मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

क्या याद मेरी आती नहीं....😓

 एक बेटी,  उलाहना (शिकायत) की पाती (चिट्ठी) अपने पिताजी के पास लिखते✍️ हुए कहती हैं।


 सच बात पूछती हूं,

बताना ना बाबूजी।

 छुपाना ना बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 पैदा हुई घर में,

मेरे मातम सा छाया था।

 पापा तेरे खुश थे,

माँ ने बताया था।


 ले ले नाम प्यार,

 जताते मुझे ही थे।

आते थे कहीं से तो,

बुलाते मुझे ही थे।


 मैं हूं नहीं तो किसे,

बुलाते हो बाबूजी।

 रुलाते हो बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


हर जिद्द मेरी पूरी हुई,

हर बात थे मानते।

 बेटी थी लेकिन बेटों से,

ज्यादा थे मानते।


 घर में कभी होली,

कभी दिवाली है आई।

 सैंडल भी मेरी आई,

 फ्रॉक भी मेरी आई।


 अपने लिए बंडी भी ना,

लाते थे बाबूजी।

क्या कमाते थे बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 सारी उम्र खर्चे में,

कमाई में लगा दी।

दादी बीमार थी तो,

दवाई में लगा दी।

बाकी बचा जिसे मेरी सगाई में लगा दी।


 अब किसके लिए,

इतना कमाते हो बाबूजी।

रुलाते हो बाबूजी,

क्या याद मेरी आती नहीं है???


 संजय सिंह✍️

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

ब्यूटी-पार्लर (Beauty Parlour)


 ब्यूटी पार्लर


 एक दिन एगो भउजी अइली खूब श्रृंगार सजा के,

ब्यूटी पार्लर से मुखड़ा के डेंट-पेंट करवा के।

 बड़ा सलीका से झजुड़ाके झोटा रहे झाराईल,

झमकत हमरा सोझा अईली चोन्हा में उतराईल।


पार्लर से हम आवत बानीs घंटा तीन गवां के,

कईसन लागत बानीs बबुआ पूछली उs बलखाके।

 हम उनका के ताके लगनी नख से लेके शिख तक,

लिनब के जादू से लेके केशन के काली तक।


कहनी भउजी लागत बाड़ू तू सुघड़ बड़ी हो,

तोहरा निहर तीनों लोक में बाँटे के हो।

 भउजी तनी लजा के कहली भक्क्क!!! सच्चहूं तनी बताई,

 कहवाँ अईसन सुघर बानी हमरा के मत भरमाई।


 हम कहनी सच्चाई सुन के जोहे लगबु झगड़ा,

 तबो मन बाटे तs सुन लs भले ही होई लफड़ा।

 सच तs ई बा की ब्यूटी पर तू रुपया ना उड़वतु,

 रूप रहित तs का लेवे तू ब्यूटी पार्लर जईतु।


 क्रीम लगावला से सुघराई भउजी यदि तनीको आ जाईत,

रोज सवेरे सुरुज चल के ब्यूटी पार्लर जाईत।

 तन के रोवा सुंदरता में रोड़ा अगर अड़ाईत।

 नित गुलाब वैक्स करावे मलिया लेके जाईत।


 अगर दाग से उहो आपन छुटकारा पा जईतन,

 चंदो मामा रोज बईठ के खूब मसाज करईतन।

 ई कईला से मुखड़ा पर जे तनको लाइट आ जाईत,

ताजमहल के फेसवॉश से रगरल-धोवल जाईत।


 ऐ चांदनी रात के बोलs के मसाज करेला,

 बिना फेशियल चंदा🌙 काहे दिल❤️ पर राज करेला।

 सूर्योदय के बेरा धरती कवना पार्लर जाले,

 कवन सेंट फूलन पर लागलs जे तितली मंडराले।


 विश्व मोहन के रूप मिलल का प्रभु के पार्लर जाके,

 का मनमोहन के मन बसली राधा क्रीम लगा के।

 का मेनका मसाज करा के कौशिक के तप तोड़ली,

 गउरा का फेशियल करा के शिव के हीयरा हरली।


 वन, पहाड़, सागर, आकाश का कबहुँ पार्लर जाला,

 फिर काहे सब रूप देख के सम्मोहित हो जाला।

 छोड़ी सब तितली के देखी, देखी ना मछली के,

 रंग बिरंगी पशु-पक्षी आ किसलय कुसुम कली के।


 कवना ब्यूटी पार्लर में ई सब श्रृंगार करेला,

 कवन होंठलाली जवना से सुग्गा टोढ़ रंगेला।

 दुनिया के श्रृंगार प्रकृति खुदे अपने हाथ करेले,

जे जवना के योग रहे ओही में रंग भरेले।


 जवन सुघराई के रक्षा क्रीम पोत के होई,

 हम ना करब होकर प्रशंसा भले करें सब कोई।

 क्रीम लगवले सुघराई कुछ क्षण खातिर बढ़ जाले,

 बाकी हंस रूप में बकुली कबो ना बना आदर पाले।


 पांख बढ़वले गीद्ध मोरनी सरीखे ना होई,

 कौआ ना उजर हो जाई केतनो रगड़ी धोई।

 सुंदरता ईश्वर के दिहल नेमत में आवेला,

जे उनकर कृपा पावे उs सुघराई पावेला।


 उनकर दिहल रूप भला के इहां निखाड़े पाई,

उs तs चौदस के चंदा हs खुद ही निखरत जाई।

 ऐ ही से अब कबो अईहs ब्यूटी पार्लर जाके,

 हमरो झोजा मत चमकइहs पाउडर, क्रीम लगा के।


 संजीव कुमार त्यागी✍️  

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

आज के लिए बस इतना ही रहने दो....


कुछ लिख नहीं पा रहा, कुछ गा नहीं पा रहा।

कुछ सुन नहीं पा रहा, कुछ सुना नहीं पा रहा।


माफ करना मुझे मेरे अपनों तुम,

कुछेक फर्ज मैं निभा नहीं पा रहा।।


***


जानबूझकर किया गया कारनामा है यह, नहीं इत्तेफाक है।

प्रोफाइल लॉक करके फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजना, लेटेस्ट मजाक है।।

तंदुरुस्ती  का  अनुभव  करता  है  पाकर, इसे  हर  एक आदमी।

इस दौर में लाइक, कमेंट, शेयर सज्जनों, बड़ी पौष्टिक खुराक है।।


***


कुछ लोग जो हमारे पीछे पड़े हैं,

कमबख्त जबरदस्ती जिद पर अड़े हैं।

कह दो उनसे कि साहिल पर पहुंचने से पहले,

 हमने तूफानों से भयंकर लड़े हैं।।


***

       

सौमित्र संग कुटिया में, जब पहुँचे अवधेश।

भाग्य जगे तब शबरी के, मिट गये सकल क्लेश।

खिलाकर मीठे बेर वह, जीत लिया प्रभु हृदय,

पा लिया नवधा भक्ति का, सुर दुर्लभ उपदेश।।


***


वैसे तो भीड़ बहुत है, खुदा तेरी खुदाई में।

हम चल रहे अकेले मगर, राहे सच्चाई में।

न कोई साथी, न मददगार, न कोई उस्ताद ही,

यह कठिन सफर तय हो रहा, खुद की रहनुमाई में।।


***


कभी अजब कभी गजब खेला हो जाता है।

 शहद  भी नीम और  करेला  हो  जाता  है।

आ जाती  है नियत में जब बदनीयती तो,

 अपना सगा भी सौतेला हो जाता  है।।


***


कभी इस बाबत कभी उस बाबत सफर होता ही है।

जगह कोई भी हो आबो हवा का असर होता ही है।

जब भी बदलता है मौसम छेड़ जाता है तबीयत को,

आपका आप जानो मेरे साथ अक्सर होता ही है।।


***


कभी  चाल  तो  कभी  कुचाल  चलता  है।

इस  तरह   जाने   कितनों  को  छलता  है।

आप   भी   रखोगे   मुझसे  इत्तफाक  की ,

 गिरगिट से अधिक  इंसान रंग बदलता है।


***


सुबह शाम ठंड बड़ी  हल्की तपती दुपहरी है।

मधुमास की आहट से धरती सजी सुनहरी है।

अब  आ  भी  जाओ  कि  तुम्हारे  स्वागत में,

सरसों  का  फूल  लेकर  आ गया फरवरी है।


***


जो निभा जाऊं तो समझना नेक इरादा रहा,

और निभा न सकूं तो समझना चुनावी वादा रहा।

आज के लिए बस इतना ही रहने दो,

फिर मिलेंगे तब सोचेंगे क्या कम क्या ज्यादा रहा।


                    कवि बिजेन्द्र अहीर✍️

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

हों ज़ख़्म दिल में लाख, मगर!!! मुस्कुराना😊 चाहिए।



हो जख्म दिल❤️ में लाख मगर मुस्कुराना😊 चाहिए।

आंसू🥲 भी अगर आ जाएँ तो छुपाना चाहिए ।।


कितना भी गम हो, दर्द हो, इस जिंदगी में पर।

अफसुर्दगी चेहरे🙂 में नहीं आना चाहिए ।।


अपना तजुर्बा मैं बताता हूं, सभी सुनो।

बिन सोचे समझे दिल❤️ नहीं लगाना चाहिए ।।


गम का खजाना दिल के तहखाने में कुछ यूँ रखो।

वो सामने दुनिया के, नहीं आना चाहिए ।।


जब दर्द हद से बढ़ जाए छुपकर के रो लेना । 

कुछ जख्म❤️‍🩹 दिल के दिल💞 में ही दफनाना चाहिए ।।


जिस दिल💝 में वर्षों से, मैं रोज आता जाता हूँ। 

अब मुझको भी लगता है वहां नहीं जाना चाहिए ।।


शायद!!! वह अब हो चुका है इख्तियार गैर का। 

अब मुझको उनपे हक नहीं जताना चाहिए ।।


गजल में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ - 

अफसुर्दगी - अफ़्सुर्दगी शब्द के कई अर्थ होते हैं:- मलिनता, खिन्नता, उदासीनता, ठिठरापन, बेरौनक़ी, शोभाहीनता, उदासी, कुम्लाहट.
इख्तियार - पसंद

वाल्मीकि रामायण भाग - 33 (Valmiki Ramayana Part - 33)


