गुरुवार, 4 जुलाई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 38 (Valmiki Ramayana Part - 38)


किष्किन्धा के बाहर अनेक भयंकर वानर विचर रहे थे, जिनके शरीर हाथियों के समान विशाल थे। लक्ष्मण को देखते ही उन्होंने अनेक शिलाएँ और बड़े-बड़े वृक्ष अपने हाथों में उठा लिए। उन सबको हथियार उठाते देख लक्ष्मण का क्रोध और भी बढ़ गया। यह देखकर वानर भय से काँप उठे और चारों ओर भागने लगे। उनमें से कुछ वानर भागकर सुग्रीव के महल में पहुँचे और उन्होंने लक्ष्मण के आगमन व क्रोध की सूचना सुग्रीव को दी। कामासक्त सुग्रीव उस समय तारा के साथ मग्न था, अतः उसने उन वानरों की बात पर ध्यान नहीं दिया। तब सुग्रीव के सचिव की आज्ञा से वे वानर बहुत डरते-डरते पुनः लक्ष्मण के पास गए। लक्ष्मण की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। उन्होंने अंगद को आदेश दिया, “बेटा! तुम जाकर सुग्रीव से कह दो कि ‘श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण अपने भाई के दुःख से दुःखी होकर आपके पास आए हैं और नगर के द्वार पर खड़े हैं। आपकी इच्छा हो तो उनकी आज्ञा का पालन कीजिए।’ केवल इतना कहकर तुम शीघ्र मेरे पास लौट आना।”

यह सुनकर अंगद के मन में बड़ी घबराहट हुई। उसने तुरंत जाकर सुग्रीव, तारा व रुमा को प्रणाम करके उन्हें बताया कि ‘सुमित्रानन्दन लक्ष्मण यहाँ पधारे हैं।’ मदमत्त (नशे में धुत्त) होने के कारण सुग्रीव को अंगद की बात सुनाई नहीं पड़ी। तब तक लक्ष्मण ने नगर में प्रवेश कर लिया था। उन्हें महल की ओर आता देख अनेक वानर एक साथ किलकिलाने लगे। उन वानरों को आशा थी कि इससे लक्ष्मण प्रसन्न होंगे और सुग्रीव की नींद भी टूटेगी। वानरों की इस गर्जना से सुग्रीव की नींद तो खुल गई, किन्तु नशे के कारण उसकी आँखें लाल थीं और मन भी संतुलित नहीं था। सुग्रीव के दो मंत्रियों प्लक्ष और प्रभाव उसे धर्म व अर्थ के विषय में उपयुक्त परामर्श देने के लिए नियुक्त थे। उन्होंने उसे समझाया कि ‘राम-लक्ष्मण के कारण ही आपको राज्य प्राप्त हुआ है। वे दोनों भाई तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हैं, अतः उनसे वैर करना उचित नहीं है। तब बुद्धिमान हनुमान जी ने सुग्रीव को समझाते हुए कहा, “कपिराज! श्रीराम ने लोकनिंदा की चिंता किए बिना आपको प्रसन्न करने के लिए पराक्रमी वाली का वध कर दिया था, किन्तु आपने सीता की खोज आरंभ करने के लिए जो समय निश्चित किया था, उसे आप अपने प्रमाद के कारण भूल गए हैं। वर्षा ऋतु कब की बीत चुकी है, फिर भी आपने सीता की खोज आरंभ नहीं करवाई है। इसी कारण लक्ष्मण यहाँ आए हैं।” आपने श्रीराम के प्रति अपराध किया है, अतः हाथ जोड़कर लक्ष्मण से क्षमा माँग लेना ही आपके लिए उचित है। श्रीराम यदि क्रोधित होकर धनुष हाथ में उठा लें, तो संपूर्ण जगत को जीत सकते हैं। उन्हें क्रोध दिलाना आपके लिए उचित नहीं है। राज्य की भलाई के लिए मंत्री को सदा राजा के हित की ही बात कहनी चाहिए। इसी कारण मैं भय छोड़कर आपको यह परामर्श दे रहा हूँ।

