मंगलवार, 30 जुलाई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 40 (Valmiki Ramayana Part - 40)


समुद्र तट पर दुःखी बैठे उन वानरों को रोता देख उस गिद्ध ने अपने आप से ही कहा, “जिस प्रकार पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार मनुष्य को अपने किये का फल मिलता है, उसी प्रकार बहुत समय के बाद आज मुझे यह भोजन अपने आप ही मिल गया है। इन वानरों में से जो-जो मरता जाएगा, मैं उसे खाता जाऊँगा।” उस गिद्ध की बात सुनकर अंगद को बड़ा दुःख हुआ और वह हनुमान जी से बोला - हम लोगों ने न श्रीराम का कार्य पूर्ण किया और न हम अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा का ही पालन कर पाए। ऊपर से अब हम पर यह नई विपत्ति आ पड़ी है। हम सबने सुना है कि गिद्धराज जटायु ने किस प्रकार अपने मित्र राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम का कार्य करते हुए सीता की रक्षा में प्राण दिए। अब हमें भी उसी प्रकार जीवन का मोह छोड़कर अपने प्राण त्याग देने चाहिए। अंगद के मुँह से जटायु का नाम सुनकर वह गिद्ध चौंक उठा। उसने ऊँचे स्वर में पूछा यह कौन है, जो मेरे प्राणों से भी प्रिय भाई जटायु के वध की बात करके मेरे हृदय को कँपा रहा है? आज बहुत दिनों के बाद मुझे अपने प्यारे भाई का नाम सुनने को मिला। मुझे बताओ जटायु का युद्ध किससे हुआ था ?

वानरों!!! मेरे पंख सूर्य की किरणों से जल गए हैं। मैं उड़ नहीं सकता। तुम लोग मुझे नीचे उतार दो। मैं अपने भाई की मृत्यु का वृत्तांत सुनना चाहता हूँ। यह सुनकर वे वानर आशंकित हो गए कि यह गिद्ध कहीं हमें खा तो नहीं जाएगा। फिर उन्होंने सोचा कि ‘हम तो स्वयं ही अपने प्राण त्यागने का विचार कर रहे थे। यह हमें खा जाए तो अच्छा ही होगा।’ ऐसा सोचकर उन्होंने उसे नीचे उतार लिया। फिर अंगद ने अपना परिचय देकर उसे श्रीराम के वनवास, सीता के अपहरण तथा रावण से युद्ध में जटायु के वध का वृत्तांत सुनाया और उसे बताया कि अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा से हम लोग सीता को खोज में निकले हैं। यह सुनकर उस गिद्ध की आँखों में आँसू आ गए। उसने कहा - वानरों! मेरा नाम सम्पाती है। जटायु मेरा छोटा भाई था। बहुत समय पहले हम दोनों भाइयों में एक बार यह शर्त लगी थी कि सूर्यास्त होने से पहले हम दोनों उड़कर सूर्य तक पहुँच जाएँगे। यह तय करके हम आकाश में जा पहुँचे। आकाश की ऊँचाई से देखने पर पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर भी रथ के पहियों जैसे छोटे दिखाई देते थे, बड़े-बड़े पर्वत सरोवर में खड़े हाथियों जैसे दिखते थे और जंगल के विशाल वृक्ष हरी घास के तिनकों जैसे दिखाई पड़ते थे। जब हम सूर्य के मार्ग पर पहुँचे, तब तक हम दोनों को बड़ी थकावट लगने लगी और शरीर से बहुत पसीना बहने लगा। शीघ्र ही हमें मूर्च्छा होने लगी। सूर्य की चमक के कारण हमारे नेत्र भी कुछ देख नहीं पा रहे थे और न हम दिशा का अनुमान लगा पाते थे। सूर्य के तेज से मेरा भाई जटायु शिथिल होने लगा और मुझे बताए बिना ही वह धरती की ओर उतरने लगा। तब उसकी रक्षा के लिए मैंने अपने पंखों से उसे ढँक लिया। लेकिन इससे मेरे दोनों पंख जल गए और मैं मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। छः रातें बीतने पर मुझे होश आया, तब धीरे-धीरे अनुमान लगाकर मैंने जाना कि मैं समुद्र के तट पर विंध्य पर्वत के पास गिरा हूँ। वायु के पथ का विचार करके मुझे लगता है कि मेरा भाई जटायु संभवतः जनस्थान में उतरा था। उस घटना के बाद मैं उससे कभी नहीं मिल पाया और आज तुमसे मुझे उसकी मृत्यु का दुःखद समाचार प्राप्त हुआ है। अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ, इसलिए अपने भाई की हत्या का बदला नहीं ले सकता। इसी कारण इतनी दुःखद बात को सुनकर भी चुपचाप सह रहा हूँ। तुम लोग मुझे समुद्र के किनारे पर ले चलो। मैं अपने भाई को जलांजलि देना चाहता हूँ।

