बुधवार, 31 जुलाई 2024

आपसे मिलकर हम भी ग़ज़ल हो जाएँगे।


यह किसको ज्ञात था,  

ये वक़्त भी आ जाएगा।

आप मेरी ज़िंदगी के,

राशिफल हो जाएँगे।


आपसे मिलकर हम भी ग़ज़ल हो जाएँगे।


आपके मन में अचानक, 

यूँ सजल हो जाएँगे।

क्या ख़बर थी, 

हम इतने मुकम्मल हो पायेंगे।


आपसे मिलकर हम भी ग़ज़ल हो जाएँगे।


लिखने लगेंगे अल्फ़ाज आपके लिये,

मुश्किलो में भी संवर जायेंगे।

आप मुझे देखो मै आप को देखु,

वेपरवाही में हम बह जायेंगे।


आपसे मिलकर हम भी ग़ज़ल हो जाएँगे।


वो वक्त भी ख़ूब था,

दिलों में ख्वाहिशो का जोड़ था।

किसको क्या मालुम था,

हम इतने बेखबर हो जायेंगे।


आपसे मिलकर हम भी ग़ज़ल हो जाएँगे।



मुकम्मल - संपूर्ण, समग्र (जिसमे कुछ भी करने को बाकी न हो)
सजल - बादल, नम, शोकाकुल।

मंगलवार, 30 जुलाई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 40 (Valmiki Ramayana Part - 40)


समुद्र तट पर दुःखी बैठे उन वानरों को रोता देख उस गिद्ध ने अपने आप से ही कहा, “जिस प्रकार पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार मनुष्य को अपने किये का फल मिलता है, उसी प्रकार बहुत समय के बाद आज मुझे यह भोजन अपने आप ही मिल गया है। इन वानरों में से जो-जो मरता जाएगा, मैं उसे खाता जाऊँगा।” उस गिद्ध की बात सुनकर अंगद को बड़ा दुःख हुआ और वह हनुमान जी से बोला - हम लोगों ने न श्रीराम का कार्य पूर्ण किया और न हम अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा का ही पालन कर पाए। ऊपर से अब हम पर यह नई विपत्ति आ पड़ी है। हम सबने सुना है कि गिद्धराज जटायु ने किस प्रकार अपने मित्र राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम का कार्य करते हुए सीता की रक्षा में प्राण दिए। अब हमें भी उसी प्रकार जीवन का मोह छोड़कर अपने प्राण त्याग देने चाहिए। अंगद के मुँह से जटायु का नाम सुनकर वह गिद्ध चौंक उठा। उसने ऊँचे स्वर में पूछा यह कौन है, जो मेरे प्राणों से भी प्रिय भाई जटायु के वध की बात करके मेरे हृदय को कँपा रहा है? आज बहुत दिनों के बाद मुझे अपने प्यारे भाई का नाम सुनने को मिला। मुझे बताओ जटायु का युद्ध किससे हुआ था ?

वानरों!!! मेरे पंख सूर्य की किरणों से जल गए हैं। मैं उड़ नहीं सकता। तुम लोग मुझे नीचे उतार दो। मैं अपने भाई की मृत्यु का वृत्तांत सुनना चाहता हूँ। यह सुनकर वे वानर आशंकित हो गए कि यह गिद्ध कहीं हमें खा तो नहीं जाएगा। फिर उन्होंने सोचा कि ‘हम तो स्वयं ही अपने प्राण त्यागने का विचार कर रहे थे। यह हमें खा जाए तो अच्छा ही होगा।’ ऐसा सोचकर उन्होंने उसे नीचे उतार लिया। फिर अंगद ने अपना परिचय देकर उसे श्रीराम के वनवास, सीता के अपहरण तथा रावण से युद्ध में जटायु के वध का वृत्तांत सुनाया और उसे बताया कि अपने राजा सुग्रीव की आज्ञा से हम लोग सीता को खोज में निकले हैं। यह सुनकर उस गिद्ध की आँखों में आँसू आ गए। उसने कहा - वानरों! मेरा नाम सम्पाती है। जटायु मेरा छोटा भाई था। बहुत समय पहले हम दोनों भाइयों में एक बार यह शर्त लगी थी कि सूर्यास्त होने से पहले हम दोनों उड़कर सूर्य तक पहुँच जाएँगे। यह तय करके हम आकाश में जा पहुँचे। आकाश की ऊँचाई से देखने पर पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर भी रथ के पहियों जैसे छोटे दिखाई देते थे, बड़े-बड़े पर्वत सरोवर में खड़े हाथियों जैसे दिखते थे और जंगल के विशाल वृक्ष हरी घास के तिनकों जैसे दिखाई पड़ते थे। जब हम सूर्य के मार्ग पर पहुँचे, तब तक हम दोनों को बड़ी थकावट लगने लगी और शरीर से बहुत पसीना बहने लगा। शीघ्र ही हमें मूर्च्छा होने लगी। सूर्य की चमक के कारण हमारे नेत्र भी कुछ देख नहीं पा रहे थे और न हम दिशा का अनुमान लगा पाते थे। सूर्य के तेज से मेरा भाई जटायु शिथिल होने लगा और मुझे बताए बिना ही वह धरती की ओर उतरने लगा। तब उसकी रक्षा के लिए मैंने अपने पंखों से उसे ढँक लिया। लेकिन इससे मेरे दोनों पंख जल गए और मैं मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। छः रातें बीतने पर मुझे होश आया, तब धीरे-धीरे अनुमान लगाकर मैंने जाना कि मैं समुद्र के तट पर विंध्य पर्वत के पास गिरा हूँ। वायु के पथ का विचार करके मुझे लगता है कि मेरा भाई जटायु संभवतः जनस्थान में उतरा था। उस घटना के बाद मैं उससे कभी नहीं मिल पाया और आज तुमसे मुझे उसकी मृत्यु का दुःखद समाचार प्राप्त हुआ है। अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ, इसलिए अपने भाई की हत्या का बदला नहीं ले सकता। इसी कारण इतनी दुःखद बात को सुनकर भी चुपचाप सह रहा हूँ। तुम लोग मुझे समुद्र के किनारे पर ले चलो। मैं अपने भाई को जलांजलि देना चाहता हूँ।

