रविवार, 30 अगस्त 2020

“डायरी के पन्नों से”


              नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का चौथा अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।

तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का चौथा अंश

         हम पिछले रविवार को "डायरी के पन्नों से" में बात किए थे पटना में आने और रूम की व्यवस्था करने के संबंध में। आगे की कहानी अब हम अपने कॉलेज से शुरू करते हैं। प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद एवं नामांकन के पाश्चात मै उस दिन प्रथम बार महाविद्यालय में प्रवेश किया। मेरे हाथ में एक कॉपी और एक स्केच बुक था। चूंकि मैं लगभग 2 महीने विलम्ब से कॉलेज गया था इसी वजह से महाविद्यालय में जो रैंगिग होता था वह लगभग कम हो चुका था फिर भी थोड़ा बहुत चल रहा था। महाविद्यालय परिसर में मुझे ज्ञात नहीं था कि फर्स्ट इयर (1st Year) का क्लास कहां चलता है इसीलिए वहां कार्यरत एक कर्मचारी से अपने क्लास के बारे में पूछा और सीधे अपने क्लास में चला गया। क्लास में 30 से 40 विद्यार्थी थे और एक महाविद्यालय के ही सीनियर छात्र उन्हें कुछ बता रहे थे। उनका नाम पुरुषोत्तम था जो कि मुझे बाद में ज्ञात हुआ। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और बोले कि:-
 कहां आए हो? 
तुम्हें पता नहीं महाविद्यालय के क्लास में कैसे प्रवेश करना है? 
मैंने कहा- नहीं। 
तब उन्होंने कहा- जाओ बाहर गेट पर जाओ और वहां से फिर अनुमती लो अंदर प्रवेश करने के लिए। मैंने वैसा ही किया गेट के पास गया और बोला कि- 
क्या मैं अंदर आ सकता हूं? 
तब वह बोले कि ठीक है। आओ। जैसे ही मैं अंदर प्रवेश किया उनका पहला प्रश्न था। 
अच्छा यह बताओ अपने महाविद्यालय का नाम क्या है? 
मैंने कहा- कला एवं शिल्प महाविद्यालय और अंग्रेजी में Arts & Crafts College 
वह दो-तीन बार मुझसे यही प्रश्न पूछते रहें और बार-बार बोलते कि सही बोल रहे हो। 
मैंने कहा- हाँ सही बोल रहा हूं। 
तब वह फिर बोले ठीक है। जाओ!!! महाविद्यालय के मुख्य प्रवेश द्वार पर महाविद्यालय का नाम लिखा हुआ है उसे देख कर आओ। 
मैं क्लास से बाहर निकला और सोचने लगा की नाम तो मैं सही ही बता रहा था लेकिन फिर भी वह क्यों कह रहे हैं कि गलत है। क्योंकि मुझे अच्छी तरह से याद हैं कि मेरे महाविद्यालय का नाम कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना है और इसी को मैंने अंग्रेजी भी कर दिया- Arts & Crafts College मैं महाविद्यालय के मुख्य प्रवेश द्वार के पास जा ही रहा था कि अचानक से मेरी नजर महाविद्यालय के सूचनापट्ट पर पड़ी। जो कि मेरे क्लास के बगल में स्थित तक्षशिला आर्ट गैलरी के पास लगा हुआ था जहां पर महाविद्यालय का नाम हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखा हुआ था। हिंदी नाम पढ़ते ही बहुत खुशी हुई जो मैं नाम बता रहा था वही नाम महाविद्यालय का है। कला एवं शिल्प महाविद्यालय। फिर मुझे लगा कि भैया क्यों बोल रहे थे कि गलत है। कहीं उनको भी नाम तो नहीं पता। फिर मैंने अंग्रेजी नाम देखा तो लगा कि गलती कहां हुई थी क्योंकि महाविद्यालय का नाम अंग्रेजी में College of Arts & Crafts है। मैंने तुरंत उस नाम को याद किया और वापस क्लास रूम की तरफ बढ़ चला। कक्षा-कक्ष के द्वार पर पहुंचते ही सबसे पहले मैंने फिर से अंदर आने की अनुमति मांगी क्योंकि कुछ देर पहले इसी के लिए डांट सुन चुका था। मुझे देखते ही वह बोले- 
अरे!!! इतनी जल्दी आ गया, गया नहीं था क्या? 
मैंने कहां- भैया मैं नाम देख कर आ गया। 
तब वह बोले कि ठीक है बताओ। 
मैंने बताया- College of Arts & Crafts, Patna. और हिंदी में कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना।  
अंग्रेजी नाम पहले इसलिए बताया क्योंकि तुरंत याद कर के गया था। अगर कहीं कोई कमी रह जाती तो फिर से वह मुझे दोबारा भेजते। उन्हें इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि मैं इतनी जल्दी मुख्य प्रवेश द्वार से नाम याद करके कैसे आ गया। अंत में वह मुझसे पूछ भी दिए कि तुम इतनी जल्दी गेट से कैसे वापस आ गए मैंने कहां- मैं तो मुख्य प्रवेश द्वार के पास गया ही नहीं था।


         अब तो उनका चौंकना लाजिमी था। वह बोले कि- 
मैंने तुम्हें बोला था कि महाविद्यालय के मुख्य प्रवेश द्वार पर जाकर के नाम देख कर के आना है। तुम किसी से पूछ लिया क्या? 
और फिर उन्होंने क्लास की तरह मुख करते हुए सभी विद्यार्थियों से पूछे कि इसे महाविद्यालय का नाम किसने बता दिया? अब उसको सजा मिलेगी, जो बताया होगा। 
पूरा क्लास मुझे देखने लगा क्योंकि उस दिन मेरा पहला दिन था और ना ही मैं किसी को पहचानता था और ना ही कोई मुझे। लेकिन इस घटना से एक फायदा भी यह हुआ कि उस दिन सभी मुझे पहचान गए क्योंकि मैं वर्ग में प्रवेश करते ही सभी को असहज जो कर दिया था। सभी एक दूसरे को देख रहे थे कि इसे तो कोई पहचानता तो है नहीं फिर बताया कौन होगा?  फिर मैंने सभी की शंका का निवारण किया और बताया कि-
 नहीं, मैंने किसी से पूछा और ना ही, मुझे किसी ने बताया और यह बात भी सत्य है कि मैं महाविद्यालय के प्रवेश द्वार पर भी नहीं गया था।
मैंने महाविद्यालय में निर्मित तक्षशिला आर्ट गैलरी के बगल में लगे सूचनापट्ट पर कॉलेज के नाम को देखा और वहीं से पुनः वापस आ गया क्योंकि तक्षशिला आर्ट गैलरी मेरे वर्ग के ठीक बगल में था और उसमें समय-समय पर उसमें चित्रकला एवं अन्य कलाओं की प्रदर्शनी लगती थी मैंने सभी से कहा कि- मैंने महाविद्यालय का नाम वहीं से देखा है। तब पुरुषोत्तम भैया बोले कि- 
ठीक है, जाओ। अपनी सीट पर बैठो।
और इस तरह कला महाविद्यालय में मेरे पहले दिन की शुरुआत हुई। मैं बाकी महाविद्यालय की तरफ सोच रहा था कि अब क्लास शुरू होगा, प्रोफेसर आएंगे और हमें पेंटिंग सिखाएंगे, मैं उन्हें बनाऊंगा। ऐसे ही तमाम तरह के सवाल मेरे मन में घूम रहे थे और मैं क्लास रूम से कहीं दूर चला गया। कला की हसीन दुनियां में। इस दरम्यान मेरे वर्ग में क्या-क्या घटनाएं घटित हो रही थी मैं उससे एकदम अंजान रहा। ऐसे भी महाविद्यालय में क्लासेस 2 महीने पहले से ही शुरू हो चुका था और लगभग सभी छात्र महाविद्यालय के नियम कानून को भी समझ चुके थे केवल मैं ही था जो इन सभी नियमों से अंजान था। तभी अचानक से मेरे बगल में खड़े छात्र ने मुझसे बोला- 
अरे!!! तुम अपनी सीट पर बैठे हुए हो जल्दी खड़े हो जाओ। 
मैंने अपने आसपास देखा तो पाया कि सभी छात्र एवं छात्राएं अपनी-अपनी सीटों के पास खड़े हैं मैंने सोचा कि इन्हें अचानक से क्या हो गया। मेरे साथ के लड़के ने फिर मुझसे बोला- 
अरे मैंने बोला ना खड़े हो जाओ वर्ग में सीनियर भैया लोग आए हुए हैं।
 मैं अपनी सीट के पास जैसे ही खड़ा हुआ एक भैया की नजर मेरे उपर पर गई और वह मुझे लगभग डांटते हुए बोले कि- 
तुम्हें महाविद्यालय का नियम नहीं पता है!!! सीनियरों का इज्जत करना तुम्हें नहीं आता है!!!  तुम आना बुड्ढा गार्डन।😠 
मैंने कहां- ठीक है भैया मैं आ जाऊंगा। 
मेरे इतना बोलते ही मेरे सभी साथी मेरे तरफ ऐसे देखने लगे कि मैंने क्या गलत बोल दिया। मेरे साथ का लड़का बोला- 
अरे तुमने यह क्या बोल दिया। मैंने कहा कि क्या बोला- उन्होंने कहा कि बुद्धा गार्डन आना। मैंने कहा- ठीक है आ जाऊंगा।
        तभी मेरे वर्ग की एक लड़की जिसका नाम अनीमा था और वह मेरे वर्ग की मॉनिटर भी थी उसने बोली- भैया यह नया लड़का है। आज महाविद्यालय में पहली बार आया है। इसको पता नहीं था, इसे माफ कर दीजिए। वह बोलें की ठीक है। इसको बता देना और फिर सभी को बैठने के लिए कहें। उसके बाद उन्होंने कहा आज हम Human Live Sketch बनाना सीखेंगे और वह मेरे वर्ग के एक लड़के को बुलाए और सामने बैठा दिया हम सबको बोले तुम सभी इसको बनाओ। सभी ने बनाना शुरू किया लगभग 30 मिनट तक हम सभी ने sketch किया और उसके बाद वह सभी के स्केच बुक देखें एवं जहां जो कमी थी उसको बताएं। मैं सोच रहा था कि कैसा कॉलेज है? यहां कोई शिक्षक पढ़ाने आते ही नहीं है क्या? केवल सीनियर ही आ रहे हैं। उनके जाते ही सभी विद्यार्थी मेरे पास आए और महाविद्यालय में सीनियरो के द्वारा जारी सभी नियमों से मुझे अवगत कराएं जो निम्न हैं- 
पहला नियम यह था कि महाविद्यालय में प्रवेश करते ही कहीं भी कोई सीनियर दिखे तो उन्हें नमस्ते भैया एवं नमस्ते दीदी बोलना है और महाविद्यालय में हमेशा शांत, सौम्य बन कर रहना है। यह सब बातें चल ही रही थी कि एक लड़का हमलोगों के रूम में आया उन्हें देखते ही सभी खड़े हो गए और नमस्ते भैया, गुड मॉर्निंग भैया सभी कहने लगे। हम समझ गए थे कि यह भी कोई सीनियर भैया ही हैं। उन्होंने आते ही कहां- सभी फर्स्ट ईयर (1st Year) को बुद्धा गार्डन में आना है। सभी विद्यार्थी डरते-डरते बुड्ढा गार्डन की ओर चल दिये। सिर्फ एक ही विद्यार्थी उन सभी में खुश था और वह था- मैं। क्योंकि मुझे बुद्धा गार्डन के बारे में ज्ञात नहीं था मैं तो बस यह सोचकर हर्षित हो रहा था कि वहां बुद्धा गार्डन मतलब वहां पर भगवान बुद्ध की बहुत सारी प्रतिमाएं होगी। और मेरा अनुमान बिल्कुल सही था वहां पर चारों तरफ भगवान बुद्ध की बहुत सारी प्रतिमाओं का अंकन हुआ था और गार्डन के बीच में भगवान बुध्द का शीश जो कि सोई हुई मुद्रा में बनी थी उसे एक चबूतरे के ऊपर  रखा गया था उसके चारों तरफ रिलीफ वर्क में जातक कथाओं का अंकन भी किया गया था वहीं पर सभी सीनियर छात्र एवं छात्राएं यानी की भैया एवं दीदी बैठे हुए थे।


