गुरुवार, 29 अगस्त 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 43 (Valmiki Ramayana Part - 43)



सीता को अपने वश में करने का उन राक्षसियों को आदेश देकर रावण वहाँ से चला गया। उसके जाते ही सब भयंकर राक्षसियां सीता को घेरकर बैठ गईं। हरिजटा, विकटा, दुर्मुखी आदि राक्षसियाँ एक-एक करके अत्यंत कठोर वाणी में सीता से कहने लगीं, “नीच नारी!!! तू महान राक्षसराज रावण की पत्नी बनना क्यों अस्वीकार कर रही है? जिन्होंने सभी तैंतीस देवताओं (बारह आदित्य, ग्यारह रूद्र, आठ वसु और दो अश्विनी कुमार) तथा देवराज इन्द्र को भी परास्त कर दिया, जिनका पराक्रम सर्वश्रेष्ठ है, उन महाबली राजा रावण को तू क्यों अप्रसन्न कर रही है? राक्षसराज ने नागों, गन्धर्वों और दानवों को युद्ध-भूमि में अनेक बार परास्त किया है। वे महापराक्रमी रावण स्वयं तेरे पास पधारे थे। तूने उनका ऐसा अपमान क्यों किया? राजाधिराज रावण के भय से सूर्य और वायु भी काँपते हैं। वे सबकी इच्छा पूर्ण करने में समर्थ हैं। उनकी पत्नी बनना इस संसार का सबसे बड़ा सुख है। तू उनकी बात मान ले, अन्यथा अपने प्राण गँवाएगी।”

उनकी बातें सुनकर सीता ने उत्तर दिया, “मेरे पति के पास राज्य अथवा धन हो या न हो, किन्तु मैं केवल उन्हीं में अनुरक्त रहूँगी। तुम सब लोग भले ही मुझे खा जाओ, पर मैं तुम्हारी पापपूर्ण बात कभी नहीं मानूँगी। यह सुनकर उन राक्षसियों के क्रोध की सीमा नहीं रही। उनके हाथों में फरसे चमक रहे थे। अपने लंबे व चमकीले होठों को बार-बार चाटती हुईं वे सीता को डाँटने-डपटने और धमकाने लगीं। उन भयानक राक्षसियों के प्रलाप से घबराई हुईं सीता जी वहाँ से उठकर संयोग से उसी अशोक वृक्ष के नीचे आकर बैठ गईं, जिस वृक्ष पर हनुमान जी बैठे हुए थे। लेकिन राक्षसियों ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। विनता, चण्डोदरी, विकटा, प्रघसा, अजामुखी आदि अनेक राक्षसियाँ वहाँ भी आकर सीता को समझाने लगीं कि ‘तुम रावण की बात मान लो। यह यौवन सदा नहीं टिकेगा, इसलिए रावण के साथ जीवन का आनंद लो’। उनमें से कुछ आपस में बातें कर रही थीं कि ‘इस सुन्दर स्त्री के एक-एक अंग को काटकर खाने में कितना आनंद आएगा’, तो कोई तय कर रही थी कि ‘इसका कौन-सा अंग किस राक्षसी को खाने के लिए दिया जाएगा’।

