रविवार, 26 अप्रैल 2020

बाल कला/बाल कला की समझ



D.El.Ed. 1st Year F-11 (कला समेकित शिक्षा) बाल कला की समझ Video Link.- https://www.youtube.com/watch?v=VVKzNAtn2_I


बाल कला/बाल कला की समझ 


          मानव मूल्यांकन के नए तरीके तथा मनोविज्ञान के विकास के कारण नई नई बातें आज हमारे सामने आ रही है। बाल कला भी एक ऐसी ही समस्या है आज से कुछ दशक पहले इस शब्द का जन्म माना जाता है।
         
         सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेंनर ने (1854ई०) अपनी शिक्षा संबंधी पुस्तक में एक क्रांतिकारी बात जिसमें बालक को कलाकार माना है। उन्होंने दो बातों पर विशेष ध्यान दिया पहले यह कि बालक सर्वप्रथम व्यक्त क्या करना चाहता है?  दूसरी बात यह है कि उसे सबसे अधिक प्रसन्नता किस प्रकार की अभिव्यक्ति से मिलती है। 
  
            बच्चा उन्हीं वस्तुओं को पहले अभिव्यक्त करना चाहेगा,  जो आकार में बड़ी एवं आकर्षक रंग की हो तथा वह वस्तुएं जिनके साथ बच्चे को रहने में आंनद प्राप्त हो। मानव जिससे कि उसे स्नेह मिला हो घरेलू एवं पालतू जानवर तथा मकान जहां वह रहता हो या प्रतिदिन जिन वस्तुओं को देखता हो उन्हीं के चित्रण में उसे आनंद मिलता है। 

      1887 ईस्वी में बाल कला शब्द का प्रयोग इटली के कोराडोरीकी ने अपनी पुस्तक "बच्चों की कला" में किया।
        
          1930 ईस्वी में जेम्स सली ने अपनी पुस्तक "स्टडीज ऑफ़ चाइल्डहुड" में सर्वप्रथम बालकला की चर्चा की हैं। इसमें उन्होंने यह भी बताया है कि इसका अर्थ यह नहीं कि बच्चा पूरा कलाकार होता है बल्कि जो भी उल्टी-सीधी रेखाओं द्वारा बिना योग्यता के  चित्र बनाता है या किसी भी आकृतियों में अपनी इच्छा अनुसार हाथ पांव बनाता है वहीं उसकी कला है। कभी-कभी बच्चा घर का निर्माण  करेगा तो उसमें अंदर रखी हुई वस्तुओं को भी बना देगा जो की वास्तव में बाहर से नहीं दिखाई पड़ती परंतु यह उसकी गलती नहीं है उसकी अभिव्यक्ति है। क्योंकि बाल कलाकार प्रतीकात्मक चित्र बनाता है वास्तविक नहीं। यही प्रतीकात्मक चित्र बच्चे में प्रस्तुत एक महान कलाकार के दर्शन कराते हैं।
        
            जर्मनी के लीचवर्क बाल कला को आदिमानव की कला के साथ जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि बच्चे की कला में पुनरावृति नहीं होती उसमें मौलिकता होती है क्योंकि जो कुछ वह चित्रित करता है उसका पूर्व ज्ञान उसे नहीं होता। यह तो एक आधुनिक कलाकार की भांति Abstract art (अमूर्त कला)में नवीनतम प्रयोग करता है।

        आदिमानव की कला एवं बाल कला 

          बच्चों की कला को  समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम आदिमानव की कला को समझे एवं उसका अध्ययन करें। और दोनों की कला में क्या समानता है इस पर विचार करें तो आगे हम देखेंगे कि आदिमानव की कला एवं बच्चों की कला में क्या-क्या समानताएं हैं।
  1. देखने से यह ज्ञात होता है कि दोनों की कलाओ में परिपेक्ष्य की कमी है चित्र में दूरी नहीं दिखाई गई है तथा  गहराई का भी अभाव है।
  2. रेखाओ तथा आकृतियों में  समकोण ही देखने को प्राप्त होते हैं। न्यून कोण या अधिक कोण बहुत कम मिले हैं इससे हमें यह ज्ञात होता है कि बच्चे एवं आदिमानव सीधे-साधे प्रवृत्ति के थे खड़ी एवं पड़ी रेखाओं से ही चित्र की रचना की गई है।
  3. रेखाओ तथा आकृतियों में  समकोण ही देखने को प्राप्त होते हैं न्यून कोण या अधिक कोण बहुत कम मिले हैं इससे हमें यह ज्ञात होता है कि बच्चे एवं आदिमानव सीधे-साधे प्रवृत्ति के थे खड़ी एवं पड़ी रेखाओं से ही चित्र की रचना की गई है।
  4. भाषा के जन्म से पहले ही आदिम कला का जन्म हो चुका था क्योंकि आदिमानव अपने भावों को व्यक्त करना चाहता था इसलिए उसने पहली रेखा खींची होगी
  5.  बाल कला एवं आदिम कला कोई प्रदर्शन नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति है दोनों में ही अपने भावों को व्यक्त करने की इच्छा विद्यमान है कोई भी भाषा उनके लिए एक सूक्ष्म वस्तु है इसलिए वे दोनों चित्र की भाषा से ही अपनी अभिव्यक्ति करते हैं । 
  6. इससे आदि मानव और बच्चे की अभिव्यंजना शक्ति का ज्ञान होता है यही अभिव्यक्ति एक शाश्वत नियम है जो की पशुओं में भी देखने को मिलता है।
  7. चित्र लिखना चित्र रचना को ही कहते हैं परंतु आदिमानव ने जो चित्र एक रेखा में लिखें (बनाए) वहीं उनकी भाषा थी इसी प्रकार बच्चा भी अपने भावों को लिखता है जिसकी एक भाषा होती है विभिन्न रेखाओं जो किसी आकृति द्वारा भावों को व्यक्त करती है।                                                                                     
              
           ग्रेगर पॉलसन ने अपनी पुस्तक "दी क्रिएटिव एलिमेंट इन आर्ट" में यही बताया है कि दोनों कलाओं के निर्माण की एक ही पहचान है वह अपने भावों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने की इच्छा तथा अमृत भावों को मृत रूप प्रदान करने का आनंद रखती हैं।

 सीजेक के अनुसार बच्चा सात (07) अवस्थाओं में चित्रकारी करता है जो इस प्रकार है-
  1. किरमकाटी:- पहली अवस्था किरमकाटी से प्रारंभ होती है बच्चे के हाथ में जो कुछ भी आ जाता है उसी से किरमकाटी पोता-पाती करता है।
  2. लय का ज्ञान:- दूसरी अवस्था में बच्चा अपने हाथ को लय में घुमाता है तथा चित्रों में लय पैदा करता है उसके मन में भी लय का  ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
  3. सूक्ष्म प्रतीकात्मक:- तीसरी अवस्था में सूक्ष्म प्रतीकात्मकता से चित्रण करता है।
  4. आकृतियों का ज्ञान:- चौथी अवस्था में आकृतियों के प्रकार का ज्ञान होता है तथा बालक कुछ निश्चित आकारों का अंकन करता है।
  5. गूणग्राहकता:-  पांचवी अवस्था गूणग्राहकता की है। बालक अपनी कृतियों में कुछ गुणों को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है।
  6. रंग आकार तथा स्थान का ज्ञान:- छठी अवस्था में रंग, आकृति तथा स्थान पूर्ति का ज्ञान होता है।
  7. संपूर्ण चित्र का ज्ञान:- सातवीं अवस्था में संपूर्ण चित्र बनाने का ज्ञान हो जाता है।
    
        हरबर्ट रीड की "एजुकेशन थ्रू आर्ट" में भी बाल चित्रकला का सात(07) अवस्थाओं में विकास बताया गया है जो इस प्रकार है-

  1. किरमकाटी की अवस्था जो 2 से 5 वर्ष तक रहती है।
  2. हाथों में लयात्मक घुमाव की अवस्था चार(04) वर्ष से प्रारंभ हो जाती है।
  3. तीसरी अवस्था में छः (06) वर्ष तक प्रतीकात्मक वर्णन करने लगता है।
  4. चौथी अवस्था में वर्णनात्मक यथार्थवाद का ज्ञान बच्चों को होने लगता है जो सात(07) एवं आठ(08) वर्ष की आयु में होता है।
  5. पांचवी अवस्था में नौ(09) एवं दस(10) वर्ष की आयु में दृश्यात्मक यथार्थवाद का ज्ञान होने लगता है।
  6. कला हीनता की स्थिति ग्यारह से चौदह  वर्ष तक होती है।
  7. कलात्मक का पुनः जीवन पन्द्रह (15) से अठारह (18) वर्ष तक होता है।
          ऐसा कहा जाता है कि कला पढ़ाई नहीं जाती है कलाकार तो जन्म से उस प्रकार की प्रतिभा रखते हैं , इसलिए बच्चों को आधुनिक विचारक कलाकार के ही रूप में मानते हैं।

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