          
        
         हम सभी ने उन लोगों को नमस्ते किया। चूंकि वर्ग में बुद्धा गार्डन की शुरुआत हमसे ही हुई थी, इसीलिए वहां भी सबसे पहले मुझे ही आगे बुलाया गया और शुरुआत भी मुझसे ही हुई और मुझे ज्ञात भी हो गया कि सभी विद्यार्थी बुद्धा गार्डन आने से क्यों डरते थे। उसके बाद फिर से कुछ नियम बताया गया जैसे:- महाविद्यालय में आते वक्त फॉर्मल ड्रेस में आना है। पैरों में जूता होना ही चाहिए और महाविद्यालय द्वारा प्रदत आई कार्ड (परिचय-पत्र) सभी के गले में होना चाहिए। क्योंकि उस दिन समय अधिक हो गया था इसलिए पुनः सभी को नमस्ते एवं गुड इवनिंग बोल कर हम सभी वहाँ से अपने क्लास में आ गए इस तरह कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में मेरे पहले दिन की शुरुआत हुई। मुझे पटना आर्ट कॉलेज से बेली रोड होते हुए अपने रूम जाना होता था और शाम के समय में बेली रोड में जाम की समस्या कुछ ज्यादा ही रहती थी क्योंकि फ्लाईओवर उस समय  बेली रोड में बन  रहा था। इसी वजह से मुझे रूम पहुंचते-पहुंचते 1 से 2 घंटे लग जाते थे और रूम जाकर खाना भी बनाना रहता था जिस वजह से मुझे पढ़ाई एवं स्केच का समय बिल्कुल भी नहीं मिल पाता था। सुबह में महाविद्यालय के लिए मैं रूम से 9:00 बजे निकलता और शाम में 5:00 बजे महाविद्यालय से रूम के लिए। रूम पर पहुंचते-पहुंचते मुझे 7:00 से 8:00 बज जाते थे। और यह दिनचर्या जब तक मैं बेली रोड में रहा तब तक चलती रही।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

भारतीय चित्रकला (Indian Painting)


भारतीय चित्रकला, भाग -01. B.Ed.1st Year. EPC-2 Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=-z9voxc4ZCo

भारतीय चित्रकला, भाग-02 EPC-2, Unit-2. B.Ed.1st Year. Munger University, Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=G04WVBQQSYg&list=PL9TVIXFOxWRqATIFwPJ605KEpILBq13Pk&index=81

        सौंदर्य को व्यक्त करने के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग मानव पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता चला आया है और इस माध्यम में कला एक सर्वश्रेष्ठ माध्यम है। कला की प्रस्तुतिकरण के क्षेत्र में भारत अत्यंत समृद्ध एवं वैभवशाली रहा है।
       भारत कला संस्कृति की दृष्टि से न केवल राष्ट्रीय अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष छवि बनाए हुए हैं। देश को विरासत में मिली साहित्यिक, पुरातात्विक, लोक संस्कृति एवं कलाओं को अधिक प्रभावी एवं सामान्य जन तक पहुंचाने तथा उन्हें जीवंत बनाए रखने की स्वतंत्रता को बरकरार रखने में कला एवं संस्कृति विभाग का भी बहुत बड़ा योगदान है।
भारतीय चित्रकला की विशेषताएं: 
       यह सर्वविदित है कि भारतीय चित्रकला अन्य देशों की कलाओं से भिन्न है और भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं जो अन्य देशों की कला से इसे अलग कर देती है। ये विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
  • धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता:-  विश्व की सभी कलाओं का जन्म धर्म के साथ ही हुआ है। कला के उद्भव में धर्म का बहुत बड़ा योगदान है। धर्म ने ही कला के माध्यम से अपनी धार्मिक मान्यताओं को जन-जन तक पहुंचाया है। भारतीय कला का स्वरूप भी मुख्यत: धर्म प्रधान ही है।
  • अंत: प्रकृति से अंकन:- भारतीय चित्रकला में मनुष्य के स्वभाव या अंतः करण को गहराई तथा पूर्णता से दिखाने का महत्व हैं। अजंता की चित्रावलियों में जंगल, पर्वत, प्रकृति, सरोवर, रंगमहल तथा कथा के पात्र सभी को एक साथ एक ही दृश्य में दिखाया गया है। इसी प्रकार अजंता की गुफाओं में पद्मपाणि के चित्र में कुछ ही रेखाओं के द्वारा गौतम बुद्ध के विचार मुद्रा का जो अंकन हुआ है, वह दर्शनीय हैं।
  • कल्पना (Imagination):-  कल्पना, भारतीय चित्रकला की प्रमुख विशेषता हैं। वह उसके आधार पर ही पली-बढ़ी। अतः उसमें आदर्शवादीता का उचित स्थान है। ऐसे भी भारतीय कलाकारों का मन यर्थाथ की अपेक्षा कल्पना में अधिक रमा । कल्पना का सर्वश्रेष्ठ रूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में दिखाई देती है। उदाहरण स्वरूप:-  बुद्ध की जन्म जन्मांतर की कथाएं कल्पना प्रस्तुत ही तो है।
  • प्रतीकात्मकता (Symbolic)  भारतीय कला की एक विशेषता उसकी प्रतीकात्मकता में निहित हैं। प्रतीक कला की भाषा होती है। सांकेतिक एवं कलात्मक दोनों प्रतीकों का सर्वाधिक महत्व है।
  • आदर्शवादीता (Idealism):-  भारतीय चित्रकार यथार्थ की अपेक्षा आदर्श में ही विचरण करते हैं। वह संसार में जैसा देखते हैं वैसा चित्रण न करके जैसा होना चाहिए वैसा चित्रण करते हैं।
Eg.- एक महान राजा को कलाकार आदर्श राजा के रूप में ही चित्रित करते हैं ठीक उसी प्रकार भगवान बुद्ध ज्ञान देने वाले के रूप में आदर्श बन गए हैं।
  • मुद्राएं, हाव-भाव (Expression):- भारतीय चित्रकला, मूर्तिकला एवं नृत्य कला में मुद्राओं को अत्यधिक महत्व दिया गया है। आकृति की रचना कलाकार ने यथार्थ की अपेक्षा भाव अथवा गुण के आधार पर ही की है। 
               भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अभिनय प्रकरण में अंगों तथा उपांगो के अलग-अलग प्रयोगों द्वारा अनेक मुद्राओं का अवतरण किया गया है।
उदाहरण स्वरुप:-  ध्यान, विचार, संकेत, उपदेश, क्रोध, प्रेम, इत्यादि। मानवीय भावों को बड़ी ही स्वाभाविक रूप में दर्शाया गया है। अजंता चित्र शैली में दर्शित आकृतियां अपनी भावपूर्ण नृत्य मुद्राओं के कारण संसार भर में प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार मुगल, राजपूत शैलियों में भी बहुत ही सुंदर भावरूप का समावेश हुआ है।
  • रेखा तथा रंग (Line and Colour):- भारतीय चित्रकला रेखा प्रधान हैं। उसमें गति है। रेखाओं द्वारा वाह्य सौंदर्य के साथ-साथ गंभीर भाव भी कलाकारो ने चित्रों में बड़ी ही कुशलता से दर्शाए हैं। आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया गया है।
  • अलंकारिकता (Ornamentation):-  भारतीय कला में अलंकरण का अत्यधिक महत्व है क्योंकि भारतीय कलाकारों ने सत्यम शिवम के साथ सुंदरम  की भी कल्पना की है और इसीलिए सुंदर तथा आदर्श रूप के लिए वह अलंकरणो का अपनी चित्र रचना में प्रयोग करता है।
जैसे:-  मुगलकालीन चित्र शैलियों में हाशियों में फूल-पत्तियों, पशु-पक्षियों का अलंकरण देखने को मिलता है। इसके अलावा अजंता की गुफाओं में अलंकृत चित्रावालिया मिलती है जिसमें छतो में अलंकरण प्रमुख है।
  • कलाकारों के नाम (Artist Name):-  प्राचीन काल के कलाकारों ने अपनी कृतियों में नाम अंकित नहीं किए हैं। किंतु राजस्थानी चित्र शैली में कहीं-कहीं कलाकार द्वारा चित्रित चित्र पर कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिलता है। मुगल शैली में तो चित्रों में कलाकार के नाम के साथ साथ-साथ चित्र में रंग किसने भरे हैं? रेखांकन किसने किया है? इत्यादि। तक लिखे हुए मिलते हैं।
  • साहित्य पर आधारित (Based on Literature):- भारतीय चित्रकला साहित्य पर भी आश्रित रही। चित्रकारों ने काव्य में वर्णित साहित्य/कथा के अनुरूप ही चित्रों का निर्माण किया।
  • सामान्य पात्र (Common Character):- भारतीय कला में सामान्य पात्र विधान परंपरागत रूप में विकसित हुआ है जबकि पाश्चात्य कला में व्यक्ति विशिष्ट का महत्व है।

बुधवार, 26 अगस्त 2020

आधुनिक कला शैली {Modern Art}


आधुनिक कला शैली B.Ed.1st Year. EPC-2 Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=d3UzasnWncI

   पुराने या आज-कल से पहले की शैलियों की पुनरावृति से भिन्न, विशेष पद्धति द्वारा बनाई गई कला शैली आधुनिक कला शैली कहलाती है। अभी की आधुनिक शैली भविष्य में एक शैली बन जाएगी और उस समय की विशिष्ट पद्धति आधुनिक कला शैली के नाम से पुकारी जाएगी। अजंता की कला शैली उसके निर्माण काल में आधुनिक कला शैली के रूप में ही थी। परंतु आज वह हमारे सामने अजंता शैली के नाम से विख्यात है।