तब वानर उसे समुद्र के निकट ले गए और सम्पाती ने अपने भाई को जलांजलि देकर समुद्र में स्नान किया। इसके बाद सब वानर पुनः उसे पर्वत पर ले गए और फिर उसके चारों ओर घेरा बनाकर बैठ गए। तब अंगद ने कहा - गिद्धराज!!! यदि आप उस नीच रावण के निवास का पता जानते हैं, तो हमें बताइये। तब सम्पाती ने कहा - वानरों!!! जब से मैं वृद्ध हो गया, तभी से मेरा पुत्र सुपार्श्व ही आहार देकर मेरा भरण-पोषण करता है। एक दिन उसने मुझे बताया था कि उसने दुष्ट रावण को एक सुन्दर युवती का हरण करके ले जाता हुआ देखा था। वह घबराई हुई स्त्री ‘हा राम! हा लक्ष्मण!’ की रट लगा रही थी और अपने गहने फेंकती जा रही थी। तुम्हारे मुँह से राम का नाम सुनकर अब मुझे लगता है कि वह स्त्री अवश्य सीता ही रही होगी। वह दुरात्मा रावण महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। यहाँ से चार सौ कोस की दूरी पर समुद्र में एक द्वीप है, जहाँ विश्वकर्मा ने रमणीय लंकापुरी का निर्माण किया है। उसके दरवाजे और महल सोने के बने हुए हैं और उनके भीतर चबूतरे भी सोने के ही हैं। उस नगरी की चारदीवारी बहुत बड़ी है और सूर्य की भाँति चमकती है। रावण वहीं निवास करता है। गिद्ध होने के कारण मैं बहुत दूर तक का देख सकता हूँ। इसी कारण मुझे यहीं से लंका नगरी भी दिखाई देती है। मैंने देखा है कि पीले रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई सीता वहाँ रावण अंतःपुर में नजरबंद हैं। बहुत सारी राक्षसियाँ उनकी पहरेदारी करती हैं। लंका नगरी चारों ओर से समुद्र से घिरी हुई है। उसके दक्षिणी तट पर पहुँचने पर तुम रावण को देख सकोगे। अब तुम किसी प्रकार इस समुद्र को पार करने का उपाय सोचो। तुम लोगों की सहायता करके मैं भी रावण से अपने भाई के वध का बदला लेना चाहता हूँ। सीता का पता चल जाने से वानरों को बड़ी प्रसन्नता हुई और सम्पाती से विदा लेकर वे लोग दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े और उन्होंने दक्षिण समुद्र (हिन्द महासागर) के तट पर पहुँचकर डेरा डाला। अब समुद्र को देखकर वे लोग चिंतित हुए कि इसे कैसे पार किया जाए। तब अंगद ने सब वानरों से पूछा - सज्जनों!!! तुम लोगों में से जो भी इस समुद्र को पार सकता है, वही अब सुग्रीव के आदेश को पूर्ण करने में हमारा सहायक हो सकता है। अतः मुझे बताओ कि तुम में से कौन कितनी दूर तक जा सकता है। यह सुनकर सभी वानर अपनी-अपनी शक्ति का परिचय देने लगे। गज ने एक छलांग में दस योजन, गवाक्ष ने बीस, शरभ ने तीस योजन, ऋषभ ने चालीस योजन, गन्धमादन ने पचास, मैन्द ने साठ, द्विविद ने सत्तर योजन, सुषेण ने अस्सी तथा सबसे बूढ़े ऋक्षराज जाम्बवान ने नब्बे योजन तक जा सकने की बात कही। सबकी बात सुनकर अंगद ने कहा कि “मैं इस महासागर की सौ योजन की दूरी को अवश्य ही पार कर सकता हूँ, किन्तु उधर से वापस लौटने के लिए भी मुझमें उतनी शक्ति बचेगी या नहीं, यह मैं निश्चित नहीं कह सकता। इस पर वृद्ध जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राजकुमार! तुम्हारी शक्ति पर हमें कोई संदेह नहीं है, किन्तु तुम हमारे नेता हो, अतः तुम्हें भेजना हमारे लिए उचित नहीं है। यदि नेता पर ही कोई विपत्ति आ गई, तो यह पूरा समूह बिखर जाएगा, अतः तुम्हें नहीं भेजा जा सकता।

