बुधवार, 24 जुलाई 2024

आर्चर दम्पति के मञ्जूषा चित्र संग्रह के बहाने----

       12 जून को यू.के. नीलामीकर्ता लियोन एंड टर्नबुल में भारतीय लोक चित्रकलाओं की ऑनलाइन बिक्री में, 68 दुर्लभ भारतीय चित्रों में बिहार की दो लोक चित्रकला मिथिला पेंटिंग और मंजूषा पेंटिंग की बड़ी ही ऊँची कीमतों पर बिक्री हुई, ये तमाम पेंटिंग डब्लू जी आर्चर और उनकी पत्नी मिल्ड्रेड आर्चर के निजी संग्रह के थे। आप जब इस संग्रह के मंजूषा चित्रों को देखेंगे तो पायेंगे की इन चित्रों में कहीं से भी बिहुला और विषहरी कथा चित्रों के बिम्बों का प्रयोग नहीं है। 1920-30 ईo के इस मंजूषा चित्रों में बिहुला-बिसहरी कथानक के प्रतीकात्मक विम्बों व चरित्रों का चित्रण ना होना और अधिकांश चित्रों का संग्रह स्थल पूर्णियां जिला का होना अपने आप में कई अर्थों को समेटे हुए है। आइये थोड़ा सिलसिलेवार ढंग से इसको देखने-समझने की चेष्टा करते हैं।

  • प्रथम, नाम का विश्लेषण 

          इसे हम मंजूषा चित्रकला कहें की माली कला ये सोचने वाली बात है क्योंकि आर्चर दंपति ने अपने संग्रह में इसे "माली कला" कहा है। ऐसे में इन सौ वर्षों में माली कला का मंजूषा कला बन जाना क्या मात्र एक संयोग है या फिर कला के तथाकथित महारथियों का सोचा समझा प्रयोग ??? मेरे हिसाब से ये प्रयोग ज्यादा प्रतीत होता है क्योंकि इससे पुर्व भी बड़ी ही चतुराई से बिहार में लोक चित्रकलाओं के साथ ऐसा प्रयोग किया जा चुका है। मिथिला पेंटिंग को मधुबनी पेंटिंग बना देना, कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा ला टिकुली जैसे शिल्प को टिकुली पेंटिंग बना देना। ऐसे प्रयोग की परंपरा बिहार में रही है। मूल लोक सांस्कृतिक नाम माली कला को हटा जरा शिष्ट व साहित्यिक नाम मंजूषा चित्रकला देना माली जाती से जुड़े होने के कारण लोक की चीजों को निम्न रूप में देखने की बात भी हो सकती है।

  • द्वितीय, इस कला का क्षेत्र 

         जिस माली कला का नाम बदल मंजूषा चित्रकला कर इसके केंद्र को भागलपुर (अंग प्रदेश) के रूप में प्रचारित किया गया वह अंग प्रदेश इसका उद्गम या केंद्र कैसे हो सकता है यह मुझे बड़े ही ताज्जुब की बात प्रतीत होती है। आज भी आप जब उत्तर बिहार और बिहार से सटे उत्तर प्रदेश के गावों में भ्रमण करेंगे तो प्रत्येक गोसाउनिक घर (कुल देवी पूजा गृह), ब्रह्मबाबा स्थान (ग्राम देवता का पूजन स्थल) आदी जगहों पर स्थानीय माली समुदाय द्वारा कागज और संठी (एक प्रकार का जलीय पौधा) से बनाये एक प्रकार के स्ट्रक्चर (झांप) पर वही रंग वही ढंग के हाथी, मछली, साँप, तोता, मोर चित्रित किए मिल जायेंगे जो आर्चर दंपति के कला संग्रह में आप देख रहे हैं। और तो और भागलपुर से कोसों दूर पूर्णियाँ जिले का एक पूरा का पूरा गाँव इस कला कर्म से आज भी जुड़ा है जहाँ प्रत्येक घर में झाँप निर्माण का कार्य दिन रात आज भी चलता है। अब ऐसे में भले आप मेरी बातों से सहमत ना हों पर आर्चर दंपति के संग्रह में 01 चित्र को छोड़ तमाम चित्त्रों का प्राप्ति स्थल पूर्णियाँ जिला का होना, सौ साल से अधिक बीत जाने के बाद भी उत्तर बिहार के गाँवों में चित्रों के विम्बों व रंगों का आज भी लगभग सेम टू सेम होना, ये स्पष्ट करता है की भागलपुर इस माली कला का कभी केंद्र रहा ही नहीं।