      घटनाओं के तंतुजाल (Plexus) को कथावस्तु कहते हैं। (घटित घटनाओं का नाटकीय रूप में अंकन कथा कहलाता है) कथावस्तु या कथानक कहानी का मुख्य ढांचा होता है पहले की कला का आधार कहानी ही होता था परन्तु आजकल की कला का संबंध आंतरिक भावों की सूक्ष्म अभिव्यंजना अधिक होती है। आधुनिक कला को देखकर कभी कभी कुछ लोगों को कुछ समझ में नहीं आता हैं। इसका कारण स्पष्ट है कि व्यक्ति कलाकार के मन के भावों को समझ नहीं पा रहा होता है लेकिन जैसे ही कोई दर्शक चित्रकार के मनोभाव को समझते हुए चित्र देखना शुरु करता है उसकी सारी भ्रांतियां दूर हो जाती है और वह चित्र में छुपे हुए रहस्य को समझ सकता है।

भारत में आधुनिक कला की शुरुआत

        विशुद्ध भारतीय जीवन-दर्शन को साकार करने का सर्वप्रथम प्रयाश बंगाल स्कूल के चित्रकार अवनींद्र नाथ ठाकुर के द्वारा किया गया। अवनींद्र नाथ ठाकुर ने भारतीय कला क्षेत्र में नवीन विचारधारा को जन्म दिया। उन्होंने कहा है कि एक भारतीय कलाकार को पाश्चात्य कला की मृगतृष्णा एवं अंधानुकरण के पीछे दौड़ना निरर्थक है। अपनी परंपरागत कला अजंता, एलोरा, राजपूत, मुगल तथा पहाड़ी लघु चित्र शैली को आदर्श मानकर एवं उनका अध्ययन करके समकालीन विषयों का चित्रण करना चाहिए। जिससे उनकी कला में स्वाभाविकता के साथ भारतीय जीवन दर्शन की सत्य अनुभूति प्रकट हो सकती है। हॉवेल के विचारों से प्रेरणा पाकर अवनीन्द्रनाथ ने परंपरागत नियमों, रेखाओं की लयात्मकता, रंगों की मोहकता तथा उनकी विभिन्न शैलियों की प्रमुख विशेषताओं का गहन अध्ययन किया। 1902 ई० में जापानी कलाकार हिसिदा ताइकान कलकता आये। इन्हीं की प्रेरणा से अवनींद्र नाथ  ने चीन एवं जापानी आधार की Wash(प्रक्षालन)/धोना पद्धति की कोमल रंग संगती को अपनाया। भारतीय एवं जापानी शैलियों के सम्मिश्रण से एक नवीन कला शैली विकसित हुई जिसे हम "बंगाल शैली" या "पुनरुत्थान शैली" या फिर "आधुनिक कला शैली" कहते हैं।

B.Ed. 1st Year (2019-21) Exam Date Announced. Tilka Manjhi Bhagalpur University (T.M.B.U)

 


B.Ed. 1st Year (2019-21) Exam Date Announced. Tilka Manjhi Bhagalpur University (T.M.B.U) Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=yTeeU6rsW6c&t=28s



 Exam Date Reschedule.......

B.Ed. 1st Year (2019-21) Exam Date Reschedule. Tilka Manjhi Bhagalpur University (T.M.B.U) Video Link:-  https://www.youtube.com/watch?v=opV1bPnQJAw&t=34s






B.Ed.2nd Year (2018-20) Exam Date Announced. Tilka Manjhi Bhagalpur University (T.M.B.U)






B.Ed.2nd Year (2018-20) Exam Date Announced. Tilka Manjhi Bhagalpur University (T.M.B.U) Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=a_o2FyT15KQ&t=222s
 

सोमवार, 24 अगस्त 2020

चित्र संयोजन के सिद्धांत (Principles of picture combination)

 

चित्र संयोजन के सिद्धांत, भाग -1 B.Ed.1st Year. EPC-2 Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=9MByTSuicxk&t=2s

चित्र संयोजन के सिद्धांत, भाग - 2. B.Ed.1st Year. EPC-2 Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=s_tq7mBmVfc&t=450s

          जब एक कलाकार चित्र के तत्व रेखा, रूप, रंग, तान, पोत एवं अंतराल को सुनियोजित एवं कलात्मक रूप में प्रयोग करके अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति चित्र रूप में करता है तो वह संयोजन कहलाता है। 

चित्र संयोजन के छह (06) सिद्धांत होते हैं-

  1. सहयोग (collaborate)
  2. सामंजस्य (consistence)
  3. संतुलन (Balance)
  4. प्रभाविता (Effectiveness)
  5. लय (Rhythm)
  6. परिप्रेक्ष्य (Perspective)
  1. सहयोग (collaborate):-  सहयोग का अर्थ होता है कि चित्र संयोजन के विभिन्न तत्वों में एकता, समानता तथा एक प्रकार का संबंध जो समस्त संयोजन को एकता के सूत्र में बांधे रखता है, सहयोग कहलाता है। सहयोग का तात्पर्य चित्र में आकर्षण को बिखराव से बचाना है। चाहे वह कोई कल्पना चित्र हो अथवा व्यक्ति चित्र। नवीन आकार अथवा उचित रंग संयोजन के द्वारा चित्र को प्रभावी बनाया जा सकता है।
  2. सामंजस्य (consistence):- सामंजस्य कला सृजन का वह सिद्धांत है जिसके माध्यम से चित्र के सभी तत्व:-  रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत एवं अंतराल को एक दूसरे के साथ प्रतीत हो तथा चित्र में निरर्थक विकर्षण तत्व न आने पाए।
  3. संतुलन (Balance):- संतुलन एक ऐसा सिद्धांत है जिसके माध्यम से चित्र के विरोधी तत्वों को व्यवस्थित किया जाता है। संतुलन के अंतर्गत चित्र में रेखा, रूप, वर्ण, इत्यादि। सभी को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है कि कोई भी तत्व अनावश्यक भारयुक्त प्रतीत ना हो। यदि ऐसा हुआ तो चित्र असंतुलित हो जाएगा।
उदाहरण,  यदि कलाकार चित्र के एक भाग में कुछ रुपाकृतियां अंकित करता है और अंतराल का दूसरा भाग रिक्त छोड़ देता है तो यह गलत होगा क्योंकि इससे अंतराल के उस भाग का भार बहुत बढ़ जाएगा जिसमें रूपों की रचना हुई है और इसके विपरीत अंतराल का रिक्त भाग शून्य  लगेगा। अतः इसे सही करने के लिए अंतराल के रिक्त भाग में भी कुछ रूपो का निर्माण करना चाहिए तभी चित्र संतुलित प्रतीत होगा।

      4. प्रभाविता (Effectiveness):- आनंद की सक्रिय अनुभूति की उपलब्धि के निर्मित सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु को केन्द्र मानकर उसके चारों ओर कम महत्त्व की वस्तुओं को रखना चाहिए। जिस वस्तु पर हम सर्वाधिक बल देना चाहते हैं उसे केंद्रस्थ मानकर उसके चारों ओर अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण तथा कम आकर्षक की वस्तुयें लगानी चाहिए तभी सर्वाधिक सजे हुए बिंदु की ओर ध्यान आकर्षित होगा। 
         कला में भी प्रभावित का सिद्धान्त प्रयुक्त होता है। सजावट में पूर्ण सफलता को पाने तथा उसे प्रभावशाली बनाने के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता हैं:-
  • किस वस्तु पर प्रभाविता दी जाए:-  सर्वप्रथम कलाकार को अपने मस्तिष्क में निश्चय कर लेना चाहिए कि वह जिस कलाकृति का निर्माण कर रहा हैं, उसमें किस आकृति को सबसे पहले दर्शक को दिखाना चाह रहा है।
  • वस्तु पर किस प्रकार प्रभावित दी जाए:-  इसके लिए निम्नलिखित नियम है:- 
  1. वस्तुओं को समूहबद्ध करके 
  2. विपरीत रंग योजना का प्रयोग करके 
  3. सजावट का प्रयोग करके 
  4. वस्तुओं के चारों ओर रिक्त स्थान छोड़ करके
  • वस्तुओ पर कितनी प्रभाविता दी जाए:-  जिस वस्तु पर हम प्रभाविता देना चाहते हैं उसे ही आकर्षक बनाने के प्रयत्न करने चाहिए। उदाहरण के लिए फूलदान में पुष्पों का संयोजन यदि करना हो तो हमे सादा फूलदान प्रयोग करना चाहिए।
  • वस्तुओं में प्रभावित कहां दी जाए:-  इस नियम के अंतगर्त यह देखा जाता है कि हम कोई भी कलाकृति का निर्माण धरातल के किस भाग में करते हैं। यदि समतल स्थान पर कोई वस्तु को सजानी है तो उसे मध्य में सजाना चाहिए।
       5. लय (Rhythm):- लय या प्रवाह का अर्थ चित्रभूमि पर स्वतंत्र एवं मधुर विचरण गति होता हैं। अक्षत धरातल में कोई गति नहीं होती परंतु जैसे ही इसमें कोई बिंदु प्रकट होता हैं तनाव उत्पन्न हो जाता है क्योंकि हमारी दृष्टि बिंदु पर जम जाती है। बिंदुओ की संख्या बढ़ाने से दृष्टि एक बिंदु से दुसरे दिन बिंदु तक विचरण करती हैं और गति का अनुमान होता है।

For Example, 
                        प्रेरक प्रसंग        
                                                                     !! जीवन का सच !!
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           एक दिन एक प्रोफ़ेसर अपनी क्लास में आते ही बोले, “चलिए, Surprise Test के लिए तैयार हो जाइये। सभी स्टूडेंट्स घबरा गए…कुछ किताबों के पन्ने पलटने लगे तो कुछ सर के दिए नोट्स जल्दी-जल्दी पढने लगे। “ये सब कुछ काम नहीं आएगा….”, प्रोफेसर मुस्कुराते हुए बोले, “ मैं Question Paper आप सबके सामने रख रहा हूँ, जब सारे पेपर बँट जायें तभी आप उसे पलट कर देखिएगा।” पेपर बाँट दिए गए। “ठीक है! अब आप पेपर देख सकते हैं!”, प्रोफेसर ने निर्देश दिया। अगले ही क्षण सभी Question Paper को निहार रहे थे, पर ये क्या इसमें तो कोई प्रश्न ही नहीं था!
                 था तो सिर्फ वाइट पेपर पर एक ब्लैक स्पॉट! ये क्या सर, इसमें तो कोई Question ही नहीं है?, एक छात्र खड़ा होकर बोला। प्रोफ़ेसर बोले, “जो कुछ भी है आपके सामने है, आपको बस इसी को एक्सप्लेन करना है… और इस काम के लिए आपके पास सिर्फ 10 मिनट हैं…चलिए शुरू हो जाइए…”स्टूडेंट्स के पास कोई चारा नहीं था…वे अपने-अपने Answers लिखने लगे। समय ख़त्म हुआ, प्रोफेसर ने Answer Sheets Collect कीं और बारी-बारी से उन्हें पढने लगे। लगभग सभी ने ब्लैक स्पॉट को अपनी-अपनी तरह से समझाने की कोशिश की थी लेकिन किसी ने भी उस स्पॉट के चारों ओर मौजूद White Space के बारे में बात नहीं की थी। 

