्रोधित होकर सारे संसार का संहार कर दीजिएगा, किन्तु अभी आप इस प्रकार शोक और क्रोध मत कीजिए। यह सुनकर श्रीराम पुनः अनाथों के भाँति भीषण विलाप करने लगे। तब पुनः लक्ष्मण ने बहुत प्रयास करके उन्हें शांत किया और फिर दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े। कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने विशाल शरीर वाले पक्षीराज जटायु को भूमि पर खून से लथपथ पड़ा देखा। पहले तो श्रीराम ने उसे भी राक्षस समझकर धनुष तान दिया था, पर तभी अचानक दीन वाणी में बोलते हुए जटायु ने उनसे कहा, “आयुष्मान! तुम जिसे ढूँढ रहे हो, उस देवी सीता को और मेरे प्राणों को भी रावण ने ही हर लिया है। ऐसा कहकर जटायु ने रावण से हुए संग्राम का वर्णन दोनों भाइयों को सुनाया। यह सब सुनकर राम और लक्ष्मण दोनों ही शोक से विह्वल हो गए। दोनों भाइयों ने जटायु को गले लगा लिया और रोने लगे। तब उन्हें सांत्वना देते हुए जटायु ने बड़े कष्ट से धीरे-धीरे कहा, “रघुनन्दन! अब मेरे प्राण छूटने वाले हैं। मेरी दृष्टि घूम रही है। समस्त वृक्ष मुझे सुनहरे रंग के दिखाई दे रहे हैं। लेकिन तुम जानकी के लिए खेद न करो। रावण जिस मुहूर्त में उसे ले गया है, वह ‘विन्द’ मुहूर्त था। उसमें खोया हुआ धन भी शीघ्र वापस मिल जाता है। तुम भी शीघ्र ही सीता को पुनः प्राप्त कर लोगे। रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है…
....ऐसा कहते-कहते अचानक ही जटायु के मुँह से रक्त निकलने लगा, उनका मस्तक भूमि की ओर झुक गया, दोनों पंख फ़ैल गए और जटायु के प्राण निकल गए।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️
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