पूर्व दिशा की ओर जाने वाले वानरों को भेजने के बाद सुग्रीव ने दक्षिण दिशा की ओर जाने के लिए नील, जाम्बवान, सुहोत्र, गज, गवाक्ष, गवय, वृषभ, मैन्द, द्विविद, सुषेण, गन्धमादन, उल्कामुख और अनंग आदि श्रेष्ठ वानरों के साथ हनुमान जी को चुना। अंगद को उन सबका नेता बनाकर उनके साथ सीता की खोज करने का भार सौंपा गया। उन वानरों से सुग्रीव ने कहा, “तुम लोग विंध्य पर्वत, नर्मदा नदी, गोदावरी, महानदी, कृष्णवेणी, वरदा आदि नदियों के तट पर तथा मेकल, उत्कल, दशार्ण, विदर्भ, ऋष्टिक, माहिषक, वंग, कलिंग, कौशिक आदि राज्यों में एवं आब्रवन्ती आदि नगरों में भी देखना। फिर आन्ध्र, पुण्ड्र, चोल, पाण्ड्य तथा केरल आदि में भी ढूँढना।” तत्पश्चात तुम लोग मलय पर्वत पर जाना। वहाँ चन्दन के सुन्दर वन हैं। उनमें भी तुम सीता की खोज करना। फिर स्वच्छ जल वाली कावेरी नदी को देखना और मलय पर्वत के शिखर पर अगस्त्य मुनि का दर्शन करके तुम लोग ताम्रपर्णी नदी को पार करना। उसके पश्चात समुद्र के तट पर जाना।
महर्षि अगस्त्य ने समुद्र के भीतर एक सुन्दर पर्वत को स्थापित किया है, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। वह सुवर्णमय पर्वत समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है। उसी समुद्र के बीच में अंगारका नामक एक राक्षसी रहती है, जो छाया पकड़कर ही प्राणियों को खींचकर खा जाती है। समुद्र के उस पार एक द्वीप है, जिसका विस्तार सौ योजन है। वहाँ मनुष्यों की पहुँच नहीं है। वही द्वीप उस दुरात्मा रावण का निवास-स्थान है। तुम्हें पूरा प्रयत्न करे, वहाँ अवश्य ही सीता की खोज करनी चाहिए। लंका के सभी संदिग्ध स्थानों में खोजने के बाद यदि तुम्हें विश्वास हो जाए कि सीता वहाँ नहीं है, तो फिर तुम लंका को पार करके आगे बढ़ जाना। लंका से आगे बढ़ने पर सौ योजन विस्तृत समुद्र में एक पुष्पितक नाम का पर्वत है। तुम लोग उस पर्वत पर भी सीता को खोजना। उसे लांघकर आगे बढ़ने पर सूर्यवान नामक पर्वत मिलेगा, जो पुष्पितक से चौदह योजन दूर है। वहाँ जाने का मार्ग बड़ा दुर्गम है। उसके आगे तुम्हें वैद्युत नामक पर्वत मिलेगा, जहाँ सभी ऋतुओं में उत्तम फल-मूल प्राप्त होते हैं। उन्हें खाकर तुम लोग आगे बढ़ोगे, तब तुम्हें कुञ्जर नामक पर्वत दिखेगा, जिसके ऊपर विश्वकर्मा ने महर्षि अगस्त्य के लिए एक सुन्दर भवन बनाया है। उसी पर्वत पर भोगवती नगरी है, जिसमें सर्पों का निवास है। उसकी सड़कें बहुत बड़ी और विस्तृत हैं। महाविषैले भयंकर सर्प उस नगरी में निवास करते हैं। महाभयंकर सर्पराज वासुकि भी वहीं निवास करते हैं। तुम्हें विशेष रूप से उस नगरी में सीता की खोज करनी चाहिए। उसे पार करके आगे बढ़ने पर तुम्हें ऋषभ नामक पर्वत मिलेगा। वह पर्वत रत्नों से भरा हुआ है। वहाँ एक दिव्य चन्दन का वृक्ष है, जो अग्नि के समान प्रज्वलित होता रहता है। तुम लोग उसे कदापि स्पर्श मत करना क्योंकि अनेक गन्धर्व उसकी रक्षा में नियुक्त रहते हैं। उसके आगे भयानक पितृलोक है, जहाँ तुम लोगों को नहीं जाना चाहिए। वह भूमि यमराज की राजधानी है तथा वहाँ गहन अन्धकार छाया रहता है। तुम्हें केवल वहीं तक जाना है। उसके बाद तुम वापस लौट आना। एक माह के भीतर लौटकर जो मुझसे कहेगा कि ‘मैंने सीता का दर्शन किया है’, वही मेरे लिए सबसे प्रिय होगा।