प्रोफ़ेसर गंभीर होते हुए बोले, “इस टेस्ट का आपके Academics से कोई लेना-देना नहीं है और न ही मैं इसके कोई मार्क्स देने वाला हूँ…. इस टेस्ट के पीछे मेरा एक ही मकसद है….मैं आपको जीवन का सच बताना चाहता हूँ…देखिये…इस पूरे पेपर का 99% हिस्सा सफ़ेद है, लेकिन आप में से किसी ने भी इसके बारे में नहीं लिखा और अपना 100% Answer सिर्फ उस एक चीज को Explain करने में लगा दिया जो मात्र 1% है और यही बात हमारे Life में भी देखने को मिलती है ।

शिक्षा:-
समस्याएँ, हमारे जीवन का एक छोटा सा हिस्सा होती हैं, लेकिन हम अपना पूरा ध्यान इन्ही पर लगा देते हैं…कोई दिन रात अपने Looks को लेकर परेशान रहता है तो कोई अपने करियर को लेकर चिंता में डूबा रहता है तो कोई और बस पैसों का रोना रोता रहता है। क्यों नहीं हम अपनी Blessings को Count करके खुश होते हैं… क्यों नहीं हम पेट भर खाने के लिए भगवान को थैंक्स कहते हैं…क्यों नहीं हम अपनी प्यारी सी फॅमिली के लिए शुक्रगुजार होते है।

क्यों नहीं हम लाइफ की उन 99% चीजों की तरफ ध्यान देते हैं, जो सचमुच हमारे जीवन को अच्छा बनाती हैं। तो चलिए आज से हम Life की Problems को ज़रुरत से ज्यादा Seriously लेना छोडें और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को Enjoy करना सीखें यही जीवन का सच है….तभी हम ज़िन्दगी को सही मायने में जी पायेंगे….।
 
      5. परिप्रेक्ष्य (Perspective):- परिपेक्ष्य का अर्थ होता है द्वि-आयामी (2D) चित्र तल पर वस्तुओं को  त्रि-आयामी (3D) दिखाना। द्वि-आयामी चित्रतल में गहराई का आभास और आकृतियों में घनत्व तथा क्रमिक लघुता उत्पन्न करने की विधि को परिपेक्ष्य कहते हैं। 

परिपेक्ष्य को दो भागों में विभक्त किया गया हैं:-  
  • रेखीय परिपेक्ष्य 
  • वातावरणीय परिपेक्ष्य 
  • रेखीय परिपेक्ष्य:-  रेखीय परिपेक्ष्य के आवश्यक अंग निम्नवत हैं:- 
  1. चित्र तल 
  2. स्थिर बिंदु 
  3. दृष्टि बिंदु 
  4. दृष्टि पथ
  5. अदृश्य बिंदु 
  6. क्षितिज रेखा
त्रि-आयामी आकृतियों की रचना में प्रायः उपरीयुक्त सभी नियमो का प्रयोग किया जाता हैं।
  • वातावरणीय परिपेक्ष्य:- हमारे आंखों के सामने दिखाई देने वाले दृश्य पर वायुमंडल काफी प्रभाव पड़ता है। वायुमंडल में धूल आदि के कण होने के कारण दूर की वस्तुओं के रंग धुंधले भी हो जाते हैं और उनके रंग भी परिवर्तित हो जाते हैं। जैसे:-  शीतल वातावरण में प्रत्येक वस्तु दूर जाकर नीले रंग से प्रभावित हो जाती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु में दूर की वस्तुओं का रंग मटमैला प्रतीत होता है। तेज वर्षा में दूर की गहराई अथवा अंतराल धूमिल श्वेत हो जाते हैं। यह प्रभाव पेंसिल चित्र तथा एकरंगे एवं बहुरंगे सभी चित्रों में दिखाया जा सकता है। वातावरण का प्रभाव वस्तुओं के रंगों पर भी दिखाई पड़ता है।

रविवार, 23 अगस्त 2020

टिकुली कला

 


टिकुली कला बिहार की एक प्राचीन कलाओं में से एक है। यह कला बिहार की एक अनोखी कला है जिसका एक बहुत समृद्ध और गहरा पारंपरिक इतिहास है। टिकुली शब्द बिंदी का स्थानीय शब्द है जो आमतौर पर एक उज्जवल रंगीन बिंदु (Dot) है जो महिलाओं को अपने माथे पर दोनों आंखों के बीच लगानी होती है।

 इतिहास:-  टिकुली कला आज से लगभग 800 साल पहले पटना में उत्पन्न हुई थी। यह अनोखी कला अपनी खूबसूरती के लिए बहुत जल्दी ही प्रसिद्धि को प्राप्त कर ली और पूरे देश के व्यापारियों को  थोक में खरीदने के लिए पटना जाने के लिए विवश करने में कामयाब रही। टिकुली कला पटना शहर के स्थानीय गली-सड़कों पर ही निर्मित होती थी। उस समय पटना क्रय-विक्रय का एक समृद्ध केंद्र था। इसी कारण टिकुली कला को बहुत जल्द ही प्रसिद्धि मिल गई। मुगलों को भी इस कला में दिलचस्पी थी इस कारण टिकुली कला को सक्रिय राजनीति संरक्षण प्राप्त हुआ और इसके प्रचार में सहायता मिली। मुगल साम्राज्य का पतन और ब्रिटिश राज के आगमन से टिकुली कला को गंभीर झटका लगा। ब्रिटिश सरकार ने औद्योगिकीकरण (Industrialization "इंडस्ट्रीलाइजेशन") की शुरुआत की और कई स्वदेशी सामान मशीन के द्वारा बनाई जाने लगी। टिकुली कला भी उनमें से एक थी हजारों टिकुली कलाकारों को बेरोजगार (Unemployed) करके छोड़ दिया गया क्योंकि मशीनों के द्वारा निर्मित बिंदिया बाजार में आ गई और इन बिंदियों की चमक में टिकुली कला कहीं खो गई।

पुनरुत्थान (Resurgence "रिसजर्नस") पुन:जीवन:- टिकुली कला के पुनरुत्थान के लिए हम जिन कलाकार के योगदान को कभी नहीं भुला सकते हैं उनका नाम है उपेंद्र महारथी। 
       इन्होंने इस मरणशील कला को पुन:र्जीवित करने की प्रथम पहल की। जापान में अपनी यात्रा के दौरान इनको टिकुली कला को हार्ड बोर्ड पर चित्रित करने का विचार (Idea) मिला। जिससे रंगीन रूप में हार्डबोर्ड पर पारंपरिक शैली के साथ बनाया जाने लगा और बहुत जल्द ही Commercial ( वाणिज्यक) व्यवसाय के लिए इसे बेचा भी जाने लगा। धीरे-धीरे इस कला को बिहार के बहुत से कलाकारों और शिल्पकारों ने भी अपना लिया।

टिकुली कला को बनाने की विधि:- टिकुली कलाकार टिकुली चित्र बनाने के लिए हार्डबोर्ड का प्रयोग करते हैं। सबसे पहले हार्ड बोर्ड को विभिन्न आकारों में काट लिया जाता है। जैसे:-  चौकोर, आयताकार, त्रिकोण, गोलाकार, इत्यादी। उसके बाद एनामेल (Enamel) रंग से चार से पांच बार उस हार्ड बोर्ड को रंगा जाता है। एनामेल का रंग हमेशा काला (Black) ही रखा जाता है उसके बाद उसके सतह को सेंडपेपर (Sand Paper) से घिसा जाता है जिससे  उसकी सतह पॉलिश की तरह चमकने लगती है उसके बाद इस सतह पर चित्रकारी का कार्य किया जाता है।

Note:- टिकुली कला अपने चित्रों में मधुबनी रूपांकनो का उपयोग करती हैं।

टिकुली कला के विषय:-  टिकुली कला को सांस्कृतिक महत्व के उत्पाद के रूप में निर्यात हेतु अधिक लोकप्रिय माना जाता है। उत्पादों का प्रमुख उद्देश्य पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति को प्रदर्शित करना होता है। इस कला के ज्यादातर विषय बिहार के त्यौहार, भारतीय शादी-विवाह के दृश्य और कृष्ण-लीला प्रमुख हैं।

उच्च शिक्षा संस्थान में अपनाई जाने वाली शिक्षण विधियां

      


उच्च शिक्षा संस्थान में अपनाई जाने वाली शिक्षण विधियां (Teaching Aptitude) Part-1 Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=zh5Y3gort60&t=368s

        जिस तरीके से शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करते है, उसे शिक्षण विधि कहते हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में निम्नलिखित चार विधियों का उपयोग शिक्षण के लिए किया जाता है जो निम्नलिखित हैं : 

  • शिक्षक केंद्रित विधि (Teacher Centered Method) 
  • विद्यार्थी केंद्रित विधि ( Student Centered Method ) 
  • ऑनलाइन विधि (Online Method)
  • ऑफलाइन विधि  (offline Method )    

 शिक्षक केंद्रित विधि (Teacher Centered Method) 

• इसमें शिक्षक मुख्य होते हैं विद्यार्थी गौण होते है।

 • यह वर्णनात्मक (Descriptive) प्रकार की होती है। 

 • इसमें केवल मौखिक संप्रेषण होता है। 

• इसमें औपचारिकता की मात्रा अधिक होती है।

 • इसमें विद्यार्थी केवल निष्क्रिय श्रोता होते हैं। 

• शिक्षक सक्रिय रहता है इसमें विद्यार्थी के विचार, सृजनात्मकता आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता हैं। 

• इसमें केवल स्मृति स्तर व पुनः स्मरण पर ध्यान देते हुए विद्यार्थियों को ज्ञानात्मक स्तर का ज्ञान ही दिया जाता है।

शिक्षक केंद्रित विधि में निम्नलिखित विधियों को सम्मिलित किए जाते हैं :

  •  व्याख्यान विधि (Lecture Method)
  •  प्रदर्शन विधि (Demonstration Method)
  • पाठ्यपुस्तक विधि (Textbook Method)
  •  ऐतिहासिक विधि (Historical Method ) 
व्याख्यान विधि (Lecture Method) 

           जब शिक्षक विषय वस्तु की सुव्यवस्थित व क्रमबद्ध प्रस्तुति छात्रों के समक्ष मौखिक रूप से रखता है तो छात्र उसे सुनकर बिना किसी तर्क के स्वीकार कर लेते हैं।  इस विधि को व्याख्यान विधि (Lecture Method) कहा जाता है। व्याख्यान विधि प्राचीन भारतीय पद्धति है। इस विधि से प्राचीन काल में गुरु अपने शिष्यों को आश्रम में रखकर उच्च शिक्षा प्रदान किया करते थे। इस विधि में शिक्षक यह मानकर चलता है कि विद्यार्थी को सिखाई जा रही विषय वस्तु को विद्यार्थी समझने की योग्यता रखता है। 

