बुधवार, 29 अप्रैल 2020

D.El.Ed. 1st Year F- 8 Previous Question Paper, 2019






D.El.Ed. 1st Year F- 10 Previous Question Paper, 2019



D.El.Ed. 1st Year F-10 पर्यावरण अध्ययन का शिक्षणशास्त्र (Pedagogy of Environmental Studies) Previous Question Paper Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=w0iXWncdYKY






D.El.Ed. 1st Year F-09 Previous Question Paper, 2019



D.El.Ed. 1st Year F-9 अंग्रेजी में प्रवीणता (Proficiency in English) Previous Question Paper - 2019







सोमवार, 27 अप्रैल 2020

कलात्मक विकास की अवस्था का डॉक्टर विक्टर लोवेन फील्ड का सिद्धांत


कलात्मक विकास के चरण (The Stages of Artistic Development) For B.Ed. & D.El.Ed. In Hindi Video Link:- https://www.youtube.com/watch?v=h0P4ihC6hls&t=43s

      कला शिक्षा के विकासात्मक परिपेक्ष्य का अध्ययन सर्वप्रथम डॉक्टर विक्टर लोवेन फील्ड ने 1949 में प्रकाशित अपनी पुस्तक रचनात्मक एवं मानसिक विकास (creative and Mental Growth)  में किया है। प्रकाशन के बाद यह पुस्तक कला शिक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया।
       अपने गहन अध्ययनों के आधार पर लोवेन फील्ड ने बताया कि कला का विकास छः (06) स्पष्ट चरणों में होता है, जिन्हें बच्चों के द्वारा निर्मित कलाकृतियों के आधार पर समझा एवं स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
      
 लान्फेल्ड के अनुसार कला के विकास की छः (06) अवस्थाएं निम्नांकित है:-
  1. अस्पष्ट लेख/घसीटने की अवस्था (1 - 3 साल) Scribble Stage
  2. पूर्व नियोजन अवस्था (3 से 4 साल) Preschematic Stage
  3. नियोजन अवस्था (5 से 6 साल) The Schematic Stage
  4. यथार्थ अरुणोदय की अवस्था (7- 9 साल) The Dawning Realism
  5. छन्दम प्राकृतिक अवस्था (10 - 13 साल) The Pseudo-Naturalistic Stage
  6. निर्णय अवस्था (13 - 16 साल) The Decision Stage

1.अस्पष्ट लेख/घसीटने की अवस्था (1 - 3 साल) Scribble Stage:- अस्पष्ट लेखन मुख्यतः एक परिवर्तक कौशल है जिसमें हाथों एवं  उंगलियों  का आंखों के समन्वय  के साथ दक्षता पूर्ण प्रयोग शामिल है।  इस स्तर पर बच्चे चित्रांकन की शारीरिक क्रियाओं में संलग्न होते हैं। इस स्तर पर के बच्चों द्वारा अंकित चिन्हों एवं आकृतियों का ना तो कोई रूप होता है और ना ही कोई अर्थ। यह अवस्था लगभग 3 वर्ष की आयु तक चलती है इस अवस्था के खत्म होते होते बच्चों में अस्पष्ट लेखन के क्षेत्र में शुद्धता आने लगती है पहले जहां उनके लेखन पूरे पेज और कई बार पेज से बाहर भी चले जाते थे अब वह क्षेत्र विशेष में सीमित होने लगते हैं
           यह अवस्था चित्रकला के संदर्भ में सिर्फ आनंद प्राप्ति की अवस्था है इस अवस्था में निर्मित चित्र ना तो बच्चे की इच्छा होती है और ना ही उसमें इसकी क्षमता होती है दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि,
 इस अवस्था में बच्चे चित्रांकन के लिए आवश्यक पूर्व कौशलों का अभ्यास करते हैं।