इस प्रकार दक्षिण दिशा में जाने वाले वानरों को सुग्रीव ने सब-कुछ समझाया। इसके बाद उसने अपनी पत्नी तारा के पिता सुषेण के नेतृत्व में वानरों का एक दल पश्चिम की ओर जाने के लिए चुना। उन लोगों से सुग्रीव ने कहा, “वानरों! सौराष्ट्र, बाल्हीक, चन्द्रचित्र, कुक्षिदेश आदि के जनपदों व नगरों में जाकर सीता की खोज करो। वहाँ की सब नदियों, वनों और पर्वतों में भी सीता को ढूँढो। पश्चिम दिशा में अधिकांशतः मरुभूमि है, अत्यंत ऊँची और ठण्डी शिलाएँ हैं तथा पर्वतों से घिरे हुए बहुत-से दुर्गम प्रदेश हैं। उन सबमें सीता की खोज करते हुए तुम पश्चिम सागर तक जाना और वहाँ के प्रत्येक स्थान का निरीक्षण करना। समुद्र का जल तिमि नामक मत्स्यों व बड़े-बड़े ग्राहों से भरा हुआ है। समुद्र तट पर केवड़े, तमाल और नारियल के वनों में भली-भाँति विचरण करके सीता को ढूँढना। मोरवीपत्तन (मोरबी), जटापुर, अवन्ती, अंगलेपापुरी आदि में भी सीता की खोज करना। सिन्धु नदी और सागर के संगम पर सोमगिरि नामक विशाल पर्वत है। उसकी रमणीय चोटियों पर सिंह नामक विकराल पक्षी रहते हैं, जो तिमि नाम वाले विशाल मत्स्यों और हाथियों को भी अपने घोसलों में उठा लाते हैं। इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वालों को शीघ्रता से वहाँ का निरीक्षण करके आगे बढ़ जाना चाहिए। वहाँ से आगे समुद्र के बीच में पारियात्र पर्वत का शिखर दिखाई देगा, जिसका विस्तार सौ योजन है। तुम वहाँ भी जाकर सीता की खोज करना। उस पर्वत पर भयंकर गन्धर्व निवास करते हैं। कोई वानर उनके निकट न जाए और न उस पर्वत से कोई फल ले क्योंकि वे बलवान गन्धर्व वहाँ के फलों की रक्षा करते हैं। पारियात्र पर्वत के पास ही समुद्र में वज्र नामक एक और पर्वत है, जिसकी लंबाई और चौड़ाई बराबर है। उसका घेरा सौ योजन का है। उस पर्वत पर अनेक गुफाएँ हैं, उनमें तुम सीता की खोज अवश्य करना। समुद्र के चौथे भाग में चक्रवान पर्वत है। वहीं विश्वकर्मा ने सहस्त्रार चक्र (सुदर्शन चक्र) का निर्माण किया था। वहीं से भगवान विष्णु पञ्चजन तथा हयग्रीव नामक दानवों का वध करके पांचजन्य शंख तथा सुदर्शन चक्र लाए थे। उस चक्रवान पर्वत के शिखरों में भी सीता को ढूँढना। उससे आगे समुद्र की अथाह जलराशि में वराह नामक पर्वत है, जिसका विस्तार चौंसठ योजन है। वहीं प्राग्ज्योतिष नामक नगर है, जिसमें नरक नामक दुष्टात्मा दानव निवास करता है। उस पर्वत पर तथा वहाँ की गुफाओं में सीता को खोजना। वराह पर्वत को लांघने पर तुम्हें मेघगिरि नामक पर्वत मिलेगा, जिसमें लगभग दस हजार झरने हैं। उसके चारों ओर हाथी, सूअर, सिंह और बाघ विचरते हैं। उसी पर्वत पर देवताओं ने इन्द्र का अभिषेक किया था। वहाँ से आगे बढ़ने पर तुम्हें सूर्य की कान्ति से सोने जैसे चमकने वाले