इस विधि के गुण

  • यह उच्च कक्षाओं के लिए उपयोगी है। 
  • यह समय परिश्रम व धन की दृष्टि से कम खर्चीला है। 
  • इसके द्वारा एक समय में विद्यार्थियों के बड़े समूह को शिक्षण दिया जा सकता है।
  • यह विद्यार्थी में तर्क शक्ति का विकास करता है।
इस विधि के दोष  
  • निम्न कक्षाओं के लिए अनुपयोगी। 
  • इसमे अध्येता निष्क्रिय श्रोता बने रहते है तथा यह विधि कर के सीखने के सिद्धांत की अवहेलना करता है। 
  • इसमे अधिक समय तक ध्यान केंद्रित करना पड़ता है किसी भी चीजों को समझने के लिए, जो सभी विद्याथी के लिए संभव नहीं होता है। 
  • इसमे सैद्धांतिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता है व्यवहारिक ज्ञान पर नहीं।
 प्रदर्शन विधि (Demonstration Method)

 इस विधि में शिक्षक द्वारा पदाए जा रहे तथ्यों और सिद्धांतों को समझाने के लिए विभिन्न क्रियात्मक गतिविधिया या  दृश्यात्मक चित्र प्रस्तुत किया जाता है। अर्थात जिस तथ्य पर व्याख्यान दिया जा रहा है उससे संबंधित चित्र या डायग्राम विद्यार्थियों को दिखाया जाता है और फिर व्याख्यान दिया जाता है। 

 इस विधि के गुण
  • यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित होता है। 
  • क्रिया आधारित विधि। (Action based method)
  • कठिन तथ्यों को समझाने में आसानी। 
  • प्रत्येक स्तर पर उपयोगी 
  • कम खचीला विधि
  •  समय की बचत
इस विधि के दोष  
  • "करके सीखने" (Learn by doing) के सिद्धांत की अवहेलना।
  • विद्यार्थी केवल रुचिकर प्रदर्शन में ही सक्रिय रहते हैं। 
  • इसमें शिक्षक ही सभी कार्य करते हैं अतः यह शिक्षक केंद्रित विधि है। 
  • इसमें व्यक्तिगत भिन्नता के सिद्धांत (Principle of individual variation) की अवहेलना की जाती है यहां सभी स्तर के विद्यार्थी एक गति से विकास करते हैं। 
  • प्रदर्शन से पूर्व तैयारी ना होने से या उपकरण खराब हो जाने से शिक्षण कार्य प्रभावित होता है। 
पाठ्यपुस्तक विधि ( Textbook Method )

         यह सबसे सरल विधि है इसमें शिक्षक व विद्यार्थी दोनों का ही परिश्रम कम हो जाता है तथा कक्षा में सभी स्तर के विद्यार्थियों को एक साथ पढ़ाया जाता है इस विधि में शिक्षण कार्य पाठ्य पुस्तकों के सहायता से की जाती है। 

पाठ्यपुस्तक विधि के गुण 
  • विद्यार्थी में स्वाध्याय (Self-study) का विकास होता है। 
  • समय, श्रम व धन (Time, labor and money) की बचत होती है। 
  • विद्यार्थियों की स्मरण शक्ति का विकास होता है तथा वे सक्रिय रहते हैं।
इस विधि के दोष  
  • यह मनोवैज्ञानिक व वैज्ञानिक (Psychologist and Scientist) दोनों के दृष्टिकोण से उचित नहीं मानी जाती हैं। 
  • विद्यार्थी में रटने की प्रवृति पनपती है। 
  • व्यक्तिगत भिन्नता (Individual variation) के सिद्धांत की अवहेलना होती है सभी विद्यार्थी एक ही पाठ्य पुस्तक का अध्ययन करते हैं। 
  • पाठ्यपुस्तक एक उद्देश्य प्राप्ति का साधन (Resources) होता है लेकिन इस विधि में शिक्षक उसे साध्य (Practicable) मान लेते हैं। 
  • इस विधि में केवल सैद्धांतिक ज्ञान दिया जाता है व्यवहारिक और प्रयोगात्मक नहीं। 
ऐतिहासिक विधि (Historical Method)

           इस विधि में प्रत्येक विषय वस्तु में कुछ ना कुछ ऐतिहासिक तथ्य जुड़े रहते हैं जिससे प्रभावी शिक्षण के लिए इस विधि का उपयोग किया जाता है यह शिक्षण का एक प्रभावी एवं मनोरंजक तरीका है जो छात्र को सदैव पसंद आता है। 
        साधारण भाषा में अगर कहा जाए तो इस विधि में शिक्षक तथ्यों को समझाने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं को बताता है और उसे उस तथ्य से उसे जोड़कर समझाते हैं जिससे विद्यार्थियों को आसानी से तथ्य समझ में आ जाता है वो भी रोचकता के साथ।

विद्यार्थी केंद्रित विधि (Student Centred Method)

        बाल केदित विधि में शिक्षक द्वारा विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण पद्धति अपनाया जाता है इस विधि में विद्यार्थियों को मुख्य माना जाता है वहीं शिक्षक गोण। 

विद्यार्थी केंद्रित विधि की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:-

  • इसमें बालक को शिक्षण का केंद्र माना जाता  हैं।
  • इसमें बालक की आवश्यकता, रुचि, स्तर, सृजनात्मकता आदि का ध्यान रखा जाता हैं
  •  इसमें बालकों को सक्रिय रखा जाता है तथा उसे स्वतंत्र पूर्वक सीखने दिया जाता है। 
  • इसमें शिक्षक की भूमिका अधिगम परिस्थिति को उत्पन्न करने वाले तथा मार्गदर्शक (Guide) की होती है। 
  • करके सीखने (Learn by doing) के सिद्धांत पर यह समस्त विधियां आधारित होती हैं। 
बाल केंद्रित विधि में निमलिखित विधियों को शामिल किया जाता है: - 
  • हयूरिस्टिक विधि (Heuristic Method)
  • प्रोजेक्ट विधि (Project Method) 
  • प्रश्न उत्तर/प्रश्नोत्तर विधि (Question Answer Method) 
  • अधिन्यास विधि (Assignment Method) 
  • समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method)
  • खेल विधि (Game Method )  
  • प्रयोगशाला विधि (Laboratory Method)
  • आगमन निगमन विधि ( Inductive & Deductive Method 
हयूरिस्टिक विधि/अन्वेषण विधि (Heuristic Method)

Heuristic शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द हयूरिसको से हुई है जिसका अर्थ होता है "खोज करना"/"मैं खोज करता हूँ "। इस विधि के जन्मदाता आर्म स्ट्रांग है। इस विधि में अध्यापक विद्यार्थियों के सामने कोई समस्या प्रस्तुत करता है और छात्रों को प्रेरित करता है कि वे इस समस्या का ठीक तरीके से विश्लेषण करके स्वयं के प्रयल से समाधान ढूंढे। छात्रों को समस्या के सभी पहलू पर खुलकर विचार विमर्श करने का अवसर प्रदान किया जाता है तथा समस्या का हल खोजने हेतु पूरी तरह कार्य और विचार संबंधित स्वतंत्रता प्रदान की जाती है छात्रों को जहां परामर्श और निर्देशन की आवश्यकता होती है वहां उचित सहायता प्रदान की जाती है।

हयूरिस्टिक विधि/अन्वेषण विधि के गुण 


हयूरिस्टिक विधि/अन्वेषण  विधि के दोष  


 प्रोजेक्ट विधि (Project Method) 

       इस विधि में विद्यार्थी किसी समस्या के समाधान के लिए किसी उचित प्रोजेक्ट को अपने हाथ में लेते हैं तथा योजनाबद्ध तरीके से कार्य करके उसे पूरा करने का प्रयत्न करते हैं प्रोजेक्ट पर कार्य करते समय विभिन्न विषयों के जिन तथ्यों और सिद्धांतों और व्यवहारों का ज्ञान की जहां-जहां आवश्यकता होती है वह ज्ञान उसी समय विद्यार्थी को शिक्षक के द्वारा दिया जाता हैं।
प्रोजेक्ट विधि के निम्नलिखित चरण है : - 
  • परिस्थिति उत्पन्न करना। 
  • प्रोजेक्ट का चुनाव और उसके उद्देश्य को स्पष्ट करना। 
  • कार्यक्रम बनाना।
  • योजना अनुसार कार्य करना। 
  • कार्य का मूल्यांकन करना। 
  • सारे कार्यों का लेखा-जोखा रखना।
प्रश्नोत्तर विधि (Question Answer Method)

         इस विधि में विद्यार्थी के द्वारा शिक्षक को और शिक्षक के द्वारा विद्यार्थी को प्रश्न पूछना होता है और दोनों एक दूसरे को उस प्रश्न का उत्तर देते हैं। एक अध्यापक को इस विधि का प्रयोग करने के लिए निम्नलिखित बातों में दक्ष होना आवश्यक है:-
  • विद्यार्थी से भलीभांति प्रश्न पूछना। 
  • पूछे हुए प्रश्न के विद्यार्थी को उचित जवाब देना। 
  • विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करना। 
  • विद्यार्थी के द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों का संतोषजनक जवाब देना। 
अर्थात,  इस विधि में शिक्षक के द्वारा पढ़ाए गए पाठ में से सवाल पूछे जाते हैं और उसका उत्तर विद्यार्थी देते हैं अगर उत्तर गलत हो तो शिक्षक द्वारा उसे सही किया जाता है वहीं अगर विद्यार्थियों के पास कोई संशय हो तो वह शिक्षक से पूछ सकते हैं और उसका जवाब शिक्षक देते हैं।

अधिन्यास विधि (Assignment Method)

           इस विधि में विद्यार्थियों को या विद्यार्थियों के समूह को कुछ विशेष प्रकार के कार्य का उत्तरदायित्व दिए जाते हैं जिसे एक निर्धारित समय अवधि में पूरा करना होता है। जो विशेष कार्य दिए जाते हैं वह उसके पाठ्यक्रम या शिक्षण अधिगम से संबंधित बातों का सैद्धांतिक या क्रियात्मक और व्यवहारत्मक ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से दिया जाता हैं।

आगमन एवं निगमन विधि (Inductive &  Deductive Method) 

आगमन विधि- इस विधि में विद्यार्थी को विविध उदाहरण का अवलोकन करते हुए स्वयं निष्कर्ष निकालकर सामान्य नियम का निर्माण करना होता है। 
जैसे:- हम किसी भी वस्तु को देखते हैं तो नीचे की और गिरता है इससे हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है जिससे सभी वस्तु को वह अपनी ओर खींचती है। यहां पर हम लोग विशिष्ट से सामान्य की और चलते हैं। 
निगमन विधि- यह आगमन विधि के विपरीत होती है इस विधि में विद्यार्थी के समक्ष सर्वप्रथम नियम बताया जाता है तथा उसके पक्षात नियम की सत्यता की जांच के लिए उदाहरणों द्वारा पुष्टि की जाती है।

