गुरुवार, 1 अगस्त 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 41 (Valmiki Ramayana Part - 41)


समुद्र पार करके हनुमान जी लंका के त्रिकूट पर्वत पर उतरे और नगर में प्रवेश करने से पहले उसका अवलोकन करने लगे। वहाँ से उन्हें चीड़, कनेर, खजूर, चिरौंजी, नींबू, कुटज, केवड़े, पिप्पली, अशोक आदि अनेक प्रकार के वृक्ष दिखाई दिए, जिन पर बहुत-से पक्षी बैठे हुए थे। उन्होंने अनेक जलाशय भी देखे। लंका के चारों ओर सुरक्षा के लिए गहरी खाई खुदी हुई थी और हाथों में धनुष, शूल और पट्टिश लिए हुए भयंकर राक्षस निरंतर वहाँ पहरा देते थे। तब हनुमान जी विचार करने लगे कि ‘यदि वानर-सेना यहाँ तक आ भी जाए, तो भी सब व्यर्थ ही होगा क्योंकि लंका इतनी अधिक सुरक्षित है कि देवता भी उस पर विजय नहीं पा सकते। ऐसा लगता है कि इससे दुर्गम स्थान तो कोई है ही नहीं। परन्तु पहले मुझे यह पता लगाना चाहिए कि विदेह कुमारी सीता जीवित भी हैं या नहीं। उसके बाद मैं आगे की बातों पर विचार करूँगा।’ तब वे मन में सोचने लगे कि ‘भयभीत, अविवेकी अथवा स्वयं को अत्यधिक बुद्धिमान समझने वाले दूत के कारण ही कई बार राजा के काम बिगड़ जाते हैं। अतः मुझे कुछ ऐसा करना होगा, जिससे मुझे घबराहट या अविवेक न हो जाए और श्रीराम का काम न बिगड़े। अन्यथा समुद्र को पार करके इतनी दूर तक आना भी व्यर्थ हो जाएगा।’ इस नगरी में ऐसा कोई स्थान नहीं दिखाई देता, जहाँ राक्षसों से छिपकर जाना संभव हो। यहाँ तक कि मैं यदि राक्षस रूप में भी जाऊँ, तो भी उनकी दृष्टि से बचा नहीं जा सकता। तो फिर किस प्रकार यह कार्य किया जाए, जिससे एकांत में जानकी जी से भेंट भी हो जाए और श्रीराम का कार्य भी न बिगड़े? इस विषय में बहुत विचार करने के बाद उन्होंने निश्चय किया कि ‘मैं इस रूप में लंका में प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि राक्षस मुझे पहचान लेंगे। अतः यही उचित है कि मैं रात्रि के समय नगर में प्रवेश करूँ और ऐसा रूप बना लूँ, जिसे देख पाना कठिन हो। मैं अपने इसी रूप में छोटा-सा शरीर धारण करके लंका में प्रवेश करूँगा।’

ऐसा निश्चय करके वीर हनुमान जी सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे। सूर्यास्त हो जाने पर उन्होंने अपने शरीर को बहुत छोटा बना लिया। अब उनका आकार बिल्ली के बराबर हो गया था। प्रदोष-काल में अपने इस लघु-रूप में हनुमान जी फुर्ती से उछलकर उस रमणीय नगरी के परकोटे पर चढ़ गए। वहाँ से वे लंकापुरी का निरीक्षण करने लगे। लंका की चारदीवारी और प्रवेश-द्वार सोने के बने हुए थे। उन सब पर हीरे, मोती, नीलम आदि जड़े हुए थे। उन द्वारों का ऊपरी भाग चाँदी का बना होने के कारण श्वेत दिखाई देता था। प्रत्येक द्वार पर रमणीय सभा-भवन बने हुए थे, जिनकी सीढ़ियाँ नीलम की थीं और फर्श को भी मणियों से सजाया गया था। लंका नगरी में चौड़े-चौड़े विशाल राजमार्ग थे। उनके दोनों ओर प्रासादों की पंक्तियाँ दूर तक फैली हुई थीं। सुनहरे खंभों और सोने व मोतियों की जालियों से सजी वह नगरी बड़ी रमणीय दिखाई देती थी। उन्होंने अनेक ऊँचे-ऊँचे महलों को देखा, जिन्हें वन्दनवारों से सजाया गया था। यह सब देखते हुए हनुमान जी ने सीता की खोज के लिए अब लंका में प्रवेश किया।

