मुर्दहिया:- मुर्दहिया दलित साहित्यकार डॉ० तुलसीराम की आत्मकथा है जिसके माध्यम से लेखक ने कई वर्षों से दलित आत्मकथाओ में साहित्य जगत के बंधे-बताएं मानदंडों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़े उस सच्चे और कड़वे यथार्थ को सबके सामने उजागर करने का प्रयास किया है, जिसे उन्होंने स्वयं झेला था। डॉ० तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा को सात उप-शिर्षको के माध्यम से अपने जीवन के एक-एक पड़ाव को पाठकों के सामने रखा है। तुलसीराम की यह आत्मकथा दलित समाज को और उस समय की परंपरा को प्रकट करती है। उन्होंने अपने प्रथम खंड भूतही पारिवारिक पृष्ठभूमि के माध्यम से यह दिखाया है कि किस प्रकार समाज में भूत-प्रेत और अंधविश्वास का कड़ा मायाजाल समाज में एक न ठीक होने वाले रोग की तरफ फैला हुआ था और ऐसे ही समय में इसी दलित समाज में उनका जन्म हुआ। कहते हैं कि व्यक्ति जिस परिवेश में पला-बढ़ा होता है उसका असर उस पर अवश्य दिखाई देता है। फिर उस उपर्युक्त कहे हुए मूर्खताजन्य और अंधविश्वास से तुलसीराम कैसे अछूते रह सकते थे। उन्होंने अपने इस प्रथम खंड में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि दलित और सवर्ण के भगवान अलग-अलग होते हैं और उनकी पूजा-अर्चना, प्रसाद और हर विधि अलग-अलग होते हैं। वे देवी देवता के साथ-साथ भूतों को भी बहुत मानते हैं और डर से वशीभूत होकर जाने-अनजाने अपना और अपनों की क्षति कर डालते हैं। उन्हें इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित। जिसके चलते तुलसीराम को चेचक जैसी भयानक बीमारी से अपनी एक आंख गंवानी पड़ती है। जिसके चलते समाज उन्हें अपशगुन (Bad omen) मानने लगा। तुलसीराम ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश "मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन" में शिक्षा के लिए किया जा रहा उनका संघर्ष और उसके गांव से थोड़ी दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त (उत्कृष्ट) रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि मुर्दहिया के तीसरे अंश "अकाल में विश्वास" के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत किया है।
तुलसीराम ने मुर्दहिया आत्मकथा की भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि यह सही मायनों कि हमारी दलित बस्ती की जिंदगी थी। इसी जिंदगी को आत्मकथा के माध्यम से मैंने बाहर निकाला हैं। उन्होंने बड़े विस्मयकारी ढंग से अपनी स्कूली शिक्षा के बारे में बताया है कि कि किस प्रकार ब्राह्मणों द्वारा किसी की आई चिट्ठी को पढ़ने के दौरान कैसे अपमानजनक बातें उन्हें सुनने को मिलती थी। जिससे उद्गार घर वालों ने उनका नाम प्राइमरी विद्यालय में लिखवाया था ताकि कम-से-कम किसी की चिट्ठी-पत्री को पढ़ने के लिए ब्राह्मणों की गाली-गलौज का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। यही से प्रारंभ होती है तुलसीराम की कष्टकारी शिक्षा यात्रा।
तुलसीराम के गांव के ब्राह्मणों का मानना था कि निम्न जाति के लोग यदि ज्यादा पढ़-लिख ले तो वह पागल हो जाते हैं। यह सब सुनने के बाद तुलसी के घर वाले उनको पढ़ाई से मना भी करने लगे ऐसी परिस्थितियां भी तुलसी के जीवन में बाधा बनी रही। दसवीं की परीक्षा में परीक्षा फार्म भरने के लिए ₹30 की जरूरत थी और उनके घर से भी सहायता बंद कर दी गई थी। उस समय उनके स्कूल के हिंदी के अध्यापक श्री सुग्रीव सिंह ने ₹30 फार्म भरने के लिए दिये। एक ऐसा समय जहां जाती-पाती, ऊंच-नीच का भेदभाव पूरे समाज में फैला हुआ था और ऐसे समय में सुग्रीम सिंह का दलित बालक तुलसी को पैसे से मदद कर उसे ज्ञान के क्षेत्र में आगे भेजने की सोच बहुत ही सम्मानीय है। सुग्रीव जैसे मुर्दहिया के पात्र उस समय के भारतीय समाज में मौजूद थे जो शिक्षा के क्षेत्र में जाति-पाति का भेदभाव नहीं रखते थे और ना ही समाज में। तुलसी का दसवीं की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास होना पूरे धरमपुर के लिए चौंकाने वाला था। पूरे गांव के मुख से यही आवाज निकल रही थी "चमरा टॉप कर गईल" तुलसी का परिणाम इसलिए और चौंकाने वाला था क्योंकि इससे पहले उस गांव में कोई भी छात्र प्रथम श्रेणी से उत्तीण नहीं हुआ था। आगे की पढ़ाई के लिए सुग्रीम सिंह ने तुलसी को प्रोत्साहित किया और आर्थिक मदद भी की। भारतीय समाज में आज भी ऐसे लोग हैं जो जाति से उच्चा शिक्षा को मानते हैं। अगर किसी को आगे बढ़ने की इच्छा हो तो चाहे वह ठाकुर हो या दलित उसकी सहायता अवश्य करते हैं। सुग्रीम सिंह जैसे इंसानों को ही हमारे भारतीय समाज को जरूरत है।
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