तब अंगद ने कहा - यदि मैं भी नहीं जाऊँगा तथा कोई अन्य वानर भी नहीं जा सकता, तो हम सुग्रीव की आज्ञा कभी पूरी नहीं कर पाएँगे। फिर तो हमें यहीं प्राण त्यागने पड़ेंगे। हम सब लोगों में आप ही सबसे अनुभवी हैं। अतः अब आप ही विचार करें कि यह कार्य कैसे पूर्ण किया जाए। यह सुनकर जाम्बवान बोले - वीर अगंद!!! तुम इसकी चिंता न करो। केवल एक ही ऐसा वीर है, जो इस कार्य को सिद्ध कर सकता है। ऐसा कहते हुए उन्होंने हनुमान जी की ओर देखा। उन्हें किसी बात का भय नहीं था और वे दूर एकांत में आनंद से बैठे हुए थे। तब जाम्बवान ने हनुमान जी के पास जाकर कहा - हनुमान!!! तुम वानरों में सबसे वीर हो और शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। तुम पराक्रम में सुग्रीव के समान और बल में श्रीराम के समान हो। तुम गरुड़ के समान शक्तिशाली व तीव्रगामी भी हो। तुम्हारे बल, बुद्धि, तेज और धैर्य की किसी से तुलना नहीं हो सकती। फिर तुम एकान्त में यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हो ? तुम तो इतने शक्तिशाली हो कि बचपन में एक बार तुमने उगते हुए सूर्य को फल समझकर आकाश की ओर छलांग लगा दी थी और अंतरिक्ष में तुम सूर्य के पास पहुँच गए। तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम पर व्रज से प्रहार कर दिया था। तब उसकी चोट से तुम्हारी हनु (ठोड़ी) का बायाँ भाग खण्डित हो गया। उसी कारण तुम्हारा नाम हनुमान पड़ा। तुम पर हुए प्रहार को देखकर पवन देव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तीनों लोकों में वायु के प्रवाह को रोक दिया। इससे चारों ओर खलबली मच गई। तब समस्त लोकपालों के अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने यह वर दिया कि तुम युद्ध में किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारे जा सकोगे। तुम वज्र के प्रभाव से भी पीड़ित नहीं हुए थे। यह देखकर इन्द्र ने तुम्हें वरदान दिया कि मृत्यु भी तुम्हारी इच्छा के अधीन रहेगी। पराक्रमी वीर!!! तुम्हारी गति और शक्ति सब प्राणियों से बढ़कर है। तुम अपने बल को पहचानो। यह सारी वानरसेना तुम्हारा पराक्रम देखना चाहती है। जिस प्रकार भगवान विष्णु ने वामन रूप में आकर तीनों लोकों को नापने के लिए पग बढ़ाए थे, उसी प्रकार अब तुम भी इस समुद्र को लांघने के लिए आगे बढ़ो।

यह सुनकर हनुमान जी को अपनी शक्ति का विश्वास हो गया और उन्होंने वानरों की ओर देखकर अपना विराट रूप प्रकट किया। हनुमान जी का आकार सहसा बढ़ने लगा। यह देखकर वानरों में हर्ष व्याप्त हो गया और वे उनकी स्तुति करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। हनुमान जी का वह विशाल रूप बड़ा ही बलवान दिखाई पड़ता था। जिस प्रकार पर्वत की कन्दरा में कोई सिंह अंगड़ाई लेता है, उसी प्रकार अंगड़ाई लेते हुए वे भी अपने शरीर का आकार बढ़ाते गए। फिर हनुमान जी ने हाथ जोड़कर वहाँ उपस्थित वानरों से कहा - वानरों!!! मैं वायुदेवता का औरस पुत्र हूँ और उन्हीं के समान मुझमें भी समस्त ग्रह-नक्षत्रों तक को लाँघ जाने की शक्ति है, अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं लंका में जाकर अवश्य ही विदेहकुमारी का दर्शन करूँगा। अतः अब तुम लोग शोक को त्याग दो और आनंद मनाओ।वानरों!!! जब मैं यहाँ से छलाँग मारूँगा, तब संसार में कोई भी मेरे वेग को संभाल नहीं सकेगा। इस विशाल महेन्द्र पर्वत के शिखर ही मेरे वेग को संभाल सकते हैं, अतः मैं वहीं से छलाँग लगाऊँगा। ऐसा कहकर हनुमान जी महेन्द्र पर्वत की ओर आगे बढ़े और अपने चित्त को एकाग्र करके उन्होंने लंका का स्मरण करते हुए मन ही मन अपनी योजना का विचार किया।

