शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 33 (Valmiki Ramayana Part - 33)


जटायु की मृत्यु से श्रीराम को अतीव दुःख हुआ। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “सीता की रक्षा के लिए युद्ध करने के कारण रावण के हाथों जटायु का वध हुआ है। इस प्रकार उन्होंने मेरी सहायता के लिए ही अपने प्राणों का बलिदान किया है। जैसे महाराज दशरथ मेरे लिए पूज्य थे, वैसे ही जटायु भी हैं। अतः तुम सूखे काष्ठ जमा करो, मैं मथकर आग निकालूँगा और गृध्रराज जटायु का दाह-संस्कार करूँगा।” तब लक्ष्मण ने चिता तैयार की और श्रीराम ने दुःखी मन से जटायु का दाह-संस्कार किया और जटायु का पिण्डदान किया। फिर श्रीराम ने मृतकों के लिए किए जाने वाले मन्त्रों का जाप किया व उसके बाद दोनों भाइयों ने गोदावरी में स्नान करके जटायु को जलांजलि दी। इस प्रकार तर्पण करने के बाद दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े।
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग एक घने वन को पार करके जनस्थान से तीन कोस दूर क्रौंचारण्य नामक दूसरे गहन वन में पहुँचे। उसे पार करके वे लोग मतंग ऋषि के आश्रम के पास पहुँचे। वह वन बड़ा भयंकर था। उसमें अनेक भीषण पशु-पक्षी निवास करते थे और वह अनेक गहन वृक्षावलियों से व्याप्त था। वहाँ पहुँचने पर उन्हें पर्वत पर एक गहरी और अँधेरी गुफा दिखाई दी। उसके समीप जाने पर उन्होंने विकराल मुँह वाली एक भयंकर राक्षसी को देखा। वह भयानक पशुओं को भी पकड़कर खा जाती थी। उसका पेट लंबा, तीखे दाँत और त्वचा कठोर थी। उसका आकार विराट था और बाल खुले हुए थे। उसे देखकर बड़ी घृणा होती थी। दोनों भाइयों को देखते ही वह उनके पास आई और उसने लक्ष्मण को अपनी भुजाओं में कस लिया। वह उनसे कहने लगी, “आओ हम दोनों रमण करें। मेरा नाम अयोमुखी है। आज से तुम मेरे पति बन जाओ। हम दोनों पर्वत की दुर्गम गुफाओं में और नदियों के तट पर जीवन का आनंद लेंगे।” यह सुनकर लक्ष्मण क्रोध से भर गए। उन्होंने तलवार निकालकर उस राक्षसी के नाक, कान काट डाले। भयंकर चीत्कार करती हुई वह तेजी से वापस भाग गई।

वहाँ से आगे बढ़ने पर दोनों भाई एक और गहन वन में जा पहुँचे। तब सहसा लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा, “आर्य! मेरी बायीं भुजा जोर-जोर से फड़क रही है और मन उद्विग्न हो रहा है। मुझे बार-बार बुरे शकुन दिखाई दे रहे हैं, जो इस बात का संकेत दे रहे हैं कि तत्काल ही हम पर कोई संकट आने वाला है। अतः आप भी उसके लिए तैयार हो जाइये। लेकिन वंजुल नामक यह पक्षी भी जोर-जोर से बोल रहा है, जो इस बात का संकेत है कि इस युद्ध में हमारी ही विजय होगी।” ऐसी बातें करते हुए वे दोनों भाई सीता को खोज रहे थे कि सहसा तभी वन में बहुत तेज ध्वनि सुनाई पड़ी और बहुत तेज आँधी चलने लगी। पूरी वन उसकी चपेट में आ गया। दोनों भाई हाथ में तलवार लेकर उस ध्वनि का पता लगा ही रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि चौड़ी छाती वाले एक विशालकाय राक्षस पर पड़ी। वह देखने में बहुत बड़ा था, किन्तु उसका न सिर था, न गला। केवल कबन्ध (धड़) ही उसका स्वरूप था, इसलिए वह कबन्ध ही कहलाता था। उसके सारे शरीर में रोयें थे। उसका वर्ण बादलों जैसा काला था और वह मेघों जैसी ही गर्जना करता था। उसका मुँह पेट में ही बना हुआ था। उसका मस्तक छाती में था और उसी पर एक लंबी-चौड़ी व आग के समान दहकती हुई भूरी आँख बनी हुई थी। उसकी पलकें और दाँत भी बहुत बड़े-बड़े थे। अपनी लपलपाती हुई जीभ से वह बार-बार अपने विशाल मुँह को चाट रहा था। भयंकर रीछ, सिंह और हिंसक पशु-पक्षी ही उसका भोजन थे। अपनी एक-एक योजन लंबी भयानक भुजाओं को वह दूर तक फैला देता था और उन दोनों हाथों से विभिन्न पशु-पक्षियों के झुण्डों को खींचकर उन्हें खा जाता था।

जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे, तो अपनी दोनों भुजाएँ फैलाकर उसने उन्हें पकड़ लिया। तलवारें और धनुष-बाण होते हुए भी दोनों भाई उसकी पकड़ से छूट नहीं पा रहे थे। तभी अचानक वह राक्षस उनसे बोला, “मेरा भाग्य बहुत अच्छा है कि तुम दोनों स्वयं ही मेरे निकट आ गए। मैं बहुत भूखा हूँ, अतः अब तुम मेरा निवाला बनोगे। तुम दोनों का जीवित रहना अब कठिन है।” उस राक्षस की ये बातें सुनकर दोनों भाई बड़े व्याकुल हुए, पर अगले ही क्षण उन्होंने आपस में योजना बनाई और अपनी-अपनी तलवारें निकालकर एक ही झटके में उसके दोनों भुजाएँ काट डालीं क्योंकि उसकी सारी शक्ति उन भुजाओं में ही थी। इससे वह राक्षस तत्क्षण ही भूमि पर गिर पड़ा और कराहने लगा। तब उसने दीन-वाणी में पूछा, “वीरों! तुम दोनों कौन हो?” इस पर लक्ष्मण ने उसे श्रीराम का और अपना परिचय दिया तथा अपने वनवास का कारण व सीता के अपहरण की बात बताई। फिर उन्होंने उसका परिचय पूछा। तब उस राक्षस ने बताया कि “पूर्व-काल में मैंने अनेक ऋषियों को सताया था। फिर अपनी शक्ति के अहंकार के कारण मैंने देवराज इन्द्र पर भी आक्रमण कर दिया। तब उन्होंने सौ धारों वाले वज्र से मुझ पर प्रहार किया था, जिससे मेरी जाँघें और मेरा सिर मेरे शरीर में ही घुस गए किन्तु ब्रह्माजी ने मुझे दीर्घ-जीवन का वरदान दिया था, अतः मेरी मृत्यु नहीं हुई। तब मैंने इन्द्र से निवेदन किया कि ‘अब मैं आहार कैसे ग्रहण करूँगा?’ यह सुनकर उन्होंने मेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी कर दीं और मेरे पेट में ही तीखे दांतों वाला एक मुख बना दिया। उसी से मैं वन के सिंह, चीते, हिरण, बाघ आदि को समेटकर खाया करता था। इन्द्र ने मुझे यह भी बताया था कि जब राम-लक्ष्मण वन में आएँगे और तुम्हारी भुजाओं को काट देंगे, तब तुम स्वर्ग में जाओगे। इसी कारण मुझे विश्वास था कि एक दिन श्रीराम भी अवश्य मेरी पकड़ में आ जाएँगे। आज मुझे विश्वास हो गया कि उनकी बात सत्य थी। जब आप लोग मेरा दाह-संस्कार कर देंगे, तब मैं आप दोनों को एक मित्र का पता बताऊँगा, जो आपकी सहायता करेगा।”