Example:-
अस्पष्ट लेखन की अवस्था के बालक के चित्रांकन का एक उदाहरण।

2.पूर्व नियोजन अवस्था (3 से 4 साल) Preschematic Stage:- इस अवस्था तक आते-आते बच्चों में कलात्मक विकास के साथ वह अपने द्वारा निर्मित आकृति एवं आसपास के वातावरण के साथ संबंध स्थापित करने लगते हैं। उनके द्वारा निर्मित आकृतियों से आसपास में मौजूद विभिन्न वस्तुओं के रूप में पहचान की जा सकती है यहीं से अर्थ पूर्ण चित्रांकन का आरंभ होता है और इस स्तर पर बच्चा वातावरण एवं अपने चित्रांकन में संबंध स्थापित करने में सक्षम हो जाता है और चित्रों के माध्यम से संप्रेषण सीखना आरंभ कर देता है।
          इस आयु के बच्चे प्रायः आत्म केंद्रित(selfish prick) होते हैं और उनकी सोच भी आत्म केंद्रित होती है इस कारण बच्चा वस्तु को जैसा जानता है या जैसा अनुभव करता है वैसा ही वह चित्र का निर्माण करता है वैसा चित्र नहीं बनाता है जैसा कि वस्तु दिखती है वह अपने मन में चीजों के प्रतीक (Symbol बना लेता है इस अवस्था के चित्र प्रतीक प्रधान होते हैं।

Example:-

पूर्व नियोजन अवस्था के बालक द्वारा निर्मित एक चित्र का उदाहरण

3. नियोजन अवस्था (5 से 6 साल) The Schematic Stage:- इस अवस्था में बच्चे की चित्रकला में वस्तुओं एवं मानव आकृतियों के अंकन में अंतर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं और वो चित्र के माध्यम से संप्रेषण करने का प्रयास आरंभ कर देते हैं। इस स्तर पर के बच्चों के चित्र में एक निर्धारित क्रम देखने को मिलता है। 

उदाहरण के लिए,
                         इस स्तर पर के बच्चों की चित्रकारी में आकाश और धरती का स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है आकाश प्रायः कागज के ऊपर नीले रंग में और धरती कागज के नीचे हरे रंगों से चित्रित रहती है।

Example:-

नियोजन अवस्था के बालक द्वारा निर्मित एक चित्र का उदाहरण

4.यथार्थ अरुणोदय की अवस्था (7- 9 साल)The Dawning Realism:- चित्र निर्माण के विकास की चौथी अवस्था यथार्थ अरुणोदय की अवस्था है जिसका आरंभ 7 वर्ष की आयु से शुरू हो जाता है इस अवस्था में बच्चे अपने चित्रों के संदर्भ में आलोचनात्मक (Critical) हो जाते हैं और उन्हें स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि विभिन्न वस्तुओं के चित्रों का एक जैसा क्रम काफी नहीं है और उनकी चित्रकारी पहले से अधिक जटिल एवं सूक्ष्म होती जाती है। 

Example:-


यथार्थ अरुणोदय की अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण

5. छन्दम प्राकृतिक अवस्था (10 - 13 साल) The Pseudo-Naturalistic Stage:- लॉन्फेल्ड के कलात्मक विकास की पांचवी अवस्था है- छन्द प्राकृतिक अवस्था जो 10 वर्ष की आयु से आरंभ होती है। इस अवस्था में मूल्य एवं प्रकाश का चित्रण उनके चित्र में दिखाई देने लगता है इस स्तर पर बच्चे अपने चित्रों के प्रति अत्यंत संवेदनशील एवं विवेचनात्मक हो जाते हैं। कलात्मकता के विकास के इस चरण में बच्चे अपनी सफलता के प्रति सजग हो जाते हैं। 
                चित्रकला के विकास में इस अवस्था का विशेष महत्व है। इस अवस्था में बालक की कल्पना शक्ति प्रधान न होकर उसकी विवेचनात्मक शक्ति प्रधान रहती है। इसी कारण वह अपने चित्र में भी उन सभी बारीकियों को दिखाना चाहता है जो अपने नेत्रों से देखता है। इस अवस्था में बच्चा हर काम को बड़ों की तरह करने की कोशिश करता है वह कभी यह महसूस नहीं करता कि वह बड़ो जैसा नहीं है। जैसा बड़ों को करते देखता है वैसा ही वह भी करना चाहता है। कला में भी यही बात लागू होती है। कला में समाज की साधारण रुचि का झुकाव वास्तविकता की तरफ रहा है । कुछ कलाकारों और विशेषज्ञों को छोड़कर अधिकतर व्यक्ति ऐसे ही तस्वीर पसंद करते हैं जो वास्तविकता प्रधान हो इसलिए इस अवस्था के बच्चे भी ऐसे ही रूपों का निर्माण करते हैं जो वास्तविक हो।