ऐसी भयावह बातें सुनकर सीता श्रीराम को याद करके फूट-फूटकर रोने लगीं। मन ही मन वे सोचने लगीं कि ‘इतनी अवधि बीत गई, पर मेरे पति श्रीराम अभी तक यहाँ आए क्यों नहीं? कहीं श्रीराम और लक्ष्मण दोनों ने अहिंसा का व्रत लेकर अपने शस्त्रों को तो नहीं त्याग दिया? कहीं रावण ने छल से दोनों भाइयों को मरवा तो नहीं डाला?’, पर अगले ही क्षण उन्हें लगा कि यह असंभव है। श्रीराम मेरे लिए यहाँ अवश्य आएँगे। तब उन्होंने सब राक्षसियों से पुनः दोहराया, “राक्षसियों! तुम चाहे मेरे टुकड़े-टुकड़े करके आग में भूनकर खा जाओ या मुझे जलाकर भस्म कर दो, किन्तु मैं रावण के पास कभी नहीं जा सकती। मेरे पति ने जनस्थान में अकेले ही चौदह हजार राक्षसों को मार डाला। वे अवश्य ही रावण का वध करने में भी समर्थ हैं। फिर भी यदि श्रीराम यहाँ नहीं आए, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगी, पर रावण की बात नहीं मानूँगी।” यह सुनकर उन सब राक्षसियों का क्रोध और बढ़ गया। वे सीता को डराने के लिए और अधिक कठोर बातें कहने लगीं। उसी बीच त्रिजटा नामक एक बूढ़ी राक्षसी वहाँ आई। वह अभी-अभी सोकर उठी थी। आते ही उसने उन राक्षसियों से कहा, “नीच निशाचरियों!!! आज मैंने राक्षसों के विनाश का संकेत देने वाला एक बड़ा भयंकर स्वप्न देखा है। अतः तुम लोग अब सीता के नहीं, अपने प्राण बचाने की चिंता करो। स्वप्न में मैंने हाथी-दाँत की बनी हुई एक सफेद पालकी देखी, जिसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। सफेद फूलों की माला तथा सफेद वस्त्र धारण किए हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उस पर चढ़कर यहाँ पधारे। समुद्र से घिरे एक पर्वत के शिखर पर सीता बैठी हुई थी। उसने भी सफेद वस्त्र पहने हुए थे। फिर श्रीराम चार दाँतों वाले एक विशाल गजराज पर लक्ष्मण के साथ बैठकर पर्वत-शिखर पर सीता के पास आए। श्रीराम का हाथ पकड़कर सीता भी उस हाथी पर बैठ गई। फिर वह गजराज लंका के ऊपर आकर खड़ा हो गया। इसके बाद वे तीनों दिव्य पुष्पक विमान पर आरूढ़ होकर उत्तर दिशा की ओर चले गए। स्वप्न में मैंने रावण को भी देखा था। वह सिर मुंडवाकर तेल से नहाया हुआ था। उसने लाल वस्त्र और करवीर (कनेर) के फूलों की माला पहनी थी। मदिरा पीकर वह मतवाला हो गया था और ऐसी अवस्था में ही वह पुष्पक विमान से नीचे धरती पर गिर पड़ा।”

“रावण ने काले कपड़े पहन रखे थे और वह गधों से जुते हुए रथ पर बैठकर कहीं जा रहा था। उसके गले में लाल फूलों की माला थी और उसने लाल चन्दन लगाया हुआ था। वह तेल पी रहा था और पागलों की भाँति हँसता हुआ नाच रहा था। फिर वह गधे से नीचे गिर गया। वह भय से घबरा रहा था और निर्वस्त्र होकर गालियाँ बकता हुआ कहीं जाने लगा। थोड़ा आगे जाकर वह मल से भरे एक बड़े तालाब में जा गिरा। कीचड़ में लिपटी एक काले रंग की स्त्री रावण का गला बाँधकर उसे दक्षिण दिशा की ओर खींचकर ले जाने लगी। मैंने महाबली कुंभकर्ण को भी इसी अवस्था में देखा। रावण के सभी पुत्र भी वैसी ही अवस्था में थे। रावण सूअर पर, इन्द्रजीत सूँस (डॉल्फिन) पर और कुंभकर्ण ऊँट पर बैठकर दक्षिण दिशा को गए। केवल विभीषण ही प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। सफेद वस्त्र, सफेद माला, सफेद चन्दन लगाकर वे एक सफेद छत्र के नीचे खड़े थे। उनके पास शंखध्वनि हो रही थी, नगाड़े बजाए जा रहे थे। नृत्य एवं गीत भी हो रहा था। अपने चार मंत्रियों के साथ विभीषण आकाश में एक चार दाँतों वाले विशाल गजराज पर बैठे हुए थे। यह रमणीय लंकापुरी अपने हाथी, घोड़ों, रथों सहित समुद्र में जा गिरी थी। मैंने देखा कि श्रीराम का दूत बनकर आए एक वेगवान वानर ने इसे जलाकर भस्म कर दिया था।” “राक्षसियों! ये सब स्वप्न-संकेत बड़े स्पष्ट हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीराम अवश्य ही यहाँ आकर सीता को प्राप्त करेंगे। अपनी प्रिय पत्नी को इस प्रकार डराने-धमकाने वाली राक्षसियों को वे कदापि क्षमा नहीं करेंगे। हमें सीता को डराना-धमकाना बंद करके उससे क्षमा माँगनी चाहिए और मीठी बातें कहकर उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए। देखो, उसकी बायीं आँख भी फड़फड़ा रही है, जो इस बात का सूचक है कि शीघ्र ही उसे कोई शुभ समाचार मिलने वाला है।”