साठ हजार पर्वत दिखाई देंगे, जिनके मध्यभाग में मेरु पर्वत है। उसके शिखर पर विश्वकर्मा का बनाया हुआ एक दिव्य भवन है, जो अनेक प्रासादों से भरा हुआ है। वहाँ महात्मा वरुण निवास करते हैं। मेरु और अस्ताचल के बीच एक ताड़ का स्वर्णमय वृक्ष है, जो बहुत ऊँचा है। उसकी दस बड़ी शाखाएँ हैं और उसके नीचे की वेदी भी बड़ी अद्भुत है। उसके आस-पास भी सब स्थानों पर तुम सीता की खोज करना। मेरु पर्वत पर महर्षि मेरुसावर्णि रहते हैं। उन्हें प्रणाम करके तुम सीता का पता उनसे भी पूछना। पश्चिम दिशा में वानर इतनी ही दूर तक जा सकते हैं। उसके आगे सूर्य का प्रकाश नहीं है, अतः मुझे वहाँ के आगे की भूमि के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वहाँ तक जाकर तुम सीता का पता लगाओ और एक माह के भीतर ही यहाँ लौट आना।
इसके बाद सुग्रीव ने शतबलि नामक एक वीर वानर से कहा, “तुम अपने साथ बहुत-से पराक्रमी वानरों को लेकर उत्तर दिशा की ओर जाओ। उत्तर में म्लेच्छ, पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल, इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, कुरुक्षेत्र, मद्र, कंबोज, दरद, यवन, शकों के देश आदि में सीता की खोज करो। इसके बाद हिमालय पर्वत पर ढूँढो। वहाँ से आगे बढ़कर तुम लोग काल नामक पर्वत पर जाना, जिसके भीतर सोने की खदाने हैं। वहाँ से आगे तुम्हें सुदर्शन पर्वत और फिर देवसख नामक पहाड़ मिलेगा। उन सबके वनों, निर्झरों और गुफाओं में तुम सीता की खोज करना। वहाँ से आगे बढ़ने पर एक सुनसान मैदान मिलेगा, जो सौ योजन तक फैला हुआ है। वहाँ नदी, पर्वत, वृक्ष या जीव-जंतु कुछ भी नहीं हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले उस दुर्गम क्षेत्र को पार करने पर तुम्हें श्वेत वर्ण वाला कैलास पर्वत मिलेगा। वहीं विश्वकर्मा का बनाया हुआ कुबेर का रमणीय स्थान है, जो बादलों के समान सफेद दिखाई देता है। उसके पास ही एक बड़ा सरोवर है, जिसमें प्रचुर मात्रा में कमल पाए जाते हैं। उसके आगे तुम क्रौञ्चगिरि पर जाकर सीता को ढूँढना, जहाँ पर्वत के विदीर्ण हो जाने से एक गुफा बन गई है। वहाँ से आगे जाने पर तुम्हें मानस नामक शिखर मिलेगा, जो बिल्कुल सुनसान है। वहाँ पक्षी तक नहीं जाते हैं। उसके आगे बढ़ने पर तुम लोग मैनाक पर्वत पर पहुँचोगे, जहाँ मयदानव का घर है। तुम लोग वहाँ भी हर ओर सीता को खोजना। वहाँ एक सिद्धाश्रम है, जिसके पास ही वैखानस नामक एक प्रसिद्ध सरोवर है। उसके आगे जाने पर तुम्हें सूना आकाश दिखाई देगा। उसमें सूर्य, चन्द्र या तारों के दर्शन नहीं होंगे। न वहाँ मेघों की घटा दिखाई देगी और न उनकी गर्जना सुनाई पड़ेगी। फिर भी उसमें ऐसा प्रकाश होगा, मानो सूर्य की किरणों से ही वह प्रकाशित है। उसके आगे बढ़ने पर तुम्हें शैलोदा नदी मिलेगी। उसके दोनों तटों पर बाँस लगे हुए हैं। उन्हीं की सहायता से लोग उस पार आते-जाते हैं। वहाँ उत्तर कुरुदेश है। उत्तर दिशा में और आगे बढ़ने पर तुम्हें समुद्र मिलेगा। उस समुद्र के मध्यभाग में सोमगिरि नामक