जटायु की मृत्यु से श्रीराम को अतीव दुःख हुआ। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “सीता की रक्षा के लिए युद्ध करने के कारण रावण के हाथों जटायु का वध हुआ है। इस प्रकार उन्होंने मेरी सहायता के लिए ही अपने प्राणों का बलिदान किया है। जैसे महाराज दशरथ मेरे लिए पूज्य थे, वैसे ही जटायु भी हैं। अतः तुम सूखे काष्ठ जमा करो, मैं मथकर आग निकालूँगा और गृध्रराज जटायु का दाह-संस्कार करूँगा।” तब लक्ष्मण ने चिता तैयार की और श्रीराम ने दुःखी मन से जटायु का दाह-संस्कार किया और जटायु का पिण्डदान किया। फिर श्रीराम ने मृतकों के लिए किए जाने वाले मन्त्रों का जाप किया व उसके बाद दोनों भाइयों ने गोदावरी में स्नान करके जटायु को जलांजलि दी। इस प्रकार तर्पण करने के बाद दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े।
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग एक घने वन को पार करके जनस्थान से तीन कोस दूर क्रौंचारण्य नामक दूसरे गहन वन में पहुँचे। उसे पार करके वे लोग मतंग ऋषि के आश्रम के पास पहुँचे। वह वन बड़ा भयंकर था। उसमें अनेक भीषण पशु-पक्षी निवास करते थे और वह अनेक गहन वृक्षावलियों से व्याप्त था। वहाँ पहुँचने पर उन्हें पर्वत पर एक गहरी और अँधेरी गुफा दिखाई दी। उसके समीप जाने पर उन्होंने विकराल मुँह वाली एक भयंकर राक्षसी को देखा। वह भयानक पशुओं को भी पकड़कर खा जाती थी। उसका पेट लंबा, तीखे दाँत और त्वचा कठोर थी। उसका आकार विराट था और बाल खुले हुए थे। उसे देखकर बड़ी घृणा होती थी। दोनों भाइयों को देखते ही वह उनके पास आई और उसने लक्ष्मण को अपनी भुजाओं में कस लिया। वह उनसे कहने लगी, “आओ हम दोनों रमण करें। मेरा नाम अयोमुखी है। आज से तुम मेरे पति बन जाओ। हम दोनों पर्वत की दुर्गम गुफाओं में और नदियों के तट पर जीवन का आनंद लेंगे।” यह सुनकर लक्ष्मण क्रोध से भर गए। उन्होंने तलवार निकालकर उस राक्षसी के नाक, कान काट डाले। भयंकर चीत्कार करती हुई वह तेजी से वापस भाग गई।

वहाँ से आगे बढ़ने पर दोनों भाई एक और गहन वन में जा पहुँचे। तब सहसा लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा, “आर्य! मेरी बायीं भुजा जोर-जोर से फड़क रही है और मन उद्विग्न हो रहा है। मुझे बार-बार बुरे शकुन दिखाई दे रहे हैं, जो इस बात का संकेत दे रहे हैं कि तत्काल ही हम पर कोई संकट आने वाला है। अतः आप भी उसके लिए तैयार हो जाइये। लेकिन वंजुल नामक यह पक्षी भी जोर-जोर से बोल रहा है, जो इस बात का संकेत है कि इस युद्ध में हमारी ही विजय होगी।” ऐसी बातें करते हुए वे दोनों भाई सीता को खोज रहे थे कि सहसा तभी वन में बहुत तेज ध्वनि सुनाई पड़ी और बहुत तेज आँधी चलने लगी। पूरी वन उसकी चपेट में आ गया। दोनों भाई हाथ में तलवार लेकर उस ध्वनि का पता लगा ही रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि चौड़ी छाती वाले एक विशालकाय राक्षस पर पड़ी। वह देखने में बहुत बड़ा था, किन्तु उसका न सिर था, न गला। केवल कबन्ध (धड़) ही उसका स्वरूप था, इसलिए वह कबन्ध ही कहलाता था। उसके सारे शरीर में रोयें थे। उसका वर्ण बादलों जैसा काला था और वह मेघों जैसी ही गर्जना करता था। उसका मुँह पेट में ही बना हुआ था। उसका मस्तक छाती में था और उसी पर एक लंबी-चौड़ी व आग के समान दहकती हुई भूरी आँख बनी हुई थी। उसकी पलकें और दाँत भी बहुत बड़े-बड़े थे। अपनी लपलपाती हुई जीभ से वह बार-बार अपने विशाल मुँह को चाट रहा था। भयंकर रीछ, सिंह और हिंसक पशु-पक्षी ही उसका भोजन थे। अपनी एक-एक योजन लंबी भयानक भुजाओं को वह दूर तक फैला देता था और उन दोनों हाथों से विभिन्न पशु-पक्षियों के झुण्डों को खींचकर उन्हें खा जाता था।

जब दोनों भाई उसके पास पहुँचे, तो अपनी दोनों भुजाएँ फैलाकर उसने उन्हें पकड़ लिया। तलवारें और धनुष-बाण होते हुए भी दोनों भाई उसकी पकड़ से छूट नहीं पा रहे थे। तभी अचानक वह राक्षस उनसे बोला, “मेरा भाग्य बहुत अच्छा है कि तुम दोनों स्वयं ही मेरे निकट आ गए। मैं बहुत भूखा हूँ, अतः अब तुम मेरा निवाला बनोगे। तुम दोनों का जीवित रहना अब कठिन है।” उस राक्षस की ये बातें सुनकर दोनों भाई बड़े व्याकुल हुए, पर अगले ही क्षण उन्होंने आपस में योजना बनाई और अपनी-अपनी तलवारें निकालकर एक ही झटके में उसके दोनों भुजाएँ काट डालीं क्योंकि उसकी सारी शक्ति उन भुजाओं में ही थी। इससे वह राक्षस तत्क्षण ही भूमि पर गिर पड़ा और कराहने लगा। तब उसने दीन-वाणी में पूछा, “वीरों! तुम दोनों कौन हो?” इस पर लक्ष्मण ने उसे श्रीराम का और अपना परिचय दिया तथा अपने वनवास का कारण व सीता के अपहरण की बात बताई। फिर उन्होंने उसका परिचय पूछा। तब उस राक्षस ने बताया कि “पूर्व-काल में मैंने अनेक ऋषियों को सताया था। फिर अपनी शक्ति के अहंकार के कारण मैंने देवराज इन्द्र पर भी आक्रमण कर दिया। तब उन्होंने सौ धारों वाले वज्र से मुझ पर प्रहार किया था, जिससे मेरी जाँघें और मेरा सिर मेरे शरीर में ही घुस गए किन्तु ब्रह्माजी ने मुझे दीर्घ-जीवन का वरदान दिया था, अतः मेरी मृत्यु नहीं हुई। तब मैंने इन्द्र से निवेदन किया कि ‘अब मैं आहार कैसे ग्रहण करूँगा?’ यह सुनकर उन्होंने मेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी कर दीं और मेरे पेट में ही तीखे दांतों वाला एक मुख बना दिया। उसी से मैं वन के सिंह, चीते, हिरण, बाघ आदि को समेटकर खाया करता था। इन्द्र ने मुझे यह भी बताया था कि जब राम-लक्ष्मण वन में आएँगे और तुम्हारी भुजाओं को काट देंगे, तब तुम स्वर्ग में जाओगे। इसी कारण मुझे विश्वास था कि एक दिन श्रीराम भी अवश्य मेरी पकड़ में आ जाएँगे। आज मुझे विश्वास हो गया कि उनकी बात सत्य थी। जब आप लोग मेरा दाह-संस्कार कर देंगे, तब मैं आप दोनों को एक मित्र का पता बताऊँगा, जो आपकी सहायता करेगा।”

यह सुनकर श्रीराम बोले, “कबन्ध! मेरी भार्या सीता का रावण ने अपहरण कर लिया है। मैं उस राक्षस का केवल नाम ही जानता हूँ। वह कहाँ रहता है, कैसा दिखता है, यह सब हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। तुम उस संबंध में हमारी कोई सहयता करो। सीता का पता हमें बताओ। फिर हम लोग सूखे काठ लाकर एक बहुत बड़े गड्ढे में तुम्हारे शरीर को रखकर जला देंगे। तब कबन्ध ने कहा, “श्रीराम! इस समय मेरे पास दिव्य-ज्ञान नहीं है, अतः मैं सीता के बारे में कुछ भी नहीं जानता, किन्तु जब मेरे इस शरीर का दाह हो जाएगा, तब मैं अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त कर लूँगा और आपको एक ऐसे व्यक्ति का पता बता सकूँगा, जो आपकी सहायता कर सकेगा। जब तक मैं अपने इस शरीर से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक मुझमें यह जानने की शक्ति नहीं आ सकती कि सीता का अपहरण करने वाला वह राक्षस कौन है। शाप के कारण इस समय मेरा वह ज्ञान नष्ट हो गया है। अतः सूर्यास्त से पूर्व ही आप मेरा दाह-संस्कार करके मुझे इस शरीर से मुक्त कर दीजिए।” यह सुनकर श्रीराम और लक्ष्मण ने लकड़ियों से चिता तैयार की और उसे चारों ओर से जला दिया। अत्यधिक चर्बी से भरा होने के कारण कबन्ध का विशाल शरीर घी के ढेर जैसा दिख रहा था। चिता की अग्नि में वह धीरे-धीरे जलने लगा। कुछ ही देर बाद चिता के भीतर से निर्मल वस्त्र और दिव्य हार पहना हुआ महाबली कबन्ध प्रकट हुआ और वेगपूर्वक चिता से ऊपर उठकर हंसों से जुते हुए एक विमान पर जा बैठा। वह बड़ा तेजस्वी दिखाई दे रहा था और उसके समस्त अंगों में दिव्य आभूषण जगमगा रहे थे। तब उसने श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! राजनीति में छह उपाय हैं, जिनसे राजा सब-कुछ प्राप्त करते हैं - संधि (सुलह/समझौता), विग्रह (कलह/विवाद), यान (कमजोर शत्रु पर आक्रमण), आसन (शांत रहकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करना), द्वैधीभाव (फूट डालना) और समाश्रय (अपने जैसे ही किसी राजा से सहायता लेना)। इस समय आप अपने राज्य से वंचित होकर भाई के साथ वन में भटक रहे हैं और आपकी पत्नी का भी अपहरण हो गया है। अतः आप भी समाश्रय की नीति को अपनाकर किसी ऐसे पुरुष को अपना मित्र बनाइये, जो आपके समान ही किसी सकंट में पड़ा हुआ हो। अन्यथा मुझे आपकी सफलता का कोई और उपाय नहीं दिखता।