यहाँ से सुन्दरकाण्ड आरंभ हो रहा है।


समुद्र पार करने हेतु सौ योजन की छलांग लगाने के लिए हनुमान जी महेन्द्र पर्वत के ऊँचे शिखर पर चढ़ गए। उनके विशाल आकार के कारण वह पर्वत उनके चरणों से दबकर कुचला जाने लगा। उसकी शिलाएँ इधर-उधर बिखरने लगीं व उनके बीच से नए झरने फूटने लगे। बड़े-बड़े सर्प घबराकर अपने बिलों में छिप गए, वृक्ष झोंके खाकर हिलने लगे, पशु-पक्षी भयभीत हो गए। लेकिन हनुमान जी ने किसी पर ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान केवल अपना लक्ष्य पूरा करने की योजना में लगा हुआ था। अपने मन को एकाग्र करके वे केवल लंका के बारे में ही सोच रहे थे। श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने का निश्चय करके हनुमान जी ने बड़े वेग से ऊपर की ओर छलाँग मारी। उस झटके से पूरा पर्वत हिल गया और उसके वृक्ष उखड़कर हवा में इधर-उधर बिखर गए। विशालकाय हनुमान जी का शरीर समुद्र से ऊपर था और उनकी परछाई जल में डूबी हुई दिखाई दे रही थी। समुद्र के जिस भाग की ओर वे बढ़ते थे, वहाँ ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगती थीं। उनके वेग से समुद्र का जल बहुत ऊपर तक उठने लगा। इसके कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, मछलियाँ, कछुए भी साफ-साफ दिखाई देने लगे। आकाश में जाते हनुमान जी गरुड़ के समान दिखाई दे रहे थे। उनकी छाया दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी थी। वे बार-बार बादलों में घुसते और निकलते जा रहे थे। समुद्र में स्थित मैनाक पर्वत उन्हें देखकर ऊपर उठने लगा। तब हनुमान जी ने सोचा कि ‘मेरे मार्ग में यह विघ्न खड़ा हो रहा है। अतः उन्होंने एक धक्के से उस पर्वत के शिखर को नीचे गिरा दिया। तब उस पर्वत ने ही मनुष्य रूप में उनसे हाथ जोड़कर कहां - पवनपुत्र!!! मुझे समुद्र ने ही आपकी सेवा के लिए नियुक्त किया है। आप कुछ देर तक मेरे शिखर पर विश्राम कर लीजिए, फिर आगे बढ़ियेगा। तब हनुमान जी बोले, “मैनाक! मुझे तुमसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु मैंने मार्ग में कहीं न ठहरने का संकल्प लिया है। यह दिन बीता जा रहा है तथा मुझे अपना महत्वपूर्ण कार्य शीघ्र पूरा करना है। अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। ऐसा कहकर उन्होंने उस पर्वत को हाथों से स्पर्श किया और पुनः आकाश की ओर बढ़ने लगे। पर्वत और समुद्र दोनों ने बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया।