ऑफलाइन विधि/ऑनलाइन विधि (Online Method/Offline Method

वर्तमान समय में शिक्षा की दो प्रणालियां प्रचलित है:- जिसमें ऑफलाइन प्रणाली परंपरागत शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत आते हैं जहाँ कक्षा कार्यक्रम, कोचिंग, सेमिनार इत्यादि के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। 
वही गैर परंपरागत शिक्षा प्रणाली में ऑनलाइन प्रणाली को शामिल किया जाता है। ऑनलाइन प्रणाली में इंटरनेट आधारित विभिन्न प्रकार की सेवाएं को शामित की जाती है जिसमें सोशल मीडिया साइट की सेवा में सबसे ज्यादा विकसित माना जाता है पहले शिक्षा का माध्यम सिर्फ ऑफलाइन हुआ करता था लेकिन सूचना एवं तकनीकी के विकास के साथ अब इसमें ऑनलाइन पद्धति को भी शामिल कर लिया गया है ऑनलाइन शिक्षा पद्धति के विकास में सबसे बड़ी भूमिका इंटरनेट का रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में जब से इंटरनेट का उपयोग आरंभ हुआ तब से ज्ञान एवं कौशल में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई है आज छात्रों एवं अन्य सभी अधिगमकर्ताओं के सामने या विकल्प उपलब्ध होता है कि वह ऑफलाइन बनाम ऑनलाइन पद्धति में से किसी भी पद्धति से शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। 

ऑनलाइन पद्धति के स्रोत : (Sources) 
इंटरनेट (Internet) 
ई-मेल (E-mail)
व्हाट्सएप (WhatsApp)
एसएमएस (SMS) 
एप्स (Apps)


“डायरी के पन्नों से”

             नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का तीसरा अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।

तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का तीसरा अंश 

         कला एवं शिल्प महाविद्यालय में प्रवेश परीक्षा देने के उपरांत मेरा नामांकन हो गया। महाविद्यालय के प्रांगण में ही बॉयज हॉस्टल था। मैंने इच्छा जताई हॉस्टल में रहने के लिए, लेकिन चिंटू भैया जिनके चलते मेरा आर्ट कॉलेज में नामांकन हुआ था उन्होंने मना कर दिया


क्योंकि उस समय महाविद्यालय परिसर एवं हॉस्टल में रैंगिग बहुत चलता था और यदि जूनियर स्टूडेंट्स हॉस्टल चला गया तो उसकी खैर नहीं। इसके साथ-ही-साथ उन्होंने हॉस्टल की और भी खामियां बताई। जिसे मैं यहां प्रस्तुत नहीं कर सकता क्योंकि मेरे अधिकतर पाठक आर्ट कॉलेज एवं आर्ट कॉलेज की दुनिया से वाकिफ नहीं है। फिर भी मैं इतना जरूर कहूंगा। Do Sketch Without clothes. ऐसी गतिविधियां हॉस्टल में हमेशा चलती रहती। जिस वजह से मैंने हॉस्टल में रहने का निर्णय त्याग दिया और उन्हीं को कॉलेज के आस-पास रूम ढूंढ कर मुझे कॉल करने के लिए कह  मैं अपने घर चला गया।


        नामांकन के बाद लगभग 1 महीने बीत गए लेकिन ना तो उनका कोई कॉल आया और ना ही कोई सूचना। बीच-बीच में मैं फोन करता तो वो कहते कि- आरे...यार....!!! तुम पहले आओ ना.... उसके बाद ना रूम देखेंगे। उनको लग रहा था कि मैं पहले पटना आऊं और मैं सोच रहा था कि पहले रुम की व्यवस्था हो जाए उसके बाद मैं पटना जाऊं। और इसी तरह इंतजार में 1 महीने से अधिक का समय हो गया पापा ने कई लोगों से बात की लेकिन रूम की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। आखिरकार एक रास्ता दिखा मेरे मां के मामा के लड़के की पत्नी का कोई रिश्तेदार पटना के जगदेव पथ के पास रहता था। उनका नाम प्रदीप था और वह उस समय आर०पी०एस० कॉलेज से इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहे थे। वर्तमान में Er. Pradip Kumar के नाम से फेसबुक पर पहचाने जाते हैं। उनसे बात हुई और मैं पापा के साथ पटना गया।
       मीठापुर बस स्टैंड से ऑटो से हम लोग पटना के बेली रोड में स्थित जगदेव पथ पहुंचे और फिर उन्हें कॉल किया। जगदेव पथ से 3-4 किलोमीटर और अंदर उनका रूम था। हम लोग वहां गए। पापा ने मुझे उनके रूम पर पहुंचा कर पुनः वापस घर लौट गए और उन्हें  मेरे लिए रूम ढूंढ कर मुझे वहां शिफ्ट करने के लिए भी कह गए। प्रदीप के रूम से मेरे कॉलेज की दूरी लगभग 10-11 किलोमीटर थी। मुझे प्रत्येक दिन ऑटो के लिए 2 किलोमीटर पैदल भी चलना पड़ता था उसके बाद मैं ऑटो से अपने आर्ट कॉलेज जाता था। 2-4 दिन मैं उनके यहां से ही कॉलेज गया उसके बाद उनके ही किसी रिश्तेदार में किसी लड़के को पटना शिफ्ट होना था उनका नाम सुमित था। उन्होंने हम दोनों के लिए एक रूम ढूंढ दिया। 2010 में पटना के जगदेव पथ के पास वाले इलाके में जिसे नहर बोला जाता था वहाँ पर 1000/-₹  में हम लोगों को रूम मिला। दो रूम एक ही में था जिसे एक को हम लोगों ने कैंटीन और दूसरे को स्टडी रूम बना लिया। बाथरूम चार-पांच रूम पर दो था और स्नान करने के लिए बाहर ही खुला जगह था जहाँ बर्तन धोना एवं स्नान करना दोनों कार्य एक जगह पर सम्पन्न होते थे। ऐसे मैं  पटना में पहली बार आया था और सुमित भी। 
      आज के समय में यदि किसी के पास दो मोबाइल नम्बर हो तो उसे दूसरा नंबर याद नही रहता लेकिन जैसे ही मैं रूम पर गया तो सबसे पहले सुमित ने मेरा मोबाइल नंबर याद किया और मुझे भी वह अपना मोबाइल नंबर याद कराया जो कि मुझे आज भी याद है- 977****621. जब मैंने इस का वजह जानने का प्रयास किया तब उसने कहां कि मान लीजिए कभी ऐसी परिस्थिति आ जाए की आप का मोबाइल चार्ज ना हो या फिर कही खो जाएं तो कम-से-कम रूम पार्टनर से किसी और के मोबाइल से आप बात तो सकते है। कभी कोई समस्या ना हो इसलिए नंबर याद रखना बहुत जरूरी है। मुझे उसकी यह सोच बहुत अच्छी लगी। उस दिन के बाद आज तक मेरे जितने भी करीबी हैं लगभग सभी का मैं नंबर याद ही रखता हूं मोबाइल की स्मृति के साथ-साथ अपनी मन की स्मृति में भी।
          हम B.F.A. कोर्स कर रहे थे और वह M.B.A. चूंकि सुमित का कॉलेज R.P.S. था जो कि वहां से नजदीक था इसलिए उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती थी, कॉलेज जाने में। लेकिन मेरे कॉलेज की दूरी 10-11 किलोमीटर हो जाने की वजह से रोज ऑटो किराया लगता था। इसीलिए मैंने फैसला किया कि घर से साइकिल लेकर आने के लिए। साइकिल लाने के बाद मैं रोज साइकिल से ही कॉलेज आने लगा। इससे ऑटो किराया बच जाता और शाम के लिए सब्जी की व्यवस्था भी हो जाती।
          पटना में रहने के दरम्यान मैं अधिकतर चीजें घर से ही लाता केवल हरी सब्जी और गैस पटना में लेते थे बाकी सब घर से ही लेकर आते। मुझे तो खाना बनाना बिल्कुल भी नहीं आता था लेकिन सुमित को बहुत अच्छे तरीके से खाना बनाने आता था। लेकिन मैंने उनको सहयोग कर-करके बहुत कुछ सीख लिया। यूं समझिये की कला सीखने से पूर्व मैंने खाना बनाना ही सीखा। मेरे खाना बनाने की ट्रेनिंग रूम से ही शुरु हुई। आप कह सकते हैं कि रूम पर मेरे खाना बनाने की ट्रेनिंग होती थी और कला महाविद्यालय में चित्र बनाने की। इसी संयोजन के साथ मैंने पटना में पूरे 5 साल का समय पूरा किया।

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

मंजूषा चित्रकला





मंजूषा चित्रकला B.Ed.1st Year EPC- 2, Unit-2. Munger University, Munger. video Link:- CLICK HERE

बिहुला : पूर्वी बिहार का अनोखा पर्व B.Ed.1st Year EPC-2, Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:- CLICK HERE

        मंजूषा चित्रकला भागलपुर के लोक कथाओं में सर्वाधिक प्रचलित बिहुला-विषहरी की कथाओं के आधार पर चित्रित की जाती है। इस चित्र शैली में प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। बिहुला या सती बिहुला लोककथा करुण रस से परिपूर्ण है। 13वीं से 18वीं सदी की अवधि में इस कथा पर आधारित बहुत सी रचनाएं निर्मित की गई थी। इन निर्मित रचनाओं का धार्मिक उद्देश्य मनसा देवी की महत्व का प्रतिपादन करना था किंतु मंजूषा चित्रकला में बनाई गई कलाकृतियां बिहुला एवं उसके पति बाला लखंदर के पवित्र प्रेम के लिए अधिक प्रचलित है। 