मैं आपको एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताता हूँ। उनका नाम सुग्रीव है। वे सूर्य-देव के औरस पुत्र और ऋक्षराज के क्षेत्रज पुत्र हैं। वे वानर जाति के हैं। महापराक्रमी सुग्रीव तेजस्वी, विनयशील, धैर्यवान, बुद्धिमान, निर्भीक और बलशाली हैं। उनके भाई इन्द्रकुमार बाली ने कुपित होकर उन्हें घर से निकाल दिया है। अतः अब वे चार अन्य वानरों के साथ पंपा सरोवर के पास ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करते हैं।” इस समय सुग्रीव स्वयं भी अपने लिए सहायता ढूँढ रहे हैं और उनका कार्य सिद्ध करने में आप दोनों भाई समर्थ भी हैं। अतः आप उनसे मिलिए और अग्नि को साक्षी बनाकर उनसे मित्रता स्थापित कीजिए क्योंकि सीता का पता लगाने में वे आपकी सहायता कर सकते हैं। इस संसार में नरमांस भक्षी राक्षसों के जितने निवास स्थान हैं, उन सबको सुग्रीव पूर्णतया जानते हैं। वे अपने वानरों के साथ समस्त नदियों, पर्वतों, दुर्गम स्थानों और गुफा-कंदराओं में भी खोज कराकर सीता का पता लगा लेंगे। आपकी पत्नी चाहे मेरु पर्वत के शिखर पर हो या कहीं पाताल में छिपाकर रखी गई हो, वे कहीं से भी उसका पता लगाने में समर्थ हैं। फिर कबन्ध ने आगे कहा - श्रीराम! फूलों से भरे मनोरम वृक्षों वाला यह पश्चिम दिशा का मार्ग ही आपके लिए सुखद रहेगा। आगे आपको जामुन, प्रियाल (चिरौंजी), कटहल, बड़, पाकड़, तेंदू, पीपल, कनेर, आम, धव, नागकेसर, तिलक, नक्तमाल, नील, अशोक, कदंब, करवीर, भिलावा, अशोक, चन्दन तथा मन्दार के वृक्ष मिलेंगे। उनके फलों का आहार करते हुए आप आगे यात्रा कीजिएगा। उस वन को पार करने पर आप एक और मनोरम वन में पहुँचेंगे, जहाँ सभी ऋतुओं में वर्ष-भर फल लगते हैं। वहाँ के वृक्ष फलों के भार से झुके रहते हैं। इस प्रकार एक के बाद एक वनों व पर्वतों को पार करते हुए आप दोनों पम्पा नामक सरोवर के तट पर पहुँच जाएँगे। वहाँ कंकड़ों का नाम भी नहीं है और फिसलन भरा कीचड़ आदि भी नहीं है। उस घाट की भूमि चारों ओर से समतल है। उसके जल में सेवार (शैवाल / काई) बिल्कुल भी नहीं है। वहाँ की भूमि रेतीली है। कमल के फूल उस सरोवर की शोभा बढ़ाते हैं। हंस, क्रौंच (सारस), कारंडव (बत्तख?) आदि पक्षी वहाँ मधुर स्वर में कूजते रहते हैं। कई प्रकार की उत्तम मछलियाँ भी वहाँ हैं। आप उनका आहार करें और पंपा सरोवर के जल से अपनी प्यास बुझाएँ। वहीं सायंकाल आपको अनेक विशाल वानर भी दिखाई देंगे, जो पर्वतों की गुफाओं में ही रहते और सोते हैं। भीषण गर्जना करने वाले वे वनचर वानर जल पीने के लिए पंपा के तट पर आते हैं। उनका शरीर मोटा और रंग पीला होता है। उस सुन्दर परिवेश, रंग-बिरंगे फूलों, फलों, पशु-पक्षियों आदि को देखकर आपको बहुत प्रसन्नता होगी।

पंपा के पश्चिमी तट का जंगल मतंग वन कहलाता है। वहाँ पर आपको एक अनुपम आश्रम दिखाई देगा। बहुत समय पहले वहाँ मतंग ऋषि अपने शिष्यों के साथ निवास करते थे। वे सब ऋषि तो अब चले गए, किन्तु उनकी सेवा में रहने वाली शबरी नामक एक तपस्विनी आज भी वहीं निवास करती है। वह सदा धर्म का पालन करती है, पंपा सरोवर के पूर्वी भाग में ऋष्यमूक पर्वत है। उस पर चढ़ना बहुत कठिन है। अनेक हाथी वहाँ विचरते रहते हैं। उस पर्वत के ऊपर एक बहुत बड़ी गुफा है, जिसका द्वार पत्थर से ढका रहता है। उस गुफा में प्रवेश करना बड़ा कठिन है। उस गुफा के पूर्वी द्वार पर शीतल जल से भरा हुआ एक बहुत बड़ा कुण्ड है। उसके आस-पास अनेक फल-मूल सुलभता से उपलब्ध रहते हैं। उसी गुफा में सुग्रीव अपने साथी वानरों के साथ निवास करते हैं। वहीं जाकर आप उनसे मिलें और उनके साथ अवश्य ही मित्रता कर लें।

ऐसा कहकर कबन्ध उन दोनों से आज्ञा लेकर वहाँ से चला गया।

तब श्रीराम और लक्ष्मण ने भी आगे की यात्रा आरंभ की और पश्चिम दिशा की ओर कबन्ध के बताए हुए मार्ग पर बढ़े। रात में एक पर्वत के शिखर पर विश्राम करके अगले दिन वे दोनों भाई पंपा सरोवर के पश्चिमी तट पर पहुँच गए। वहाँ उन दोनों को शबरी का आश्रम दिखाई दिया। उस आश्रम में जाकर वे शबरी से मिले। मतंग ऋषि की शिष्या शबरी एक सिद्ध तपस्विनी थीं। दोनों भाइयों को देखकर शबरी ने उन्हें प्रणाम किया और विधिवत उनका स्वागत-सत्कार किया। श्रीराम ने भी शबरी का कुशल-क्षेम पूछा। तब वृद्ध शबरी माता ने उनसे कहा, “श्रीराम! आपका दर्शन पाकर आज मेरी तपस्या फलीभूत हो गई। मेरा जन्म आज सफल हो गया। मैंने अपने गुरुओं की जो सेवा की थी, वह भी आज सार्थक हो गई। जब चित्रकूट पर्वत पर आपका आगमन हुआ, उसी समय मेरे गुरुजन एक अतुल विमान पर बैठकर यहाँ से दिव्य लोक को चले गए। जाते समय उन्होंने कहा था कि ‘इस आश्रम में एक दिन श्रीराम और लक्ष्मण पधारेंगे। तू उनका यथावत सत्कार करना। उनके दर्शन करके तू भी अक्षय लोक में जाएगी। श्रीराम!!!पंपा के तट पर उगने वाले अनेक जंगली फल-मूल मैंने आपके लिए एकत्र किए हैं। कृपया आप उन्हें ग्रहण करें।” ऐसा कहकर तपस्विनी शबरी ने उन्हें वे फल अर्पित किए।
फिर श्रीराम ने उनसे कहा, “तपस्विनी! मैंने कबन्ध से आपके महान गुरुजनों के बारे में सुना था। मैं उनके बारे में और भी जानना चाहता हूँ।” तब शबरी ने उन्हें अपने गुरु के बारे में और विस्तार से बताया तथा मतंगवन का दर्शन कराया। उसके बाद शबरी उनसे बोली, “श्रीराम! अब मैं भी आपकी आज्ञा से उन्हीं महर्षियों के पास जाना चाहती हूँ।” तब श्रीराम ने ‘जैसी तुम्हारी इच्छा’ कहकर इसके लिए सहमति दी। सिर पर जटा और शरीर पर चीर व काला मृगचर्म धारण करने वाली तपस्विनी शबरी ने श्रीराम की आज्ञा मिल जाने पर अग्नि को प्रज्वलित किया और स्वयं को उसमें अर्पित कर दिया। इस प्रकार श्रीराम का दर्शन करके शबरी भी पुण्यलोक को चली गई।

शबरी के चले जाने पर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! चलो अब हम दोनों पंपा सरोवर के तट पर चलें। ऋष्यमूक पर्वत वहाँ से कुछ ही दूरी पर है। अपने चार वानरों के साथ सुग्रीव उसी पर्वत पर निवास करते हैं। अब मैं उनसे मिलने के लिए आतुर हूँ क्योंकि सीता को खोजने में वही हमारी सहायता कर सकते हैं।

आगे अगले भाग में…

यहाँ वाल्मीकि रामायण का अरण्यकाण्ड समाप्त हुआ। अब किष्किन्धाकाण्ड आरंभ होगा..

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

ईद का पायजामा (Eid ka Payezama)


 ईद का पायजामा


 एक आदमी ने जो डांटा दर्जी की जात को,

कुर्ता-पायजामा आ ही गया चांद रात🌙 को।

 देखा पहन कर जब उसे कुर्ता तो ठीक था,

पायजामे पर लगा उन्हें कुछ तीन इंच बड़ा।


 बेगम से बोले आज मेरा यह काम करो,

तीन इंच काट कर फिर ठीक से इसे सील दो।

 बेगम बोली देखिए फुर्सत कहां मुझे,

कल ईद है और आज बड़ा काम है सर पें।


बेटी जो बड़ी सामने से आई तो उससे कहां,

मेहंदी का मगर उसने बहाना बता दिया।

यूं चार बेटियों से जब बात ना बनी,

करते भी क्या किसी से भी उम्मीद ना रही।


खुद ही पायजामा काटकर सिल दिया उसे,

फिर वह ज़नाब बेफिक्र की नींद सो गए।

बेगम बेचारी काम से फारील हुई जरा, 

पायजामे की सिलाई का तब ध्यान आ गया।


नाराज ना हो जाए मियां किसी भी बात पर,

पायजामा ठीक कर दिया नीचे से काटकर।

धोया जो बड़ी बेटी ने मेहंदी भरे वो हाथ,

पायजामा छोटा कर दिया फिर खुश दिल्ली😊 के साथ।


 जिस-जिस को जब भी वक्त मिला,

सबने पायजामा छोटा करके वही रख दिए।

यूं रात भर सभी थे, पायजामे पर मेहरबान!!!