तब वानर उसे समुद्र के निकट ले गए और सम्पाती ने अपने भाई को जलांजलि देकर समुद्र में स्नान किया। इसके बाद सब वानर पुनः उसे पर्वत पर ले गए और फिर उसके चारों ओर घेरा बनाकर बैठ गए। तब अंगद ने कहा - गिद्धराज!!! यदि आप उस नीच रावण के निवास का पता जानते हैं, तो हमें बताइये। तब सम्पाती ने कहा - वानरों!!! जब से मैं वृद्ध हो गया, तभी से मेरा पुत्र सुपार्श्व ही आहार देकर मेरा भरण-पोषण करता है। एक दिन उसने मुझे बताया था कि उसने दुष्ट रावण को एक सुन्दर युवती का हरण करके ले जाता हुआ देखा था। वह घबराई हुई स्त्री ‘हा राम! हा लक्ष्मण!’ की रट लगा रही थी और अपने गहने फेंकती जा रही थी। तुम्हारे मुँह से राम का नाम सुनकर अब मुझे लगता है कि वह स्त्री अवश्य सीता ही रही होगी। वह दुरात्मा रावण महर्षि विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। यहाँ से चार सौ कोस की दूरी पर समुद्र में एक द्वीप है, जहाँ विश्वकर्मा ने रमणीय लंकापुरी का निर्माण किया है। उसके दरवाजे और महल सोने के बने हुए हैं और उनके भीतर चबूतरे भी सोने के ही हैं। उस नगरी की चारदीवारी बहुत बड़ी है और सूर्य की भाँति चमकती है। रावण वहीं निवास करता है। गिद्ध होने के कारण मैं बहुत दूर तक का देख सकता हूँ। इसी कारण मुझे यहीं से लंका नगरी भी दिखाई देती है। मैंने देखा है कि पीले रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई सीता वहाँ रावण अंतःपुर में नजरबंद हैं। बहुत सारी राक्षसियाँ उनकी पहरेदारी करती हैं। लंका नगरी चारों ओर से समुद्र से घिरी हुई है। उसके दक्षिणी तट पर पहुँचने पर तुम रावण को देख सकोगे। अब तुम किसी प्रकार इस समुद्र को पार करने का उपाय सोचो। तुम लोगों की सहायता करके मैं भी रावण से अपने भाई के वध का बदला लेना चाहता हूँ। सीता का पता चल जाने से वानरों को बड़ी प्रसन्नता हुई और सम्पाती से विदा लेकर वे लोग दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े और उन्होंने दक्षिण समुद्र (हिन्द महासागर) के तट पर पहुँचकर डेरा डाला। अब समुद्र को देखकर वे लोग चिंतित हुए कि इसे कैसे पार किया जाए। तब अंगद ने सब वानरों से पूछा - सज्जनों!!! तुम लोगों में से जो भी इस समुद्र को पार सकता है, वही अब सुग्रीव के आदेश को पूर्ण करने में हमारा सहायक हो सकता है। अतः मुझे बताओ कि तुम में से कौन कितनी दूर तक जा सकता है। यह सुनकर सभी वानर अपनी-अपनी शक्ति का परिचय देने लगे। गज ने एक छलांग में दस योजन, गवाक्ष ने बीस, शरभ ने तीस योजन, ऋषभ ने चालीस योजन, गन्धमादन ने पचास, मैन्द ने साठ, द्विविद ने सत्तर योजन, सुषेण ने अस्सी तथा सबसे बूढ़े ऋक्षराज जाम्बवान ने नब्बे योजन तक जा सकने की बात कही। सबकी बात सुनकर अंगद ने कहा कि “मैं इस महासागर की सौ योजन की दूरी को अवश्य ही पार कर सकता हूँ, किन्तु उधर से वापस लौटने के लिए भी मुझमें उतनी शक्ति बचेगी या नहीं, यह मैं निश्चित नहीं कह सकता। इस पर वृद्ध जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राजकुमार! तुम्हारी शक्ति पर हमें कोई संदेह नहीं है, किन्तु तुम हमारे नेता हो, अतः तुम्हें भेजना हमारे लिए उचित नहीं है। यदि नेता पर ही कोई विपत्ति आ गई, तो यह पूरा समूह बिखर जाएगा, अतः तुम्हें नहीं भेजा जा सकता।

तब अंगद ने कहा - यदि मैं भी नहीं जाऊँगा तथा कोई अन्य वानर भी नहीं जा सकता, तो हम सुग्रीव की आज्ञा कभी पूरी नहीं कर पाएँगे। फिर तो हमें यहीं प्राण त्यागने पड़ेंगे। हम सब लोगों में आप ही सबसे अनुभवी हैं। अतः अब आप ही विचार करें कि यह कार्य कैसे पूर्ण किया जाए। यह सुनकर जाम्बवान बोले - वीर अगंद!!! तुम इसकी चिंता न करो। केवल एक ही ऐसा वीर है, जो इस कार्य को सिद्ध कर सकता है। ऐसा कहते हुए उन्होंने हनुमान जी की ओर देखा। उन्हें किसी बात का भय नहीं था और वे दूर एकांत में आनंद से बैठे हुए थे। तब जाम्बवान ने हनुमान जी के पास जाकर कहा - हनुमान!!! तुम वानरों में सबसे वीर हो और शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। तुम पराक्रम में सुग्रीव के समान और बल में श्रीराम के समान हो। तुम गरुड़ के समान शक्तिशाली व तीव्रगामी भी हो। तुम्हारे बल, बुद्धि, तेज और धैर्य की किसी से तुलना नहीं हो सकती। फिर तुम एकान्त में यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हो ? तुम तो इतने शक्तिशाली हो कि बचपन में एक बार तुमने उगते हुए सूर्य को फल समझकर आकाश की ओर छलांग लगा दी थी और अंतरिक्ष में तुम सूर्य के पास पहुँच गए। तब इन्द्र ने कुपित होकर तुम पर व्रज से प्रहार कर दिया था। तब उसकी चोट से तुम्हारी हनु (ठोड़ी) का बायाँ भाग खण्डित हो गया। उसी कारण तुम्हारा नाम हनुमान पड़ा। तुम पर हुए प्रहार को देखकर पवन देव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तीनों लोकों में वायु के प्रवाह को रोक दिया। इससे चारों ओर खलबली मच गई। तब समस्त लोकपालों के अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने यह वर दिया कि तुम युद्ध में किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारे जा सकोगे। तुम वज्र के प्रभाव से भी पीड़ित नहीं हुए थे। यह देखकर इन्द्र ने तुम्हें वरदान दिया कि मृत्यु भी तुम्हारी इच्छा के अधीन रहेगी। पराक्रमी वीर!!! तुम्हारी गति और शक्ति सब प्राणियों से बढ़कर है। तुम अपने बल को पहचानो। यह सारी वानरसेना तुम्हारा पराक्रम देखना चाहती है। जिस प्रकार भगवान विष्णु ने वामन रूप में आकर तीनों लोकों को नापने के लिए पग बढ़ाए थे, उसी प्रकार अब तुम भी इस समुद्र को लांघने के लिए आगे बढ़ो।