यह सुनकर श्रीराम बोले, “कबन्ध! मेरी भार्या सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है। मैं उस राक्षस का केवल नाम ही जानता हूँ। वह कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, यह सब हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। तुम उस संबंध में हमारी कोई सहयता करो। सीता का पता हमें बताओ। फिर हम लोग सूखे काठ लाकर एक बहुत बड़े गड्ढे में तुम्हारे शरीर को रखकर जला देंगे। तब कबन्ध ने कहा, “श्रीराम! इस समय मेरे पास दिव्य-ज्ञान नहीं है, अतः मैं सीता के बारे में कुछ भी नहीं जानता, किन्तु जब मेरे इस शरीर का दाह हो जाएगा, तब मैं अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त कर लूँगा और आपको एक ऐसे व्यक्ति का पता बता सकूँगा, जो आपकी सहायता कर सकेगा। जब तक मैं अपने इस शरीर से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक मुझमें यह जानने की शक्ति नहीं आ सकती कि सीता का अपहरण करने वाला वह राक्षस कौन है। शाप के कारण इस समय मेरा वह ज्ञान नष्ट हो गया है। अतः सूर्यास्त से पूर्व ही आप मेरा दाह-संस्कार करके मुझे इस शरीर से मुक्त कर दीजिए।” यह सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ने लकड़ियों से चिता तैयार की और उसे चारों ओर से जला दिया। अत्यधिक चर्बी से भरा होने के कारण कबन्ध का विशाल शरीर घी के ढेर जैसा दिख रहा था। चिता की अग्नि में वह धीरे-धीरे जलने लगा। कुछ ही देर बाद चिता के भीतर से निर्मल वस्त्र और दिव्य हार पहना हुआ महाबली कबन्ध प्रकट हुआ और वेगपूर्वक चिता से ऊपर उठकर हंसों से जुते हुए एक विमान पर जा बैठा। वह बड़ा तेजस्वी दिखाई दे रहा था और उसके समस्त अंगों में दिव्य आभूषण जगमगा रहे थे। तब उसने श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! राजनीति में छह उपाय हैं, जिनसे राजा सब-कुछ प्राप्त करते हैं - संधि (सुलह/समझौता), विग्रह (कलह/विवाद), यान (कमजोर शत्रु पर आक्रमण), आसन (शांत रहकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करना), द्वैधीभाव (फूट डालना) और समाश्रय (अपने जैसे ही किसी राजा से सहायता लेना)। इस समय आप अपने राज्य से वंचित होकर भाई के साथ वन में भटक रहे हैं और आपकी पत्नी का भी अपहरण हो गया है। अतः आप भी समाश्रय की नीति को अपनाकर किसी ऐसे पुरुष को अपना मित्र बनाइये, जो आपके समान ही किसी सकंट में पड़ा हुआ हो। अन्यथा मुझे आपकी सफलता का कोई और उपाय नहीं दिखता।