हनुमान जी को देखते ही लंका नगरी स्वयं ही राक्षसी के रूप में उनके सामने आकर खड़ी हो गई। उसका मुँह बड़ा विकट था। बड़े जोर से गर्जना करते हुए उसने पूछा - वनचारी वानर!!! तू कौन है और यहाँ किस कार्य से आया है? अपने प्राण बचाना चाहता है, तो सब ठीक-ठीक बता दे। रावण की सेना इस नगरी की चारों ओर से सुरक्षा करती है। तेरा यहाँ प्रवेश करना असंभव है। यह सुनकर हनुमान जी बोले - क्रूर नारी!!! तेरे प्रश्नों का उत्तर मैं बाद में दूँगा। पहले तू यह तो बता कि मुझ पर इस प्रकार क्रोध करके मुझे डाँटने वाली तू कौन है?’ तब कुपित होकर लंका ने कहा, “वानर! मैं स्वयं लंका नगरी हूँ। मेरी अवहेलना करके यहाँ प्रवेश करना असंभव है। मैं रावण की सेविका हूँ और यहाँ की रक्षा करती हूँ। तब हनुमान जी बोले, “मैं तो केवल इस सुन्दर नगरी की अट्टालिकाओं, परकोटों, नगरद्वारों, वनों, उपवनों, उद्यानों आदि को देखने आया हूँ। इस नगरी को देखने के लिए मेरे मन में बड़ा कौतूहल है।” इस पर क्रोधित होकर लंका ने पुनः कठोर वाणी में कहा, “दुष्ट वानर!!! तू मुझे परास्त किए बिना इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता।” हनुमान जी ने उसे समझाया, “भद्रे! इस लंकापुरी को देखकर मैं चुपचाप लौट जाऊँगा। तू मुझे इसमें प्रवेश करने दे। लेकिन अचानक ही लंका ने भयंकर गर्जना करते हुए एक जोरदार थप्पड़ हनुमान जी को मार दिया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने भीषण सिंहनाद किया और अपनी बायीं अंगुलियों को मोड़कर मुट्ठी बाँध ली। लंका स्त्री थी, इस कारण उन्होंने अपने क्रोध को बहुत नियंत्रण में रखा और उस पर केवल एक हल्का-सा ही प्रहार किया। लेकिन इतने भर से ही वह निशाचरी व्याकुल होकर भूमि पर गिर पड़ी और क्षमा माँगती हुई बोली, “कपिश्रेष्ठ! शास्त्रों में स्त्री को अवध्य बताया गया है, अतः आप मेरे प्राण मत लीजिए। आपने अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर दिया है। मैं आपको एक सच्ची बात बताती हूँ। ब्रह्माजी ने मुझसे कहा था कि ‘जब कोई वानर आकर अपने पराक्रम से तुझे परास्त कर दे, तो तू समझ जाना कि राक्षसों पर बड़ी भारी विपत्ति आ चुकी है।' अब आपको देखकर मैं समझ गई हूँ कि वह समय आ चुका है एवं सीता के कारण दुरात्मा रावण तथा समस्त राक्षसों का विनाश होने वाला है। अतः आप निर्बाध रूप से इस नगरी में प्रवेश कीजिए।