यह सुनकर हनुमान जी को अपनी शक्ति का विश्वास हो गया और उन्होंने वानरों की ओर देखकर अपना विराट रूप प्रकट किया। हनुमान जी का आकार सहसा बढ़ने लगा। यह देखकर वानरों में हर्ष व्याप्त हो गया और वे उनकी स्तुति करते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। हनुमान जी का वह विशाल रूप बड़ा ही बलवान दिखाई पड़ता था। जिस प्रकार पर्वत की कन्दरा में कोई सिंह अंगड़ाई लेता है, उसी प्रकार अंगड़ाई लेते हुए वे भी अपने शरीर का आकार बढ़ाते गए। फिर हनुमान जी ने हाथ जोड़कर वहाँ उपस्थित वानरों से कहा - वानरों!!! मैं वायुदेवता का औरस पुत्र हूँ और उन्हीं के समान मुझमें भी समस्त ग्रह-नक्षत्रों तक को लाँघ जाने की शक्ति है, अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं लंका में जाकर अवश्य ही विदेहकुमारी का दर्शन करूँगा। अतः अब तुम लोग शोक को त्याग दो और आनंद मनाओ।वानरों!!! जब मैं यहाँ से छलाँग मारूँगा, तब संसार में कोई भी मेरे वेग को संभाल नहीं सकेगा। इस विशाल महेन्द्र पर्वत के शिखर ही मेरे वेग को संभाल सकते हैं, अतः मैं वहीं से छलाँग लगाऊँगा। ऐसा कहकर हनुमान जी महेन्द्र पर्वत की ओर आगे बढ़े और अपने चित्त को एकाग्र करके उन्होंने लंका का स्मरण करते हुए मन ही मन अपनी योजना का विचार किया।

यहाँ से सुन्दरकाण्ड आरंभ हो रहा है।


समुद्र पार करने हेतु सौ योजन की छलांग लगाने के लिए हनुमान जी महेन्द्र पर्वत के ऊँचे शिखर पर चढ़ गए। उनके विशाल आकार के कारण वह पर्वत उनके चरणों से दबकर कुचला जाने लगा। उसकी शिलाएँ इधर-उधर बिखरने लगीं व उनके बीच से नए झरने फूटने लगे। बड़े-बड़े सर्प घबराकर अपने बिलों में छिप गए, वृक्ष झोंके खाकर हिलने लगे, पशु-पक्षी भयभीत हो गए। लेकिन हनुमान जी ने किसी पर ध्यान नहीं दिया। उनका ध्यान केवल अपना लक्ष्य पूरा करने की योजना में लगा हुआ था। अपने मन को एकाग्र करके वे केवल लंका के बारे में ही सोच रहे थे। श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने का निश्चय करके हनुमान जी ने बड़े वेग से ऊपर की ओर छलाँग मारी। उस झटके से पूरा पर्वत हिल गया और उसके वृक्ष उखड़कर हवा में इधर-उधर बिखर गए। विशालकाय हनुमान जी का शरीर समुद्र से ऊपर था और उनकी परछाई जल में डूबी हुई दिखाई दे रही थी। समुद्र के जिस भाग की ओर वे बढ़ते थे, वहाँ ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगती थीं। उनके वेग से समुद्र का जल बहुत ऊपर तक उठने लगा। इसके कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, मछलियाँ, कछुए भी साफ-साफ दिखाई देने लगे। आकाश में जाते हनुमान जी गरुड़ के समान दिखाई दे रहे थे। उनकी छाया दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी थी। वे बार-बार बादलों में घुसते और निकलते जा रहे थे। समुद्र में स्थित मैनाक पर्वत उन्हें देखकर ऊपर उठने लगा। तब हनुमान जी ने सोचा कि ‘मेरे मार्ग में यह विघ्न खड़ा हो रहा है। अतः उन्होंने एक धक्के से उस पर्वत के शिखर को नीचे गिरा दिया। तब उस पर्वत ने ही मनुष्य रूप में उनसे हाथ जोड़कर कहां - पवनपुत्र!!! मुझे समुद्र ने ही आपकी सेवा के लिए नियुक्त किया है। आप कुछ देर तक मेरे शिखर पर विश्राम कर लीजिए, फिर आगे बढ़ियेगा। तब हनुमान जी बोले, “मैनाक! मुझे तुमसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई, किन्तु मैंने मार्ग में कहीं न ठहरने का संकल्प लिया है। यह दिन बीता जा रहा है तथा मुझे अपना महत्वपूर्ण कार्य शीघ्र पूरा करना है। अतः मैं यहाँ नहीं ठहर सकता। ऐसा कहकर उन्होंने उस पर्वत को हाथों से स्पर्श किया और पुनः आकाश की ओर बढ़ने लगे। पर्वत और समुद्र दोनों ने बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया।

