कला शिक्षा के विकासात्मक परिपेक्ष्य का अध्ययन सर्वप्रथम डॉक्टर विक्टर लोवेन फील्ड ने 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक रचनात्मक एवं मानसिक विकास (creative and Mental Growth) में किया है। प्रकाशन के बाद यह पुस्तक कला शिक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया।
अपने गहन अध्ययनों के आधार पर लोवेन फील्ड ने बताया कि कला का विकास छः (06) स्पष्ट चरणों में होता है, जिन्हें बच्चों के द्वारा निर्मित कलाकृतियों के आधार पर समझा एवं स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
लान्फेल्ड के अनुसार कला के विकास की छः (06) अवस्थाएं निम्नांकित है:-
- अस्पष्ट लेख/घसीटने की अवस्था (1 - 3 साल) Scribble Stage
- पूर्व नियोजन अवस्था (3 से 4 साल) Preschematic Stage
- नियोजन अवस्था (5 से 6 साल) The Schematic Stage
- यथार्थ अरुणोदय की अवस्था (7- 9 साल) The Dawning Realism
- छन्दम प्राकृतिक अवस्था (10 - 13 साल) The Pseudo-Naturalistic Stage
- निर्णय अवस्था (13 - 16 साल) The Decision Stage
1.अस्पष्ट लेख/घसीटने की अवस्था (1 - 3 साल) Scribble Stage:- अस्पष्ट लेखन मुख्यतः एक परिवर्तक कौशल है जिसमें हाथों एवं उंगलियों का आंखों के समन्वय के साथ दक्षता पूर्ण प्रयोग शामिल है। इस स्तर पर बच्चे चित्रांकन की शारीरिक क्रियाओं में संलग्न होते हैं। इस स्तर पर के बच्चों द्वारा अंकित चिन्हों एवं आकृतियों का ना तो कोई रूप होता है और ना ही कोई अर्थ। यह अवस्था लगभग 3 वर्ष की आयु तक चलती है इस अवस्था के खत्म होते होते बच्चों में अस्पष्ट लेखन के क्षेत्र में शुद्धता आने लगती है पहले जहां उनके लेखन पूरे पेज और कई बार पेज से बाहर भी चले जाते थे अब वह क्षेत्र विशेष में सीमित होने लगते हैं।
यह अवस्था चित्रकला के संदर्भ में सिर्फ आनंद प्राप्ति की अवस्था है इस अवस्था में निर्मित चित्र ना तो बच्चे की इच्छा होती है और ना ही उसमें इसकी क्षमता होती है दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि,
इस अवस्था में बच्चे चित्रांकन के लिए आवश्यक पूर्व कौशलों का अभ्यास करते हैं।
अस्पष्ट लेखन की अवस्था के बालक के चित्रांकन का एक उदाहरण।
2.पूर्व नियोजन अवस्था (3 से 4 साल) Preschematic Stage:- इस अवस्था तक आते-आते बच्चों में कलात्मक विकास के साथ वह अपने द्वारा निर्मित आकृति एवं आसपास के वातावरण के साथ संबंध स्थापित करने लगते हैं। उनके द्वारा निर्मित आकृतियों से आसपास में मौजूद विभिन्न वस्तुओं के रूप में पहचान की जा सकती है यहीं से अर्थ पूर्ण चित्रांकन का आरंभ होता है और इस स्तर पर बच्चा वातावरण एवं अपने चित्रांकन में संबंध स्थापित करने में सक्षम हो जाता है और चित्रों के माध्यम से संप्रेषण सीखना आरंभ कर देता है।
इस आयु के बच्चे प्रायः आत्म केंद्रित(selfish prick) होते हैं और उनकी सोच भी आत्म केंद्रित होती है इस कारण बच्चा वस्तु को जैसा जानता है या जैसा अनुभव करता है वैसा ही वह चित्र का निर्माण करता है वैसा चित्र नहीं बनाता है जैसा कि वस्तु दिखती है वह अपने मन में चीजों के प्रतीक (Symbol बना लेता है इस अवस्था के चित्र प्रतीक प्रधान होते हैं।
Example:-
पूर्व नियोजन अवस्था के बालक द्वारा निर्मित एक चित्र का उदाहरण
3. नियोजन अवस्था (5 से 6 साल) The Schematic Stage:- इस अवस्था में बच्चे की चित्रकला में वस्तुओं एवं मानव आकृतियों के अंकन में अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं और वो चित्र के माध्यम से संप्रेषण करने का प्रयास आरंभ कर देते हैं। इस स्तर पर के बच्चों के चित्र में एक निर्धारित क्रम देखने को मिलता है।
उदाहरण के लिए,
इस स्तर पर के बच्चों की चित्रकारी में आकाश और धरती का स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है आकाश प्रायः कागज के ऊपर नीले रंग में और धरती कागज के नीचे हरे रंगों से चित्रित रहती है।
Example:-
नियोजन अवस्था के बालक द्वारा निर्मित एक चित्र का उदाहरण