Example:-



छन्द प्राकृतिक अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण

6. निर्णय अवस्था (13 - 16 साल) The Decision Stage:- चित्रकला के विकास की यह आखिरी परंतु महत्वपूर्ण अवस्था है इस अवस्था में बच्चे या तो अपनी चित्रकला जारी रखने का निर्णय लेते हैं या फिर चित्रकला को बिना योग्यता के एक कार्य के रूप में आंकने लगते हैं इस अवस्था में प्रत्येक किशोर यह विश्वास करने लगते हैं कि उनमें चित्रकला के आवश्यक गुण नहीं है। वही कई किशोर अपने चित्रकला कौशलों को उन्नत करने में लगे रहते हैं।
          जब वह कोई चित्र बनाने जाते हैं तब चित्र उतना वास्तविक नहीं बनता जितना उन्हें दिखता है उनकी आंखें वस्तु में और उनके द्वारा बनाए चित्र में कोई भी अंतर नहीं देखना चाहती परंतु ऐसा ना होने पर उनमें नैराश्य (Despair, Depression), निराशा का अनुभव होने लगता है और कला की तरफ से उनका दिल हटने लगता है।
            कला विद्वानों का मानना है कि कुछ जन्मजात कलाकारों को छोड़कर यह अवस्था हर व्यक्ति के जीवन में आती ही है यह अवस्था विकास की एक प्राकृतिक सीढ़ी(The ladder) है। हर एक बालक को इस संकटकाल से गुजरना ही पड़ता है। इस निर्णय अवस्था में उपयुक्त सहयोग मिलने पर बालक अपना चित्रांकन कार्य जारी रखते हैं अन्यथा उससे दूर हो जाते हैं। यदि इस अवस्था में बच्चों को सही परामर्श दिया जाए और यह बताया जाए कि वे चित्रांकन को नियमित अभ्यास के द्वारा सीख सकते हैं तब बच्चों की रुचि आगे भी चित्रकला में बनी रह सकती है। अन्यथा वे धीरे-धीरे इससे दूर होते जाते हैं।
          
Example:-

निर्णय अवस्था के बालक द्वारा निर्मित चित्र का एक उदाहरण।

  यदि देखा जाए तो चित्रकला के विकास की आखिरी अवस्था भविष्य के चित्रकार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है और एक संपूर्ण कलाकार के अवतरण (Descent) की अवस्था हैं।

The Stages of Artistic Development



     Understanding the stages of artistic development can help you become better at creating art. It can also help you become a more effective art teacher. We develop artistically. Just like we develop other skills like talking and walking in stages, we develop artistic skills in the same way.

     In 1947, Dr. Viktor Lowenfeld published “Creative and Mental Growth”, which quickly became THE textbook for art educators. Lowenfeld argues that are six clearly defined stages of artistic development and that these stages can be witnessed in the artworks of children. According to Lowenfeld, the six stages of artistic development are:



Stage 1 – Scribble Stage (1 – 3 years old)


    Children at this age are engaged in the physical activity of drawing. There is no connection made between the marks and representation during most of the scribble stage. However, towards the end of this stage children may begin to give marks names. This stage is mostly about the enjoyment of purely making marks.


Stages-of-artistic-development-stage-1

Stage 2 – Preschematic Stage (3 – 4 years old


     Children at this stage of artistic development are beginning to see connections between the shapes that they draw and the physical world around them. Circles and lines may be described as people or objects that are physically present in the child’s life. It is in this stage that a child first makes the connection to communicating through their drawings.

Stages-of-artistic-development-stage-2

Stage 3 – The Schematic Stage (5 – 6 years old)

      Children at this stage have clearly assigned shapes to objects that they are attempting to communicate. They often have developed a schema for creating drawings. There is a defined order in the development of the drawing.
       Drawings at this stage have a clear separation between the sky and the ground. Often the sky is a strip of blue at the top of the paper, while the ground is a strip of green at the bottom.
     Objects are often placed on the ground instead of floating in space. Objects of importance are often drawn larger than objects of lesser importance.

Stages-of-artistic-development-stage-3
Stage 4 – The Dawning Realism (7 – 9 years old)

       At this stage in artistic development, children are beginning to become more critical of their own work. It has become evident that a structured order to drawing objects is no longer sufficient. While a schema is still used to create drawings, it is more complex than the schema used in earlier stages. Overlapping can be seen and a sense of spatial relationships is more evident.