ये सभी बातें हनुमान जी भी छिपकर सुन रहे थे। उन्होंने सोचा कि ‘मैंने सीता का पता तो लगा लिया है, किन्तु उनसे मिलकर श्रीराम का सन्देश उन्हें सुनाना भी आवश्यक है। यदि मैंने उन्हें सांत्वना न दी, तो वे दुःख में अवश्य ही यहाँ अपने प्राण त्याग देंगी और यदि मैं उनसे मिले बिना ही लौट गया, तो श्रीराम के पूछने पर सीता का क्या सन्देश सुनाऊँगा? अतः सीता से मिलना मेरे लिए अनिवार्य है। परन्तु इन राक्षसियों के सामने सीता से बात करना भी उचित नहीं है। अब इस कार्य को कैसे संपन्न किया जाए? मुझे इन राक्षसियों के बीच ही किसी प्रकार धीरे से अपनी बात सीता को सुनानी पड़ेगी। परन्तु यदि मैं संस्कृत भाषा में बोलूँगा, तो मुझे रावण समझकर सीता भयभीत हो जाएँगी। अतः अवश्य ही मुझे उस भाषा का प्रयोग करना चाहिए, जिसे अयोध्या के आस-पास रहने वाले सामान्य जन बोलते हैं। अन्यथा सीता भयभीत होकर चिल्लाने लगेंगी और उनकी आवाज सुनकर राक्षसियाँ भी यहाँ पहुँच जाएँगी। उनकी सूचना पर यदि बहुत-से विकराल राक्षसों ने आकर मुझे पकड़ लिया या मार डाला, तो श्रीराम का कार्य पूर्ण नहीं हो सकेगा। यदि उन्होंने मुझे घायल कर दिया, तो मैं महासागर को पार करके वापस नहीं जा पाऊँगा। अतः कुछ ऐसा करना चाहिए कि यह कार्य सफल हो जाए। तब बहुत सोचने पर उन्होंने निश्चित किया कि ‘मैं सीताजी को उनके प्रियतम श्रीराम का ही गुणगान सुनाऊँगा। मीठी वाणी में मैं श्रीराम का सन्देश भी सीता जी को गाकर ही सुनाऊँगा, जिससे उनका मन शांत हो जाए, भय दूर हो जाए और उनका संदेह भी मिट जाए। यह निश्चय करके हनुमान जी उस वृक्ष की शाखाओं में छिपे रहकर ही मधुर-वाणी में सीता को सुनाते हुए गाने लगे। उन्होंने गाते हुए कहा कि “महान दशरथ जी के पराक्रमी पुत्र श्रीराम अपने पिता का वचन पूरा करने के लिए सीता व लक्ष्मण के साथ वन में गए। वहाँ रावण ने छल से सीता का अपहरण कर लिया। तब सीता की खोज करते हुए मतंग-वन में पहुँचे श्रीराम की मित्रता सुग्रीव नामक वानर से हो गई। वाली का वध करके श्रीराम ने सुग्रीव को वानरों का राज्य दे दिया। तब सुग्रीव की आज्ञा से हजारों वानर सीता देवी का पता लगाने के लिए चारों दिशाओं में निकले। उनमें से मैं भी एक हूँ और सौ योजन समुद्र को लाँघकर यहाँ तक आया हूँ। मैंने जानकी जी को ढूँढ निकाला है और श्रीराम ने उनका जैसा वर्णन किया है, वैसा ही मैंने उन्हें पाया है।