कहता भी क्या,

 वह किसी से मासूम बेजुबान।


पायजामे की थी सुबह में हालत अजीब सी,

कुर्ते पर थी एक सफेद चड्डी रखी हुई।


साभार - सोशल मीडिया

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 32 (Valmiki Ramayana Part - 32)


जटायु की यह दशा देखकर सीता विलाप करने लगीं और अपनी रक्षा के लिए पुनः राम-लक्ष्मण को पुकारने लगीं। रावण का पूरा शरीर कोयले जैसे काला था, जो युद्ध और क्रोध के कारण अब और भी भयावह दिखने लगा। सीता का स्वर्ण जैसा सुनहला मुख शोक के कारण मलिन दिखाई देने लगा। भयभीत सीता इस पापकर्म के लिए पुनः रावण को धिक्कारने लगीं और अनेक प्रकार की करुणाजनक बातें कहने लगीं। लेकिन रावण पर इन सब बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह सीता को लेकर तीव्र वेग से आकाश-मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। व्यथित सीता को अपना कोई सहायक दिखाई नहीं दे रहा था, पर तभी अचानक मार्ग में उन्होंने एक पर्वत के शिखर पर पाँच श्रेष्ठ वानरों को बैठे देखा। शायद वे लोग सीता के अपहरण की बात श्रीराम को बता सकें, इस आशा में सीता ने अपनी सुनहरे रंग की रेशमी चादर उतारी और उसमें आभूषण लपेटकर उसे उन वानरों के बीच में फेंक दिया। रावण लंका पहुँचने की जल्दी में था, इसलिए सीता के इस कार्य पर उसका ध्यान नहीं गया। पंपा सरोवर को लांघकर और अनेक वनों, नदियों, पर्वतों, सरोवरों और अंततः समुद्र को भी आकाशमार्ग से पार करते हुए रावण ने सीता को लेकर लंका में प्रवेश किया। लंका नगरी का विस्तार बहुत बड़ा था। वहाँ अनेक विशाल राजमार्ग बने हुए थे और लंका के प्रवेश द्वार पर बहुत-से भीषण राक्षस पहरा दे रहे थे।
लंका में पहुँचकर रावण ने सीता को लेकर अपने अन्तःपुर में प्रवेश किया। तब उसने भयंकर आकार वाली पिशाचिनों को बुलाकर आज्ञा दी, “तुम सब सावधान रहकर सीता की रक्षा करो। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी स्त्री-पुरुष सीता को देख या मिल न पाए। इसे मोती, मणि, स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण या जिस किसी भी वस्तु की इच्छा हो, वह तुरंत प्रस्तुत की जाए। यह मेरी आज्ञा है। तुम लोगों में से किसी ने यदि भूल से भी सीता से कोई अप्रिय बात कही या उसका अपमान किया, तो मैं समझूँगा कि तुम्हें अपना जीवन प्यारा नहीं है।” ऐसी आज्ञा देकर रावण अब आगे के बारे में सोचता हुआ अन्तःपुर से निकला और कच्चे माँस का भी आहार करने वाले आठ विकराल राक्षसों से तत्काल मिला। उन सबके बल और पराक्रम की प्रशंसा करके उसने कहा, “जिस जनस्थान में खर रहता था, वह इस समय उजाड़ पड़ा है। वहाँ के सभी राक्षस मार डाले गए हैं। राक्षस वीरों! तुम सब लोग अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर उस सूने जनस्थान में जाओ और अपने पराक्रम से वहाँ जाकर निवास करो। राम ने वहाँ मेरी विशाल सेना के साथ-साथ खर और दूषण को भी मार डाला है। इसलिए मैं बहुत क्रोध में हूँ और उस शत्रु से बदला लेना चाहता हूँ। राम का वध होने पर ही मैं शान्ति पा सकूँगा। अतः जनस्थान में रहकर तुम लोग राम की गतिविधियों पर दृष्टि रखो और वह कब, क्या करता है इसकी सूचना मेरे पास भेजते रहो। तुम सब लोग सतर्क होकर वहाँ रहना और राम का वध करने के लिए सदा प्रयत्न करना। तुम लोग बड़े वीर हो, इसी कारण मैंने इस कार्य के लिए तुम सबको चुना है। यह आज्ञा पाकर उन राक्षसों ने रावण को प्रणाम किया और लंका को छोड़कर उन्होंने जनस्थान की ओर प्रस्थान किया।
कामासक्त रावण को तब पुनः सीता का स्मरण हो आया और वह सीता को देखने अपने अन्तःपुर में वापस गया। वहाँ पहुँचने पर उसने देखा कि राक्षसियों के बीच बैठी सीता दुःख में डूबी हुई हैं। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है शोक से व्याकुल होकर वे अत्यंत पीड़ित दिखाई दे रही हैं। दुःख और विवशता के कारण सिर झुकाकर चुपचाप बैठी हुई सीता के पास जाकर उस पापी रावण ने जबरन सीता को अपना पूरा महल दिखाया। उस महल में हजारों स्त्रियाँ निवास करती थीं। अनेक प्रकार के पक्षी वहाँ कलरव करते थे। कई प्रकार के रत्न उस अन्तःपुर की शोभा बढ़ाते थे। उसके खंभों में हाथी दाँत, सोने, स्फटिक, मणि, चाँदी, हीरा, नीलम आदि सुन्दर रत्न जड़े हुए थे। वहाँ मधुर वाद्य बजते रहते थे। उस अन्तःपुर को तपे हुए सोने के आभूषणों से सजाया गया था और उसकी सीढ़ियाँ भी सोने की बनी हुई थीं। उस महल की खिड़कियाँ हाथी दाँत और चाँदी की बनी हुई थीं, और वहाँ सोने की जालियों से ढँकी हुई प्रासाद-मालाएँ भी दिखाई दे रही थीं। उसमें सुर्खी (ईंट का बुरादा) और चूने से बना पक्का फर्श था, जिसे मणियों से सजाया गया था। रावण ने सीता को लुभाने के लिए उन्हें यह सब दिखाया और अनेक बावड़ियाँ, सुन्दर सरोवर आदि भी दिखाए। इसके बाद वह नीच राक्षस उनसे बोला, “सीते! मेरे अधीन बत्तीस करोड़ राक्षस हैं। बूढ़े और बालक निशाचरों की संख्या इससे अलग है। मैं उन सबका स्वामी हूँ। अकेले मेरी सेवा में ही एक हजार राक्षस नियुक्त रहते हैं। चारों ओर से समुद्र से सुरक्षित इस लंका के राज्य का विस्तार सौ योजन है। सभी देवता और असुर मिलकर भी इसे जीत नहीं सकते। देवता, यक्ष, गन्धर्व, ऋषियों आदि में कोई ऐसा नहीं है, जो बल और पराक्रम में मेरा सामना कर सके। मेरा यह सारा राज्य और मेरा जीवन भी अब तुम्हें ही समर्पित है। तुम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। मेरे अन्तःपुर में मेरी अनेक सुन्दर स्त्रियाँ हैं। तुम उन सबकी स्वामिनी बनो। मेरी प्रिय भार्या बनो। यह यौवन सदा रहने वाला नहीं है, अतः राम के शोक में इसे नष्ट करने से अच्छा है कि तुम मुझे अंगीकार करो और मेरे साथ रमण करके यहाँ जीवन का आनंद लो। वह राम तो अपना ही राज्य गँवाकर दीन-हीन की भाँति वन में पैदल भटक रहा है। उस तुच्छ मानव में इतनी शक्ति नहीं है कि वह यहाँ तक आने का विचार भी कर सके। उसके लिए तुम अपना जीवन व्यर्थ मत गँवाओ। देखो! यह सुन्दर पुष्पक विमान मैंने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक छीना था। यह अत्यंत रमणीय, विशाल और मन के समान तीव्र वेग से चलने वाला विमान है। आओ, तुम इस पर मेरे साथ बैठकर सुखपूर्वक विहार करो।
रावण की ऐसी बातें सुनकर दुःखी सीता ने अपने मुख को आँचल से छिपा लिया और शोक से बेचैन होकर वे श्रीराम के बारे में सोचते हुए धीरे-धीरे आँसू बहाने लगीं। यह देखकर निर्लज्ज रावण ने पुनः कहा, “विदेह नन्दिनी! तुम्हारा और मेरा तो अब स्नेह का संबंध है, अतः तुम्हें मुझसे लजाना नहीं चाहिए। मैं तो अब तुम्हारे ही चरणों का दास हूँ।” ऐसा कहकर रावण सोचने लगा कि ‘अब यह मेरे अधीन हो गई है’, किन्तु क्रोधित सीता एक तिनके की ओट करके निर्भय होकर उस पापी रावण से बोलीं, “अरे दुष्ट! केवल श्रीराम ही मेरे आराध्य और प्रिय हैं। उनका साहस सिंह के समान है। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ यहाँ आकर शीघ्र ही तेरा विनाश करेंगे। तूने जिन विकराल राक्षसों की चर्चा की है, श्रीराम के सामने जाते ही उन सबका भी निश्चित ही विनाश होगा। यदि तू श्रीराम के सामने मेरा अपहरण करता, तो अपने भाई खर के समान तू भी जनस्थान में ही मारा जाता, किन्तु अब तू निश्चित समझ ले कि इस लंका में ही तेरा अंत होगा। मेरा अपहरण करके तूने ऐसा भीषण कृत्य किया है कि अब तेरे साथ ही इन सभी राक्षसों का, तेरे समूचे अन्तःपुर का और लंका के इस पूरे राज्य का भी विनाश होगा। मैं पतिव्रता स्त्री हूँ और श्रीराम की धर्मपत्नी हूँ। तू कभी मुझे प्राप्त नहीं कर सकेगा।” सीता के इन कठोर वचनों को सुनकर रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने सीता को भय दिखाते हुए कहा, “मेरी बात सुन लो। मैं तुम्हें बारह मास का समय देता हूँ। यदि तब तक तुम स्वेच्छा से मेरे पास नहीं आई, तो मेरे रसोइये सुबह का नाश्ता बनाने के लिए तुम्हारे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे। सीता से ऐसी भयंकर बातें कहकर रावण ने कुपित होकर उन राक्षसियों से कहा, - रक्त-माँस का आहार करने वाली विकराल भयंकर राक्षसियों! तुम शीघ्र ही इस सीता का अहंकार दूर करो। यह सुनते ही वे सब राक्षसियाँ उसे चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गईं। तब उन्हें सीता से कुछ दूर ले जाकर रावण ने कहा, “तुम लोग सीता को अशोक वाटिका में ले जाओ और चारों ओर से घेरकर इस पर दृष्टि रखो। वहाँ तुम पहले भयंकर बातें और गर्जना करके इसे डराना, फिर मीठी-मीठी बातों से समझा-बुझाकर इसे अपने वश में लाने की चेष्टा करना। इस आदेश को सुनकर वे राक्षसियाँ सीता को लेकर अशोक वाटिका में चली गईं। वह वाटिका अनेक प्रकार के फल-फूलों वाले वृक्षों से भरी हुई थी व कई प्रकार के पक्षी भी वहाँ निवास करते थे। उन मनोरम वाटिका में भी सीता का व्याकुल मन शांत नहीं हुआ। अपने भीषण दुःख और उन विकराल राक्षसियों से मिलने वाली डाँट-फटकार व अपमान के कारण वे और व्यथित हो गईं। ऐसी अवस्था में भय व शोक से पीड़ित होकर अपने पति और देवर का स्मरण करती हुईं सीता दुःख से अचेत हो गईं।