Stages-of-artistic-development-stage-4
Stage 5 –The Pseudo-Naturalistic Stage (10–13 years old)

The use of value and light is now apparent in drawings. Children at this stage of artistic development are very critical of their own success. Success is determined by the level of realism achieved in the drawing. Frustration is a common occurrence. It is exceptionally important to encourage students at this stage.
Stages-of-artistic-development-stage-5

Stage 6 – The Decision Stage (13 – 16 years old)

      Children at this stage will decide to continue drawing or view it as an activity without merit. Because of the level of self criticism inherent at this stage, many children, (now young adults) view drawing as a skill that do they do not possess. 
     Others, however, decide to continue working on their drawing skills and continue to develop. I think that it is important to encourage students to continue drawing despite their level of skill. Any skill level can be attained with practice. This stage of artistic development is perhaps the most critical to the development of an artist.
Stages-of-artistic-development-stage-6

रविवार, 26 अप्रैल 2020

बाल कला/बाल कला की समझ



D.El.Ed. 1st Year F-11 (कला समेकित शिक्षा) बाल कला की समझ Video Link.- https://www.youtube.com/watch?v=VVKzNAtn2_I


बाल कला/बाल कला की समझ 


          मानव मूल्यांकन के नए तरीके तथा मनोविज्ञान के विकास के कारण नई नई बातें आज हमारे सामने आ रही है। बाल कला भी एक ऐसी ही समस्या है आज से कुछ दशक पहले इस शब्द का जन्म माना जाता है।
         
         सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेंनर ने (1854ई०) अपनी शिक्षा संबंधी पुस्तक में एक क्रांतिकारी बात जिसमें बालक को कलाकार माना है। उन्होंने दो बातों पर विशेष ध्यान दिया पहले यह कि बालक सर्वप्रथम व्यक्त क्या करना चाहता है?  दूसरी बात यह है कि उसे सबसे अधिक प्रसन्नता किस प्रकार की अभिव्यक्ति से मिलती है। 
  
            बच्चा उन्हीं वस्तुओं को पहले अभिव्यक्त करना चाहेगा,  जो आकार में बड़ी एवं आकर्षक रंग की हो तथा वह वस्तुएं जिनके साथ बच्चे को रहने में आंनद प्राप्त हो। मानव जिससे कि उसे स्नेह मिला हो घरेलू एवं पालतू जानवर तथा मकान जहां वह रहता हो या प्रतिदिन जिन वस्तुओं को देखता हो उन्हीं के चित्रण में उसे आनंद मिलता है। 

      1887 ईस्वी में बाल कला शब्द का प्रयोग इटली के कोराडोरीकी ने अपनी पुस्तक "बच्चों की कला" में किया।
        
          1930 ईस्वी में जेम्स सली ने अपनी पुस्तक "स्टडीज ऑफ़ चाइल्डहुड" में सर्वप्रथम बालकला की चर्चा की हैं। इसमें उन्होंने यह भी बताया है कि इसका अर्थ यह नहीं कि बच्चा पूरा कलाकार होता है बल्कि जो भी उल्टी-सीधी रेखाओं द्वारा बिना योग्यता के  चित्र बनाता है या किसी भी आकृतियों में अपनी इच्छा अनुसार हाथ पांव बनाता है वहीं उसकी कला है। कभी-कभी बच्चा घर का निर्माण  करेगा तो उसमें अंदर रखी हुई वस्तुओं को भी बना देगा जो की वास्तव में बाहर से नहीं दिखाई पड़ती परंतु यह उसकी गलती नहीं है उसकी अभिव्यक्ति है। क्योंकि बाल कलाकार प्रतीकात्मक चित्र बनाता है वास्तविक नहीं। यही प्रतीकात्मक चित्र बच्चे में प्रस्तुत एक महान कलाकार के दर्शन कराते हैं।
        
            जर्मनी के लीचवर्क बाल कला को आदिमानव की कला के साथ जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि बच्चे की कला में पुनरावृति नहीं होती उसमें मौलिकता होती है क्योंकि जो कुछ वह चित्रित करता है उसका पूर्व ज्ञान उसे नहीं होता। यह तो एक आधुनिक कलाकार की भांति Abstract art (अमूर्त कला)में नवीनतम प्रयोग करता है।