इतना कहकर हनुमान जी चुप हो गए।

ये बातें सुनकर सीता को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने सिर को ऊपर उठाकर वृक्ष की ओर देखा। वहाँ उन्हें पवनपुत्र हनुमान जी बैठे हुए दिखाई दिए। सीता जी ने देखा कि श्वेत वस्त्र पहना हुआ एक वानर वृक्ष की शाखा के बीच छिपा हुआ बैठा है। उसका रंग कुछ-कुछ पीला था और उसकी आँखों में तपे हुए सोने जैसी चमक थी। इस प्रकार सहसा प्रकट हुए उस वानर को देखकर वे भयभीत हो उठीं और ‘हा राम! हा लक्ष्मण!’ कहकर दुःख से विलाप करने लगीं। उतने में ही वह वानर वृक्ष से नीचे उतरा और बड़ी विनम्रता से आकर उनके पास बैठ गया। उस विशाल और टेढ़े मुख वाले वानर को इतने निकट देखकर वे और भी व्यथित हो गईं। तभी हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम करके मधुर वाणी में कहा, “देवी! आप कौन हैं? किस शोक में हैं? रावण जिन्हें जनस्थान से बलपूर्वक उठा लाया था, क्या आप वही सीताजी हैं?” तब सीताजी ने उत्तर दिया, “कपिवर! मैं महाराज दशरथ की पुत्रवधू, विदेहराज जनक की पुत्री और परम बुद्धिमान श्रीराम की पत्नी हूँ। मेरा नाम सीता है। विवाह के बाद बारह वर्षों तक मैं सुख से अयोध्या में रही। फिर तेरहवें वर्ष में जब श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी, तब दशरथ जी की भार्या कैकेयी ने अपने पति से वरदान माँगा कि श्रीराम को वन में भेज दिया जाए और भरत को राज्य मिले। तब श्रीराम के साथ मैं स्वयं भी वन में चली आई और उनके भाई लक्ष्मण ने भी उनका अनुसरण किया। वहाँ दण्डकारण्य में दुरात्मा रावण ने छल से मेरा अपहरण कर लिया था। उसने मेरे लिए एक वर्ष की अवधि निर्धारित की है, जिसमें से अब केवल दो मास शेष बचे हैं। उसके बाद मुझे अपने प्राणों का परित्याग करना पड़ेगा।” यह सुनकर हनुमान जी ने कहा, “देवी! मैं श्रीराम का ही दूत हूँ और आपके लिए उनका सन्देश लेकर आया हूँ। वे सकुशल हैं और उन्होंने आपका कुशल-क्षेम पूछा है। महातेजस्वी लक्ष्मण ने भी आपके चरणों में प्रणाम कहलाया है।” इन शब्दों से सीता को अत्यंत हर्ष हुआ और उन्हें प्रसन्न देखकर हनुमान जी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। तब हनुमान जी उनके थोड़ा और निकट चले गए। लेकिन इससे सीता को शंका हो गई कि ‘कहीं यह रावण ही तो नहीं है, जो रूप बदलकर आ गया है। जनस्थान में भी वह संन्यासी का रूप धारण करके आया था।’ यह सोचकर वे पुनः दुःख से कातर होकर भूमि पर बैठ गईं। भयभीत होकर उन्होंने हनुमान जी की ओर देखे बिना ही कहा, “तुम यदि रावण हो और इस प्रकार रूप बदलकर मुझे कष्ट दे रहे हो, तो यह अच्छी बात नहीं है। वैसे मेरी यह शंका झूठी भी हो सकती है क्योंकि तुम्हें देखने पर मुझे प्रसन्नता भी हुई थी। तुम यदि सचमुच ही श्रीराम के दूत हो, तो श्रीराम और लक्ष्मण के कुछ चिह्न मुझे बताओ। उनकी आकृति का वर्णन करके मेरा संशय दूर करो। मुझे बताओ कि उनसे तुम्हारा संपर्क कहाँ हुआ तथा वानरों व मनुष्यों का यह मेल कैसे हुआ?” तब हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा, “देवी! मैंने जिन चिह्नों को देखा है, वह मैं आपको बताता हूँ। श्रीराम के नेत्र विशाल और सुन्दर हैं, मुख चन्द्रमा के समान मनोहर है। उनके कंधे मोटे-मोटे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और गला शंख के समान है। गले की हँसली मांस से ढकी हुई है और नेत्रों में कुछ लालिमा है। उनका स्वर गंभीर है। उनके मस्तक में तीन भँवरें हैं। पैरों के अँगूठे के नीचे तथा ललाट में चार-चार रेखाएँ हैं। वे चार हाथ ऊँचे हैं। उनके भाई लक्ष्मण भी श्रीराम के ही समान हैं। दोनों भाइयों में केवल इतना ही अंतर है कि लक्ष्मण के शरीर का रंग गोरा और श्रीराम का रंग श्याम है। वानरों के राजा सुग्रीव श्रीराम के मित्र हैं। उनके ही आदेश पर मैं श्रीराम का दूत बनकर यहाँ आया हूँ। मैं सुग्रीव का मंत्री हूँ और मेरा नाम हनुमान है। जब वे दोनों भाई आपको खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत के निकट आए, तब सुग्रीव ने उनका परिचय पाने के लिए मुझे भेजा था। तभी मेरा उन दोनों से संपर्क हुआ था। श्रीराम ने अपने पराक्रम से बाली को मारकर सुग्रीव को वानरों का राज्य दिलवाया। उसी से हम वानरों और मनुष्यों का यह मेल हुआ है। आपने अपहरण के बाद आकाश-मार्ग से लाए जाते समय वानरों को देखकर जो आभूषण फेंके, वे भूमि पर गिरकर बिखर गए थे। तब मैं ही उन्हें बटोरकर लाया था। जब वे हमने श्रीराम को दिखाए, तो उन्होंने तुरंत ही उन्हें पहचान लिया और आपका स्मरण करके वे दुःख से व्याकुल हो गए। फिर आपकी खोज में सुग्रीव ने वानरों को चारों दिशाओं में भेजा। बहुत दिनों तक विंध्याचल में खोजकर हम हार गए और दुःख से पीड़ित होकर समुद्रतट पर विलाप करने लगे। तब जटायु के भाई सम्पाती ने हमें बताया कि आप समुद्र के इस पार लंका में हैं। इसी कारण मैं सौ योजन के समुद्र को लाँघकर कल रात में ही लंका आया हूँ। मैं सत्य कह रहा हूँ। आप मेरी बात पर विश्वास कीजिए।”