थोड़ा आगे बढ़ते ही मार्ग में विकराल सुरसा राक्षसी से उनका सामना हुआ। उसका रूप बड़ा विकट, बेडौल और भयावह था। वह हनुमान जी से बोली - अब तुम मेरा भक्ष्य बनोगे। मेरे मुँह में चले आओ। तब हनुमान जी ने कहा - देवी! दुष्ट रावण ने दशरथ के पुत्र श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है। मैं श्रीराम का दूत बनकर सीता के पास जा रहा हूँ। मुझे यह कार्य पूर्ण कर लेने दो, फिर मैं स्वयं तुम्हारे मुँह में चला आऊँगा। यह सुनकर सुरसा बोली - मुझे ब्रह्माजी से यह वरदान मिला है कि कोई मुझे लाँघकर आगे नहीं जा सकता। अतः तुम्हें मेरे मुँह में प्रवेश करना ही पड़ेगा। यह सुनकर हनुमान जी कुपित हो गए। उन्होंने सुरसा से कहा, “ठीक है, तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो, जिसमें मैं समा सकूँ। तब सुरसा ने अपना मुँह दस योजन विस्तृत बना लिया। हनुमान जी ने भी अपना आकार उतना ही और बड़ा कर लिया। फिर उसने अपना मुँह बीस योजन बढ़ाया, तो हनुमान जी ने अपने शरीर को तीस योजना का बना लिया। इस प्रकार चालीस, पचास करते-करते सुरसा के मुख का विस्तार सौ योजन का हो गया। तब बुद्धिमान हनुमान जी ने तुरंत ही अपने शरीर को संकुचित कर लिया और वे अँगूठे के बराबर छोटे हो गए। फिर सुरसा के मुँह में प्रवेश करके अगले ही क्षण वे बाहर भी निकल आए। उन्होंने सुरसा से कहा, “दक्षकुमारी! मैंने तुम्हारे मुँह में प्रवेश करके वरदान को सत्य कर दिया। अब मुझे आगे बढ़ने का मार्ग दो।” यह सुनकर राक्षसी सुरसा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुई। उसने हनुमान जी से कहा, “कपिश्रेष्ठ! मुझे देवताओं ने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था। अब तुम निश्चिन्त होकर आगे बढ़ो व श्रीराम के कार्य को सिद्ध करो।” अब पुनः एक बार हनुमान जी बादलों के बीच आकाश-मार्ग से आगे बढ़ने लगे। तब इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वाली सिंहिका राक्षसी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्हें देखकर वह सोचने लगी, “आज बहुत समय के बाद ऐसा विशालकाय जीव मेरे वश में आया है। इसे खाने के बाद कई दिनों के लिए मेरी भूख मिट जाएगी।” ऐसा सोचते हुए उसने हनुमान जी की छाया पकड़ ली। तब हनुमान जी ने सोचा, “अहो!!! सहसा किसने मुझे पकड़ लिया। मेरा पराक्रम क्षीण हो रहा है।” यह सोचते हुए उन्होंने अगल-बगल में और ऊपर-नीचे दृष्टि डाली। तभी उन्हें समुद्र के ऊपर उठा हुआ एक विशालकाय जीव दिखाई दिया। उस विकराल मुख वाली राक्षसी को देखकर उन्होंने सोचा, “वानरराज सुग्रीव ने जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीव की चर्चा की थी, निःसंदेह यह वही है।” यह सोचकर उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना आरंभ किया। उनका आकार बढ़ता देख सिंहिका ने भी अपना मुँह और फैला लिया। मेघों की घटा के समान गर्जना करती हुई वह हनुमान जी की ओर दौड़ी। महाकपि हनुमान जी ने उसके मर्मस्थानों को लक्ष्य बनाया। फिर अपने शरीर को छोटा करके वे उसके विकराल मुख में घुस गए और उसके हृदय को नष्ट करके बड़े वेग से ऊपर उछलकर बाहर भी निकल आए। अपने प्राण गँवाकर वह विकराल राक्षसी समुद्र के जल में गिर पड़ी।

इन सब विघ्नों को पार करके आगे बढ़ते हुए हनुमान जी अंततः समुद्र के दूसरे किनारे के पास तक पहुँच गए। वहाँ उन्हें वृक्षों से हरा-भरा लंका का द्वीप दिखाई दिया। उसे देखकर उन्होंने विचार किया, “मेरे इस विशाल शरीर एवं तीव्र वेग से राक्षसों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हो जाएगा और कौतूहलवश वे मेरा भेद जानने को उत्सुक हो जाएँगे। अतः मुझे अपना आकार छोटा कर लेना चाहिए।” ऐसा सोचकर उन्होंने अपने विशाल शरीर को पुनः छोटा कर लिया और वे अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। तब वे केवड़े, नारियल आदि के वृक्षों से भरे त्रिकूट पर्वत पर उतर गए और अमरावती के समान सुन्दर दिखाई देने वाली लंकापुरी को ध्यान से देखने लगे।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

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