थोड़ा आगे बढ़ते ही मार्ग में विकराल सुरसा राक्षसी से उनका सामना हुआ। उसका रूप बड़ा विकट, बेडौल और भयावह था। वह हनुमान जी से बोली - अब तुम मेरा भक्ष्य बनोगे। मेरे मुँह में चले आओ। तब हनुमान जी ने कहा - देवी! दुष्ट रावण ने दशरथ के पुत्र श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है। मैं श्रीराम का दूत बनकर सीता के पास जा रहा हूँ। मुझे यह कार्य पूर्ण कर लेने दो, फिर मैं स्वयं तुम्हारे मुँह में चला आऊँगा। यह सुनकर सुरसा बोली - मुझे ब्रह्माजी से यह वरदान मिला है कि कोई मुझे लाँघकर आगे नहीं जा सकता। अतः तुम्हें मेरे मुँह में प्रवेश करना ही पड़ेगा। यह सुनकर हनुमान जी कुपित हो गए। उन्होंने सुरसा से कहा, “ठीक है, तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो, जिसमें मैं समा सकूँ। तब सुरसा ने अपना मुँह दस योजन विस्तृत बना लिया। हनुमान जी ने भी अपना आकार उतना ही और बड़ा कर लिया। फिर उसने अपना मुँह बीस योजन बढ़ाया, तो हनुमान जी ने अपने शरीर को तीस योजना का बना लिया। इस प्रकार चालीस, पचास करते-करते सुरसा के मुख का विस्तार सौ योजन का हो गया। तब बुद्धिमान हनुमान जी ने तुरंत ही अपने शरीर को संकुचित कर लिया और वे अँगूठे के बराबर छोटे हो गए। फिर सुरसा के मुँह में प्रवेश करके अगले ही क्षण वे बाहर भी निकल आए। उन्होंने सुरसा से कहा, “दक्षकुमारी! मैंने तुम्हारे मुँह में प्रवेश करके वरदान को सत्य कर दिया। अब मुझे आगे बढ़ने का मार्ग दो।” यह सुनकर राक्षसी सुरसा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुई। उसने हनुमान जी से कहा, “कपिश्रेष्ठ! मुझे देवताओं ने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए भेजा था। अब तुम निश्चिन्त होकर आगे बढ़ो व श्रीराम के कार्य को सिद्ध करो।” अब पुनः एक बार हनुमान जी बादलों के बीच आकाश-मार्ग से आगे बढ़ने लगे। तब इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वाली सिंहिका राक्षसी की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्हें देखकर वह सोचने लगी, “आज बहुत समय के बाद ऐसा विशालकाय जीव मेरे वश में आया है। इसे खाने के बाद कई दिनों के लिए मेरी भूख मिट जाएगी।” ऐसा सोचते हुए उसने हनुमान जी की छाया पकड़ ली। तब हनुमान जी ने सोचा, “अहो!!! सहसा किसने मुझे पकड़ लिया। मेरा पराक्रम क्षीण हो रहा है।” यह सोचते हुए उन्होंने अगल-बगल में और ऊपर-नीचे दृष्टि डाली। तभी उन्हें समुद्र के ऊपर उठा हुआ एक विशालकाय जीव दिखाई दिया। उस विकराल मुख वाली राक्षसी को देखकर उन्होंने सोचा, “वानरराज सुग्रीव ने जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीव की चर्चा की थी, निःसंदेह यह वही है।” यह सोचकर उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना आरंभ किया। उनका आकार बढ़ता देख सिंहिका ने भी अपना मुँह और फैला लिया। मेघों की घटा के समान गर्जना करती हुई वह हनुमान जी की ओर दौड़ी। महाकपि हनुमान जी ने उसके मर्मस्थानों को लक्ष्य बनाया। फिर अपने शरीर को छोटा करके वे उसके विकराल मुख में घुस गए और उसके हृदय को नष्ट करके बड़े वेग से ऊपर उछलकर बाहर भी निकल आए। अपने प्राण गँवाकर वह विकराल राक्षसी समुद्र के जल में गिर पड़ी।

इन सब विघ्नों को पार करके आगे बढ़ते हुए हनुमान जी अंततः समुद्र के दूसरे किनारे के पास तक पहुँच गए। वहाँ उन्हें वृक्षों से हरा-भरा लंका का द्वीप दिखाई दिया। उसे देखकर उन्होंने विचार किया, “मेरे इस विशाल शरीर एवं तीव्र वेग से राक्षसों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हो जाएगा और कौतूहलवश वे मेरा भेद जानने को उत्सुक हो जाएँगे। अतः मुझे अपना आकार छोटा कर लेना चाहिए।” ऐसा सोचकर उन्होंने अपने विशाल शरीर को पुनः छोटा कर लिया और वे अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। तब वे केवड़े, नारियल आदि के वृक्षों से भरे त्रिकूट पर्वत पर उतर गए और अमरावती के समान सुन्दर दिखाई देने वाली लंकापुरी को ध्यान से देखने लगे।

आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। सुन्दरकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️

सोमवार, 29 जुलाई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 39 (Valmiki Ramayana Part - 39)


पूर्व दिशा की ओर जाने वाले वानरों को भेजने के बाद सुग्रीव ने दक्षिण दिशा की ओर जाने के लिए नील, जाम्बवान, सुहोत्र, गज, गवाक्ष, गवय, वृषभ, मैन्द, द्विविद, सुषेण, गन्धमादन, उल्कामुख और अनंग आदि श्रेष्ठ वानरों के साथ हनुमान जी को चुना। अंगद को उन सबका नेता बनाकर उनके साथ सीता की खोज करने का भार सौंपा गया। उन वानरों से सुग्रीव ने कहा, “तुम लोग विंध्य पर्वत, नर्मदा नदी, गोदावरी, महानदी, कृष्णवेणी, वरदा आदि नदियों के तट पर तथा मेकल, उत्कल, दशार्ण, विदर्भ, ऋष्टिक, माहिषक, वंग, कलिंग, कौशिक आदि राज्यों में एवं आब्रवन्ती आदि नगरों में भी देखना। फिर आन्ध्र, पुण्ड्र, चोल, पाण्ड्य तथा केरल आदि में भी ढूँढना।” तत्पश्चात तुम लोग मलय पर्वत पर जाना। वहाँ चन्दन के सुन्दर वन हैं। उनमें भी तुम सीता की खोज करना। फिर स्वच्छ जल वाली कावेरी नदी को देखना और मलय पर्वत के शिखर पर अगस्त्य मुनि का दर्शन करके तुम लोग ताम्रपर्णी नदी को पार करना। उसके पश्चात समुद्र के तट पर जाना।