इस प्रकार हनुमान जी ने सीता को बहुत-सी बातें बताईं और फिर श्रीराम की अंगूठी उन्हें दिखाई। उसे देखकर सीता जी का संदेह दूर हो गया और उन्हें विश्वास हो गया कि ये श्रीराम के ही दूत हैं, कोई मायावी राक्षस नहीं। तब सीताजी बोलीं, “कपिश्रेष्ठ! तुम निश्चित ही कोई असाधारण वानर हो क्योंकि तुम्हारे मन में रावण जैसे दुष्ट राक्षस का भी कोई भय नहीं है। स्वयं श्रीराम ने तुम्हें भेजा है, अतः तुम अवश्य ही इस योग्य हो कि मैं तुम पर विश्वास करूँ क्योंकि वे कभी किसी ऐसे पुरुष को नहीं भेजेंगे, जिसके पराक्रम तथा शील की उन्होंने परीक्षा न कर ली हो। तुम मुझे बताओ कि श्रीराम जी कैसे हैं? क्या वे मेरे लिए शोक संतप्त हैं? कहीं वे मुझे भूल तो नहीं गए? क्या वे मुझे इस संकट से उबारेंगे? वे अभी तक यहाँ आए क्यों नहीं हैं? यह सुनकर हनुमान जी ने कहा - देवी!!! श्रीराम को अभी यह पता ही नहीं है कि आप लंका में हैं। अब यहाँ से लौटकर मैं उन्हें यह जानकारी दूँगा और तब वे शीघ्र ही वानर-भालुओं की विशाल सेना साथ लेकर निकलेंगे तथा महासागर पर सेतु बाँधकर लंका में पहुँच जाएँगे। फिर वे राक्षसों का संहार कर देंगे और आप पुनः उनके पास पहुँच जाएँगी। तब सीता बोलीं - हनुमान!!! तुम उनसे जाकर कहना कि वे शीघ्रता करें। केवल एक वर्ष पूरा होने तक ही मेरा जीवन शेष है। अब उसमें केवल दो माह का ही समय बचा है। रावण के भाई विभीषण ने उसे बहुत बार समझाया है, किन्तु वह मुझे लौटाने की बात नहीं मानता। विभीषण की ज्येष्ठ पुत्री (बड़ी बेटी) का नाम कला है। उसकी माता ने एक बार उसे मेरे पास भेजा था। उसी ने मुझे ये सारी बातें बताई हैं। अविन्ध्य नामक एक और श्रेष्ठ राक्षस है, जो बड़ा बुद्धिमान, विद्वान तथा रावण का सम्मान पात्र है। उसने भी रावण को समझाया था किन्तु रावण किसी की बात नहीं मानता।

