जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में एक सितारा था,
माना वह बेहद प्यारा था।
वह डूब गया तो डूब गया।
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे।
जो छूट गए फिर कहाँ मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है।
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में वह था एक कुसुम सा,
उसपर थे नित्य निछावर तुम।
वह सूख गया तो सूख गया मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ।
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली पर बोलो,
सूखे फूलों पर कब मधुवन शोर मचाता है।
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में मधु का प्याला था,
तुमने तन मन दे डाला था।
वह टूट गया तो टूट गया।
मदिरालय का आँगन देखो कितने प्याले हिल जाते हैं।
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं जो गिरते हैं कब उठतें हैं।
पर बोलो टूटे प्यालों पर कब मदिरालय पछताता है।
जो बीत गई सो बात गई
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधु घट फूटा ही करते हैं।
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्याले टूटा ही करते हैं।
फिर भी मदिरालय के अन्दर मधु के घट हैं।
मधु प्याले हैं, जो मादकता के मारे हैं।
वे मधु लूटा ही करते हैं वह कच्चा पीने वाला है।
जिसकी ममता घट प्यालों पर जो सच्चे मधु से जला हुआ कब रोता है चिल्लाता है।
जो बीत गई सो बात गई।
हरिवंश राय बच्चन✍️
बहुत दिनों के उपरांत यह कविता मेरे हाथ लगी। स्कूल में पढ़ा था। आज फ़िर दोबारा इसका मिलना अच्छा लग रहा है। वह भी ऐसे समय में जब इसकी आवश्यकता है। साहित्य मुझे इस लिए प्रेरित करता है क्योंकि इसमें मानव जीवन के हर एक उतार-चढ़ाव, रंग, लय और भावना का प्रतिबिम्ब देखने को मिलता है। भावनायें शब्दों के अर्थ के परे होती हैं। भाषा उसे बांध नहीं सकती। साहित्य के अनेक रूप हैं। कहानियों या नाटक में तो फिर भी विभिन्न पात्र अलग-अलग संवेदना व्यक्त करते हैं या फिर उनसे जुड़े होते हैं इस लिए समझना या उनसे जुड़ जाना बहुत कठिन नहीं होता। परन्तु कविता तो उस समुद्र के समान है जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिखता है। ऊपर से स्थिर लगता है पर अन्दर ना जाने कितने रहस्य, या संवेदनाओं को छिपाए रहता है। एक ही कविता को जितनी बार पढ़िए, नित्य नए अभिप्राय या सोच से परिचय होता है।
आज जब ये कविता पढ़ रहा था तो इसका संपूर्ण अर्थ समझ में आया कि इतने वर्षों के जीवन में बहुत ऐसे क्षण आए जिस में इस कविता के तात्विक एवं मार्मिक अर्थ का आभास हुआ। जब से हम पैदा लेते हैं तभी से हम मृत्यु की ओर चलने लगते हैं। मृत्यु का मूल कारण ही जन्म है। हिन्दू धर्म के अनुसार हम 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की आराधना करते हैं, इसी क्रम में, अगर हम इस तथ्य को आध्यात्मिक स्तर पर सोचे तो प्रतीत होगा की सांसारिक जीवन का अभिप्राय - जन्म (ब्रह्मा सृजन कर्ता हैं); जीवनयापन (विष्णु कर्म या क्रिया के कर्ता हैं) और मृत्यु (शिव विनाश कर्ता हैं) ही सर्वोच्च सत्य है, सांसारिक जीवन का।
जो छूट गया उसे जाने दो। दुःख का मूल कारण है मोह। जो चीज़ खत्म हो गयी हो उसपर निरंतर शोक व्यक्त करना व्यर्थ है। प्रकृति जिससे मनुष्य को अपने जीवन के हर प्रश्न का उत्तर मिल सकता है वो भी यही सिखाती है। हर पल उससे अपना कोई न कोई छूटता है पर क्या वो उस पर शोक मनाती है। नहीं ना? हर काल में, हर ऋतु में नए जीवन की उत्पत्ति होती है। जो बीत गया उसे जाने दो।