बहुत ऊँचा पर्वत है। स्वर्गलोक में जाने वाले लोग उस सोमगिरि का दर्शन करते हैं। भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा ब्रह्माजी वहीं निवास करते हैं। तुम लोग किसी तरह प्रयास करके सोमगिरि की सीमा तक तक अवश्य जाना। उसके आगे न सूर्य का प्रकाश है और न किसी देश की सीमा है। अतः आगे की भूमि के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता। तुम इन सब स्थानों में सीता की खोज करना और जिन स्थानों के नाम मैंने नहीं भी लिए हैं, वहाँ भी अवश्य ढूँढना।
इस प्रकार सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए वानरों के चार दल नियुक्त कर दिए। सुग्रीव को दृढ़ विश्वास था कि हनुमान जी अवश्य ही सीता का पता लगा लेंगे। इसलिए उन्हें अलग से बुलाकर उसने कहा, “हनुमान! केवल तुम में ही बल, बुद्धि, पराक्रम व नैतिक आचरण जैसे सभी गुण एक साथ विद्यमान हैं। असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित समस्त लोकों का तुम्हें ज्ञान है। पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति को कोई रोक नहीं सकता है। इस भूमण्डल पर किसी से भी तुम्हारे तेज की तुलना नहीं हो सकती। अतः तुम अवश्य ही वह उपाय सोचो, जिससे सीता का पता चल सके। सुग्रीव की यह बात सुनकर श्रीराम भी समझ गए कि हनुमान जी के द्वारा ही यह कार्य पूर्ण होने की सबसे अधिक संभावना है। अतः थोड़ा विचार करने के बाद उन्होंने कहा, “वीरवर!!! तुम्हारे धैर्य एवं पराक्रम के बारे में सुग्रीव के विचार सुनकर मुझे यह आशा हो रही है कि तुम अवश्य ही सीता का पता लगा लोगे। अतः तुम मेरे नाम के अक्षरों वाली यह अँगूठी अपने साथ ले जाओ। इस चिह्न को देखकर सीता को विश्वास हो जाएगा कि तुम्हें मैंने ही भेजा है। तब वह निर्भय होकर तुमसे बात कर सकेगी। श्रीराम से वह अँगूठी लेकर हनुमान जी ने उसे अपने माथे से लगाया और फिर हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया। अन्य सब वानरों के समूह भी अलग-अलग दिशाओं में चले गए। उन सबके जाने पर श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा, “मित्र! तुम समस्त भूमण्डल के सभी स्थानों का परिचय कैसे जानते हो?” तब सुग्रीव ने विनम्रतापूर्वक कहा, “श्रीराम! बाली ने जब क्रोधित होकर मुझ पर आक्रमण कर दिया था, तो उससे अपने प्राण बचाने के लिए मैं पूरी पृथ्वी पर इधर-उधर भागता रहा। यह पृथ्वी मुझे गोल घेरे के समान दिखाई दी और बाली के भय से भागते हुए मैंने सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर डाली। उसी समय मैंने इन सारे पर्वतों, सरोवरों, नदियों तथा नगरों आदि को देखा था। जब बाली ने कहीं भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा, तो मुझे बड़ी चिंता हुई। उस समय परम-बुद्धिमान हनुमान जी ने मुझे स्मरण कराया कि केवल ऋष्यमूक पर्वत ही वह स्थान है, जहाँ मतङ्गमुनि के शाप के कारण बाली नहीं जा सकता। इसी कारण हम लोग ऋष्यमूक पर आकर रहने लगे।”