महर्षि अगस्त्य ने समुद्र के भीतर एक सुन्दर पर्वत को स्थापित किया है, जो महेन्द्रगिरि के नाम से विख्यात है। वह सुवर्णमय पर्वत समुद्र के भीतर गहराई तक घुसा हुआ है। उसी समुद्र के बीच में अंगारका नामक एक राक्षसी रहती है, जो छाया पकड़कर ही प्राणियों को खींचकर खा जाती है। समुद्र के उस पार एक द्वीप है, जिसका विस्तार सौ योजन है। वहाँ मनुष्यों की पहुँच नहीं है। वही द्वीप उस दुरात्मा रावण का निवास-स्थान है। तुम्हें पूरा प्रयत्न करे, वहाँ अवश्य ही सीता की खोज करनी चाहिए। लंका के सभी संदिग्ध स्थानों में खोजने के बाद यदि तुम्हें विश्वास हो जाए कि सीता वहाँ नहीं है, तो फिर तुम लंका को पार करके आगे बढ़ जाना। लंका से आगे बढ़ने पर सौ योजन विस्तृत समुद्र में एक पुष्पितक नाम का पर्वत है। तुम लोग उस पर्वत पर भी सीता को खोजना। उसे लांघकर आगे बढ़ने पर सूर्यवान नामक पर्वत मिलेगा, जो पुष्पितक से चौदह योजन दूर है। वहाँ जाने का मार्ग बड़ा दुर्गम है। उसके आगे तुम्हें वैद्युत नामक पर्वत मिलेगा, जहाँ सभी ऋतुओं में उत्तम फल-मूल प्राप्त होते हैं। उन्हें खाकर तुम लोग आगे बढ़ोगे, तब तुम्हें कुञ्जर नामक पर्वत दिखेगा, जिसके ऊपर विश्वकर्मा ने महर्षि अगस्त्य के लिए एक सुन्दर भवन बनाया है। उसी पर्वत पर भोगवती नगरी है, जिसमें सर्पों का निवास है। उसकी सड़कें बहुत बड़ी और विस्तृत हैं। महाविषैले भयंकर सर्प उस नगरी में निवास करते हैं। महाभयंकर सर्पराज वासुकि भी वहीं निवास करते हैं। तुम्हें विशेष रूप से उस नगरी में सीता की खोज करनी चाहिए। उसे पार करके आगे बढ़ने पर तुम्हें ऋषभ नामक पर्वत मिलेगा। वह पर्वत रत्नों से भरा हुआ है। वहाँ एक दिव्य चन्दन का वृक्ष है, जो अग्नि के समान प्रज्वलित होता रहता है। तुम लोग उसे कदापि स्पर्श मत करना क्योंकि अनेक गन्धर्व उसकी रक्षा में नियुक्त रहते हैं। उसके आगे भयानक पितृलोक है, जहाँ तुम लोगों को नहीं जाना चाहिए। वह भूमि यमराज की राजधानी है तथा वहाँ गहन अन्धकार छाया रहता है। तुम्हें केवल वहीं तक जाना है। उसके बाद तुम वापस लौट आना। एक माह के भीतर लौटकर जो मुझसे कहेगा कि ‘मैंने सीता का दर्शन किया है’, वही मेरे लिए सबसे प्रिय होगा।

इस प्रकार दक्षिण दिशा में जाने वाले वानरों को सुग्रीव ने सब-कुछ समझाया। इसके बाद उसने अपनी पत्नी तारा के पिता सुषेण के नेतृत्व में वानरों का एक दल पश्चिम की ओर जाने के लिए चुना। उन लोगों से सुग्रीव ने कहा, “वानरों! सौराष्ट्र, बाल्हीक, चन्द्रचित्र, कुक्षिदेश आदि के जनपदों व नगरों में जाकर सीता की खोज करो। वहाँ की सब नदियों, वनों और पर्वतों में भी सीता को ढूँढो। पश्चिम दिशा में अधिकांशतः मरुभूमि है, अत्यंत ऊँची और ठण्डी शिलाएँ हैं तथा पर्वतों से घिरे हुए बहुत-से दुर्गम प्रदेश हैं। उन सबमें सीता की खोज करते हुए तुम पश्चिम सागर तक जाना और वहाँ के प्रत्येक स्थान का निरीक्षण करना। समुद्र का जल तिमि नामक मत्स्यों व बड़े-बड़े ग्राहों से भरा हुआ है। समुद्र तट पर केवड़े, तमाल और नारियल के वनों में भली-भाँति विचरण करके सीता को ढूँढना। मोरवीपत्तन (मोरबी), जटापुर, अवन्ती, अंगलेपापुरी आदि में भी सीता की खोज करना। सिन्धु नदी और सागर के संगम पर सोमगिरि नामक विशाल पर्वत है। उसकी रमणीय चोटियों पर सिंह नामक विकराल पक्षी रहते हैं, जो तिमि नाम वाले विशाल मत्स्यों और हाथियों को भी अपने घोसलों में उठा लाते हैं। इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वालों को शीघ्रता से वहाँ का निरीक्षण करके आगे बढ़ जाना चाहिए। वहाँ से आगे समुद्र के बीच में पारियात्र पर्वत का शिखर दिखाई देगा, जिसका विस्तार सौ योजन है। तुम वहाँ भी जाकर सीता की खोज करना। उस पर्वत पर भयंकर गन्धर्व निवास करते हैं। कोई वानर उनके निकट न जाए और न उस पर्वत से कोई फल ले क्योंकि वे बलवान गन्धर्व वहाँ के फलों की रक्षा करते हैं। पारियात्र पर्वत के पास ही समुद्र में वज्र नामक एक और पर्वत है, जिसकी लंबाई और चौड़ाई बराबर है। उसका घेरा सौ योजन का है। उस पर्वत पर अनेक गुफाएँ हैं, उनमें तुम सीता की खोज अवश्य करना। समुद्र के चौथे भाग में चक्रवान पर्वत है। वहीं विश्वकर्मा ने सहस्त्रार चक्र (सुदर्शन चक्र) का निर्माण किया था। वहीं से भगवान विष्णु पञ्चजन तथा हयग्रीव नामक दानवों का वध करके पांचजन्य शंख तथा सुदर्शन चक्र लाए थे। उस चक्रवान पर्वत के शिखरों में भी सीता को ढूँढना। उससे आगे समुद्र की अथाह जलराशि में वराह नामक पर्वत है, जिसका विस्तार चौंसठ योजन है। वहीं प्राग्ज्योतिष नामक नगर है, जिसमें नरक नामक दुष्टात्मा दानव निवास करता है। उस पर्वत पर तथा वहाँ की गुफाओं में सीता को खोजना। वराह पर्वत को लांघने पर तुम्हें मेघगिरि नामक पर्वत मिलेगा, जिसमें लगभग दस हजार झरने हैं। उसके चारों ओर हाथी, सूअर, सिंह और बाघ विचरते हैं। उसी पर्वत पर देवताओं ने इन्द्र का अभिषेक किया था। वहाँ से आगे बढ़ने पर तुम्हें सूर्य की कान्ति से सोने जैसे चमकने वाले साठ हजार पर्वत दिखाई देंगे, जिनके मध्यभाग में मेरु पर्वत है। उसके शिखर पर विश्वकर्मा का बनाया हुआ एक दिव्य भवन है, जो अनेक प्रासादों से भरा हुआ है। वहाँ महात्मा वरुण निवास करते हैं। मेरु और अस्ताचल के बीच एक ताड़ का स्वर्णमय वृक्ष है, जो बहुत ऊँचा है। उसकी दस बड़ी शाखाएँ हैं और उसके नीचे की वेदी भी बड़ी अद्भुत है। उसके आस-पास भी सब स्थानों पर तुम सीता की खोज करना। मेरु पर्वत पर महर्षि मेरुसावर्णि रहते हैं। उन्हें प्रणाम करके तुम सीता का पता उनसे भी पूछना। पश्चिम दिशा में वानर इतनी ही दूर तक जा सकते हैं। उसके आगे सूर्य का प्रकाश नहीं है, अतः मुझे वहाँ के आगे की भूमि के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वहाँ तक जाकर तुम सीता का पता लगाओ और एक माह के भीतर ही यहाँ लौट आना।