यह सुनकर हनुमान जी बोले, “देवी! आप धैर्य रखिये। श्रीराम शीघ्र ही यहाँ आएँगे अथवा आप आज्ञा दें, तो मैं आपको अभी अपनी पीठ पर बिठाकर यहाँ से ले जाऊँगा और आज ही श्रीराम के पास पहुँचा दूँगा। मैं जिस प्रकार यहाँ आया था, उसी प्रकार आकाशमार्ग से आपको ले जाऊँगा। तब सीता बोलीं, “कपिवर! तुम्हारे साथ जाना मेरे लिए उचित नहीं है क्योंकि तुम्हारा वेग वायु के समान तीव्र है। उस वेग के कारण आकाशमार्ग से जाते समय मैं नीचे समुद्र में गिर सकती हूँ। तुम जब यहाँ से मुझे लेकर निकलोगे, तो तुम्हारे साथ स्त्री को देखकर राक्षसों को अवश्य ही संशय होगा। तब तुम मेरी रक्षा और उनसे युद्ध एक साथ कैसे करोगे? यदि तुमने वह कर भी लिया, तब भी श्रीराम का अपयश होगा क्योंकि लोग कहेंगे कि वे स्वयं अपनी स्त्री की रक्षा के लिए कुछ भी न कर सके। एक और कारण यह भी है कि रावण ने तो बलपूर्वक मुझे स्पर्श किया था, किन्तु स्वेच्छा से मैं श्रीराम के सिवा किसी पुरुष को स्पर्श नहीं करना चाहती। अतः यही सर्वथा योग्य है कि श्रीराम यहाँ आकर रावण का वध करें और मुझे अपने साथ ले जाएँ।

यह सुनकर हनुमान जी ने कहा - देवी! महासागर को पार करके लंका में प्रवेश करना सेना के लिए बहुत कठिन है। इसी कारण तथा आपको आज ही श्रीराम से मिलवा देने के विचार से ही मैंने आपको पीठ पर ले जाने का प्रस्ताव दिया था। अब आपकी आज्ञानुसार मैं वापस लौटकर उन्हें आपका सन्देश सुनाऊँगा, किन्तु आप अपनी कोई पहचान ही मुझे दे दीजिए, जिससे उन्हें विश्वास हो जाए कि मैं सचमुच आप ही से मिला था। तब सीता ने ऐसे दो-तीन निजी प्रसंग बताए, जो केवल उन्हें और श्रीराम को ही ज्ञात थे। साथ ही उन्होंने कपड़े में बँधी हुई सुन्दर चूड़ामणि भी हनुमान जी को दी। फिर सीताजी उनसे बोलीं - हनुमान!!! अब तुम शीघ्र यहाँ से लौटकर श्रीराम को मेरा समाचार बताओ एवं मेरा दुःख दूर करो। इस पापी रावण ने मुझे यहाँ कैद कर रखा है व प्रतिदिन राक्षसियों द्वारा मुझे बहुत पीड़ा दी जाती है। यह पापी निशाचर बड़ा क्रूर है। मेरे प्रति कलुषित दृष्टि रखता है। फिर भी केवल श्रीराम से मिलने की आस में ही मैं किसी प्रकार जीवित हूँ। तुम श्रीराम से कहना कि वे शीघ्रता करें और यहाँ आकर मुझे ले जाएँ। उन्होंने तो मेरे लिए एक साधारण-से कौए पर भी ब्रह्मास्त्र चला दिया था, फिर वे इस नीच रावण द्वारा मेरा अपमान होने पर भी मौन क्यों हैं? अब मैं इन कष्टों को सहते हुए अधिक काल तक यहाँ जीवित नहीं रह सकती। यह सुनकर हनुमान जी ने पुनः उन्हें सांत्वना दी और उनसे विदा लेकर उत्तर-दिशा की ओर प्रस्थान किया।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस

(नोट: वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। मैं केवल सारांश ही लिख रहा हूँ। मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, वह वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।)

जय श्रीराम 🙏
रविकांत बैसान्दर✍️

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