4.यथार्थ अरुणोदय की अवस्था (7- 9 साल)The Dawning Realism:- चित्र निर्माण के विकास की चौथी अवस्था यथार्थ अरुणोदय की अवस्था है जिसका आरंभ 7 वर्ष की आयु से शुरू हो जाता है इस अवस्था में बच्चे अपने चित्रों के संदर्भ में आलोचनात्मक (Critical) हो जाते हैं और उन्हें स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि विभिन्न वस्तुओं के चित्रों का एक जैसा क्रम काफी नहीं है और उनकी चित्रकारी पहले से अधिक जटिल एवं सूक्ष्म होती जाती है।
Example:-
यथार्थ अरुणोदय की अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण
5. छन्दम प्राकृतिक अवस्था (10 - 13 साल) The Pseudo-Naturalistic Stage:- लॉन्फेल्ड के कलात्मक विकास की पांचवी अवस्था है- छन्द प्राकृतिक अवस्था जो 10 वर्ष की आयु से आरंभ होती है। इस अवस्था में मूल्य एवं प्रकाश का चित्रण उनके चित्र में दिखाई देने लगता है इस स्तर पर बच्चे अपने चित्रों के प्रति अत्यंत संवेदनशील एवं विवेचनात्मक हो जाते हैं। कलात्मकता के विकास के इस चरण में बच्चे अपनी सफलता के प्रति सजग हो जाते हैं।
चित्रकला के विकास में इस अवस्था का विशेष महत्व है। इस अवस्था में बालक की कल्पना शक्ति प्रधान न होकर उसकी विवेचनात्मक शक्ति प्रधान रहती है। इसी कारण वह अपने चित्र में भी उन सभी बारीकियों को दिखाना चाहता है जो अपने नेत्रों से देखता है। इस अवस्था में बच्चा हर काम को बड़ों की तरह करने की कोशिश करता है वह कभी यह महसूस नहीं करता कि वह बड़ो जैसा नहीं है। जैसा बड़ों को करते देखता है वैसा ही वह भी करना चाहता है। कला में भी यही बात लागू होती है। कला में समाज की साधारण रुचि का झुकाव वास्तविकता की तरफ रहा है । कुछ कलाकारों और विशेषज्ञों को छोड़कर अधिकतर व्यक्ति ऐसे ही तस्वीर पसंद करते हैं जो वास्तविकता प्रधान हो इसलिए इस अवस्था के बच्चे भी ऐसे ही रूपों का निर्माण करते हैं जो वास्तविक हो।
Example:-
Example:-
छन्द प्राकृतिक अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण
6. निर्णय अवस्था (13 - 16 साल) The Decision Stage:- चित्रकला के विकास की यह आखिरी परंतु महत्वपूर्ण अवस्था है इस अवस्था में बच्चे या तो अपनी चित्रकला जारी रखने का निर्णय लेते हैं या फिर चित्रकला को बिना योग्यता के एक कार्य के रूप में आंकने लगते हैं। इस अवस्था में प्रत्येक किशोर यह विश्वास करने लगते हैं कि उनमें चित्रकला के आवश्यक गुण नहीं है। वही कई किशोर अपने चित्रकला कौशलों को उन्नत करने में लगे रहते हैं।
जब वह कोई चित्र बनाने जाते हैं तब चित्र उतना वास्तविक नहीं बनता जितना उन्हें दिखता है उनकी आंखें वस्तु में और उनके द्वारा बनाए चित्र में कोई भी अंतर नहीं देखना चाहती परंतु ऐसा ना होने पर उनमें नैराश्य (Despair, Depression), निराशा का अनुभव होने लगता है और कला की तरफ से उनका दिल हटने लगता है।
कला विद्वानों का मानना है कि कुछ जन्मजात कलाकारों को छोड़कर यह अवस्था हर व्यक्ति के जीवन में आती ही है यह अवस्था विकास की एक प्राकृतिक सीढ़ी(The ladder) है। हर एक बालक को इस संकटकाल से गुजरना ही पड़ता है। इस निर्णय अवस्था में उपयुक्त सहयोग मिलने पर बालक अपना चित्रांकन कार्य जारी रखते हैं अन्यथा उससे दूर हो जाते हैं। यदि इस अवस्था में बच्चों को सही परामर्श दिया जाए और यह बताया जाए कि वे चित्रांकन को नियमित अभ्यास के द्वारा सीख सकते हैं तब बच्चों की रुचि आगे भी चित्रकला में बनी रह सकती है। अन्यथा वे धीरे-धीरे इससे दूर होते जाते हैं।
कला विद्वानों का मानना है कि कुछ जन्मजात कलाकारों को छोड़कर यह अवस्था हर व्यक्ति के जीवन में आती ही है यह अवस्था विकास की एक प्राकृतिक सीढ़ी(The ladder) है। हर एक बालक को इस संकटकाल से गुजरना ही पड़ता है। इस निर्णय अवस्था में उपयुक्त सहयोग मिलने पर बालक अपना चित्रांकन कार्य जारी रखते हैं अन्यथा उससे दूर हो जाते हैं। यदि इस अवस्था में बच्चों को सही परामर्श दिया जाए और यह बताया जाए कि वे चित्रांकन को नियमित अभ्यास के द्वारा सीख सकते हैं तब बच्चों की रुचि आगे भी चित्रकला में बनी रह सकती है। अन्यथा वे धीरे-धीरे इससे दूर होते जाते हैं।
निर्णय अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण।
यदि देखा जाए तो चित्रकला के विकास की आखिरी अवस्था भविष्य के चित्रकार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है और एक संपूर्ण कलाकार के अवतरण (Descent) की अवस्था हैं।
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