  • तृतीय, आधुनिक माली कला के चित्रों में बिहुला विषहरी का प्रवेश 

         जैसा की अधिकांश विद्वानों ने जो पुस्तकें मंजूषा चित्रकला पर लिखी हैं उसमें उन्होंने ये लिखा की इस कला में चित्रण का विषय बिहुला-विषहरी की चंदू सौदागर से जुड़ी लोक कथा है जो भागलपुर जिले में प्रचलित है। अब इस एक लोक कथा को अगर इस चित्रकला का आधार माना जाय तो हम यह कह सकते हैं की इस लोक कथा का विस्तार क्षेत्र भागलपुर जिला और उसके कुछ सीमावर्ती जिला में ही मात्र होना चाहिए पर आपको जान के आश्चर्य होगा की सावन महीने में मिथिला क्षेत्र में नव विवाहित कन्याओं द्वारा मधुश्रावणी नाम का एक पर्व मनाया जाता है जिसमें बजाप्ते पुरे एक माह मिट्टी निर्मित सर्प मुर्ति रूप में विषहारा की विस्तृत पूजा एक नहीं बल्कि इनसे जुड़े कई लोक कथाओं के संग पुरे माह भर की जाती है। इतना ही नहीं आज भी खासकर वर्षा ऋतू में घर के नवजात शिशुओं व बच्चों को सर्प दंश से बचाने के लिए संध्या काल घर की महिलाओं द्वारा ढिबरी (एक प्रकार का परंपरागत प्रकाश लैंप) की रौशनी से आरती जैसी क्रिया के साथ एक लोक मंत्र का उच्चारण करती है, जिसके बोल कुछ इस तरह से हैं - 


"दिप दिप हारा जागु हारा

मोती-माणिक भरु हारा 

नाग बढ़े नागिन बढ़े 

नाग के कुल वंशा बढ़े 

सातो बहिन विषहारा बढ़े 

खोनु-मोनु मामा बढ़े 

जिनका प्रसादे सुख सूती सुख उठी 

सोना कटोरा में दूध भात खाई 

आस्तिक आस्तिक" 


       इसे फकरा कहें या जो कहें पर बचपन में मेरी दादी ने कई बार ये क्रिया मेरे पे की है, जिसका मैं जीवित साक्षी हूँ। तो अब प्रश्न उठता है की एक मात्र चंदू सौदागर वाली लोक कथा (जो की उत्तर बिहार में भी प्रचलित है) को मात्र आधार बना मंजूषा पेंटिग का केंद्र भागलपुर स्थापित करने के पीछे की हरबरी क्या है ? ये आज भी मुझे समझ नहीं आता !!!


           विषहरी और बिहुला के कथानक पर आधारित इस लोक गाथा के रूप में जब मंजूषा पेंटिंग जैसे नए नाम के साथ प्रयोग चल रहा था, तो एक वर्ग इसे प्रमाणिक साबित करने के लिए आधा-अधूरा रेफरेंस के साथ इस कला और लेखन कार्य में व्यस्त था तो एक दूसरा वर्ग इस कला के प्रशिक्षण की आड़ में पुरातन चित्रकृतियों को रिप्लेस कर उसकी जगह बिहुला-विषहरी तो चंदू सौदागार को चित्रित करवा इस क्षेत्र में इस कला का स्टेट अवार्डी और नेशनल अवार्डी पैदा करने में लगा था ताकी वर्षों बाद जब इस लोक कला की खोजबीन हो तो सारे के सारे तार घूम फिर के भागलपुर जिले में आ के जुड़ जायें। वो तो धन्यवाद दीजिये आर्चर दंपति को जिनके कलेक्शन ने इन तमाम प्रयासों को सच का आईना दिखाते हुए यह साबित किया है की जिसे हम आप मंजूषा पेंटिंग कहते हुए नहीं अघाते वह दरअसल माली कला के नाम से सम्पूर्ण उत्तर बिहार की कला है ना की मात्र भागलपुर जिले की...


Rakesh Kumar Jha✍️


Note - यह लेखक के अपने विचार है, इसकी सत्यता की पुष्टि हम नहीं कर रहे है। (This is the author's own opinion and we are not confirming its authenticity.)

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