तब हनुमान जी ने निर्भय होकर लंकापुरी में इस प्रकार प्रवेश किया, मानो उन्होंने शत्रु के सिर पर ही अपना बायाँ पैर रख दिया हो। लंका में प्रवेश करके हनुमान जी राक्षसों के घरों को देखते हुए आगे बढ़े। उनमें से किसी का आकार कमल जैसा था, किसी पर स्वास्तिक के चिह्न बने हुए थे। वे सभी घर चारों ओर से सजे हुए थे। एक से दूसरे घरों में जाते समय उन्हें मनोहर गीत-संगीत और नर्तकियों की पायलों की झनकार सुनाई दी। अनेक निशाचरों को उन्होंने मन्त्र जपते हुए सुना और बहुत-से राक्षसों को स्वाध्याय में तत्पर भी देखा। नगर के मध्यभाग में कोई जटा बढ़ाया हुआ, कोई सिर मुंडाया हुआ, कोई मृगचर्म (हिरण की खाल) धारण किया हुआ, तो कोई बिल्कुल हीनिर्वस्त्र था। उन निशाचरों में से कोई बड़े कुरूप थे, तो कोई बहुत सुन्दर। किन्हीं के मुँह टेढ़े-मेढ़े थे। कोई बड़े विशाल थे, तो कोई बौने। किसी-किसी की एक ही आँख थी और कितनों के ही पेट बहुत बड़े-बड़े थे। कुछ अन्य घरों में उन्हें विवाहिता, धर्मपरायण स्त्रियाँ भी दिखीं, वहाँ से आगे बढ़ने पर उन्हें नगर की रक्षा के लिए नियुक्त एक लाख राक्षसों की रक्षक-सेना का विशाल भवन दिखाई दिया। वे सब सैनिक रावण के अंतःपुर की रक्षा के लिए नियुक्त थे। उस आरक्षा-भवन के आगे हनुमान जी को त्रिकूट पर्वत के एक शिखर पर बना रावण का महल दिखा। उसके चारों ओर सुरक्षा के लिए खाई बनी हुई थी, जिसमें अनेक कमल खिले हुए थे। उस महल का परकोटा बहुत ऊँचा था। महल में उसमें संगीत के स्वर गूँज रहे थे। घोड़ों की हिनहिनाहट भी सुनाई पड़ रही थी। थोड़ा निकट जाने पर हनुमान जी को आभूषणों की झनकार भी सुनाई दी। उन्हें अनेक प्रकार के रथ, पालकी, विमान, हाथी, अनेक पशु-पक्षी आदि भी दिखे। सहस्त्रों पराक्रमी राक्षस उस महल की रक्षा में नियुक्त थे। सबसे छिपकर आगे बढ़ते हुए हनुमान जी ने रावण के उस महल में प्रवेश किया। वह महल चाँदी के मढ़े हुए चित्रों, सोने से जड़े हुए दरवाजों और अद्भुत ड्योढ़ियों तथा सुन्दर द्वारों से युक्त था। हाथी पर चढ़े हुए अनेक महावत और कई शूरवीर वहाँ उपस्थित थे। अनेक रथवाहक अश्व भी उन्हें दिखाई दिए। वे रथ सिंह और बाघ की खाल से बने हुए कवचों से ढके हुए थे। उनमें हाथी-दाँत, सोने तथा चाँदी की प्रतिमाएँ रखी हुई थीं। उनमें लगी छोटी-छोटी घंटियाँ रथ के चलने पर बजने लगती थीं। ऐसे अनेक रथ निरंतर वहाँ आ-जा रहे थे।वहाँ शंख, भेरी और मृदंग का स्वर गूँज रहा था। उस राजभवन को प्रतिदिन सजाया जाता था और पर्वों के दिन वहाँ हवन किया जाता था। उस महल तथा वहाँ के बाग-बगीचों आदि को देखने के बाद हनुमान जी कूदकर प्रहस्त के घर में जा पहुँचे। वहाँ से निकलकर वे महापार्श्व के महल में गए थे। फिर उछलकर वे कुम्भकर्ण के भवन में और फिर वहाँ से विभीषण के महल में कूद गए। इसके बाद एक-एक करके उन्होंने महोदर, विरुपाक्ष, विद्युज्जिह्व, विद्युन्मालि, वज्रदंष्ट्र, शुक, सारण, इंद्रजीत, जम्बुमालि, सुमाली, रश्मिकेतु, सूर्यशत्रु, वज्रकाय, धूम्राक्ष, विद्युद्रूप, भीम, घन, विघन, शुकनाभ, चक्र, शठ, कपट, ह्रस्वकर्ण, द्रंष्ट्र, लोमश, युद्धोन्मत्त, मत्त, ध्वजग्रीव, द्विजिह्न, हस्तिमुख, कराल, पिशाच और शोणिताक्ष आदि के महलों को भी देखा और उन सबके घरों व समृद्धि का निरीक्षण कर लिया। लेकिन सीता उन्हें कहीं भी दिखाई नहीं दी थी। इससे वे अत्यंत दुःखी और चिंतित हो गए। तब वे पुनः रावण के महल में लौटे। वहाँ उन्हें रावण के कक्ष की रक्षा करने वाली राक्षसियाँ दिखाई दीं, जिनकी आँखें बड़ी विकराल थी।

वहाँ हनुमान जी को रावण का पुष्पक विमान भी दिखाई दिया। वह विमान विश्वकर्मा ने ब्रह्माजी के लिए बनाया था। बड़ी तपस्या करके कुबेर ने ब्रह्माजी से वरदान में उसे पाया था। फिर कुबेर को परास्त करके रावण ने वह विमान छीन लिया। वह अनेक रत्नों से सजा हुआ था और अत्यंत सुन्दर दिखाई देता था। उसका आधार सोने और मणियों के पर्वत जैसा बनाया गया था। उस विमान को देखकर हनुमान जी को बड़ा ही विस्मय हुआ। हनुमान जी उस दिव्य पुष्पक विमान पर चढ़ गए। उसमें सोने और स्फटिक के झरोखे और खिड़कियाँ लगी हुई थीं। सुन्दर मणियों की वेदियाँ रची गई थीं। उसका फर्श अनेक प्रकार के मूँगों, मणियों, मोतियों आदि से जड़ा हुआ था। उसमें अनेक प्रकार के पेय और खाद्यपदार्थ रखे हुए थे। विमान को देखने के बाद हनुमान जी ने रावण के भवन में प्रवेश किया। वहाँ भी हनुमान जी को रंग-बिरंगे वस्त्र पहनी हुईं तथा आभूषणों व पुष्पों से सजी हुई अनेक सुन्दर स्त्रियाँ दिखाई दीं। उनमें से कुछ मधुपान के मद (शराब का नशा) तथा कुछ निद्रा के कारण सो गई थीं। उन भवन में इधर-उधर देखते समय हनुमान जी को एक सुन्दर पलंग दिखाई दिया, जिस पर बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे। हाथी-दाँत और सोने आदि से उसे सजाया गया था। उसके एक भाग में चन्द्रमा के समान श्वेत छत्र था, जो सुन्दर मालाओं से सुशोभित था। उसके चारों ओर बहुत-सी स्त्रियाँ खड़ी होकर हाथों में चँवर लेकर हवा कर रही थीं। वहाँ कक्ष बहुत अच्छी सुंगध से व्याप्त था। उस पलंग पर हनुमान जी ने दुष्ट रावण को सोया हुआ देखा। उसका पूरा शरीर भयंकर काला था। उसके अंगों में लाल चन्दन लगा हुआ था। अत्यधिक मदिरा पीने के कारण उसकी आँखें भी लाल-लाल थीं। उनके कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे और उसके वस्त्र सुनहरे रंग के थे। कुछ दूरी पर छिपकर हनुमान जी ध्यान से उसका निरीक्षण करने लगे। उसकी दोनों भुजाएँ बहुत बड़ी-बड़ी थीं। उसके शरीर पर युद्धों के घाव के अनेक चिह्न थे। उसकी अंगुलियाँ और हथेलियाँ बहुत बलिष्ठ थीं। सुन्दर युवतियाँ धीरे-धीरे उसके हाथों को दबा रही थीं। उसके कुण्डलों से उसका मुख प्रकाशित हो रहा