मारीच का वध करने के बाद श्रीराम तुरंत ही अपने आश्रम की ओर लौटे। वे यथाशीघ्र आश्रम वापस पहुँचना चाहते थे। तभी अचानक पीछे की ओर से एक सियारिन रोंगटे खड़े कर देने वाले कठोर स्वर में भयंकर चीत्कार करने लगी। श्रीराम ने इसे भीषण अपशुकन माना। मार्ग में उन्हें और भी कई अपशकुन दिखाई दिए। वन के मृग और पक्षी बड़ी भयंकर वाणी में कोलाहल कर रहे थे। वे सब उन्हें बायीं ओर करके चल रहे थे। तब श्रीराम सोचने लगे, “आज भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। अवश्य ही कोई अशुभ घटना हुई है। क्या सीता सकुशल होगी? राक्षस मारीच ने उन्हें भ्रमित करने के लिए ही मरते समय बड़े आर्त स्वर में मेरे जैसी वाणी में ही लक्ष्मण को पुकारा था। उससे चिंतित होकर सीता अवश्य ही लक्ष्मण को मेरी सहायता के लिए भेजेगी। जब हम दोनों भाई आश्रम में नहीं होंगे, तो क्या अकेली सीता वहाँ सुरक्षित रह पाएगी। जनस्थान में जो राक्षसों का संहार हुआ, उस कारण सभी राक्षसों का मुझसे बैर हो गया है। यह सब सोचते हुए श्रीराम तेजी से आगे बढ़े। इतने में ही उन्हें लक्ष्मण आते हुए दिखाई दिए। उनका मुख मुरझाया हुआ था और वे दुःख में डूबे हुए दिख रहे थे। लक्ष्मण को देखकर श्रीराम ने उनका बायाँ हाथ पकड़ लिया। बहुत आर्त होकर श्रीराम ने सीता को अकेली छोड़कर आने के लिए लक्ष्मण की निंदा की। फिर वे चिंतित स्वर में बोले, “सौम्य लक्ष्मण! मेरा मन अत्यंत दीन व अप्रसन्न हो रहा है। मेरे आस-पास अनेक अपशकुन हो रहे हैं। मेरी बायीं आँख भी फड़क रही है। ऐसा लगता है कि सीता अब कुशल नहीं है।, उससे यही लगता है कि निःसंदेह सीता आश्रम में नहीं है। कोई उसका हरण करके ले गया। तब लक्ष्मण ने उन्हें बताया, “भैया! मैं अपनी इच्छा से उन्हें अकेला छोड़कर नहीं आया। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि ‘देवताओं की भी रक्षा करने वाले मेरे भैया कभी भी अपने मुँह से ‘बचाओ! बचाओ!’ जैसे कायरतापूर्ण वचन नहीं कह सकते। लेकिन वे नहीं मानीं। उनके कठोर वचनों से विवश हो मुझे यहाँ आना पड़ा। ऐसी बातें करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण ने उस सूने आश्रम में प्रवेश किया। भूख-प्यास, शोक और परिश्रम से श्रीराम का मुँह सूख गया था। सारी पर्णशाला उजाड़ दिखाई दे रही थी। चारों ओर मृगचर्म और कुश बिखरे हुए थे। चटाइयाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। आश्रम में उन्होंने सीता के सभी प्रिय स्थानों को देखा, किन्तु वह कहीं दिखाई नहीं दी। आश्रम में सीता को न पाकर श्रीराम विषाद में डूब गए और अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगे। फिर उन्होंने सोचा कि सीता घबराकर कहीं छिप तो नहीं गई या वह कहीं फल-फूल या जल लाने के लिए वन में या नदी तट पर तो नहीं चली गई? अतः उन्होंने वन में भी चारों ओर सीता को खोजा। शोक के कारण उनकी आँखें लाल हो गईं और वे उन्मत्त दिखाई देने लगे।जब सीता कहीं नहीं मिलीं, तो शोक से व्याकुल होकर वे लक्ष्मण से कहने लगे, “लक्ष्मण! सीता के बिना मैं भी प्राण त्याग दूँगा। जीवित रहकर मैं किस मुँह से अयोध्या वापस जाऊँ और मरने पर परलोक जाकर भी मैं पिताजी को क्या मुँह दिखाऊँ? वे ताना देते हुए मुझसे कहेंगे कि “मैंने तुझे चौदह वर्षों के लिए वन में भेजा था, पर तू मेरा वचन झूठा करके समय पूरा होने से पहले ही यहाँ चला आया। तुझे धिक्कार है। तब मैं क्या उत्तर दूँगा!”
उनका शोक देखकर लक्ष्मण ने उन्हें समझाया, “भैया! आप इस प्रकार विषाद न करें। आप मेरे साथ मिलकर जानकी को ढूँढने का प्रयास करें। वे यहीं कहीं होंगी। हम साथ मिलकर खोजें, तो शीघ्र ही उन्हें ढूँढ निकालेंगे।” यह सुनकर दोनों भाई पुनः सीता की खोज में लग गए। बहुत ढूँढने पर भी उसे न पाकर श्रीराम अत्यंत शोक से विलाप करने लगे। सीता के शोक से व्याकुल होकर रोते हुए श्रीराम को देखकर लक्ष्मण का मन भी अत्यंत व्यथित हो गया और वे घबरा गए। फिर भी उन्होंने श्रीराम को सांत्वना दी और दोनों भाई पुनः वन में, नदी तट पर सर्वत्र सीता को खोजने लगे। अब श्रीराम वन के वृक्षों, पर्वतों, पुष्पों, भँवरों, मृगों, हाथियों और नदी से भी पूछने लगे कि ‘क्या तुमने सीता को कहीं देखा है? वे हर दिशा में ‘सीते! सीते!’ कहकर पुकारने लगे। उन्हें देखते ही मृगों का एक झुण्ड सहसा उठ खड़ा हुआ और मुड़-मुड़कर उसी दिशा में देखने लगा, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था। यह देखते ही बुद्धिमान लक्ष्मण ने कहा, “तात! जब आपने पूछा कि ‘सीता कहाँ है?’, तो ये मृग सहसा खड़े हो गए और दक्षिण दिशा की ओर हमारा ध्यान दिला रहे हैं। इससे मुझे लगता है कि हमें भी नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) दिशा की ओर ही जाना चाहिए।” तब श्रीराम ने उनकी बात मान ली और वे दोनों दक्षिण दिशा की ओर चले। मार्ग में उन्हें कुछ फूल गिरे हुए दिखाई दिए। तब श्रीराम ने दुःखी होकर लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! मैं इन फूलों को पहचानता हूँ। मैंने यही फूल सीता को दिए थे और उसने इन्हें अपने बालों में लगा लिया था। थोड़ा और आगे जाने पर उन लोगों को सीता के और उस राक्षस के पैरों के निशान, टूटे धनुष, तरकस, छिन्न-भिन्न होकर टुकड़ों में बिखरा हुआ रथ आदि भी दिखे। यह सब देखकर श्रीराम का हृदय घबरा गया। तभी उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ये देखो! सीता के आभूषणों में लगे सोने के घुंघरू यहाँ बिखरे पड़े हैं। उसके अनेक हार भी यहाँ टूटकर बिखरे हुए हैं। यहाँ की पूरी भूमि रक्त की बूँदों से सनी हुई दिखाई दे रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इच्छाधारी राक्षसों ने सीता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए होंगे और मिल-बाँटकर उसे यहाँ खा लिया होगा? लक्ष्मण! यह मोतियों और मणियों से विभूषित अत्यंत सुन्दर और विशाल धनुष किसका हो सकता है? इसमें वैदूर्यमणि (नीलम) के टुकड़े जड़े हुए हैं। उधर सोने का कवच गिरा हुआ है। वह किसका होगा? न जाने यह छत्र किसका है, रथ किसका है? ये बाण और तरकस किसके हैं? ये अवश्य ही किसी राक्षस के पदचिह्न हैं। अवश्य ही सीता का अपहरण या हत्या हो गई है अथवा क्रूर राक्षसों ने उसे मारकर खा लिया है। अब राक्षसों के प्राण लेकर ही उनसे मेरा वैर समाप्त होगा। मुझे निर्बल मानकर उन राक्षसों ने मेरी स्त्री का अपहरण कर लिया है। अब यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, किन्नर और मनुष्य कोई भी चैन से नहीं रह पायेंगे। अब तीनों लोक मेरे पराक्रम को देखेंगे।”
ऐसा कहकर श्रीराम अत्यंत क्रोधित होकर बार-बार अपने धनुष की ओर देखने लगे और उन्होंने उसकी डोरी चढ़ा ली। तब लक्ष्मण ने पुनः समझाया, “आर्य! यहाँ केवल एक ही रथ के चिह्न दिख रहे हैं, दो रथों के नहीं। यहाँ किसी विशाल सेना के पदचिह्न भी नहीं हैं। इससे लगता है कि सीता का अपहरण करने वाला कोई एक राक्षस ही था। आप क्रोधित होकर अपने स्वभाव को न छोड़ें। किसी एक के अपराध का दण्ड सारे संसार को न दें। मैं यह पता लगाने का प्रयास करता हूँ कि यह रथ किसका है। हम लोग सारे वनों, पर्वतों, नदियों, समुद्रों में हर कहीं सीता को खोजेंगे। बड़े-बड़े ऋषियों की सहायता लेकर उसका पता लगाएँगे। शान्ति से पूछने पर भी यदि सारे संसार में कहीं सीता का पता न मिला, तो अवश्य ही आप क्रोधित होकर सारे संसार का संहार कर दीजिएगा, किन्तु अभी आप इस प्रकार शोक और क्रोध मत कीजिए। यह सुनकर श्रीराम पुनः अनाथों के भाँति भीषण विलाप करने लगे। तब पुनः लक्ष्मण ने बहुत प्रयास करके उन्हें शांत किया और फिर दोनों भाई सीता की खोज में आगे बढ़े। कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने विशाल शरीर वाले पक्षीराज जटायु को भूमि पर खून से लथपथ पड़ा देखा। पहले तो श्रीराम ने उसे भी राक्षस समझकर धनुष तान दिया था, पर तभी अचानक दीन वाणी में बोलते हुए जटायु ने उनसे कहा, “आयुष्मान! तुम जिसे ढूँढ रहे हो, उस देवी सीता को और मेरे प्राणों को भी रावण ने ही हर लिया है। ऐसा कहकर जटायु ने रावण से हुए संग्राम का वर्णन दोनों भाइयों को सुनाया। यह सब सुनकर राम और लक्ष्मण दोनों ही शोक से विह्वल हो गए। दोनों भाइयों ने जटायु को गले लगा लिया और रोने लगे। तब उन्हें सांत्वना देते हुए जटायु ने बड़े कष्ट से धीरे-धीरे कहा, “रघुनन्दन! अब मेरे प्राण छूटने वाले हैं। मेरी दृष्टि घूम रही है। समस्त वृक्ष मुझे सुनहरे रंग के दिखाई दे रहे हैं। लेकिन तुम जानकी के लिए खेद न करो। रावण जिस मुहूर्त में उसे ले गया है, वह ‘विन्द’ मुहूर्त था। उसमें खोया हुआ धन भी शीघ्र वापस मिल जाता है। तुम भी शीघ्र ही सीता को पुनः प्राप्त कर लोगे। रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है…
....ऐसा कहते-कहते अचानक ही जटायु के मुँह से रक्त निकलने लगा, उनका मस्तक भूमि की ओर झुक गया, दोनों पंख फ़ैल गए और जटायु के प्राण निकल गए।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस)
जय श्रीराम🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

उसके बारे में... (About that...)



चाय 🍵पियोगी?

मैंने पूछा...। 

नहीं!!!

उसने एक घंटे बाद जवाब दिया

        मुझे इस बात का मलाल नहीं कि उसने ना!!! कहा, इस बात का जरूर है कि कॉफी टेबल पर जब भी उसका ध्यान दूसरी तरफ होता, मैं उसे देखता था जी भर के। चाय पीने का अवसर मेरे लिए उसे देखने का मौका था, करीब से। उसने मुझसे यह अधिकार भी छीन लिए, जो मेरे लिए प्रेरणा के स्रोत थे। अब वह मेरे संदेशों का जवाब नहीं देती। क्या पता कि उसको लगता हो कि उससे प्रेम करके मैंने अपनी हदें पार कर दी है और हद पार करने वालों को कौन ही चाहता है?

      आज तीसरी बार है जब उसके लिए लिख रहा हूं और तब तक लिखता रहूंगा जब तक अपने आत्मा को निचोड़ ना दूँ। क्या हुआ अगर वह बात नहीं करना चाहती। यह उसका चुनाव है। मैंने अपना चुनाव कर लिया है और शायद इसपे टिका रहूंगा। मेरे अनुभव ने मुझे सिखाए थे कि 'जो दिखता है वह बिकता है वाली दुनिया में' संवेदनाओं का कोई मोल नहीं। मुझे भ्रम था कि गलत हो सकते हैं मेरे अनुभव, कई बार। उसने मुझे सिखाया कि अनुभव झूठ नहीं बोलते क्योंकि वे वक्त नहीं परिस्थितियों के आईना हैं। आज जब उससे बात नहीं होती, मुझे स्मरण है उससे घंटो बात किए गए वह क्षण जिसमें मैं समय देखना भूल जाता था। सिवाय इसके कि वह सोए वक्त पर। जब दिन की शुरुआत और अंत होते थे उसके मैसेज से।


मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। रिश्तो के दबाव ने उसे मजबूर किया होगा शायद। हम सभी, कई रिश्तों का बोझ ढोते हैं जीवन भर और अपनी नजरिया बदलते हैं उसके प्रभाव में। मुझे ईर्ष्या है उस लड़के से, जिसने जीता है उसका प्रेम। और कर पाता है उसके बालों का स्पर्श। छोटे बाल हैं उसके, लेकिन जब भी खोलती है प्यारी लगती है। मेरा कलेजा फटता है जब देखता हूं उसे बात करते हैं अपने प्रेमी से दिन रात। वो अलग बात है कि उसे मुस्कुराते देख खुश हूं। 


'खाली दिमाग शैतान का घर होता है' उसने कहा था। लेकिन वह झूठ बोल रही थी शायद! खाली दिमाग होता है 'उसका' जिसमें सोचता हूं उसके बारे में....🤔


    सुबह हो चुकी थी, नए वर्ष का आगाज़ का दिन था। आज का दिन लोग विशेष रूप से मनाते थे, मान्यता है कि अगर साल की शुरुआत अच्छी हो तो पूरा साल अच्छा गुजरता है। इसके अलावा नया वर्ष लाता है नई उम्मीदें और पुराने वर्षों का तजुर्बा, इस तरह हम हर वर्ष एक साल परिपक्व हो रहे होते हैं। ....ना उम्मीदि से शुरू हुई वर्ष में, महत्वाकांक्षाओं और उम्मीदों का गठरी उठाने से पहले कुछ वक्त इनसे दूर बिताना चाहता था। फिर, उस अवस्था में जा पहुंचा जहाँ वक्त ठहर सा जाता है। हरिवंश बच्चन जी के शब्दों में....

“बैर कराते मन्दिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला” 

.....कितना सटीक बैठता है न!!! कभी भी सामाजिक नहीं रहा, शायद इसलिए उन लोगों को शुभकामनाएं दे रहा था जिससे कभी परिचय ना हो सका। फोन का पहला नोटिफिकेशन बजते ही मैंने देखा, एक प्यारी सी लड़की जो आज तक अजनबी थी, ने मेरे संदेशो का प्रतिउत्तर दिया था, सबसे पहले।

हैप्पी न्यू ईयर टू यू टू

उसने कहा

और कैसे हो? क्या कर रहे हो?

उसके प्रश्न थे।


उत्तर का प्रति उत्तर समझना ठीक लगा पर एक अजनबी का मेरे बारे में जिज्ञासा नया था।

वह पूछती गई और मैं बताता गया…

वह सुनाती गई और मैं सुनता रहा…


वक्त दोपहर का हो चला था। शायद चार घंटे बीत चुके थे। मेरे जीवन मे आई वह पहली व्यक्ति थी जिसने मेरे ‘जख्मों’ को ‘जख्म’ माना। इस दुनिया के भीड़ में अपने जख्मों का इलाज स्वयं ही ढूंढना पड़ता है मालूम था मुझे। लेकिन कितना सुखद होता है उन गिने-चुने लोगो का साथ होना, जो आपके जख्मों को समझें और आपकी लड़ाई को मान्यता दे।


किसी से मिलकर खुशी हुई पहली बार। हम अपने अनुभवो से सीखते हैं दूसरे का अनुभव समझने का हूनर, क्योंकि अनुभव हमारे तराजू होते हैं जिससे नापते हैं हम दूसरों के ज़ख्म। उसके अनुभवों ने मुझे एहसास दिलाया कि मैं अकेला नहीं हूं इस जहां में, मेरे जैसे और भी यहां रहते हैं लोग, प्रकृति का एक जैसा आशीर्वाद पाए। मित्रता समानताओं से होती है और अनुभव से बड़ा कोई समानताएं नही होतीं हैं?


यह दोस्ती के लिए पर्याप्त था…

Sudhakar Singh✍️

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

तुम्हारे बारे में...✍️ Introductory.



    तुम्हारा मेरे इस जीवन में प्रवेश पतझड़ के मौसम में बसंत की अनुभूति है। परिचय देर से होना मुझे सदैव अपने बदनसीबी का याद दिलाता रहेगा और तुमसे मिलना मेरे अच्छे किस्मत की।🫠


.....औरों की तरह अभ्यस्त नहीं हूं तो कृपया लिखने✍️ में हुई छोटी-मोटी भूल को नजरअंदाज🤗 करना।


     पहली बार तुमसे बात करने का हौसला मुझे शराब की मादकता🍺 ने दिया और शायद यह शराब द्वारा किसी को सर्वश्रेष्ठ उपहार है। आज जब एक दूसरे को जानते हुए महीनो हो चुके हैं, मुझे ज्ञात है कि हम कितने अलग हैं, शायद बहुत अलग। हमारी मित्रता की परिभाषा, दुनिया को देखने का नजरिया कितना भिन्न है न? फिर भी न जाने क्यों मैं समानताएं ढूंढ लेता हूं। मेरी मां के अलावा तुम वह पहली स्त्री हो जिसके सामने अपनी आत्मा और हृदय को पूरी तरह से खोल दिया था, बिना किसी हिचकिचाहट और भ्रम के। मुझे ना जाने क्यों ये मालूम था कि इस दुनिया की तमाम लोगों से घिरा मैं, तुम पर भरोसा कर सकता हूं। तुम्हारी ‘उस’ बात से मेरे हृदय पर गहरा आघात पहुंचा। उस दिन मैं खूब रोया, एक बच्चे की भाती, जैसे रोता है वह अपने माता-पिता से बिछड़ जाने पर।


      इन सब के बावजूद में तुम्हें खोना नहीं चाहता, शायद इसलिए क्योंकि तुम वो पहली स्त्री हो जिसके सामने मैंने संतोष के आंसू गिराए थे। आज जब मैं यह पत्र लिख रहा हूं तो सोच रहा हूं कि तुम कहां और कैसी होगी??? तुम्हारे बार-बार इग्नोर करने के बाद भी मेरा संदेश भेजना इस बात का प्रमाण है कि तुम मेरे लिए मेरे आत्म-सम्मान से भी बढ़कर हो। मुझे नहीं पता यह क्या है पर मुझे तुम्हारी कमी खलने लगी है। तुमसे बात ना हो पाना मुझे बोझ सा लगता है और तुम्हारे साथ होना एक सुखद अनुभूती। मुझे पता है की इसपर तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होने वाली है और वह जायज भी है। शायद तुम्हारी जगह पर कोई और स्त्री होती तो वो भी ऐसा ही करती। फिर? फिर मैं यह क्यों लिख रहा हूं? क्या मनसा है मेरी? मैं जानता हूं कि इसके पढ़ने के बाद शायद तुम हमारे बीच की समान्य दोस्ती भी समाप्त कर दो। लेकिन केवल इसलिए, मैं अपने हृदय पर एक भारी बोझ रखूं यह मुझे स्वीकार्य नहीं।


      .....बड़े ख्वाब नहीं है तुम्हें लेकर। मैं बस इतना चाहता हूं कि जब नींद आए तो तुम्हारे कंधे पर सर रखकर सो सकूं। और तुम भी ऐसा कर सको। तुम्हारे साथ किसी कॉफी शॉप पर बैठकर घंटो तुम्हारी ओर देखता रहूं और तुम्हारी मुस्कान पर अपनी जान छिड़क दूँ।


       अपनी यादों के गुलदस्ते में जब भी मैं पीछे की ओर झाकुंगा तो मुझे तुम्हारे लिए लिखे गए ये शब्द, चमकते मोती की तरह दिखाई देंगे। संभव है की आज का मेरा भविष्य इसे देखकर खूब हँसे या झेप जाए। शायद इसलिए यह दर्ज करना जरूरी है। क्या इतना आसान और सहज है यह 'शब्द' कि मैं उसे कागज पर उतार सकूं? अगर इतनी क्षमता होती, तुम्हारे लिए एक उपन्यास लिखता और पहले पन्ने पर बिना तुम्हारा नाम लिखे खाली छोड़ देता। शब्दों की सीमित समझ में, मैं तुमसे ऐसी बातचीत करना चाहता हूं जो शायद तुम्हारे साथ घंटों बैठकर ना कर पाऊं। दरअसल यह अनुभव बिल्कुल अलग है। इसमें थोड़ी सी असुरक्षा भाव, अत्यधिक ईर्ष्या, भय और बेचैनी का समिश्रण है। पर सच कहूं तो असहज और निराश होकर भी यह एक सुखद अनुभूति....