इसके बाद सुग्रीव ने शतबलि नामक एक वीर वानर से कहा, “तुम अपने साथ बहुत-से पराक्रमी वानरों को लेकर उत्तर दिशा की ओर जाओ। उत्तर में म्लेच्छ, पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल, इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, कुरुक्षेत्र, मद्र, कंबोज, दरद, यवन, शकों के देश आदि में सीता की खोज करो। इसके बाद हिमालय पर्वत पर ढूँढो। वहाँ से आगे बढ़कर तुम लोग काल नामक पर्वत पर जाना, जिसके भीतर सोने की खदाने हैं। वहाँ से आगे तुम्हें सुदर्शन पर्वत और फिर देवसख नामक पहाड़ मिलेगा। उन सबके वनों, निर्झरों और गुफाओं में तुम सीता की खोज करना। वहाँ से आगे बढ़ने पर एक सुनसान मैदान मिलेगा, जो सौ योजन तक फैला हुआ है। वहाँ नदी, पर्वत, वृक्ष या जीव-जंतु कुछ भी नहीं हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले उस दुर्गम क्षेत्र को पार करने पर तुम्हें श्वेत वर्ण वाला कैलास पर्वत मिलेगा। वहीं विश्वकर्मा का बनाया हुआ कुबेर का रमणीय स्थान है, जो बादलों के समान सफेद दिखाई देता है। उसके पास ही एक बड़ा सरोवर है, जिसमें प्रचुर मात्रा में कमल पाए जाते हैं। उसके आगे तुम क्रौञ्चगिरि पर जाकर सीता को ढूँढना, जहाँ पर्वत के विदीर्ण हो जाने से एक गुफा बन गई है। वहाँ से आगे जाने पर तुम्हें मानस नामक शिखर मिलेगा, जो बिल्कुल सुनसान है। वहाँ पक्षी तक नहीं जाते हैं। उसके आगे बढ़ने पर तुम लोग मैनाक पर्वत पर पहुँचोगे, जहाँ मयदानव का घर है। तुम लोग वहाँ भी हर ओर सीता को खोजना। वहाँ एक सिद्धाश्रम है, जिसके पास ही वैखानस नामक एक प्रसिद्ध सरोवर है। उसके आगे जाने पर तुम्हें सूना आकाश दिखाई देगा। उसमें सूर्य, चन्द्र या तारों के दर्शन नहीं होंगे। न वहाँ मेघों की घटा दिखाई देगी और न उनकी गर्जना सुनाई पड़ेगी। फिर भी उसमें ऐसा प्रकाश होगा, मानो सूर्य की किरणों से ही वह प्रकाशित है। उसके आगे बढ़ने पर तुम्हें शैलोदा नदी मिलेगी। उसके दोनों तटों पर बाँस लगे हुए हैं। उन्हीं की सहायता से लोग उस पार आते-जाते हैं। वहाँ उत्तर कुरुदेश है। उत्तर दिशा में और आगे बढ़ने पर तुम्हें समुद्र मिलेगा। उस समुद्र के मध्यभाग में सोमगिरि नामक बहुत ऊँचा पर्वत है। स्वर्गलोक में जाने वाले लोग उस सोमगिरि का दर्शन करते हैं। भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा ब्रह्माजी वहीं निवास करते हैं। तुम लोग किसी तरह प्रयास करके सोमगिरि की सीमा तक तक अवश्य जाना। उसके आगे न सूर्य का प्रकाश है और न किसी देश की सीमा है। अतः आगे की भूमि के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता। तुम इन सब स्थानों में सीता की खोज करना और जिन स्थानों के नाम मैंने नहीं भी लिए हैं, वहाँ भी अवश्य ढूँढना।