मैं आपको एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताता हूँ। उनका नाम सुग्रीव है। वे सूर्य-देव के औरस पुत्र और ऋक्षराज के क्षेत्रज पुत्र हैं। वे वानर जाति के हैं। महापराक्रमी सुग्रीव तेजस्वी, विनयशील, धैर्यवान, बुद्धिमान, निर्भीक और बलशाली हैं। उनके भाई इन्द्रकुमार बाली ने कुपित होकर उन्हें घर से निकाल दिया है। अतः अब वे चार अन्य वानरों के साथ पंपा सरोवर के पास ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करते हैं।” इस समय सुग्रीव स्वयं भी अपने लिए सहायता ढूँढ रहे हैं और उनका कार्य सिद्ध करने में आप दोनों भाई समर्थ भी हैं। अतः आप उनसे मिलिए और अग्नि को साक्षी बनाकर उनसे मित्रता स्थापित कीजिए क्योंकि सीता का पता लगाने में वे आपकी सहायता कर सकते हैं। इस संसार में नरमांस भक्षी राक्षसों के जितने निवास स्थान हैं, उन सबको सुग्रीव पूर्णतया जानते हैं। वे अपने वानरों के साथ समस्त नदियों, पर्वतों, दुर्गम स्थानों और गुफा-कंदराओं में भी खोज कराकर सीता का पता लगा लेंगे। आपकी पत्नी चाहे मेरु पर्वत के शिखर पर हो या कहीं पाताल में छिपाकर रखी गई हो, वे कहीं से भी उसका पता लगाने में समर्थ हैं। फिर कबन्ध ने आगे कहा - श्रीराम! फूलों से भरे मनोरम वृक्षों वाला यह पश्चिम दिशा का मार्ग ही आपके लिए सुखद रहेगा। आगे आपको जामुन, प्रियाल (चिरौंजी), कटहल, बड़, पाकड़, तेंदू, पीपल, कनेर, आम, धव, नागकेसर, तिलक, नक्तमाल, नील, अशोक, कदंब, करवीर, भिलावा, अशोक, चन्दन तथा मन्दार के वृक्ष मिलेंगे। उनके फलों का आहार करते हुए आप आगे यात्रा कीजिएगा। उस वन को पार करने पर आप एक और मनोरम वन में पहुँचेंगे, जहाँ सभी ऋतुओं में वर्ष-भर फल लगते हैं। वहाँ के वृक्ष फलों के भार से झुके रहते हैं। इस प्रकार एक के बाद एक वनों व पर्वतों को पार करते हुए आप दोनों पम्पा नामक सरोवर के तट पर पहुँच जाएँगे। वहाँ कंकड़ों का नाम भी नहीं है और फिसलन भरा कीचड़ आदि भी नहीं है। उस घाट की भूमि चारों ओर से समतल है। उसके जल में सेवार (शैवाल / काई) बिल्कुल भी नहीं है। वहाँ की भूमि रेतीली है। कमल के फूल उस सरोवर की शोभा बढ़ाते हैं। हंस, क्रौंच (सारस), कारंडव (बत्तख?) आदि पक्षी वहाँ मधुर स्वर में कूजते रहते हैं। कई प्रकार की उत्तम मछलियाँ भी वहाँ हैं। आप उनका आहार करें और पंपा सरोवर के जल से अपनी प्यास बुझाएँ। वहीं सायंकाल आपको अनेक विशाल वानर भी दिखाई देंगे, जो पर्वतों की गुफाओं में ही रहते और सोते हैं। भीषण गर्जना करने वाले वे वनचर वानर जल पीने के लिए पंपा के तट पर आते हैं। उनका शरीर मोटा और रंग पीला होता है। उस सुन्दर परिवेश, रंग-बिरंगे फूलों, फलों, पशु-पक्षियों आदि को देखकर आपको बहुत प्रसन्नता होगी।

पंपा के पश्चिमी तट का जंगल मतंग वन कहलाता है। वहाँ पर आपको एक अनुपम आश्रम दिखाई देगा। बहुत समय पहले वहाँ मतंग ऋषि अपने शिष्यों के साथ निवास करते थे। वे सब ऋषि तो अब चले गए, किन्तु उनकी सेवा में रहने वाली शबरी नामक एक तपस्विनी आज भी वहीं निवास करती है। वह सदा धर्म का पालन करती है, पंपा सरोवर के पूर्वी भाग में ऋष्यमूक पर्वत है। उस पर चढ़ना बहुत कठिन है। अनेक हाथी वहाँ विचरते रहते हैं। उस पर्वत के ऊपर एक बहुत बड़ी गुफा है, जिसका द्वार पत्थर से ढका रहता है। उस गुफा में प्रवेश करना बड़ा कठिन है। उस गुफा के पूर्वी द्वार पर शीतल जल से भरा हुआ एक बहुत बड़ा कुण्ड है। उसके आस-पास अनेक फल-मूल सुलभता से उपलब्ध रहते हैं। उसी गुफा में सुग्रीव अपने साथी वानरों के साथ निवास करते हैं। वहीं जाकर आप उनसे मिलें और उनके साथ अवश्य ही मित्रता कर लें।