     अगर कभी उम्मीदों और आकांक्षाओं का बोझ संभाले कोई मनुष्य देखना हो तो मेरी तरफ देखना क्योंकि तब तुम्हें महसूस होगा की बोझ के तले दब कर भी इंसान खुश😊 रह सकता है। शायद मेरी नजर में यही उस ‘शब्द’ की सटीक परिभाषा है। अब मुझे पता चला कि परिभाषाओं से घिरा मनुष्य कितना असहाय हो जाता है। 


    फिर, अब ये बोझ कैसे हल्का करुं? मुझे पुराने हिंदी के गीत बहुत पसंद है पर गा नहीं पाता, शायद मेरे पास लिखना ही एकमात्र साधन है और बिना तुम्हारी बातें किए तुम्हारे लिए लिखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। तो फिर, अब क्या लिखूँ ये भी महत्वपुर्ण प्रश्न है। तुम बहते पानी के बहाव की तरह हो जो निर्भीक सागर की तरफ बढ़ते जाती है। तुम्हारे होने मात्र से वक़्त के बहाव का अंदाजा नही होता और इतने शोर के बावजूद एक अलौकिक शांति की अनुभूती होती है। मुझे मालूम है की गहरे सागर में मेरे टपकते चंद बूँदों का कोई मोल नहीं, फिर भी मैं इन्हें गिरने से नहीं रोक पाता। मुझे तुम्हारे झुमके से बड़ा लगाव है वह मुझे अपनेपन का एहसास दिलाता है। बिल्कुल मेरी ही तरह वो भी तुम्हारे जीवन का हिस्सा ना होकर भी तुमसे जुड़ाव महसूस करता है। उम्मीद है की वक़्त का मलहम सब ठीक कर दे, पर मैं इस घाव को थोड़े और वक़्त तक जीना चाहता हूँ, थोड़ा स्वार्थी हूँ, ये दर्द भरा संतोष खोना नहीं चाहता। 


शेष… फिर कभी.!


अब तो बातों का यह सिलसिला यूं ही जारी रहेगा।


     .....पता है यह मुमकिन नहीं है। तुम्हारा जीवन रंगों से भरा हुआ है। फूलों सा खिला हुआ है। प्रकृति तुम्हारे जीवन की इस वसंत को अमर कर दे।  मेरा क्या है? मैं तो तुम्हें दूर से देख कर ही खुश😊 हूं।


Sudhakar Singh✍️

वाल्मीकि रामायण भाग - 31 (Valmiki Ramayana Part - 31)



दण्डकारण्य में पहुँचकर रावण और मारीच ने श्रीराम के आश्रम को देखा। तब मारीच का हाथ पकड़कर रावण बोला, “मित्र! यह केले के वृक्षों से घिरा हुआ राम का आश्रम दिखाई दे रहा है। अब तुम शीघ्र ही वह कार्य करो, जिसके लिए हम यहाँ आए हैं।” यह सुनकर मारीच ने मृग जैसा रूप बना लिया। इस चितकबरे मृग की त्वचा का रंग सुनहरा था और इसके पूरे शरीर पर सफेद और काले रंग की बूँदें थीं। इसके कान नीलकमल जैसे और गरदन कुछ ऊँची थी। उसके खुर वैदूर्यमणि के समान व सींगों का ऊपरी भाग इन्द्रनील मणि के समान प्रतीत होता था। सीता को लुभाने के लिए वह आकर्षक मृग बार-बार उस आश्रम के आस-पास विचरने लगा। कभी केले के बगीचे में, तो कभी कनेर के कुञ्ज में वह घूमता रहता था। कभी वह खेलता-कूदता, कभी भूमि पर बैठ जाता, कभी वृक्षों के कोमल पत्तों को खाने लगता, तो कभी मृगों के झुण्ड के पीछे-पीछे कुछ दूरी तक जाकर पुनः एक-दो घड़ी बाद बड़ी उतावली के साथ आश्रम के आस-पास लौट आता था। उसके मन में यही अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार सीता की दृष्टि मुझ पर पड़ जाए। सीता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह उनके आस-पास आकर कई पैंतरे दिखाने लगता था और कभी उनके चारों ओर चक्कर लगाता था। अन्य मृग उसे कौतूहल से देखकर कभी पास आते थे, पर सूंघकर दूर भाग जाते थे। राक्षस होने के कारण वैसे तो मारीच मृगों के वध में तत्पर रहता था किन्तु इस समय अपने वास्तविक रूप को छिपाए रखने के लिए वह अन्य मृगों के स्पर्श करने पर भी उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचा रहा था।

उसी समय सीता फूल चुनने के लिए निकली थीं। कनेर, अशोक और आम के वृक्षों को पार करती हुई वे आगे बढ़ीं। तभी सहसा उन्होंने उस अद्भुत मृग को देखा, जिसका अंग-प्रत्यंग बड़ा मनोहर था। सीता ने ऐसा विचित्र मृग कभी नहीं देखा था। उसे देखते ही सीता की आँखें आश्चर्य से फैल गईं और वे बड़ी उत्सुकता से उसे निहारने लगीं। उस मृग को देखकर सीता बहुत प्रसन्न हुईं और अपने पति श्रीराम व देवर लक्ष्मण को शस्त्र लेकर आने के लिए पुकारने लगीं। सीता के बुलाने पर दोनों भाई वहाँ पहुँचे और उस मृग पर भी उनकी दृष्टि पड़ी। उसे देखकर लक्ष्मण को कुछ संदेह हुआ। उन्होंने कहा, “भैया!!! मुझे तो लगता है कि इस मृग के रूप में वह मायावी राक्षस मारीच ही आया है। वह अनेक प्रकार की मायाएँ जानता है। रघुनन्दन! इस पृथ्वी पर कहीं भी ऐसा विचित्र मृग नहीं है। अतः निःसंदेह यह राक्षसी माया ही है।” लक्ष्मण को बीच में ही रोककर सीता ने बड़े हर्ष के साथ श्रीराम से कहा, “आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा सुन्दर है। इसने मेरे मन को मोह लिया है। आप इसे ले आइये। यह हम लोगों का मन बहलाएगा। इसका रूप अद्भुत है। यदि यह जीवित ही आपके हाथों में आ जाए, तो वनवास की अवधि के बाद हम इसे अपने साथ अयोध्या ले चलेंगे। सीता की बातों को सुनकर और मृग के अद्भुत रूप को देखकर श्रीराम का मन भी विस्मित हो उठा। उन्होंने कहा, “लक्ष्मण! सीता के मन में इस मृग को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी है। इसका रूप है भी बहुत सुन्दर। ऐसा मृग तो देवराज इन्द्र के नन्दनवन में भी नहीं होगा। राजा लोग तो बड़े-बड़े वनों में अपने आनंद के लिए मृगों का शिकार सदा ही करते आये हैं। अतः इस मृग को मारने में कोई अधर्म नहीं है और यदि सचमुच ही यह मायावी राक्षस मारीच हो, तब भी मुझे इसका वध करना ही चाहिए। मारीच ने अनेक श्रेष्ठ मुनियों की हत्या की है, अतः उसका वध करना मेरा कर्तव्य ही है।” “लक्ष्मण! आज मैं इस मृग को मार डालूँगा या इसे जीवित ही पकड़ लाऊँगा। तुम अस्त्र और कवच आदि से सुसज्जित हो जाओ और आश्रम में ही रहकर तुम सीता की रक्षा करना। ऐसा कहकर श्रीराम ने सोने की मूँठवाली तलवार कमर में बाँध ली और पीठ पर दो तरकस बाँध, हाथों में धनुष लिए वे उस मृग की ओर दौड़े। उन्हें देखते ही वह मृग भयभीत होकर छलाँगें मारता हुआ भागा। कभी वह पेड़ों की ओट में छिप जाता, कभी बहुत तेज गति से भागने लगता और कभी ऐसी ऊँची छलाँग लगाता, मानो आकाश में उड़ रहा हो। इस प्रकार भागता, छिपता हुआ वह श्रीराम को उनके आश्रम से बहुत दूर तक खींचकर ले गया।

अब श्रीराम कुछ कुपित हो उठे और थककर एक वृक्ष की छाया में हरी घास पर खड़े हो गए। कुछ ही क्षणों बाद अन्य मृगों के झुण्ड में उन्हें वही मृग पुनः दिखाई दिया। श्रीराम को देखते ही वह पुनः भागा। तब क्रोध में भरे हुए श्रीराम ने तरकस से एक तेजस्वी बाण निकालकर अपने धनुष पर रखा और धनुष को जोर से खींचकर वह तीर छोड़ दिया। उस बाण ने मृगरूपी मारीच के शरीर को चीरकर उसके हृदय को भी विदीर्ण कर दिया। पीड़ा से चीत्कार करता हुआ वह उछलकर भूमि पर गिर पड़ा। अब उसने अपने उस कृत्रिम शरीर को त्याग दिया और मरने से पहले रावण के आदेश को पूरा करने के लिए वह श्रीराम जी के स्वर में ही ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ कहकर पुकारने लगा। उसे आशा थी कि यह स्वर सुनकर सीता लक्ष्मण को भी आश्रम से भेज देगी और रावण निष्कंटक होकर सीता का अपहरण कर लेगा। जब मारीच ने अपना हिरण वाला शरीर उतार फेंका और अपने वास्तविक रूप में आ गया, तो उसे देखते ही श्रीराम को लक्ष्मण की बात याद आई और सीता की चिन्ता सताने लगी। वे सोचने लगे, “अरे!!! लक्ष्मण ने जैसा कहा था, वास्तव में यह तो मारीच ही था। अब यह उच्च स्वर में ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!’ पुकार कर मरा है, इसे सुनकर न जाने सीता और लक्ष्मण की कैसी दशा हो जाएगी।” यह सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो गए और विषाद के कारण उनके मन में तीव्र भय समा गया। तत्काल ही वे बड़ी उतावली अपने आश्रम की ओर दौड़ पड़े।