इधर महल के मार्ग पर बढ़ते हुए लक्ष्मण ने देखा कि किष्किन्धा नगरी एक बहुत बड़ी रमणीय गुफा में बसी हुई थी। अनेक प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी उस नगरी में सुन्दर वस्त्र और मालाएँ धारण करने वाले अनेक वानर निवास करते थे। वे सब देवताओं तथा गन्धर्वों के पुत्र थे। चन्दन, अगर और कमल की मनोहर सुगन्ध उस नगरी में फैली हुई थी। उसकी लंबी-चौड़ी सड़कें मैरेय और मधु के आमोद से महक रही थीं। किष्किन्धा में कई मंजिलों वाले अनेक ऊँचे-ऊँचे महल थे। राजमार्ग पर ही अंगद का रमणीय भवन था। उसके पास ही हनुमान, नल, नील, सुषेण, तार, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों के भवन भी थे। अन्तःपुर में प्रवेश करते ही लक्ष्मण को अत्यंत मधुर वीणा की ध्वनि सुनाई दी। वीणा की उस मधुर धुन पर कोमल स्वर में कोई गा रहा था। वहाँ उन्हें अनेक युवती स्त्रियाँ भी दिखाई दीं। वे फूलों के गजरों व सुन्दर आभूषणों से विभूषित थीं और पुष्पहार बनाने में व्यस्त थीं। उनकी नूपुरों की झनकार और करधनी की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।पराई स्त्रियों को देखते ही लक्ष्मण ने अपने सज्जन स्वभाव के अनुसार तुरंत आँखें नीचे झुका लीं। वे थोड़ा पीछे हटकर एकांत में खड़े हो गए। महल की रौनक व चहल-पहल देखकर वे समझ गए कि श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने के लिए सुग्रीव ने कोई प्रयास नहीं किया है। इससे उनका क्रोध और बढ़ गया तथा उन्होंने अपने धनुष पर भीषण टंकार दी, जिसकी ध्वनि से चारों दिशाएँ गूँज उठीं। उस ध्वनि को सुनकर सुग्रीव भी समझ गया कि लक्ष्मण वहाँ आ पहुँचे हैं। भय से उसका मन घबरा उठा। तब उसने परम सुन्दरी तारा से कहा, “सुन्दरी! पता नहीं लक्ष्मण के रोष का कारण क्या है। तुम ही जाकर देखो और मधुर वचनों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करो। तुम्हारे सामने वे क्रोध नहीं करेंगे क्योंकि सज्जन पुरुष कभी स्त्रियों के प्रति कठोर व्यवहार नहीं करते हैं। जब तुम अपनी मीठी बातों से उनका क्रोध को शांत कर दोगी, तब मैं सामने आकर उनसे मिलूँगा।”

यह सुनकर तारा लक्ष्मण से मिलने गई। मद्यपान के कारण उसके नेत्र भी चंचल हो रहे थे और पैर लड़खड़ा रहे थे। उसकी स्त्रीसुलभ लज्जा भी नष्ट हो गई थी। निःसंकोच होकर तारा ने लक्ष्मण से पूछा, “राजकुमार! आपके क्रोध का कारण क्या है? किसने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है? तारा को देखते ही लक्ष्मण ने अपनी दृष्टि झुका ली। स्त्री के सामने क्रोध करना भी उन्होंने उचित नहीं समझा। लक्ष्मण ने तारा से कहा, “तुम्हारा पति विषय-भोग में आसक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गया है। तुम उसे समझाती क्यों नहीं? श्रीराम का कार्य आरंभ करने के लिए सुग्रीव ने चार मास की अवधि निश्चित की थी। वह कब की बीत गई, किन्तु मद्यपान से उन्मत्त रहकर वह स्त्रियों के साथ भोग-विलास में ही लगा हुआ है। उसे अपने कर्तव्य और वचन का कोई ध्यान ही नहीं है। मित्र दो प्रकार के होते हैं - एक जो अपने मित्र के अर्थसाधन में लगा रहता है और दूसरा जो सत्य व धर्म का पालन करता है। तुम्हारे पति ने मित्रता के इन दोनों गुणों को त्याग दिया है। ऐसे में हम लोगों को क्या करना चाहिए? यह सुनकर तारा बोली, राजकुमार!!! अपने आत्मीय जनों पर क्रोध नहीं करना चाहिए। उनसे कोई भूल भी हो जाए, तो क्षमा कर देना चाहिए। यह सत्य है कि सुग्रीव इन दिनों कामासक्त हो गए हैं और उनका मन किसी और बात में नहीं लगता है। लेकिन काम की शक्ति ही ऐसी है कि कामासक्त मनुष्य देश, काल, धर्म, अर्थ सबको भूल जाता है। बड़े-बड़े तपस्वी भी इसके मोह में फँसकर स्वयं को रोक नहीं पाते हैं, फिर चंचल स्वभाव वाले राजा सुग्रीव सुख-भोग में आसक्त क्यों न हों? आप उन्हें अपना भाई समझकर क्षमा कर दीजिए।अपनी कामासक्ति में सब-कुछ भूल जाने के बाद भी सुग्रीव ने श्रीराम के कार्य को नहीं भुलाया है। उनके मन में सदा उसी कार्य का विचार बना रहता है। बहुत पहले ही उन्होंने इस कार्य को आरंभ करने की आज्ञा दे दी है। दूर-दूर के विभिन्न पर्वतों पर निवास करने वाले व अपनी इच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकने वाले करोड़ों महापराक्रमी वानर सुग्रीव की आज्ञा से ही यहाँ उपस्थित हो रहे हैं। अतः आप क्रोध त्यागकर भीतर आइये।

