रविवार, 13 सितंबर 2020

“डायरी के पन्नों से"


नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का पांचवा (Fifth) अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।


तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का पांचवा (Fifth) अंश

मैं उसका हूं वह इस अहसास से इनकार करता है,
भरी महफिल में भी रुसवां, मुझे हर बार करता है। 
यकीन है सारी दुनिया को खफा है मुझसे वह लेकिन, 
मुझे मालूम है फिर भी मुझी से प्यार करता है।।

आज के डायरी के पन्नों की शुरुआत हम विश्व विख्यात कवि आदरणीय श्री कुमार विश्वास जी के अंदाज में कर रहे हैं। ऐसा हम क्यों कर रहें आपको आगे स्पष्ट समझ में आ जाएगा तो चलिए "डायरी के पन्नों से" की हम शुरूआत करते हैं.....
         मेरे बहुत सारे शौकों में से एक शौक यह भी रहा है- किताबों के संग्रह रखने का। इसीलिए कला महाविद्यालय में आते ही मुझे कला से संबंधित जो भी किताबें अच्छी लगती थी याँ फिर यूं कह लीजिए कि आर्ट कॉलेज की सामग्री एवं किताब बेचने वाले दुकान में कला से संबंधित जो भी नई किताब आती उसे सबसे पहले मैं ही खरीदता था। मैंने तो यहां तक दुकानदार को कह दिया था कि जब भी कोई नई किताब आप लाए सबसे पहले मुझे सूचित करें और वो वैसा करते भी थे। इसीलिए आर्ट कॉलेज के फर्स्ट ईयर में ही मेरे पास कला से संबंधित बहुत सारी किताबों का संग्रह हो गया था। जैसे:- मेमोरी ड्रॉइंग, कला-सैद्धान्तिक, स्केचिंग, ह्यूमन एनाटोमी, भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास, कला इतिहास, इत्यादि। कला महाविद्यालय में लड़कों से ज्यादा लड़कियां ही उपस्थित रहती थी लेकिन मुझे महाविद्यालय में आए हुए 4-5 महीना से ऊपर हो चुका था और आज तक किसी लड़की से बात करना तो दूर उसे अपना नाम तक नहीं बताए थे एक दिन एक लड़की जिसका नाम- "मुझे लगता है कि नाम का जिक्र यहां करना उचित नहीं है तो फिर भी संबोधन के लिए मैं उसे जिस नाम से बुलाता था वही नाम मैं आप सभी को बताता हूं" ""पगली लड़की"" वो पगली लड़की आज भी मेरे फेसबुक के फ्रेंड लिस्ट में है और रहेगी भी। As a Friend.