उधर वन में हुआ आर्तनाद जब आश्रम में सीता ने सुना, तो अपने पति जैसे स्वर को सुनकर वे बड़ी चिंतित हुईं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भैया! तुम शीघ्र जाकर श्रीराम की सुध लो। उन्होंने बड़े आर्त स्वर से हम लोगों को पुकारा है। इससे मैं बहुत घबरा रही हूँ। ऐसा लगता है कि अवश्य ही वे राक्षसों के वश में पड़ गए हैं। तुम शीघ्र जाकर उनकी रक्षा करो।” यह सुनकर भी लक्ष्मण नहीं गए क्योंकि श्रीराम ने उन्हें आश्रम में ही रुककर सीता की रक्षा करने का आदेश दिया था। यह देखकर सीता क्षुब्ध हो गईं। वे क्रोध में भरकर लक्ष्मण से बोलीं, “सुमित्रा कुमार! तुम जिनकी रक्षा के लिए वन में आए हो, जब वे श्रीराम आज संकट में हैं.....ऐसा कहकर वे शोक में आँसू बहाने लगीं तब लक्ष्मण उनसे बोले, “देवी! आप विश्वास करें, नाग, असुर, गन्धर्व, देवता, दानव तथा राक्षस सब एक साथ मिलकर भी आपके पति को परास्त नहीं कर सकते। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है, जो युद्ध में श्रीराम का सामना कर सके। बड़े-बड़े राजाओं की सारी सेना मिलकर भी अकेले श्रीराम के आगे नहीं टिक सकती। अतः आप उनके लिए चिंतित न हों। श्रीराम ने मुझे आपकी रक्षा का भार सौंपा था। खर का और जनस्थान के अन्य राक्षसों का वध होने के कारण इन निशाचरों का हमसे वैर हो गया है। अतः मैं आपको इस आश्रम में अकेला छोड़कर वन में नहीं जा सकता। उस मृग को मारकर आपके पति शीघ्र ही लौट आएँगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। आपने जो स्वर सुना था, वह उनका नहीं है। निश्चय ही वह किसी राक्षस की ही माया थी। आपको उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ भैया श्रीराम गए हैं। इस वन के देवता (मानस मे तुलसीदास जी ने लक्ष्मणरेखा कहा है) अब आपकी रक्षा करें क्योंकि मेरे सामने अब जो भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे मैं संशय में पड़ गया हूँ कि श्रीराम के साथ वापस यहाँ लौटने पर मैं आपको सकुशल देख सकूँगा या नहीं। ऐसा कहकर लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर सीता को प्रणाम किया और वे आश्रम से चले गए।

लक्ष्मण के जाते ही दुष्ट रावण को अवसर मिल गया और वह संन्यासी का वेश बनाकर सीता के समीप आया। उसने शरीर पर गेरुए रंग का साफ-सुथरा वस्त्र लपेट रखा था। उसके सिर पर शिखा (चोटी), हाथ में छाता और पैरों में जूते थे। उसने बायें कंधे पर एक डंडा रखकर उसमें कमण्डल लटका रखा था। सीता को अकेली पाकर रावण उनके सामने जाकर खड़ा हो गया और उनसे कुछ कहने के प्रयास में वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा। सीता जैसी अनुपम सुन्दरी को देखते ही कामी रावण का मन दुष्ट विचारों से भर गया। उस समय सीता अपने पति की चिंता में आँसू बहा रही थीं। उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा और सीता की प्रशंसा करता हुआ विनीत भाव से बोला, “सोने जैसे रंग वाली और रेशमी वस्त्र धारण करने वाली हे सुन्दरी! तुम कौन हो? तुम्हारा मुख, नेत्र, हाथ और पैर सब अति सुन्दर हैं। कहीं तुम कोई अप्सरा अथवा कामदेव की पत्नी रति तो नहीं हो? तुमने अपने सौन्दर्य से मेरे मन को मोह लिया है। पृथ्वी पर तुमसे अधिक रूपवती स्त्री मैंने आज तक नहीं देखी है। देवता, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर जातियों में भी कोई स्त्री तुम जैसी सुन्दर नहीं है। लेकिन तुम्हारा ऐसा अनुपम रूप, यौवन, सौन्दर्य और इस दुर्गम वन में निवास! ऐसा क्यों? तुम यहाँ रहने योग्य नहीं हो। यह स्थान तो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले भयंकर राक्षसों का है। तुम्हें तो रमणीय राजमहलों, समृद्ध नगरों और सुन्दर उद्यानों में रहना और विचरना चाहिए। तुम कौन हो और इस भयानक वन में कैसे आ गई?”

रावण की बातें सुनकर सीता ने उसकी ओर देखा। तब उनका ध्यान गया कि ब्राह्मण के वेश में एक अतिथि द्वार पर आया है। सीता ने सम्मानपूर्वक उसे बैठने का आसन और पैर धोने के लिए जल दिया। फिर उन्होंने अपना परिचय दिया तथा कैकेयी के वरदान व अपने वनवास का कारण बताया। इसके बाद उन्होंने रावण को ब्राह्मण समझकर उससे कहा, “ब्रह्मन्! भोजन तैयार है, आप ग्रहण कीजिए। ऐसा कहकर सीता ने राम और लक्ष्मण को ढूँढने के लिए वन में चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, किन्तु वे दोनों भाई उन्हें कहीं दिखाई नहीं दिए। इधर रावण ने भी सीता की ओर देखा व उनके अपहरण का निश्चय और दृढ़ कर लिया। रावण के कलुषित विचारों से अनभिज्ञ सीता ने उसका परिचय पूछा। तब उस दुष्ट निशाचर ने अत्यंत कठोर वाणी में उत्तर दिया, “सीते! जिसके नाम से देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक थर्रा उठते हैं, मैं वही राक्षसराज रावण हूँ। सुन्दरी!!! तुम्हें देखने के बाद अब मेरा मन किसी और स्त्री में नहीं लगता है। मैंने इधर-उधर से अनेक स्त्रियों का अपहरण किया है। तुम उन सबमें मेरी पटरानी बनो। मेरी राजधानी का नाम लंका है। वह समुद्र के बीच एक पर्वत पर बसी हुई है। वहाँ रहकर तुम मेरे साथ आनंद करना। फिर तुम्हें वनवास का यह कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। तुम यदि मेरी भार्या बन जाओ, तो पाँच हजार दासियाँ तुम्हारी सेवा में नियुक्त रहेंगी।

यह सुनकर सीता को भीषण क्रोध आया। उस नीच रावण का तिरस्कार करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे पति का पराक्रम अतुलनीय है। मैं तन-मन से केवल उन्हीं की अनुरागिणी हूँ। पापी निशाचर! अवश्य ही तेरी मृत्यु निकट आ गई है, तभी तू श्रीराम की प्रिय पत्नी पर कुदृष्टि डाल रहा है। श्रीराम जब हाथ में धनुष-बाण लेकर रोष से खड़े हो जाएँगे, तब काल भी तेरी रक्षा नहीं कर सकेगा।” ऐसा कहकर सीता रोष में काँपने लगीं। तब उनके मन में भय उत्पन्न करने के लिए रावण ने पुनः अपने पराक्रम का और भी बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया। सीता का मन ललचाने के लिए वह उन्हें लंका के वैभव और समृद्धि के बारे में भी बताने लगा। जब सीता ने फिर भी उसका तिरस्कार किया, तो रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं, तो संन्यासी का सौम्य रूप त्यागकर वह दस मुखों और बीस भुजाओं वाले अपने वास्तविक विकराल रूप में आ गया। रावण ने बड़े कठोर वचनों में सीता को डाँटा और उन्हें लाकर रथ पर बिठा दिया। अगले ही क्षण रावण ने अपना रथ आगे बढ़ाया और आकाश-मार्ग से वह सीता को लेकर उड़ चला। यह देखकर सीता दुःख से व्याकुल हो गईं और जोर-जोर से श्रीराम और लक्ष्मण को पुकारने लगीं, “हे रघुनन्दन! हे महाबाहु लक्ष्मण! यह राक्षस मुझे छीनकर ले जा रहा है, आप लोग इस पापी को दण्ड क्यों नहीं देते? हाय! आज कैकयी का मनोरथ पूर्ण हो गया क्योंकि श्रीराम की धर्मपत्नी होकर भी आज मैं एक राक्षस द्वारा छीनी जा रही हूँ। हे वन के वृक्षों! तुम श्रीराम से कहना कि सीता को रावण हरकर ले गया। हे माँ गोदावरी! तुम श्रीराम को बताना कि रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। यह सब कहते-कहते विलाप करती हुई सीता ने अचानक गिद्धराज जटायु को देखा। तब वह करुण क्रन्दन करती हुई बोलीं, “आर्य जटायु! देखिये यह पापी राक्षस मुझे निर्दयतापूर्वक ले जा रहा है। आप इस क्रूर निशाचर को नहीं रोक सकते क्योंकि यह बड़ा बलवान, दुस्साहसी और शस्त्र-सज्ज है, किन्तु आप श्रीराम और लक्ष्मण को अवश्य बताना कि रावण मेरा अपहरण करके मुझे ले गया है। उस समय जटायु पेड़ पर सोया हुआ था। सीता की करुण पुकार सुनते ही उसने आँख खोली, तो सामने रावण और सीता जाते हुए दिखाई दिए। तब पेड़ पर बैठे हुए जटायु ने रावण को समझाया कि “जिस प्रकार पराये पुरुष से अपनी पत्नी की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक पुरुष को दूसरों की स्त्रियों का भी सम्मान करना चाहिए और उनकी भी रक्षा करनी चाहिए। परायी स्त्री का स्पर्श करना अनुचित है और सभी स्त्रियों की रक्षा करना तो राजाओं का विशेष कर्तव्य है। अतः तुम ऐसा निंदनीय कर्म मत करो। सीता का अपमान करके श्रीराम से बैर मत लो। तुम अपनी ही मृत्यु को आमंत्रण दे रहे हो। मेरे जीते-जी तुम सीता को नहीं ले जा सकोगे।

यह सुनकर अहंकारी रावण क्रोध से जटायु की ओर दौड़ा। तब उन दोनों में घनघोर युद्ध होने लगा। रावण ने जटायु पर नालीक, नाराच और अन्य पैने बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। जटायु ने सब अस्त्रों का आघात सह लिया और अपने तीखे नखों वाले पंजों से मार-मारकर रावण के शरीर में अनेक घाव कर दिए। तब रावण ने ऐसे भयंकर बाण जटायु पर छोड़े, जिनमें काँटे लगे हुए थे। उनसे जटायु का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। फिर भी जटायु ने अपने प्राणों की चिंता न करके पूरे वेग से रावण पर आक्रमण किया व अपने दोनों पैरों से मारकर उसके धनुष को तोड़ डाला। अपने पंजों और पंखों की मार से उन्होंने रावण का कवच भी छिन्न-भिन्न कर दिया, उसके रथ में लगे पिशाचों जैसे गधों को भी मार डाला और बड़े वेग से चोंच मारकर रावण के सारथी का सिर भी धड़ से अलग कर दिया। रथ के घोड़े और सारथी के मर जाने से रावण भी सीता के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। लेकिन वृद्ध जटायु को थका हुआ देखकर तुरंत ही उसने सीता को पकड़ा और पुनः आकाश-मार्ग की ओर उड़ चला। उसके सब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गए थे, किन्तु एक तलवार अभी भी उसके पास शेष थी। उसे जाता देखकर जटायु ने पुनः उड़कर रावण का पीछा किया और बड़े वेग से उसकी पीठ पर जा बैठा। वह अपने तीखे नखों से रावण को खरोंचने लगा, चोंच मारने लगा और उसके बाल पकड़कर उखाड़ने लगा। उन दोनों का युद्ध बहुत देर तक चलता रहा। अंततः रावण ने सहसा अपनी तलवार निकाली और जटायु के दोनों पंख और पैर काट डाले। पंख कटते ही पक्षीराज जटायु भूमि पर गिर पड़े...😥😥

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अरण्यकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम🙏🏻
पं रविकांत बैसान्दर✍️