इस प्रकार सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए वानरों के चार दल नियुक्त कर दिए। सुग्रीव को दृढ़ विश्वास था कि हनुमान जी अवश्य ही सीता का पता लगा लेंगे। इसलिए उन्हें अलग से बुलाकर उसने कहा, “हनुमान! केवल तुम में ही बल, बुद्धि, पराक्रम व नैतिक आचरण जैसे सभी गुण एक साथ विद्यमान हैं। असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य, देवता, समुद्र तथा पर्वतों सहित समस्त लोकों का तुम्हें ज्ञान है। पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, देवलोक अथवा जल में भी तुम्हारी गति को कोई रोक नहीं सकता है। इस भूमण्डल पर किसी से भी तुम्हारे तेज की तुलना नहीं हो सकती। अतः तुम अवश्य ही वह उपाय सोचो, जिससे सीता का पता चल सके। सुग्रीव की यह बात सुनकर श्रीराम भी समझ गए कि हनुमान जी के द्वारा ही यह कार्य पूर्ण होने की सबसे अधिक संभावना है। अतः थोड़ा विचार करने के बाद उन्होंने कहा, “वीरवर!!! तुम्हारे धैर्य एवं पराक्रम के बारे में सुग्रीव के विचार सुनकर मुझे यह आशा हो रही है कि तुम अवश्य ही सीता का पता लगा लोगे। अतः तुम मेरे नाम के अक्षरों वाली यह अँगूठी अपने साथ ले जाओ। इस चिह्न को देखकर सीता को विश्वास हो जाएगा कि तुम्हें मैंने ही भेजा है। तब वह निर्भय होकर तुमसे बात कर सकेगी। श्रीराम से वह अँगूठी लेकर हनुमान जी ने उसे अपने माथे से लगाया और फिर हाथ जोड़कर श्रीराम के चरणों में प्रणाम करके उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया। अन्य सब वानरों के समूह भी अलग-अलग दिशाओं में चले गए। उन सबके जाने पर श्रीराम ने सुग्रीव से पूछा, “मित्र! तुम समस्त भूमण्डल के सभी स्थानों का परिचय कैसे जानते हो?” तब सुग्रीव ने विनम्रतापूर्वक कहा, “श्रीराम! बाली ने जब क्रोधित होकर मुझ पर आक्रमण कर दिया था, तो उससे अपने प्राण बचाने के लिए मैं पूरी पृथ्वी पर इधर-उधर भागता रहा। यह पृथ्वी मुझे गोल घेरे के समान दिखाई दी और बाली के भय से भागते हुए मैंने सारी पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर डाली। उसी समय मैंने इन सारे पर्वतों, सरोवरों, नदियों तथा नगरों आदि को देखा था। जब बाली ने कहीं भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा, तो मुझे बड़ी चिंता हुई। उस समय परम-बुद्धिमान हनुमान जी ने मुझे स्मरण कराया कि केवल ऋष्यमूक पर्वत ही वह स्थान है, जहाँ मतङ्गमुनि के शाप के कारण बाली नहीं जा सकता। इसी कारण हम लोग ऋष्यमूक पर आकर रहने लगे।”

सुग्रीव के आदेश से सभी दिशाओं में भेजे गए वानर सीता की खोज में आगे बढ़ते रहे। श्रीराम और लक्ष्मण उसी प्रस्रवणगिरी पर ही रुके रहे और उन वानरों को लौटने के लिए जो एक मास की अवधि दी गई थी, उसके बीतने की प्रतीक्षा करने लगे। धीरे-धीरे एक मास बीत गया। पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं की ओर भेजे गए सब वानर एक-एक कर किष्किन्धा लौट आए और उन्होंने सुग्रीव को निराशाजनक समाचार सुनाया कि उनमें से किसी को भी सीता का पता नहीं मिला। अब सबकी आशा इसी बात पर टिकी थी कि हनुमान जी ही सीता का पता लगाकर लौटेंगे क्योंकि वे उसी दक्षिण दिशा में गए हैं, जिस ओर सीता को लेकर रावण गया था। उधर अंगद आदि वानरों के साथ हनुमान जी दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। दक्षिण दिशा का आरंभ विंध्याचल से माना जाता है, इसलिए उन लोगों ने वहीं से खोज आरंभ की। अनेक गुफाओं, जंगलों, पर्वतों, नदियों, सरोवरों आदि में ढूँढते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कहीं भी उन्हें सीता दिखाई नहीं दी। तब वे विंध्याचल के आस-पास की गुफाओं और वनों में भी खोजने लगे, किन्तु सीता का पता उन्हें फिर भी नहीं चला। इस प्रकार आगे बढ़ते-बढ़ते वे लोग महासागर के तट तक पहुँच गए। सुग्रीव ने जो एक मास की अवधि उन्हें दी थी, वह अब पूरी हो गई थी, किन्तु सीता का अभी भी कुछ पता नहीं चला था।

एक दिन वे सब वानर बैठकर चिन्ता करने लगे कि ‘शरद ऋतु तो बीत गई और शिशिर ऋतु आ गई है, किन्तु सुग्रीव का कार्य हमने पूरा नहीं किया। अतः अब आगे क्या किया जाए?’ तब युवराज अंगद ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा - वानरों! महाराज सुग्रीव ने जो समय तय किया था, अब वह बीत गया है। उनका स्वभाव बड़ा कठोर है और हमने उनका कार्य भी पूर्ण नहीं किया। अब हम यदि असफलता का समाचार लेकर उनके सामने जाएँगे, तो वे अवश्य ही हमें प्राण-दण्ड देंगे। अतः उनके सामने जाने से अच्छा है कि हमें अब अपने परिवार, धन-संपत्ति आदि का मोह छोड़कर यहीं उपवास करके प्राण त्याग देने चाहिए। सुग्रीव के हाथों मरने से अच्छा है कि हम स्वयं ही अपना जीवन समाप्त कर लें। सुग्रीव का तो पहले ही मुझसे वैर है। मुझे युवराज भी उन्होंने नहीं बनाया था, अपितु श्रीराम की कृपा से ही मुझे यह पद मिला। सीता को न खोज पाने की इस विफलता को आधार बनाकर सुग्रीव अवश्य ही मुझे प्राण दंड दे देंगे। अतः सुग्रीव के सामने जाने से अच्छा है कि मैं स्वयं ही अपने प्राण त्यागकर यमलोक को चला जाऊँ।कुछ ही समय पहले सीता की खोज करते हुए वे वानर एक मायावी गुफा में भी पहुँच गए थे, जहाँ फल-फूल, जल और खाने-पीने की अन्य सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। उस गुफा में जाना बड़ा दुर्गम था और वे लोग बड़ी कठिनाई से वहाँ से बाहर निकल पाए थे। अब समुद्र तट पर बैठे अंगद की चिंता को देखकर तार नामक वानर ने सुझाव दिया कि “हम सब लोग वापस उसी दुर्गम गुफा में चलें। वह गुफा माया से निर्मित है, अतः वहाँ न तो श्रीराम आ सकेंगे और न सुग्रीव का कोई भय रहेगा। सब वानरों ने उस बात के लिए सहमति दे दी। तब हनुमान जी को चिंता हुई कि ‘इस प्रकार तो अंगद ने सुग्रीव से विद्रोह ही कर दिया है और ये सब वानर यदि अंगद के पक्ष में हो गए, तो वे सुग्रीव को राज्य से भी वंचित कर सकते हैं क्योंकि युवा होने के कारण अंगद का बल और पराक्रम भी बहुत है’।