उसने मेरे पास एक ह्यूमन स्केचिंग की किताब देखी और शायद उसे वह किताब अच्छी भी लगी। वह मेरे पास आई और बोली:- क्या नाम है तुम्हारा?
कला महाविद्यालय की वह पहली लड़की थी यानी मेरे वर्ग की जिसने मेरा नाम पूछा हो। इससे पहले किसी भी लड़की "यानी मेरे वर्ग की" ने मुझसे बात नहीं की थी और ना हीं मेरा नाम पूछा था। हां कुछ सीनियर लोगों से जरूर बात हुई थी उसमें कुछ लड़कियां भी थी लेकिन बस औपचारिक ही। 
मैंने उस पगली लड़की को अपना नाम बताया:- वि...विश्वजीत कुमार।
उसने कहा:-  ऐसा क्यों बोल रहे हो?  
इसका जवाब मैंने कुछ नहीं दिया।
तब फिर उसने कहा:- यह तुम्हारी किताब है?
मैंने कहा:- हां
वह बोली:-  मैं इसे लेकर जा रही हूं और कुछ दिनों के बाद वापस लौटा दूंगी।
मैंने फिर कोई जवाब नहीं दिया। और वह किताब लेकर चली गई।
पर वो कुछ दिन अभी तक नहीं आया और उसने मेरी किताब आज तक नहीं लौटाई हैं। शायद इस छोटी-सी वार्तालाप को वह उस किताब में कैद करके रखना चाहती हो। या फिर कोई और वजह हो यह तो मुझे ज्ञात नहीं लेकिन शायद यह घटना उसे अब याद नहीं लेकिन वह घटनाक्रम मुझे आज भी याद है ऐसे उस पगली लड़की का शैक्षणिक कार्यकाल मेरे समानांतर ही रहा।
        कला महाविद्यालय में दो साल प्रारंभिक कोर्स करने के उपरांत तीसरे साल में एक विशिष्ट विषय का चयन करना होता है और उसके साथ एक वांछित विषय को लेकर तीन साल की पढ़ाई पूरी करनी होती है। द्वितीय वर्ष की परीक्षा के उपरांत हर छात्र इस ऊहापोह में रहता है कि वह कौन से विशिष्ट विषय का चयन करें और कौन से वांछित विषय को ले। मैंने विशिष्ट विषय में व्यावहारिक कला (Applied Art) और वांछित विषय में छायांकन (PHOTOGRAPHY) का चयन किया। कला महाविद्यालय में अधिकतर लड़कियां जो है वह चित्रकला का ही चयन करती है क्योंकि उन्हें चित्र बनाने में ज्यादा रुचि रहती है और लड़के जो होते हैं वह मूर्तिकला का चयन करते हैं। अप्लाइड आर्ट और फोटोग्राफी में कंप्यूटर से संबंधित ज्यादा कार्य होने की वजह से एक चित्रकार या फिर कलाकार इसे कला की श्रेणी में नहीं रखते हैं उन्हें लगता है कि फोटो खींचने का काम तो कैमरा के द्वारा होता है और आकृतियों को बनाने का कार्य कंप्यूटर के द्वारा तो इसे हम कला की श्रेणी में क्यों रखें। शायद यही वजह है कि अधिकतर छात्रों का रुझान चित्रकला और मूर्तिकला की ओर ही रहता है। लेकिन समय के साथ-साथ यह मान्यताएं भी धीरे-धीरे धूमिल होती जा रही है। लेकिन मैंने जब 2012 में व्यवहारिक कला और छायांकन का चयन किया उस समय ऐसी स्थिति नहीं थी। मुझे तो आश्चर्य उस समय हुआ जब उस पगली लड़की ने फार्म को दिखाने के लिए मेरे पास लाया। एक बात मैं यहाँ कहना चाहूंगा वह कोई भी कार्य करती थी तो हमसे जरूर बात करती थी उसका कहना था कि मैं उसके लिए लकी (Lucky) हूं  मेरे सुझाव से किया गया कोई भी कार्य उसके लिए सफल जरूर होता है। जब मैं उसका फार्म चेक कर रहा था तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने भी व्यवहारिक कला और छायांकन का ही चयन किया है। मैं तो खुश हो गया 
फिर भी उससे बोला कि उसने यह विषय का चयन क्यों किया है उसे तो चित्रकला लेना चाहिए।
उसने कहा:- मैंने तुम्हारा फार्म पहले ही देख लिया है।
मैंने कहा कि:- अरे पागल!!! मुझे इस विषय में रुचि है इसलिए मैंने इसका चयन किया है तुम इसका चयन क्यों कर रही हो।
तब उसने कहा की मैं अकेली नहीं हूं मेरे साथ दो लड़कियां और है जो इस  विषय का चयन की है।
मुझे लगा कि जब इसने चयन कर ही लिया है तो समझाना व्यर्थ है और इस तरह व्यावहारिक कला और छायांकन में मेरे पूरे बैच में मात्र 3 लड़कियां ही रही। मूर्तिकला विभाग का चयन एक भी लड़की ने नहीं किया सारी लड़कियों ने चित्रकला विभाग का चयन किया था।
         कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना में 2010 से 2015 तक मैंने पढ़ाई की और अपना B.F.A. (Bachelor of Fine Art) का कोर्स पूरा किया। इन 5 सालों के दरम्यान बहुत-सी छोटी-मोटी घटनाएं होती रही जिसे मैं आगे आप सभी के बीच साझा करता रहूंगा। 2015 में जब हम कला महाविद्यालय से पास आउट हुए और काशी विद्यापीठ में नामांकन लेने गए तब उस पगली लड़की का भी नामांकन इत्तेफाक से उसी महाविद्यालय में हो गया और इस तरह उसने और दो साल मेरे साथ M.F.A.(Master of Fine Art) कोर्स पूरा किया। 2017 में कोर्स पूरा होने के उपरांत मैंने शेखपुरा के बरबीघा, ओनामा में स्थित साई कॉलेज ऑफ टीचर्स ट्रेनिंग, जो कि वर्तमान में मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर के अधीन स्वयं वित्त-पोषित B.Ed. कॉलेज है। वहां ज्वाइन कर लिया और वर्तमान में यही कार्यरत भी हूं। same the way (उसी तरह) उस पगली लड़की ने भी 2017 में झारखंड में एक B.Ed. कॉलेज ज्वाइन करने के लिए आवेदन किया उसमे भी ऑनलाइन फॉर्म भरने से लेकर सर्टिफिकेट पहुंचाने और साक्षात्कार कराने तक में मेरी भूमिका अग्रणी रही। जैसे वह कहती भी थी कि मैं उसके लिये लकी हूं और उस दिन भी लकी (Lucky) ही साबित हुआ और उसका उस कॉलेज में चयन हो गया। आज वह और मै सहायक प्राध्यापक (Assistant Professor) के पद पर कार्यरत हैं।
 वर्तमान में उसमें और मुझमे बस अंतर इतना ही है:- She's Married & I'm Single.


आज के डायरी के पन्नों का समापन मैं कुमार विश्वास की एक कविता के साथ कर रहा हूं। कविता का शीर्षक है:- 

पगली लड़की

मावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की काली रातों में गम आंसू के संग घुलता है,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब पोथे खाली होते है, जब हर्फ़ सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बे-मन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाने में घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।

दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की मेरी खातिर नौ दिन भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा,
सब कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


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