यह सुनकर लक्ष्मण ने भीतर प्रवेश किया। वहाँ एक सोने के सिंहासन पर बिछे बहुमूल्य बिछौने पर उन्हें सुग्रीव दिखाई दिया। उसने रूमा को अपने आलिंगन में जकड़ा हुआ था और अनेक युवती स्त्रियाँ उसे घेरकर खड़ी थीं। यह देखकर लक्ष्मण को भयंकर क्रोध आया। उन्हें इस प्रकार सहसा अपने सामने देखकर सुग्रीव भी भय से काँपने लगा। वह अपने आसन से कूदकर लक्ष्मण के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। क्रोध से भरे लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा, वानरराज!!! धैर्यवान, कुलीन, जितेन्द्रिय, दयालु और सत्यवादी राजा ही संसार में आदर पाता है। तुम अनार्य, कृतघ्न और मिथ्यावादी हो क्योंकि श्रीराम की सहायता से तुमने अपना काम तो बना लिया, किन्तु उसके बाद तुमने उनकी सहायता के समय मुँह मोड़ लिया। जो अपने उपकारी मित्रों के सामने की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाता है, ऐसे पापी एवं कृतघ्न राजा का वध करने में कोई अधर्म नहीं है। वानर!!! तुम यह न भूलो कि बाली को श्रीराम ने मृत्यु के जिस मार्ग पर भेजा था, वह अभी बंद नहीं हुआ है। अवश्य ही तुम उनके धनुष की शक्ति को भूल गए हो। यदि तुम्हें अपने प्राण प्यारे हैं, तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। क्रोधित लक्ष्मण की बातें सुनकर चन्द्रमुखी तारा ने उनसे कहा, कुमार लक्ष्मण!!! जीवन में बहुत कष्ट उठाने के बाद अब सुख प्राप्त हुआ है। इसी कारण वे सब-कुछ भूलकर इसी में मग्न हो गए थे। फिर भी श्रीराम के उपकार को उन्होंने कभी नहीं भुलाया है, आप तो बुद्धिमान हैं। आपको इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए। आप दोनों भाइयों को सुग्रीव के अपराध को क्षमा कर देना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुग्रीव श्रीराम का कार्य अवश्य ही पूरा करेंगे। वानरराज बाली ने मुझे बताया था कि लंका में कई हजार करोड़ राक्षस रहते हैं। उनसे युद्ध करने के लिए सुग्रीव ने भी असंख्य वानर वीरों की सेनाओं को दूर-दूर से बुलवाया है। वे सब वानर आज ही यहाँ पहुँचने वाले हैं। उनके आते ही सुग्रीव श्रीराम का कार्य आरंभ कर देंगे।

यह सुनकर लक्ष्मण का क्रोध शांत हुआ। तब सुग्रीव ने भी विनम्रतापूर्वक कहा, राजकुमार!!! श्रीराम के उपकार को मैं कभी नहीं भूल सकता। उनका पराक्रम अद्भुत है। वे अवश्य ही रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त करेंगे और इसमें मैं उनका तुच्छ सहायक बनूँगा। मुझसे यदि कोई अपराध हुआ है, तो आप दोनों भाई उसे क्षमा कर दीजिए। तब लक्ष्मण ने कहा, “वानरराज सुग्रीव! तुम्हारे मित्र श्रीराम अभी पत्नी के वियोग से दुःखी हैं। अतः तुम मेरे साथ चलकर उन्हें सांत्वना दो। क्रोध में मैंने जो कठोर बातें तुमसे कह दी थीं, उनके लिए तुम भी मुझे क्षमा करो। यह सुनकर सुग्रीव ने हनुमान जी से कहा, “महेन्द्र, हिमवान, विन्ध्य, कैलास, मन्दराचल, उदयाचल, अस्ताचल, पद्माचल, अंजन पर्वत, मेरुपर्वत, धूम्रगिरि, महारुण पर्वत आदि सभी पर्वतों पर जो श्रेष्ठ वानर निवास करते हैं, समुद्र के उस पार जो वानर रहते हैं, बड़े-बड़े रमणीय वनों में जो वानर हैं, तुम उन सब श्रेष्ठ वानरों को यहाँ बुलवाओ। उन्हें बुलवाने के लिए जो वानर पहले भेजे गए थे, उनसे भी अधिक शक्तिशाली तथा वेगवान वानरों को भेजकर साम, दान आदि उपायों से पूरे भूमण्डल के समस्त श्रेष्ठ वानरों को शीघ्र यहाँ लाओ। जो वानर दस दिनों के भीतर यहाँ न आएँ, उन सबको मृत्यु-दण्ड दिया जाए। यह सुनकर हनुमान जी ने अनेक पराक्रमी वानरों को चारों दिशाओं में भेजा। सुग्रीव का आदेश मिलते ही वे सब वानर भय से काँप उठे और शीघ्र ही किष्किन्धा आ पहुँचे। सुग्रीव ने जिन वानरों को भेजा था, वे सब ओर से लौटते समय वहाँ की विशेष औषधियाँ, पुष्प, फल-मूल आदि भी सुग्रीव को अर्पित करने के लिए अपने साथ ले आए। उन सबको देखकर व उनसे उपहार पाकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सबसे बातचीत करके सुग्रीव ने उन्हें विदा कर दिया।