सुग्रीव के आदेश से सभी दिशाओं में भेजे गए वानर सीता की खोज में आगे बढ़ते रहे। श्रीराम और लक्ष्मण उसी प्रस्रवणगिरी पर ही रुके रहे और उन वानरों को लौटने के लिए जो एक मास की अवधि दी गई थी, उसके बीतने की प्रतीक्षा करने लगे। धीरे-धीरे एक मास बीत गया। पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं की ओर भेजे गए सब वानर एक-एक कर किष्किन्धा लौट आए और उन्होंने सुग्रीव को निराशाजनक समाचार सुनाया कि उनमें से किसी को भी सीता का पता नहीं मिला। अब सबकी आशा इसी बात पर टिकी थी कि हनुमान जी ही सीता का पता लगाकर लौटेंगे क्योंकि वे उसी दक्षिण दिशा में गए हैं, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था। उधर अंगद आदि वानरों के साथ हनुमान जी दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। दक्षिण दिशा का आरंभ विंध्याचल से माना जाता है, इसलिए उन लोगों ने वहीं से खोज आरंभ की। अनेक गुफाओं, जंगलों, पर्वतों, नदियों, सरोवरों आदि में ढूँढते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कहीं भी उन्हें सीता दिखाई नहीं दी। तब वे विंध्याचल के आस-पास की गुफाओं और वनों में भी खोजने लगे, किन्तु सीता का पता उन्हें फिर भी नहीं चला। इस प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग महासागर के तट तक पहुँच गए। सुग्रीव ने जो एक मास की अवधि उन्हें दी थी, वह अब पूरी हो गई थी, किन्तु सीता का अभी भी कुछ पता नहीं चला था।
एक दिन वे सब वानर बैठकर चिन्ता करने लगे कि ‘शरद ऋतु तो बीत गई और शिशिर ऋतु आ गई है, किन्तु सुग्रीव का कार्य हमने पूरा नहीं किया। अतः अब आगे क्या किया जाए?’ तब युवराज अंगद ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा - वानरों! महाराज सुग्रीव ने जो समय तय किया था, अब वह बीत गया है। उनका स्वभाव बड़ा कठोर है और हमने उनका कार्य भी पूर्ण नहीं किया। अब हम यदि असफलता का समाचार लेकर उनके सामने जाएँगे, तो वे अवश्य ही हमें प्राण-दण्ड देंगे। अतः उनके सामने जाने से अच्छा है कि हमें अब अपने परिवार, धन-संपत्ति आदि का मोह छोड़कर यहीं उपवास करके प्राण त्याग देने चाहिए। सुग्रीव के हाथों मरने से अच्छा है कि हम स्वयं ही अपना जीवन समाप्त कर लें। सुग्रीव का तो पहले ही मुझसे वैर है। मुझे युवराज भी उन्होंने नहीं बनाया था, अपितु श्रीराम की कृपा से ही मुझे यह पद मिला। सीता को न खोज पाने की इस विफलता को आधार बनाकर सुग्रीव अवश्य ही मुझे प्राण दंड दे देंगे। अतः सुग्रीव के सामने जाने से अच्छा है कि मैं स्वयं ही अपने प्राण त्यागकर यमलोक को चला जाऊँ।कुछ ही समय पहले सीता की खोज करते हुए वे वानर एक मायावी गुफा में भी पहुँच गए थे, जहाँ फल-फूल, जल और खाने-पीने की अन्य सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। उस गुफा में जाना बड़ा दुर्गम था और वे लोग बड़ी कठिनाई से वहाँ से बाहर निकल पाए थे। अब समुद्र तट पर बैठे अंगद की चिंता को देखकर तार नामक वानर ने सुझाव दिया कि “हम सब लोग वापस उसी दुर्गम गुफा में चलें। वह गुफा माया से निर्मित है, अतः वहाँ न तो श्रीराम आ सकेंगे और न सुग्रीव का कोई भय रहेगा। सब वानरों ने उस बात के लिए सहमति दे दी। तब हनुमान जी को चिंता हुई कि ‘इस प्रकार तो अंगद ने सुग्रीव से विद्रोह ही कर दिया है और ये सब वानर यदि अंगद के पक्ष में हो गए, तो वे सुग्रीव को राज्य से भी वंचित कर सकते हैं क्योंकि युवा होने के कारण अंगद का बल और पराक्रम भी बहुत है’।