सीता को वैदेही भी कहा जाता है - विदेह की पुत्री जो ठहरी। मैं हमेशा से जानना चाहता था की उन्हें इस नाम से क्यों संबोधित किया जाता है? तो मैंने किताबें पढ़ना शुरू किया, विभिन्न विद्वानों से पूछा फिर ज्ञात हुआ की विदेह का अर्थ है - बिना शरीर का। अर्थात शरीर होते हुए भी उससे परे होना। उनका शरीर हर सांसारिक कार्य में लुप्त रहता था परन्तु मन इनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होता था। कोई भी कार्य करो पर उस में ज्यादा उलझो मत।
आज के जीवनशैली में शायद ये आसान नहीं पर इस तथ्य का मर्म बहुत कठिन भी नहीं होता, हमने सामान्य जीवन में भी अनुभव किया है। जिसको आप बहुत प्यार या सम्मान देते है, जरूरी नहीं की वो भी आपका मान करे। प्रेम स्वतः होता है, बल पर नहीं, ना ही श्रद्धा या सेवा से। जिससे आपको स्नेह होना हो वो आपके लिए कुछ भी ना करे फिर भी आपके प्यार में कमी नहीं आएगी। उसी प्रकार जिससे आप अपना मन नहीं मिलाना चाहते वो चाहे कुछ भी करे आप उसे अपने हृदय में स्थान नहीं देंगे। बहुत कटु है पर सत्य है। बहुत अनुभव के बाद मैंने सिखा की तुम उससे भावनात्मक सम्बन्ध बनाओ जो तुम से रखना चाहता है, और जो नहीं रखना चाहता है उसे जाने दो। सर्वस्व उसे दो जो उसके महत्व को समझे। हर रिश्ते की एक सीमा होती और ये सीमा हम तय करते है। कोई आपके पास नहीं रहना चाहे तो उसपर दबाव नहीं दीजिए। आप किसी को विवश नहीं कर सकते। टूटे पते पेड़ पर वापस नहीं लगते। अम्बर के आंगन को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यारे छूटे, जो छूट गए फिर कहाँ मिले, पर बोलो टूटे तारों पर, कब अम्बर शोक मनाता है?
एक शिक्षक होने के नाते कितनी बार मैंने प्रयत्न किया पर हर बार सफलता नहीं मिलती, अपने बच्चों के साथ। उस समय छोड़ देना बेहतर होता है क्योंकि हर छात्र अपने कर्म का भागी होता है। आप मार्ग-दर्शन कर सकते हैं, अपने मान्यताओं का प्रतिरूप हो सकते हैं पर उसके बदले आप उसका कर्म नहीं कर सकते। जीवन में वह था एक कुसुम, थे उसपर नित्य निछावर तुम, वह सूख गया तो सूख गया। इसका ये मतलब नहीं की हमें प्रयास करना छोड़ देना चाहिए अपितु फल हमारे हाथ में नहीं होता इस बात को समझना चाहिए। और आप अकेले नहीं है।
कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन ।
मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि ।।
Your right is to work only,
But never to its fruits;
Let not the fruits of action be thy motive,
Nor let thy attachment be to inaction….
हिंदी में भूत और भविष्य दोनों को कल कहा गया है। सोचिए तो लगेगा की ये दोनों वो यथार्थ हैं जीवन के जिस पर हमारा कोई वश नहीं होता शायद इस लिए एक शब्द से संबोधित किया जाता है। फ़िर अपने आज को इनपर व्यतित करना कहाँ की बुद्धिमता है? जो गया उस पर ज़ोर नहीं, जो आने वाला है उसके विषय में पता नहीं फिर किस चीज़ के पीछे हम भाग रहे हैं? दो सत्य जिस पर समस्त प्रकृति का अस्तित्व निर्भर करता है - जन्म और मृत्यु।
न जन्म पर हमारा प्रभुत्व है न मरन पर वश। फ़िर चिंता कैसी और क्यों? कर्म ही सत्य है। जो बीत गयी सो बात गयी, माना वो बेहद प्यारा था ……
साभार - सोशल मीडिया।
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