नारी के करुण त्याग की कथा

           बिहुला की कथा प्राचीन भारत के अंग प्रदेश की राजधानी चंपा की है। सती बिहुला की कथा भोजपुरी भाषी क्षेत्र में एक लोक गीत के रूप में गाई जाती है। सामान्यतः यह निचली जातियों की कथा के रूप में प्रचलित है परंतु अब यह जाति की सीमाओं को लांघ कर सर्वप्रिय एक नारी के करुण त्याग की कथा के रूप में प्रचलित है। कहानी के अनुसार, सती बिहुला अपनी कठोर तपस्या से बाला लखंदर को जीवित कर देती है। मंजूषा बांस की बनी हुई मंदिरनुमा आकृती होती है जिसके ऊपर चित्रकारी की जाती है। इस चित्रशैली की कुछ खास विशेषताओं में एक है इसके अंकन के लिए सिर्फ हरा, पीला और लाल रंग का प्रयोग। आमतौर पर आकृति के रेखांकन में सिर्फ हरे रंग का प्रयोग किया जाता है वहीं पीला, हरा और लाल रंग से रेखाओं की बीच की जगह को भरा जाता है। मनसा देवी यानी पांचों बहनों को सर्परूप में एक साथ चित्रित किया जाता है। चम्पा फूल, मनियार सांप, नेतुला धोबी, चांद सौदागर, लखिन्दर जैसे इस कथा से जुड़े सभी पात्रों को एक खास पहचान के साथ चित्रित किया जाता है ताकि दर्शक उसे आसानी से समझ सके। पुरूष आकृतियों के चेहरे पर शिखा व मूंछ का होना अनिवार्य समझा जाता है। हालांकि अब जब इस कला को सिर्फ मंजूषा को अलंकृत करने तक सीमित रखने के बजाय व्यावसायिक उत्पादों व सजावटी सामानों पर भी चित्रित किया जाने लगा है तब रंग संगतियों में कुछ नए प्रयोग भी सामने आने लगे हैं। साथ ही किसी जमाने में जाति विशेष तक सीमित माने जाने वाली इस कला को समाज के विभिन्न तबकों द्वारा एक कलारूप के तौर पर अपनाया जा रहा है।  इस चित्रकला शैली के अंतर्गत पारंपरिक विषयों का चित्रांकन अधिकतर होता आ रहा है लेकिन आज के परिपेक्ष्य में वर्तमान कलाकार बिहुला-विषहरी की लोककथा से अलग दूसरे विषयों को भी इस शैली के जरिए चित्रित कर रहे हैं।

बिहुला : पूर्वी बिहार का अनोखा पर्व


बिहुला : पूर्वी बिहार का अनोखा पर्व B.Ed.1st Year EPC-2, Unit-2. Munger University, Munger. Video Link:-  https://www.youtube.com/watch?v=qFwmY5-9-60&t=2s

           पूर्वी बिहार का एक अनोखा पर्व है बिहुला। इसे विषहरी पूजा के नाम से भी जाना जाता है। बंगाल में इसी पर्व को पद्मपुराण भी कहा जाता है। इस पर्व में मनसा देवी की पूजा की जाती है। धर्मग्रंथों में मनसा को वासुकी की बहन और ऋषि जातक को पत्नी बताया गया है। वासुकी को सर्पो का राजा माना गया है, तो मनसा को सर्पो की देवी वताया गया है। मनसा का दूसरा नाम ' विषहरा ' विष को हरने वाली है। कहां जाता है कि मनसा मानव जाति की रक्षा सर्पो से करती है इसलिए इसकी पूजा होती है। बिहार में विशेषकर पूर्वी बिहार में यह पर्व ज्यादातर मछुआरा और अन्य जातियों द्वारा मनाया जाता है। भागलपुर में इस पर्व को विशेष धूमधाम से मनाया जाता है। यह पूजा सिंह नक्षत्र में होती है। इस पूजा में पहले मूर्ति का प्रचलन नहीं था। लेकिन अब इस पूजा से जुड़े मनसा, बिहुला, बाला लखीन्द्र तथा चांद सौदागर की मूर्तियां जगह - जगह बनती है। मनसा की मूर्ति स्त्री वस्त्र में सर्प के साथ या कमल पर बैठी हुई या फिर सर्प पर खड़ी बनती है। इनकी पूजा ज्यादातर महिलाएं करती हैं। पूजा करने के दो कारण बताये जाते हैं। एक यह कि विषहरी यानी मनसा पति को सर्प आदि से बचाएं तथा दूसरा यह कि अगर कभी कोई सर्प काट भी ले तो विषहरी देवी उनके विष को हर कर उन्हें लम्बी आयु प्रदान करें।
           इस पर्व से सम्बन्धित कथा के अनुसार भागलपुर के चम्पानगर में चांद सौदागर नामक एक बहुत बड़ा व्यापारी था। चम्पानगर अंग-जनपद की राजधानी थी। चांद सौदागर का व्यापार बिहार से बंगाल राज्य तक होता था। उस समय मनसा या विषहरी जो शिव की बहन तथा जातक ऋषि की पत्नी थी, की पूजा पृथ्वी पर नहीं होती थी। लेकिन मनसा की इच्छा थी कि पृथ्वी पर मेरी पूजा हो। चांद सौदागर बहुत बड़ा व्यापारी था, इसलिए मनसा देवी ने अपनी पूजा की शुरूआत के लिए उसका घर चुना। वहां जाकर मनसा देवी ने चांद सौदागर को अपने कुल देवता में स्वयं का भी स्थान मांगा, तो उन्होंने इनकार कर दिया। इससे मनसा ने कुद्ध होकर शाप दिया कि तुमने मेरा अपमान किया है इसलिए तुम्हारा सभी पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। इसके उपरांत ही चांद सौदागर के छः पुत्रों की मृत्यु सर्प के डंसने से हो जाती हैं। चांद सौदागर को कुछ दिनों बात एक और बेटे की प्राप्ति होती है जिसका नाम बाला लखेंद्र रखा जाता है। जिसका विवाह बिहुला नाम की कन्या से होता है। ठीक सुहागरात के दिन बाला लखेन्द्र को सांप डंस लेता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। बिहुला विधवा हो जाती है। इस संबंध मे किंवदंती है कि जिस घर मे पति-पत्नी सोये थे, उनका निर्माण विश्वकर्मा जी ने किया था ताकि कहीं कोई छिद्र न हो। लेकिन सुई की नोंक के बराबर एक छिद्र कहीं था जिससे होकर मनसा देवी ने एक धागे जैसे पतले सांप को उसमें प्रवेश कराया था। उस साँप को भागलपुर जिला में 'सुतिया सर्प' के नाम से लोग जानते है, जो अभी तक प्रचलित है। विधवा बिहुला रोती हुई अपनी सास के पास गयी । मनसा देवी का दिल जीतने के लिए प्रायश्चित भी किया। जब इतनी बड़ी घटना घट गयी तो चांद सौदागर ने सबों को विषहरी की पूजा करने को कहा। उसने अन्यमनस्क ढंग से अपने बायें हाथ से एक फूल को मनसा देवी की मूर्ति पर फेंका। मनसा खुश होकर उनके पुत्र का जीवन लौटा दी। इसके बाद लोगों को मनसा की शक्ति का पता चला और तब से पृथ्वी पर मनसा यानी विषहरी की पूजा होने लगी।
 

रविवार, 16 अगस्त 2020

डायरी के पन्नों से (Diary ke panno se.)

    

        नमस्कार 🙏आप सभी का हमारे Blog पर स्वागत है। आज आप सभी के बीच प्रस्तुत हैं “डायरी के पन्नों से” का दुसरा अंश। इस श्रृंखला को पढ़कर आप मेरे और मेरे कार्य क्षेत्र को और भी बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। जैसा की आप सभी को ज्ञात है कि मैं अपनी आत्मकथा लिख रहा हूं। प्रत्येक रविवार को उसी आत्मकथा के छोटे-छोटे अंश को मैं आप सभी के बीच प्रस्तुत करूंगा और मुझे आपकी प्रतिक्रिया (Comment) का इंतजार रहेगा ताकि मैं इसे और बेहतर तरीके से आप सभी के बीच प्रस्तुत करता रहूं।


      ...तो चलिए प्रस्तुत है, “डायरी के पन्नों से” का दुसरा अंश

                   

                    ............मेरी आदत यह रही है कि कहीं भी मैं समय से पहले पहुंचता हूं। स्कूल टाइम में भी सबसे पहले मैं ही अपने स्कूल में पहुंचता था। उस दिन कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में प्रवेश के लिए, प्रवेश परीक्षा थी। 11:00 बजे से परीक्षा शुरू होने वाली थी और मैं घर से 04:00 बजे सुबह ही चल दिया।


        उस दिन मेरे बड़े भैया जिनका नाम सुजीत कुमार है वह भी मेरे साथ पटना आये थे। 08:00 बजे तक मैं महाविद्यालय के परिसर में था। उस दिन भी मैं सबसे पहले महाविद्यालय पहुंचा था चूंकी महाविद्यालय का बॉयज हॉस्टल महाविद्यालय के परिसर में ही था  इसीलिए वहां रहने वाले सभी विद्यार्थी हॉस्टल में ही थे, परिसर में कोई नहीं था। मैं बाहर चबूतरे पर बैठा हुआ था। तभी एक लड़का हॉस्टल से बाहर निकला भैया ने उनको बुलाया उनका नाम चिंटू था। बातचीत से पता चला कि वह मूर्तिकला विभाग से बी०एफ०ए० कोर्स कर रहे हैं और उनका फोर्थ ईयर चल रहा है। उन्होंने मेरा स्केचिंग देखा और कुछ ट्रिक वगैरा बताएं एवं साथ-ही-साथ परीक्षा से संबंधित 02-04 प्रश्न भी उन्होंने मुझे बताएं। जैसे:- महाविद्यालय की स्थापना कब हुई थी? कौन किए थे? इत्यादि। और इत्तेफाक से यह सारे प्रश्न परीक्षा में पूछे भी गए थे। 2010 में फीफा वर्ल्ड कप हुआ था और उसी समय मेरा आर्ट कॉलेज में प्रवेश परीक्षा भी था। मेरे घर पर न्यूज़पेपर हमेशा से आते रहा है इसी कारण मैं current News से अपडेट था। परीक्षा में जो सामान्य जानकारी के प्रश्न पूछे गए थे वह सब भी मेरा सही हो गया। आर्ट कॉलेज में प्रवेश के लिए 2 परीक्षाये आयोजित की गई थी। एक  थ्योरी और एक प्रैक्टिकल।

             थ्योरी के तुरंत बाद प्रैक्टिकल शुरू हो गया। एक घटना मुझे याद आ रहा है जब चिंटू भैया मुझे स्केचिंग बता रहे थे उस समय मेरे पास केवल एच बी (HB) पेंसिल ही था तब वह बोले कि महाविद्यालय में नामांकन लेने के लिए और परीक्षा में पास होने के लिए मुझे और कई नंबरों की पेंसिल की आवश्यकता पड़ेगी। पेंसिल में भी नंबर और कई प्रकार होते हैं यह मुझे ज्ञात नहीं था। फिर मैंने महाविद्यालय के पास स्थित महाविद्या आर्ट सेंटर गया, जहां से मैंने कुछ पेंसिले खरीदी।

         मुझे आज भी याद है कि जब मैं दुकान पर गया तो दुकानदार ने पूछा कि आर्ट कॉलेज में नाम लिखाना है क्या? मैंने कहा:- हाँ। तब उसने मुझे Tambo Company का पेंसिल दिया 4B, 6B और 8B और बोला कि इसको लेकर जाइए आपका एडमिशन हो जाएगा। एक पेंसिल की कीमत थी  60 से 80 रुपये। मैंने सोचा कि शायद इतनी महंगी पेंसिल से फोटो बनाने के बाद मेरा नामांकन हो जाए।  