इसके बाद सुग्रीव ने अपने सेवक वानरों को आज्ञा दी, “वानरों! तुम लोग शीघ्र ही मेरी पालकी यहाँ ले आओ। पालकी आने पर लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों उस पर आरूढ़ हुए। उस समय सुग्रीव के ऊपर एक श्वेत छत्र लगाया गया था। शंख और भेरी की ध्वनि की साथ लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए सुग्रीव और लक्ष्मण किष्किन्धा से बाहर निकले व श्रीराम के निवास-स्थान पर गए। श्रीराम के सामने जाते ही सुग्रीव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगाया और उनका स्वागत किया। फिर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “वानरशिरोमणि! जो उचित समय पर धर्म, अर्थ और काम का आनंद लेता है, वही श्रेष्ठ राजा है। जो धर्म और अर्थ को त्यागकर केवल भोग-विलास में ही रमा रहता है, वह वृक्ष की शाखा पर सोये हुए मनुष्य के समान है। नीचे गिरने पर ही उसकी आँख खुलती है। मित्र!!! अब हम लोगों के लिए कार्य करने का समय आ गया है। तुम अब अपने मंत्रियों के साथ इस बारे में विचार करो। यह सुनकर सुग्रीव ने विनम्रता से कहा, “श्रीराम!!! आपकी कृपा से ही मुझे यह राज्य और यह सुख प्राप्त हुआ है। मैं आपके इस उपकार को कभी नहीं भूल सकता। सैकड़ों बलवान रीछ, वानर व लंगूर चारों दिशाओं से यहाँ आ गए हैं। वे सब बड़े भयंकर हैं और बीहड़ वनों तथा दुर्गम स्थानों के जानकार हैं। जो देवताओं व गन्धर्वों के पुत्र हैं, वे अपनी इच्छा से रूप धारण करने में समर्थ हैं। बहुत-से अन्य श्रेष्ठ वानर भी हैं, जो अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर किष्किन्धा की ओर प्रयाण कर चुके हैं। शीघ्र ही वे भी यहाँ आ जाएँगे। रावण की राक्षस-सेना से युद्ध करने के लिए वे सब आपके साथ चलेंगे।
यह सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए।
श्रीराम और सुग्रीव के बीच ऐसी बातचीत चल ही रही थी कि तभी आकाश में चारों ओर धूल के बादल दिखने लगे और वानरों की गर्जना से वन-कानन, पर्वत सब गूँज उठे। चारों दिशाओं से लाखों की संख्या में वानरों की सेनाएँ एक-एक कर वहाँ पहुँचने लगीं और किष्किन्धा के आस-पास की सारी भूमि उन वानरों से भर गई। उन सब वानरों से मिलकर सुग्रीव ने पुनः श्रीराम के पास लौटकर कहा, रघुनन्दन! वानर-सेना अब आपका कार्य करने के लिए यहाँ उपस्थित है। अब आपकी जैसी आज्ञा हो, उसी के अनुसार हम सब लोग कार्य करेंगे। तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, सौम्य!!! पहले यह तो पता लगाओ कि सीता जीवित है या नहीं। जिस देश में रावण निवास करता है, वह कहाँ है? जब सीता के जीवित होना का और रावण के निवास-स्थान का निश्चित पता मिल जाएगा, तब तुम्हारे साथ मिलकर मैं आगे का निर्णय लूँगा। यह सुनकर सुग्रीव ने तुरंत ही विनत नामक वानर सेनापति को बुलाया और उसे आदेश दिया, “तुम एक लाख वेगवान वानरों के साथ सीता व रावण के निवास की खोज में पूर्व की दिशा की ओर जाओ। गंगा, सरयू, कौशिकी, यमुना, सरस्वती, सिंधु, शोणभद्र, कालमही आदि नदियों के किनारे तुम उन्हें ढूँढो। ब्रह्माल, विदेह, मालव, काशी, कोसल, मगध, पुण्ड्र तथा अंग आदि राज्यों व जनपदों में छानबीन करो। रेशम के