अतः बुद्धिमान हनुमान जी ने अंगद के पक्ष वाले वानरों में फूट डालने का विचार किया। सब वानरों को सुनाते हुए उन्होंने अंगद से कहा, “तारानन्दन! तुम अपने पिता के समान ही वीर हो और उनके समान ही वानरों के राज्य को संभालने में भी समर्थ हो। लेकिन मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि इनमें से कोई भी वानर सुग्रीव से विरोध करके तुम्हारी ओर नहीं आ सकता। जाम्बवान, नील, सुहोत्र और मेरे जैसे किसी वानर को साम, दान, दण्ड, भेद आदि किसी भी उपाय से सुग्रीव से अलग करना असंभव है। सुग्रीव तुमसे अधिक प्रबल हैं और यह संभव नहीं है कि तुम हम सबको डराकर भी सुग्रीव से अलग कर सको। तुम्हें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि इस मायावी गुफा में वानर सुरक्षित रह सकेंगे। ऐसी गुफा को नष्ट करना लक्ष्मण के लिए बायें हाथ का खेल है। उनके पास ऐसे भयंकर नाराच हैं, जिनसे वे एक क्षण में ही पर्वतों को भी फोड़ सकते हैं। जैसे ही तुम इस गुफा में रहने जाओगे, ये सब वानर तुम्हें तुरंत ही त्याग देंगे क्योंकि इनका मन अपने पत्नी-बच्चों के पास लौटने के लिए व्याकुल है। तब तुम्हें सब लोगों से बिछड़कर गुफा में अकेले रहना पड़ेगा और लक्ष्मण के भय से तुम सदा पीड़ित रहोगे। सुग्रीव धर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे कभी तुम्हारा अहित नहीं करेंगे। वे सदा तुम्हारी माता का भी हित ही सोचते हैं और तुम्हारे अतिरिक्त उनका कोई पुत्र भी नहीं है। अतः तुम्हें भय त्यागकर उनके पास ही वापस चलना चाहिए। हनुमान जी की बातों का अंगद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा, “जिस दुरात्मा सुग्रीव ने अपने बड़े भाई की रक्षा में नियुक्त होते हुए भी उसे गुफा में बंद कर दिया था, जिसने बड़े भाई के जीवित होते हुए ही उसकी पत्नी को ग्रहण कर लिया था, जिसने शपथ लेने के बाद भी श्रीराम के कार्य को भुला दिया था, उसे धर्मपरायण कैसे माना जाए? सुग्रीव तो क्रूर, धूर्त और निर्दयी है। वह किष्किन्धा लौटते ही मुझे प्राण दंड देगा अथवा सदा के लिए बन्दी बना लेगा। अतः यहीं प्राण त्याग देना मेरे लिए उचित है। ऐसा कहकर अंगद ने सब वरिष्ठ वानरों को प्रणाम किया और धरती पर कुश बिछाकर रोते-रोते वहीं बैठ गया। उसकी ऐसी दशा को देखकर अन्य वानर भी आँसू बहाने लगे और समुद्र तट पर कुश बिछाकर वे भी वहीं बैठ गए। उस स्थान के पास ही एक पर्वत की कन्दरा में एक विशाल गिद्ध भी बैठा हुआ था। उन वानरों को वहाँ देखकर भोजन करने के विचार से उसका हृदय हर्ष से खिल उठा।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें