सोमवार, 5 अगस्त 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 42 (Valmiki Ramayana Part - 42)


रावण के महल में हर ओर खोजने पर भी जब सीता नहीं दिखाई दीं, तो हनुमान जी बहुत चिंतित हो गए। उनके मन में विचार आया कि ‘अवश्य ही सीता अब जीवित नहीं हैं। इस दुराचारी राक्षस ने उन्हें मारा डाला होगा। यहाँ की सभी राक्षस-दासियाँ अत्यंत भीषण एवं विकराल हैं। भयभीत सीता ने उन्हें देखकर प्राण त्याग दिए होंगे। सीता को न खोज पाने के कारण मेरा यहाँ तक आना ही विफल हो गया। सुग्रीव ने हमें लौटने के लिए जो अवधि बताई थी, वह भी बीत चुकी है। अतः अब वहाँ जाने का मार्ग भी बंद हो गया है। अब वानर मुझसे पूछेंगे कि मैंने लंका जाकर क्या किया, तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?’ ऐसा सोचते हुए वे निराश होने लगे किन्तु अगले ही क्षण उन्होंने फिर विचार किया कि ‘हताश न होकर उत्साह को सदा बनाए रखना ही सफलता का आधार है। अतः मुझे इस प्रकार निराश नहीं होना चाहिए। अब तक मैंने आपानशाला, पुष्पगृह, चित्रशाला, क्रीड़ागृह, पुष्पक विमान आदि में सीता को खोज लिया। अब अन्य स्थानों में भी मुझे खोज करनी चाहिए।’ यह निश्चय करके हनुमान जी नये उत्साह से आगे बढ़े। अब उन्होंने तहखानों में, परकोटे के भीतर की गलियों में, वृक्षों के नीचे बनी वेदियों में और यहाँ तक कि गड्ढों और पोखरों में भी खोजा। रावण के अन्तःपुर का ऐसा कोई स्थान नहीं बचा, जहाँ हनुमान जी ने सीता को न खोजा हो। फिर भी सीता उन्हें कहीं नहीं मिलीं।

तब वे वहाँ से निकलकर परकोटे पर चढ़ गए और बड़े वेग से इधर-उधर टहलते हुए कुछ सोचने लगे। उनके मन में विचार आया कि ‘सम्पाती ने तो यही बताया था कि सीता जी रावण के महल में हैं, किन्तु यहाँ तो वे कहीं भी दिखाई नहीं दे रहीं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि जब रावण उनका अपहरण करके आकाशमार्ग से ला रहा था, तब वे रथ से नीचे गिर पड़ी हों या भीषण समुद्र को उतनी ऊँचाई से देखने पर भय के कारण उनके प्राण निकल गए हों अथवा क्रोधित रावण ने या उसकी पत्नियों में से किसी ने ईर्ष्या के कारण सीता जी को अपना आहार बना लिया हो?’ अब हनुमान जी को निश्चय हो गया कि अवश्य ही सीता जीवित नहीं हैं। तब उन्होंने सोचा कि ‘श्रीराम अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते हैं। उन्हें सीता की मृत्यु का समाचार नहीं देना चाहिए। उन्हें इससे अत्यंत दुःख होगा। लेकिन यदि न बताऊँ, तो भी उचित नहीं है। अब क्या किया जाए? अब तो मैं किष्किन्धा भी वापस नहीं जा सकता हूँ, ऐसे में क्या करूँ? अब या तो मैं वानप्रस्थी हो जाऊँगा अथवा जल-समाधि लेकर या अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दूँगा। लेकिन सीता का पता लगाये बिना मैं वापस नहीं लौटूँगा।’ यह सब सोचते-सोचते सहसा हनुमान जी ने सोचा कि ‘उधर एक बहुत बड़ी अशोक वाटिका है, जिसमें मैंने अभी तक सीता जी को खोजा ही नहीं। अब मुझे यहाँ भी ढूँढना चाहिए।’ यह सोचते ही हनुमान जी तुरंत खड़े हो गए और मन ही मन सभी देवताओं को नमस्कार करके अशोक वाटिका की ओर बढ़े और उसकी चारदीवारी पर चढ़ गए। वहाँ हनुमान जी को साल, अशोक, निम्ब, चम्पा, बहुवार, नागकेसर तथा आम आदि अनेक प्रकार के वृक्ष दिखाई दिए। कोयल आदि कई प्रकार के पक्षी वहाँ कलरव कर रहे थे। सीता की खोज करते हुए हनुमान जी एक से दूसरे वृक्ष पर जाने लगे। उन वृक्षों के हिलने से फूल झड़ने लगे और वहाँ की पूरी भूमि फूलों से आच्छादित हो गई। वाटिका में हनुमान जी को अनेक सरोवर दिखाई दिये, जिनमें कमल खिले हुए थे और चक्रवाक, पपीहा, हंस और सारस कलरव कर रहे थे। अनेक नदियाँ उन सरोवरों को जल से भरा रखती थीं। वहाँ हनुमान जी ने बादल के समान काला और ऊँचे शिखर वाला एक पर्वत भी देखा, जिसकी चोटियाँ बड़ी विचित्र थीं। उसमें पत्थर की अनेक गुफाएँ थीं। उस पर्वत से एक नदी भी गिरती हुई दिखाई दे रही थी। वहाँ शीतल जल से भरा हुआ एक कृत्रिम तालाब भी था, जिसमें श्रेष्ठ मणियों की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और उसमें रेत की जगह मोती भरे हुए थे। विश्वकर्मा के बनाए हुए बड़े-बड़े महल और कृत्रिम वन उसकी शोभा बढ़ा रहे थे।

फिर हनुमान जी ने एक अशोक का वृक्ष देखा, जो चारों ओर से स्वर्ण की वेदिकाओं से घिरा हुआ था। वे लपक कर उस वृक्ष पर चढ़ गए और उन्होंने सोचा कि ‘दुःख से व्याकुल होकर इधर-उधर घूमती हुई सीता अवश्य ही मुझे यहाँ से दिखाई देंगी। यह प्रातःकाल की पूजा का समय है, अतः अवश्य ही जानकी जी यहाँ जलाशय के तट पर आएँगी।’ यह सोचकर हनुमान जी उस ऊँचे वृक्ष पर बैठे-बैठे आस-पास का निरीक्षण करने लगे। वहाँ से थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक ऊँचा गोलाकार मंदिर दिखाई दिया, जिसमें एक हजार खंभे लगे हुए थे। वह कैलास पर्वत के समान सफेद रंग था और उसमें मूँगे की सीढ़ियां व सोने की वेदियाँ बनाई गई थीं। उस मंदिर को देखते-देखते उनकी दृष्टि एक सुन्दर स्त्री पर पड़ी, जो राक्षसियों से घिरी हुई थी। वह स्त्री अत्यंत दुर्बल और कातर दिखाई पड़ रही थी तथा बार-बार दुःख से सिसक रही थी। वह पीले रंग का रेशमी वस्त्र पहने हुए थी। अत्यंत शोक के कारण वह अत्यधिक क्षीण हो गई थी और दुःख के कारण उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। उसे देखकर हनुमान जी ने अनुमान लगाया कि अवश्य यही सीता है। तब इस अनुमान की पुष्टि करने के लिए उन्होंने उस स्त्री को ध्यान से देखा। सीता ने जो आभूषण वानरों के बीच गिराये थे, उन्हें देख लेने के बाद श्रीराम ने बताया था कि अब सीता के शरीर पर कौन-से आभूषण बचे होंगे। हनुमान जी ने अब उसी बात की ओर ध्यान दिया। सुन्दर कुण्डल तथा कुत्ते के दाँतों जैसी आकृति वाले त्रिकर्ण नामक कर्णफूल उस स्त्री के कानों में सुशोभित थे। हाथों में मणि और मूँगे जड़े हुए कंगन थे। ये सब आभूषण ठीक वैसे ही थे, जैसा कि श्रीराम ने बताया था। यद्यपि बहुत दिनों से पहने होने के कारण वे कुछ काले पड़ गए थे किन्तु आकार-प्रकार से अभी भी वे पहचाने जा सकते थे। इन सब प्रमाणों को देखकर हनुमान जी को विश्वास हो गया कि सीता जी यही हैं। उनकी वह अवस्था देखकर हनुमान जी दुःख से व्यथित हो गए, परन्तु उन्हें इस बात से प्रसन्नता भी हुई कि अंततः उन्होंने सीता जी को ढूँढ निकाला है।

जब यह निश्चित हो गया कि वह स्त्री ही सीता है, तो हनुमान जी उससे मिलने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा में वृक्ष पर ही छिपकर बैठे रहे। दिन बीत जाने पर जब चन्द्रमा का उदय हो गया, तब हनुमान जी ने सीता को देखने के लिए पुनः दृष्टि दौड़ाई। उन्हें दिखाई दिया कि सीता के आस-पास अनेक विकराल राक्षसियाँ बैठी हुइ है, उनमें से कोई नाटी, कोई लंबी, कोई कुबड़ी, कोई टेढ़ी-मेढ़ी, कोई विकराल, तो कोई पीली आँखों और विकट मुँह वाली थीं। वे सब राक्षसियाँ अशोक-वृक्ष को चारों ओर से घेरकर उससे कुछ दूरी पर बैठी हुई थीं। सीताजी उसी वृक्ष के नीचे बैठी हुई थीं। उनके मुख पर दीनता छाई हुई थी। उनकी आँखें शोक में डूबी हुई थीं और उनका शरीर बहुत दुर्बल दिखाई दे रहा था। लगभग पूरी रात बीत गई, पर हनुमान जी को सीता जी के पास जाने के लिए उपयुक्त अवसर नहीं मिल पाया। अब केवल एक पहर की रात बाकी थी। लंका में जो राक्षस वेदों के छहों अंगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद और ज्योतिष) सहित संपूर्ण वेदों के विद्वान थे, उनके घरों से हनुमान जी को वेदपाठ की ध्वनि सुनाई देने लगी।उचित समय पर मंगलवाद्यों तथा सुखद शब्दों के द्वारा लंकापति रावण को जगाया गया। काम-विकारी होने के कारण उस दुष्ट निशाचर ने जागते ही सबसे पहले सीता का ही विचार किया। उसने अनेक प्रकार के आभूषण धारण किए, सब प्रकार की साज-सज्जा की और अशोक वाटिका में प्रवेश किया। उसकी लगभग एक सौ सुन्दर पत्नियाँ भी उसके पीछे-पीछे वहाँ गईं। उनमें से कुछ ने सोने के दीपक अपने हाथों में पकड़े हुए थी। रावण के आगे-आगे भी कुछ स्त्रियाँ प्रकाश के लिए मशाल लेकर चल रही थीं। उन सबके आने का स्वर सुनते ही हनुमान जी तुरंत पत्तों की आड़ में छिप गए। उन्होंने देखते ही पहचान लिया कि यही रावण है, क्योंकि पिछली रात उसी राक्षस को उन्होंने महल में सोया हुआ देखा था। जैसे ही सीता जी ने उस नीच को आते हुए देखा, तो वे भय के समान थर-थर काँपने लगीं। उस दुराचारी की दृष्टि से स्वयं को बचाने के लिए उन्होंने अपने अंगों को समेट लिया और श्रीराम का स्मरण करके अत्यंत दुःख से रोने लगीं। पापी रावण ने वहाँ पहुँचते ही अश्लील बातों से अपने मन के विकारों को प्रकट कर दिया। वह सीता को देखकर बोला, “सुन्दर अंगों वाली सीते! मुझे देखकर तुम अपने स्तनों को इस प्रकार क्यों छिपा रही हो? परायी स्त्रियों को बलपूर्वक उठा लाना या उनकी इच्छा के बिना भी उनका उपभोग करना राक्षसों की परंपरा ही है। इसमें कोई अधर्म नहीं है। अतः तुम भी मेरी बात मान लो और मेरी शैय्या पर चलो। तुम्हें यह सौंदर्य ऐसे मैले-कुचैले वस्त्र पहनने, भूमि पर सोने, उपवास करने और चिंतामग्न रहने के लिए नहीं मिला है। मुझे स्वीकार करके तुम सुन्दर पुष्पमालाओं, चंदन, अगरु, अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, स्वादिष्ट भोजन, पेय, सुखद शय्या, नृत्य-गान, संगीत-वाद्य आदि का सुख भोगो। तुम पतिव्रता होने का संकल्प छोड़ो और मेरे इस राज्य की महारानी बन जाओ। मुझे पराजित करना असुरों व देवताओं के लिए भी असंभव है। फिर तुम्हारा पति तो एक तुच्छ मानव है। वह मुझसे युद्ध करने का विचार भी नहीं कर सकता। वैसे भी अपना राज्य और सम्मान गँवाकर वह वन-वन भटक रहा है। मुझे तो संदेह है कि अब वह जीवित भी है या नहीं। तुमको पाना तो दूर, वह तुमको अब कभी देख भी नहीं सकेगा।"

नीच रावण के ऐसे कलुषित विचार सुनकर सीता जी को बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने दुःख के साथ कातर स्वर में कहा - पापी!!! तू परायी स्त्री में मन लगाना छोड़ दे और अपनी पत्नियों से ही प्रेम कर। परायी स्त्रियों के मोह में पड़ने वाला पुरुष सदा ही कष्ट पाता है, तेरे इस दुष्कृत्य के कारण सब राक्षसों का विनाश होगा और यह संपूर्ण लंकापुरी ही नष्ट हो जाएगी। जिस प्रकार सूर्य से उसकी किरणें अलग नहीं हो सकतीं, उसी प्रकार मैं भी श्रीराम से अलग नहीं हूँ। किसी भी ऐश्वर्य, धन अथवा सुख के लोभ से तू मुझे लुभा नहीं सकता। यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो चुपचाप मुझे श्रीराम के पास वापस भेज दे और उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँग ले। युद्ध में श्रीराम और लक्ष्मण के सामने टिकना तेरे लिए असंभव है। ऐसे कठोर वचनों को सुनकर रावण क्रोधित हो गया। उसने कहा, “सीता! तू पांखडी और तिरस्कार के योग्य है। मेरे इस अपमान के लिए तुझे प्राण-दण्ड दिया जाना चाहिए, फिर भी केवल मेरे मोह के कारण ही तू अभी तक जीवित है। अब विचार करने के लिए तेरे पास केवल दो माह का समय शेष है। उसके बाद तुझे मेरी शैय्या पर आना ही होगा। यदि तूने मुझे प्रसन्न नहीं किया, तो मेरे भोजन के लिए रसोइये तेरे टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे।”

यह सुनकर सीता ने तिरस्कार पूर्वक कहा, “नीच राक्षस! तू तो बड़ा शूरवीर बनता है, फिर तूने श्रीराम को छल से दूर हटाकर उनकी स्त्री क्यों चुराई? यह सुनकर रावण क्रोध से जल उठा। उसकी आँखें अंगारों के समान लाल हो गईं। और फिर गर्जना के स्वर में वहाँ उपस्थित राक्षसियों से कहा, निशाचरियों! तुम सब किसी भी प्रकार यह प्रयास करो कि सीता जल्दी ही मेरे वश में आ जाए। रावण को इस प्रकार क्रोध से व्याकुल देखकर रानी मन्दोदरी तथा धान्यमालिनी नामक सुन्दर राक्षसी ने आकर उसका आलिंगन कर लिया और बोली, “राक्षसराज! इस तुच्छ मानव-कन्या के कारण आप क्यों कष्ट उठा रहे हैं? आप महल में चलकर हमारे साथ प्रेम-क्रीड़ा कीजिए। इस दुष्टा के भाग्य में सुख नहीं लिखा है, तभी यह इस प्रकार यहाँ पड़ी कष्ट पा रही है। यह सुनकर रावण अट्टहास करता हुआ उनके साथ वहाँ से चला गया। जो राक्षस-कन्याएँ उसके साथ आई थीं, वे भी उसके पीछे-पीछे चली गईं।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍️

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