सोमवार, 20 अप्रैल 2020

जैन साहित्य से कथाएँ


B.Ed. 1st Year EPC -1 "जैन साहित्य से कथाएं" मुंगेर विश्वविद्यालय, मुंगेर Video Link👇👇

जैन धर्म 

         जैन धर्म विश्व के सबसे प्राचीन दर्शन या धर्मों में से एक है। यह भारत की श्रमण परम्परा (श्रमण परम्परा भारत में प्राचीन काल से जैन, आजीविक, तथा बौद्ध दर्शनों में पायी जाती है। ये वैदिक धारा से बाहर मानी जाती है एवं इसे प्रायः नास्तिक दर्शन भी कहते हैं। भिक्षु या साधु को श्रमण कहते हैं, जो सर्वविरत कहलाता है।श्रमण' शब्द 'श्रम;' धातु से बना है, इसका अर्थ है 'परिश्रम करना।' श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है। अर्थात् यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है।) से निकला तथा जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है। 

इस काल के तीर्थंकर है-

1 ऋषभदेव- इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है
2 अजितनाथ
3 सम्भवनाथ
4 अभिनंदन जी
5 सुमतिनाथ जी
6 पद्ममप्रभु जी
7 सुपार्श्वनाथ जी
8 चंदाप्रभु जी
9 सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है
10 शीतलनाथ जी
11 श्रेयांसनाथ
12 वासुपूज्य जी
13 विमलनाथ जी
14 अनंतनाथ जी
15 धर्मनाथ जी
16 शांतिनाथ
17 कुंथुनाथ
18 अरनाथ जी
19 मल्लिनाथ जी
20  मुनिसुव्रत जी
21 नमिनाथ जी
22 अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।
23 पार्श्वनाथ
24 वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है।

जिनमें अंतिम व प्रमुख महावीर स्वामी हैं। 

            जैन शब्द की उत्पत्ति "जिन"  से हुई है  जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- "विजय प्राप्त करने वाला"  'जिन परम्परा' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी तन मन वाणी को जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'।

           जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म।  जैन संप्रदाय में कर्म की शुद्धता पर बहुत अधिक बल दिया गया है।  भारतीय साहित्य में प्राचीन काल से ही जैन साहित्य को बहुत योगदान रहा है।  हमारे अनेक जैन मुनियों ने अपने जीवन का अधिकांश भाग साहित्य की रचना में ही व्यतीत किया। जैन धर्म में बड़े-बड़े प्रकाण्ड जैनाचार्य हुए हुए जो कवि और दार्शनिक भी थे। उन्होंने जैन धर्म के साथ-साथ भारतीय साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी लेखनी के जौहर दिखलाएं । दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य नाटक, कथा, इत्यादि।  विषयों पर काफी मात्रा में प्राचीन जैन साहित्य आज भी उपलब्ध हैं। जबकि अधिकांश साहित्य धार्मिक द्वेष, लापरवाही, तथा अज्ञानता के कारण नष्ट हो चुका है । भारत की अनेक भाषाओं में जैन साहित्य का निर्माण हुआ जिनमें संस्कृत भाषा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जैनधर्म ने प्रारंभ से ही अपने प्रचार के लिए लोक भाषाओं को अपनाया । अतः अपने-अपने समय की लोकभाषा में भी जैन साहित्य की रचनाएं पाई जाती है।

दान की महिमा 

        एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए।  इस अंधविश्वास के कारण की भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इससे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी गरीबी दूर हो जाएगी और उसका जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई , भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई।  ज्योहीं   राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।  भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगी  लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे  अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उसे भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की ।  भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था जैसे-तैसे  करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दी। उस दिन भिखारी को अधिक भीख मिली। लेकिन उसे अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा।  शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ  वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह  दान की महिमा के कारण ही हुआ है। वह पछताया कि- काश!!! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते।  लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी । 
              इस कहानी से हमें यह सीख और शिक्षा प्राप्त होती है कि 
(a) देने से कोई चीज कभी घटती नहीं 
(b) लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।
 (c)अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया, और अंत समय में माया किसी का साथ नहीं देती।

सहायता(Help) और धर्म (Religion)

            एक बार कुछ विदेशी यात्री भारत भ्रमण के लिए आए। उन्होंने भारत के अनेक धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थलों का भ्रमण किया। भ्रमण करते-करते एक दिन वे एक महात्मा के पास पहुंचे,  महात्मा ध्यानमग्न थे।  उनके सामने बहुत से साधक बैठे हुए थे, यात्री भी वहीं बैठ गए। कुछ समय के बाद महात्मा ने अपनी आंखें खोली और सामने बैठे लोगों को देखा उसके बाद कुछ साधकों ने अपनी-अपनी जिज्ञासाए महात्मा के समक्ष रखी। महात्मा ने उन सभी जिज्ञासाओं का समाधान बड़ी ही शांत मुद्रा में उनको बताया। यह देखकर उन विदेशी यात्रियों के मन में भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई और उन्होंने भी अपनी जिज्ञासा प्रकट की।  उन्होंने कहा महात्मा जी!!! हम पिछले कई दिनों से भारत भ्रमण कर रहे हैं, जहां भी जाते हैं वहां पर लोगों के मुख से यही सुनते हैं कि धर्म करना चाहिए। धर्म ही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। लेकिन हमारे यहां तो धर्म नाम की कोई चीज होती ही नहीं तो फिर आप बताइए हम भला धर्म कैसे करें। यह बात सुनकर महात्मा मंद-मंद  मुस्कुराए और फिर बोले-  ऐसा हो ही नहीं सकता।  पूरी धरती पर ऐसी कोई जगह ही नहीं जहां धर्म नहीं हो शायद तुम्हें कोई भ्रम है।  इसके बाद महात्मा बोले-  अच्छा आप मुझे एक बात बताइए, अगर आप कहीं जा रहे हो और आपके सामने कोई दुर्घटना हो जाए, किसी व्यक्ति को चोट लग जाए, उसका रक्त बहने लगे तो आप क्या करेंगे? महात्मा की बात सुनकर यात्री बोले- उसका उपचार करेंगे। उसको चिकित्सालय पहुंचाएंगे। उसके घरवालो को सूचना देंगे और उससे संबंधित जो भी आवश्यक कार्य होगा वह सब करेंगे।  लेकिन हमारे यहां तो इसे (help) सहायता कहते हैं। पर अब  हमे समझ में आ गया कि सहायता ही धर्म होता है। और वे सब प्रसन्न मन से अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर गए । 

       इस प्रसंग से हमे यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि सबसे बड़ा धर्म होता है-  प्राणी मात्र की सहायता करना।


चतुर व्यक्ति भी कार्य को सिद्ध करने के लिए सहायक की अपेक्षा रखता है। आंख वाला व्यक्ति भी प्रकाश के बिना पदार्थों को नहीं देख पाता है।

जो चीज भौतिक आंखें नहीं देख पाती है, उसे भी साहित्य की आंखों से देखा जा सकता है।

(Which can not be seen by the physical eyes can be seen by the literary eyes.)

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