ऐसा कहकर कबन्ध उन दोनों से आज्ञा लेकर वहाँ से चला गया।

तब श्रीराम और लक्ष्मण ने भी आगे की यात्रा आरंभ की और पश्चिम दिशा की ओर कबन्ध के बताए हुए मार्ग पर बढ़े। रात में एक पर्वत के शिखर पर विश्राम करके अगले दिन वे दोनों भाई पंपा सरोवर के पश्चिमी तट पर पहुँच गए। वहाँ उन दोनों को शबरी का आश्रम दिखाई दिया। उस आश्रम में जाकर वे शबरी से मिले। मतंग ऋषि की शिष्या शबरी एक सिद्ध तपस्विनी थीं। दोनों भाइयों को देखकर शबरी ने उन्हें प्रणाम किया और विधिवत उनका स्वागत-सत्कार किया। श्रीराम ने भी शबरी का कुशल-क्षेम पूछा। तब वृद्ध शबरी माता ने उनसे कहा, “श्रीराम! आपका दर्शन पाकर आज मेरी तपस्या फलीभूत हो गई। मेरा जन्म आज सफल हो गया। मैंने अपने गुरुओं की जो सेवा की थी, वह भी आज सार्थक हो गई। जब चित्रकूट पर्वत पर आपका आगमन हुआ, उसी समय मेरे गुरुजन एक अतुल विमान पर बैठकर यहाँ से दिव्य लोक को चले गए। जाते समय उन्होंने कहा था कि ‘इस आश्रम में एक दिन श्रीराम और लक्ष्मण पधारेंगे। तू उनका यथावत सत्कार करना। उनके दर्शन करके तू भी अक्षय लोक में जाएगी। श्रीराम!!!पंपा के तट पर उगने वाले अनेक जंगली फल-मूल मैंने आपके लिए एकत्र किए हैं। कृपया आप उन्हें ग्रहण करें।” ऐसा कहकर तपस्विनी शबरी ने उन्हें वे फल अर्पित किए।
फिर श्रीराम ने उनसे कहा, “तपस्विनी! मैंने कबन्ध से आपके महान गुरुजनों के बारे में सुना था। मैं उनके बारे में और भी जानना चाहता हूँ।” तब शबरी ने उन्हें अपने गुरु के बारे में और विस्तार से बताया तथा मतंगवन का दर्शन कराया। उसके बाद शबरी उनसे बोली, “श्रीराम! अब मैं भी आपकी आज्ञा से उन्हीं महर्षियों के पास जाना चाहती हूँ।” तब श्रीराम ने ‘जैसी तुम्हारी इच्छा’ कहकर इसके लिए सहमति दी। सिर पर जटा और शरीर पर चीर व काला मृगचर्म धारण करने वाली तपस्विनी शबरी ने श्रीराम की आज्ञा मिल जाने पर अग्नि को प्रज्वलित किया और स्वयं को उसमें अर्पित कर दिया। इस प्रकार श्रीराम का दर्शन करके शबरी भी पुण्यलोक को चली गई।

शबरी के चले जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! चलो अब हम दोनों पंपा सरोवर के तट पर चलें। ऋष्यमूक पर्वत वहाँ से कुछ ही दूरी पर है। अपने चार वानरों के साथ सुग्रीव उसी पर्वत पर निवास करते हैं। अब मैं उनसे मिलने के लिए आतुर हूँ क्योंकि सीता को खोजने में वही हमारी सहायता कर सकते हैं।

आगे अगले भाग में…

यहाँ वाल्मीकि रामायण का अरण्यकाण्ड समाप्त हुआ। अब किष्किन्धाकाण्ड आरंभ होगा..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

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