        आदिमानव की कला एवं बाल कला 

          बच्चों की कला को  समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम आदिमानव की कला को समझे एवं उसका अध्ययन करें। और दोनों की कला में क्या समानता है इस पर विचार करें तो आगे हम देखेंगे कि आदिमानव की कला एवं बच्चों की कला में क्या-क्या समानताएं हैं।
  1. देखने से यह ज्ञात होता है कि दोनों की कलाओ में परिपेक्ष्य की कमी है चित्र में दूरी नहीं दिखाई गई है तथा  गहराई का भी अभाव है।
  2. रेखाओ तथा आकृतियों में  समकोण ही देखने को प्राप्त होते हैं। न्यून कोण या अधिक कोण बहुत कम मिले हैं इससे हमें यह ज्ञात होता है कि बच्चे एवं आदिमानव सीधे-साधे प्रवृत्ति के थे खड़ी एवं पड़ी रेखाओं से ही चित्र की रचना की गई है।
  3. रेखाओ तथा आकृतियों में  समकोण ही देखने को प्राप्त होते हैं न्यून कोण या अधिक कोण बहुत कम मिले हैं इससे हमें यह ज्ञात होता है कि बच्चे एवं आदिमानव सीधे-साधे प्रवृत्ति के थे खड़ी एवं पड़ी रेखाओं से ही चित्र की रचना की गई है।
  4. भाषा के जन्म से पहले ही आदिम कला का जन्म हो चुका था क्योंकि आदिमानव अपने भावों को व्यक्त करना चाहता था इसलिए उसने पहली रेखा खींची होगी
  5.  बाल कला एवं आदिम कला कोई प्रदर्शन नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति है दोनों में ही अपने भावों को व्यक्त करने की इच्छा विद्यमान है कोई भी भाषा उनके लिए एक सूक्ष्म वस्तु है इसलिए वे दोनों चित्र की भाषा से ही अपनी अभिव्यक्ति करते हैं । 
  6. इससे आदि मानव और बच्चे की अभिव्यंजना शक्ति का ज्ञान होता है यही अभिव्यक्ति एक शाश्वत नियम है जो की पशुओं में भी देखने को मिलता है।
  7. चित्र लिखना चित्र रचना को ही कहते हैं परंतु आदिमानव ने जो चित्र एक रेखा में लिखें (बनाए) वहीं उनकी भाषा थी इसी प्रकार बच्चा भी अपने भावों को लिखता है जिसकी एक भाषा होती है विभिन्न रेखाओं जो किसी आकृति द्वारा भावों को व्यक्त करती है।                                                                                     
              
           ग्रेगर पॉलसन ने अपनी पुस्तक "दी क्रिएटिव एलिमेंट इन आर्ट" में यही बताया है कि दोनों कलाओं के निर्माण की एक ही पहचान है वह अपने भावों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने की इच्छा तथा अमृत भावों को मृत रूप प्रदान करने का आनंद रखती हैं।

 सीजेक के अनुसार बच्चा सात (07) अवस्थाओं में चित्रकारी करता है जो इस प्रकार है-
  1. किरमकाटी:- पहली अवस्था किरमकाटी से प्रारंभ होती है बच्चे के हाथ में जो कुछ भी आ जाता है उसी से किरमकाटी पोता-पाती करता है।
  2. लय का ज्ञान:- दूसरी अवस्था में बच्चा अपने हाथ को लय में घुमाता है तथा चित्रों में लय पैदा करता है उसके मन में भी लय का  ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
  3. सूक्ष्म प्रतीकात्मक:- तीसरी अवस्था में सूक्ष्म प्रतीकात्मकता से चित्रण करता है।
  4. आकृतियों का ज्ञान:- चौथी अवस्था में आकृतियों के प्रकार का ज्ञान होता है तथा बालक कुछ निश्चित आकारों का अंकन करता है।
  5. गूणग्राहकता:-  पांचवी अवस्था गूणग्राहकता की है। बालक अपनी कृतियों में कुछ गुणों को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है।
  6. रंग आकार तथा स्थान का ज्ञान:- छठी अवस्था में रंग, आकृति तथा स्थान पूर्ति का ज्ञान होता है।
  7. संपूर्ण चित्र का ज्ञान:- सातवीं अवस्था में संपूर्ण चित्र बनाने का ज्ञान हो जाता है।
    
        हरबर्ट रीड की "एजुकेशन थ्रू आर्ट" में भी बाल चित्रकला का सात(07) अवस्थाओं में विकास बताया गया है जो इस प्रकार है-