            समय से परीक्षा शुरू हुई पहले थ्योरी का एग्जाम हुआ। अधिकतर प्रश्न समकालीन घटनाओं से ही थे इस वजह से मुझे ज्यादा परेशानी नहीं हुई। कुछ प्रश्न आर्ट कॉलेज से ही थे एवं कुछ कला सामग्री से। लिखित परीक्षा के तुरंत बाद प्रायोगिक परीक्षा शुरू हो गई। 20" x 30" व्हाइट पेपर सभी विद्यार्थी को दिया गया एवं उस पर नाम रौल नंबर अंकित भी करवाया गया। उसके बाद जो पर्यवेक्षक मेरे रूम में थे बाहर चले गए। हम सभी सोच रहे थे कि आखिर करना क्या है?  उस व्हाइट बोर्ड पर बनाना क्या है? कोई शीर्षक तो उन्होंने दिया ही नहीं। हम सभी विद्यार्थी यही सोच रहे थे कि अचानक एक व्यक्ति का प्रवेश कमरे में होता है। बाल एकदम सफेद अपने सफेद होते बालों को जबरन मेहंदी लगाकर मेहंदी के रंग में रंगने की भरपूर कोशिश उन्होंने की थी लेकिन फिर भी सफेदी बालों में झलक रही थी। मस्तक पर चंदन का टीका लगाए, लंबी चोटी रखे हुए और मुंह में पान चबाते हुए हम सभी के समक्ष एक अद्धभुत व्यक्ति प्रस्तुत हुए।

       देखने से तो लग रहा था कि वह कलाकार है और शायद इस महाविद्यालय के प्रोफेसर भी हो। मेरा अनुमान एकदम सही था उन्होंने आते ही सबसे पहले हम सभी को परीक्षा में सफल होने की शुभकामनाएं दी और व्हाइट बोर्ड के लिए विषय भी दिया। "पांच अध्ययनरत छात्र एवं छात्राएं" इसी विषय पर हम सभी को पेंसिल स्केच तैयार करना था। सभी अपने-अपने कार्यों में लग गए।

    "सर का नाम अजय कुमार चौधरी था, वह ड्राइंग के प्रोफ़ेसर थे एवं महाविद्यालय में चौधरी सर के नाम से ही प्रसिद्ध थे।" उक्त बातें मुझे महाविद्यालय ज्वाइन करने के बाद मालूम चली।

      ड्राइंग शीट मिलते ही सभी छात्र अपने कार्य में ऐसे लग गये जैसे की दशरथ मांझी पहाड़ तोड़ने में लग गए थे। सबके मन में यही चल रहा था की - जब तक तोड़ेगे नहीं तब तक छोड़ेगे नहीं। लेकिन मैं बैठा रहा क्योंकि वहां पर अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके आकृतियों का निर्माण करना था और इससे पहले मैंने कभी भी इस तरह के चित्रों का निर्माण नहीं किया था। मैं तो बस सामने चित्र को रखकर या फिर उसे देख-देख कर बनाता था लेकिन यहां तो एक अलग ही समस्या उत्पन्न हो गई। मैंने उसका भी समाधान निकाला। परीक्षा के दरम्यान प्रत्येक विद्यार्थी एक कला जानता है जिसे नकल करना कहाँ जाता है। लेकिन इस कला को भी हर कोई नहीं कर सकता। कहाँ  भी गया है कि नकल करने के लिए अक्ल की आवश्यकता होती है और शायद मेरे अंदर यह कला बचपन से ही विद्यमान हैं। वैसे भी बिहार के सरकारी विद्यालय से पढ़ने वाला विद्यार्थी इस कला में महारत हासिल कर ही लेता है और इसी वजह से यह कला मुझ में भी विद्यमान है। उस दिन की परीक्षा में मैंने इस कला का प्रयोग किया। सबसे पहले मैं अपने आसपास देखा लेकिन प्रायोगिक परीक्षा होने की वजह से और व्हाइट पेपर का साइज बड़ा होने की वजह से सभी विद्यार्थियों को दूर-दूर बैठाया गया था दूरी इतनी ज्यादा थी कि वह क्या बना रहा है दूसरा विद्यार्थी उसे देख भी नहीं सकता था।

        तब मुझे लगा कि यहां चोरी तो नहीं चल सकती इसलिए अपने ख्याल से ही कुछ बनाना चाहिए। फिर मैं अपने आप को अपने गांव की तरफ ले गया। मुझे सबसे पहले जो दृश्य  दिखाई दिया वह यह था कि एक बड़ा सा पीपल का पेड़, उसके नीचे चबुतरा बना हुआ है और उस पर बैठे अनगिनत लोग कुछ ताश खेल रहे थे और कुछ आपस में बातें कर रहे थे। यह दृश्य मेरे घर के पास का ही है। यह एक सार्वजनिक जगह है और पूरे गांव का बरात या फिर कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम यहीं पर संपन्न होता है। कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने के लिए मुझे वहां जाना भी नहीं पड़ता था अपने घर की छत पर से ही मैं सारा कार्यक्रम देख लेता था। इस जगह से मेरा जुड़ाव बचपन से ही रहा है इसी कारण जब कल्पना से चित्र बनाने की बात आई तो सबसे पहले यही दृश्य मेरे स्मृति में आया और मैंने फटाफट स्केच बनाना शुरू कर दिया। बड़ा सा विशाल पीपल का पेड़ और चबूतरा जैसे पूर्ण किया अचानक से याद आया की यहाँ तो पाँच अध्ययनरत छात्र-छात्राओं की तस्वीर बनाने को मिला है। फिर मेरा हाथ रुक गया कि अब बच्चों की तस्वीर कहां से लाएं?

         तभी मेरे सामने बैठा लड़का उठकर बाहर गया मैंने उसकी ड्राइंग शीट को देखा तो पाया कि वह 5 लड़के एवं लड़कियों को खड़े होकर हाथ में किताब लिए हुए फोटो बनाया है। मैंने फटाफट तस्वीर बनानी शुरू कर दी। जब तक मैंने एक तस्वीर बनाई वह पुनः वापस आ गया और अपनी तस्वीर को पूर्ण करने लगा उसके आने से पूर्व मैंने उसकी एक तस्वीर कॉपी कर ली थी। अब जरूरत थीं चार और व्यक्तियों की। फिर से मैंने अपने बचपन की तरफ देखा तब मुझे अपने होम ट्यूशन का दृश्य याद आया। जब मैं रात्रि में लालटेन की रोशनी में पढ़ने जाया करता था वहां पर एक लड़का था उसका नाम था- राजू । राजू अक्सर  पढ़ते समय लेट जाया करता था और लेटे-लेटे ही पढ़ाई करता था। उससे ज्यादा देर तक बैठकर पढ़ाई नहीं हो पाती थी। वही चेहरा मेरे समक्ष आया और उसी चबूतरे पर उसे लेट कर पढ़ते हुए बनाया। प्रश्न में छात्र-छात्राओं दोनों का जिक्र था इसीलिए मुझे छात्रा का भी अंकन करना था। फिर मैंने अपने आस-पास देखा तो पाया कि एक लड़की ने कुछ बच्चों का स्केच बनाया हैं मैंने वहां से दो लड़कियों का स्केच कॉपी किया। अब मेरे व्हाइट बोर्ड पर दो लड़के एवं दो लड़कियों की तस्वीर बन चुकी थी। एक और तस्वीर की कमी थी और वह तस्वीर मेरे जेहन में नहीं आ रहा था तभी वही शिक्षक जो कुछ देर पहले प्रश्न देकर गए थे पुनः वर्ग में आए और बोले कि आप सभी के पास मात्र 30 मिनट शेष बचे हैं। अपना-अपना कार्य संपादित कीजिए। सभी विद्यार्थी अपना-अपना पेंटिंग पूरा करने में लग गए और मैं बैठा सोचता रहा की एक तस्वीर कैसे पूर्ण होगी।

         वो सर क्लास में घूमने लगे। घुमते-घूमते मेरे पास आते ही रुक गए और बोले- अरे वाह!!! तुमने तो आधे घंटे पहले ही अपनी कलाकृति पूर्ण कर दी है। अब तो तुम्हारा नामांकन जरूर होगा। लेकिन मैंने कहा- नहीं सर, अभी एक तस्वीर बाकी है मैंने चार ही तस्वीर को पूर्ण किया हैं। तब वह बोले कि कोई बात नहीं बेटा। अभी समय शेष है उसको भी पूर्ण कर लो। यह कह कर वह आगे बढ़ गए अब मेरे पास अपनी चित्र को पूर्ण करने के लिए दो कारण थे। एक सर की बातों को सही साबित करना था, क्योंकि उन्होंने कहा था तुम्हारा नामांकन तो जरूर होगा और दूसरा मेरी इच्छा भी थी क्योंकि यदि मेरा नामांकन यहाँ नहीं होता तो सभी को यह लगता कि इससे आर्ट भी नहीं चलेगा और मुझे फिर किसी तीसरे राह की ओर मोड़ दिया जाता। लेकिन मैंने फिर पेंसिल उठाई और एक बार फिर से तस्वीर बनानी शुरू की।

       इस बार ना ही मुझे किसी की ड्राइंग शीट से आकृति की नकल करना पड़ा और ना ही मुझे अपने ख्यालों में जाना पड़ा। अचानक से हाथ में किताब लेकर मुस्कुराते हुए एक बालक की तस्वीर का अंकन हो गया। मैं सोचने लगा कि इस बालक को मैंने कब और कहां देखा है? और इसकी तस्वीर कैसे बन गई? यह सब मैं सोच ही रहा था कि तभी घंटी बज गई और सभी व्हाइट पेपर को जमा करने के लिए कहा गया। मैंने अपनी पेंटिंग जमा कर तो दी थी लेकिन उस बालक की छवि अभी भी मेरे दिमाग में घूम रही थी कि अचानक से वो छवि कैसे प्रकट हुई? और उसका अंकन भी हो गया। उस दिन से लेकर आज तक मैं उस छवि को ढूंढता रहता हूं और अपने प्रत्येक विद्यार्थी में मैं छवि को पाता हूं जब भी मैं किसी छात्र को  स्केचिंग, पेंटिंग या फिर फोटोग्राफी  बताता हूं मेरे सामने वही छवि विराजमान हो जाती है चाहे मेरे सामने एक विद्यार्थी हो या 1000 प्रत्येक व्यक्ति में मैं उसको पाता हूं और मुझे लगता है कि इस एक आकृति ने मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया। अगर आज मैं उसे पुनः कुछ दे पाऊं तो मैं अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझूंगा। इसीलिए जब भी मैं क्लास लेता हूं या फिर किसी को कुछ बताता हूं तो मुझे लगता है कि मैं उसका ऋण चुका रहा हूं और यह ऋण शायद मैं पूरी जिंदगी में ना चुका पाऊं।

       जिस दिन मैंने पटना आर्ट कॉलेज में नामांकन लिया उस दिन ही मैंने यह निर्णय ले लिया था कि मैं एक कला शिक्षक बनकर ही अपनी जिंदगी बिताऊगा, इस महाविद्यालय से मैं जितना सीखूंगा वह सारा अपने विद्यार्थियों के बीच बांटता रहूंगा..............