पुआ की आत्मकथा
मैं पुआ हूँ... मैं पुआ हूँ...
मैं पुड़ी की बुआ हूँ।
मैं पुआ हूँ।
मैं होली में हूँ, दिवाली में हूँ।
मैं हर घर की खुशहाली में हूँ।
अनेकों प्रकार हूँ, आकार हूँ।
लेकिन हर हाल में, मैं शाकाहार हूँ।
मैं पुआ हूँ।
देशी पकवान का सर्वोत्तम उपहार हूँ,
भक्तों का सर्वोत्तम आहार हूँ।
संस्कृत में अपूप हूँ,
बंगला में पुई हूँ,
उर्दू में मालपुआ हूँ।
फिर भी सभी पकवानों की बुआ हूँ।
मैं पुआ हूँ।
पकवानों का देशी स्वाद हूँ,
वैदिक युग से आबाद हूँ।
मैं कल भी था, और आज भी हूँ।
मै भोजन का सरताज हूँ।
मैं पुआ हूँ।
मेरे होने मात्र से भोजन सम्पूर्ण होता है।
मेरे होने मात्र से सत्कार परिपूर्ण होता हैं।
भोजन का देशी मिजाज हूँ मैं,
छपन भोग का साज हूँ मैं।
मैं पुआ हूँ... मैं पुआ हूँ...
मै पुड़ी की बुआ हूँ।
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