  1. किरमकाटी की अवस्था जो 2 से 5 वर्ष तक रहती है।
  2. हाथों में लयात्मक घुमाव की अवस्था चार(04) वर्ष से प्रारंभ हो जाती है।
  3. तीसरी अवस्था में छः (06) वर्ष तक प्रतीकात्मक वर्णन करने लगता है।
  4. चौथी अवस्था में वर्णनात्मक यथार्थवाद का ज्ञान बच्चों को होने लगता है जो सात(07) एवं आठ(08) वर्ष की आयु में होता है।
  5. पांचवी अवस्था में नौ(09) एवं दस(10) वर्ष की आयु में दृश्यात्मक यथार्थवाद का ज्ञान होने लगता है।
  6. कला हीनता की स्थिति ग्यारह से चौदह  वर्ष तक होती है।
  7. कलात्मक का पुनः जीवन पन्द्रह (15) से अठारह (18) वर्ष तक होता है।
          ऐसा कहा जाता है कि कला पढ़ाई नहीं जाती है कलाकार तो जन्म से उस प्रकार की प्रतिभा रखते हैं , इसलिए बच्चों को आधुनिक विचारक कलाकार के ही रूप में मानते हैं।

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

समकालीन क्षेत्रीय कला (Contemporary Regional Folk Art)



D.El.Ed. 1st Year F-11(कला समेकित शिक्षा) समकालीन क्षेत्रीय कला (Contemporary Regional Folk Art) Video Link:- https://youtu.be/sLUeRbXPrVI


समकालीन क्षेत्रीय कला (Contemporary Regional Folk Art)

         क्षेत्रीय कला को हम लोक कला के नाम से भी संबोधित करते हैं। लोक कला लोक का अर्थ होता है- देखना/अवलोकन करना।  
           हम सभी इसी लोक(संसार) में आंख खोलते हैं और यहीं आंख बंद भी करते हैं और इस अवधि में मानव कई अनुभवो के आधार पर अपने जीवन का ताना-बाना बुनता है। यहां लोक का अर्थ समान्य जीवन से भी होता है।  
      लोक के लिए हम अंग्रेजी शब्द Folk (फोक) का प्रयोग करते हैं। folk मनुष्य के हजारों विश्वासो,रीतियों, व्यवहारों, परंपराओं और संकल्पों से बनता है।  लोक अनंत है। असीम है। जहां तक मनुष्य की कल्पना पहुंचती है वहां तक लोक की सीमा मानी जा सकती है।

लोक कला:- पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न, व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित सामान्य जन समुदाय की अनुभूति की अभिव्यक्ति ही लोक कला है। जिसकी उत्पत्ति धार्मिक भावनाओं, अंधविश्वासो, और भय निवारण, अलंकरण प्रवृत्ति एवं जातिगत भावनाओं की रक्षा के विचार से हुई है। 
          
       भारतीय लोक कला जन समान्य की कला है। इसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना  की भारतीय ग्रामीण सभ्यता। लोक कलाकारों ने लगभग प्रत्येक कालखंड में लोग कलाकृतियों का सृजन किया होगा परंतु वे आज उपलब्ध नहीं है। 
         
         भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोक परंपरागत सौंदर्य, भाव और प्रमाणिकता के कारण भारतीय लोक कला की अंतरराष्ट्रीय बाजार में संभावनाएं बहुत ही प्रबल है।
      
         शैलेंद्र नाथ सामंत के अनुसार- लोक कला जनसामान्य विशेषकर ग्रामीण जनों की सामूहिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है।  इसे कुछ विद्वानों ने कृषकों की कला भी माना है। 

      लोक कला का अध्ययन करने पर निम्नलिखित तत्व प्राप्त होते हैं- 

(1)  लोक कला परंपरागत है।
(2)  लोक कला जनसाधारण के लिए शुभ और मंगलदायक है। 
(3)  लोक कला संपूर्ण रूप से ज्यामितीय एवं अलंकारिक होती है।
(4)  लोक कला में जो अभिप्राय: एक बार प्रचलित हो जाता है वह कई वर्षों तक चलता रहता है। अतः लोक कला की किसी भी आकृति की कोई तिथि निश्चित करना संभव नहीं है। 
(5) लोक कला के अंतर्गत रीति-रिवाजों परंपराओं विभिन्न सामाजिक संस्कारों एवं धार्मिक विश्वासों का चित्रण किया जाता है।
(6)  लोक कला प्राचीनता और आधुनिकता के बीच की कड़ी है। 
(7)  भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्रकला है-  बिहार की मधुबनी चित्रकला।