था उसकी छाती पर लाल चन्दन लगा हुआ था और उसने गले में हार पहना हुआ था। उसकी कमर के निचे भाग एक ढीले-ढाले रेशमी वस्त्र से ढका हुआ था और उसने पीले रंग की बहुमूल्य रेशमी चादर ओढ़ रखी थी। उसके आस-पास ही हनुमान जी को उसकी अनेक पत्नियाँ भी सोई हुई दिखाई दीं। उन सबसे अलग एकांत में बिछे हुए एक पलंग पर सोयी हुई एक सुन्दर युवती हनुमान जी को दिखाई दी। वह गोरे रंग की थी और उसका रूप बड़ा मनोहर था। वह रावण के अन्तःपुर की स्वामिनी थी। उसका नाम मंदोदरी था, लेकिन उसे देखकर हनुमान जी को लगा कि अवश्य यही सीता है। ऐसा सोचकर वे कुछ क्षणों के लिए अत्यंत हर्षित हो गए। लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि सीता जी तो इस समय अपने पति श्रीराम से बिछड़ी हुई हैं। ऐसी दशा में वे न तो श्रृंगार कर सकती हैं, न आभूषण धारण कर सकती हैं और मदिरापान तो किसी भी प्रकार नहीं कर सकती हैं। यह असंभव है कि वे अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के निकट भी जाएँ। अतः अवश्य ही ये सीता नहीं, कोई और ही है। उन सब स्त्रियों को देखते-देखते हनुमान जी के मन में सहसा यह विचार आया कि ‘गहन निद्रा में सोयी हुई परायी स्त्रियों को इस प्रकार देखना उचित नहीं है। यह तो अधर्म है। उन्हीं स्त्रियों के बीच मुझे उन सबका अपहरण करने वाले दुष्टात्मा रावण को भी देखना पड़ा। ऐसे पापी को तो देखना भी अशुभ है।’ लेकिन फिर उन्होंने सोचा कि ‘मैंने केवल सीता जी को ढूँढने की विवशता में ही इन सब स्त्रियों को देखा था। स्त्री को खोजने के लिए स्त्रियों के बीच ही देखना आवश्यक था, उसे वन की हरिणियों में नहीं खोजा जा सकता था। किसी भी स्त्री की ओर देखते समय मेरे मन में कोई विकार भी नहीं आया है। मेरा मन शुद्ध है, अतः इस कार्य में मुझसे कोई पाप नहीं हुआ है।

यह सब सोचते हुए हनुमान जी उस भवन से बाहर निकलकर रावण के भोजनालय में पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े बर्तनों में दही और नमक मिलाकर हिरण, भैंसे, सूअर, मुर्गे, गेंडे, साही आदि का माँस रखा हुआ था। अनेक प्रकार के पक्षी, खरगोश, बकरे, भैंसे, मछली, भेड़ें आदि के माँस भी राँध-पकाकर रखे हुए थे। वहाँ कई प्रकार की चटनी, खटाई आदि भी रखी हुई थी। वहाँ के मदिरालय में राग और खाण्डव (अंगूर और अनार के रस में मिश्री और शहद मिलाकर बनने वाली शराब), शर्करासव (चीनी से बनने वाली शराब), माध्वीक (शहद से बनने वाली शराब), पुष्पासव (महुए के पुष्प से बनने वाली शराब) आदि कई प्रकार की मदिरा भी रखी हुई थी। लंका में अनेक स्थानों पर और उस महल में हर जगह खोजने पर भी जब सीता कहीं नहीं मिली, तो अब हनुमान जी अत्यंत चिंता में पड़ गए।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर ✍️

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