कीड़ों की उत्पत्ति के स्थानों व चाँदी की खानों में भी ढूँढो। मंदराचल की चोटी पर जो गाँव बसे हैं, उनमें भी देखो। समुद्र के भीतर स्थित पर्वतों पर व उनके बीच बने द्वीपों के विभिन्न नगरों में भी ढूंढो। तुम लोग तैरकर या नाव से समुद्र को पार करके सात राज्यों वाले यवद्वीप (जावा), सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) आदि में भी ढूँढने का प्रयास करो। यवद्वीप के आगे जाने पर शिशिर नामक पर्वत मिलेगा, जहाँ देवता और दानव निवास करते हैं। ऐसे सभी पर्वतों में तुम देखना। फिर समुद्र के उस पार जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं, वहाँ तुम लाल जल से भरी और तीव्र वेग वाली शोण नदी के तट पर पहुँचोगे। उसके तट पर बने तीर्थों और वनों में भी सीता की खोज करना। उसके आगे तुम एक महाभयंकर समुद्र तथा उसके द्वीपों को देखोगे। इक्षुरस का वह समुद्र काले मेघ के समान काला दिखाई देता है। उसमें बड़ी भारी गर्जना सुनाई देती है। उस महासागर को पार करने पर तुम लोहित नामक भयंकर सागर के तट पर पहुँचोगे और वहाँ तुम्हें शाल्मलिद्वीप (ऑस्ट्रेलिया/न्यूज़ीलैंड?) दिखाई देगा। उस द्वीप में भयंकर शरीर वाले मंदेह नामक राक्षस निवास करते हैं, जो चट्टानों पर उलटे लटके रहते हैं। दिन में सूर्य की गर्मी बढ़ने पर वे समुद्र के जल में गिर पड़ते हैं, पर रात में पुनः उन्हीं चट्टानों पर लटक जाते हैं। उनका यह क्रम निरंतर चलता रहता है। शाल्मलिद्वीप से आगे बढ़ने पर तुम्हें ऊँची-ऊँची लहरों वाला क्षीरसागर (प्रशांत महासागर?) दिखाई देगा। उसके बीच में ऋषभ नामक एक ऊँचा पर्वत है। क्षीरसागर को पार करके जब तुम आगे बढ़ोगे, तो एक और समुद्र मिलेगा, जिसमें एक भीषण ज्वालामुखी विद्यमान है। उसके उत्तर में तेरह योजन की दूरी पर एक बहुत ऊँचा पर्वत है। उसके शिखर पर तुम्हें भगवान अनंत बैठे दिखाई देंगे। उस पर्वत के ऊपर उनकी स्वर्णमयी ध्वजा दिखती है, जिसकी तीन शिखाएँ हैं और उसके नीचे वेदी बनी हुई है (दक्षिण अमरीका में पेरू का पराकास (Paracas) त्रिशूल?)। यहीं पूर्व दिशा की सीमा समाप्त होती है। उसके आगे उदय पर्वत (एंडीज पर्वत?) है, जो सौ योजन लंबा है। उसका सौमनस नामक शिखर है, जिसकी ऊँचाई दस योजन और चौड़ाई एक योजन है। पूर्वकाल में वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने अपना पहला चरण उसी सौमनस शिखर पर तथा दूसरा मेरुपर्वत के शिखर पर रखा था। तुम्हें वहाँ भी चारों ओर सीता का पता लगाना चाहिए। वानरों! तुम केवल उदयगिरि तक ही जा सकोगे क्योंकि उसके आगे न तो सूर्य का प्रकाश है, न राज्यों की कोई सीमा है। अतः उसके आगे की भूमि के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। तुम लोग वहाँ तक जाकर सीता और रावण के स्थान का पता लगाना और एक मास पूरा होने से पहले लौट आना।

ऐसा कहकर सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए उन वानरों को पूर्व दिशा की ओर भेजा। इसके बाद उसने दक्षिण दिशा की ओर जाने के लिए कुछ श्रेष्ठ वानरों को चुना।

आगे अगले भाग मे..
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍️

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