अतः बुद्धिमान हनुमान जी ने अंगद के पक्ष वाले वानरों में फूट डालने का विचार किया। सब वानरों को सुनाते हुए उन्होंने अंगद से कहा, “तारानन्दन! तुम अपने पिता के समान ही वीर हो और उनके समान ही वानरों के राज्य को संभालने में भी समर्थ हो। लेकिन मैं तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि इनमें से कोई भी वानर सुग्रीव से विरोध करके तुम्हारी ओर नहीं आ सकता। जाम्बवान, नील, सुहोत्र और मेरे जैसे किसी वानर को साम, दान, दण्ड, भेद आदि किसी भी उपाय से सुग्रीव से अलग करना असंभव है। सुग्रीव तुमसे अधिक प्रबल हैं और यह संभव नहीं है कि तुम हम सबको डराकर भी सुग्रीव से अलग कर सको। तुम्हें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि इस मायावी गुफा में वानर सुरक्षित रह सकेंगे। ऐसी गुफा को नष्ट करना लक्ष्मण के लिए बायें हाथ का खेल है। उनके पास ऐसे भयंकर नाराच हैं, जिनसे वे एक क्षण में ही पर्वतों को भी फोड़ सकते हैं। जैसे ही तुम इस गुफा में रहने जाओगे, ये सब वानर तुम्हें तुरंत ही त्याग देंगे क्योंकि इनका मन अपने पत्नी-बच्चों के पास लौटने के लिए व्याकुल है। तब तुम्हें सब लोगों से बिछड़कर गुफा में अकेले रहना पड़ेगा और लक्ष्मण के भय से तुम सदा पीड़ित रहोगे। सुग्रीव धर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे कभी तुम्हारा अहित नहीं करेंगे। वे सदा तुम्हारी माता का भी हित ही सोचते हैं और तुम्हारे अतिरिक्त उनका कोई पुत्र भी नहीं है। अतः तुम्हें भय त्यागकर उनके पास ही वापस चलना चाहिए। हनुमान जी की बातों का अंगद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने कहा, “जिस दुरात्मा सुग्रीव ने अपने बड़े भाई की रक्षा में नियुक्त होते हुए भी उसे गुफा में बंद कर दिया था, जिसने बड़े भाई के जीवित होते हुए ही उसकी पत्नी को ग्रहण कर लिया था, जिसने शपथ लेने के बाद भी श्रीराम के कार्य को भुला दिया था, उसे धर्मपरायण कैसे माना जाए? सुग्रीव तो क्रूर, धूर्त और निर्दयी है। वह किष्किन्धा लौटते ही मुझे प्राण दंड देगा अथवा सदा के लिए बन्दी बना लेगा। अतः यहीं प्राण त्याग देना मेरे लिए उचित है। ऐसा कहकर अंगद ने सब वरिष्ठ वानरों को प्रणाम किया और धरती पर कुश बिछाकर रोते-रोते वहीं बैठ गया। उसकी ऐसी दशा को देखकर अन्य वानर भी आँसू बहाने लगे और समुद्र तट पर कुश बिछाकर वे भी वहीं बैठ गए। उस स्थान के पास ही एक पर्वत की कन्दरा में एक विशाल गिद्ध भी बैठा हुआ था। उन वानरों को वहाँ देखकर भोजन करने के विचार से उसका हृदय हर्ष से खिल उठा।

आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍️



गृहिणी (Housewife)

 सभी महिलाओं को समर्पित🙏 बहुत ही सुंदर और सच लिखा✍️ है किसी ने स्त्रियों के लिए... 



रसायनशास्त्र से शायद ना पड़ा हो पाला,

पर सारा रसोईघर बना डाला प्रयोगशाला।


दूध में साइटरीक एसिड डालकर पनीर बनाना या 

सोडियम बाई कार्बोनेट से केक फूलाना।

चम्मच से सोडियम क्लोराइड का सही अनुपात तोलती, 

रोज कितने ही प्रयोग कर डालती हैं।


पर खुद को कोई  वैज्ञानिक नही 

बस गृहिणी ही मानती हैं।


रसोई गैस की बढ़े कीमते या सब्जी के बढ़े भाव,

पैट्रोल डीजल महँगा हो या तेल मे आए उछाल।

घर के बिगड़े हुए बजट को, 

झट से सम्हालती है।


अर्थशास्त्री होकर भी,

खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


मसालों के नाम पर भर रखा,

आयूर्वेद का खजाना।

गमलो मे उगा रखे हैं,

तुलसी गिलोय और करीपत्ता।


छोटी-मोटी बीमारियों को काढ़े से भगाना जानती है,

पर खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


सुंदर रंगोली और मेहँदी में,

नजर आती इनकी चित्रकारी।

सुव्यवस्थित घर में झलकती है,

इनकी कलाकारी।


ढोलक की थाप पर गीत गाती नाचती है,

कितनी ही कलाए जानती है पर 

खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


समाजशास्त्र ना पढ़ा हो शायद,

पर इतना पता है कि परिवार समाज की इकाई है।

परिवार को उन्नत कर समाज की उन्नति में,

पूरा योगदान डालती है।


पर खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


मनोवैज्ञानिक भले ही ना हो,

पर घर में सबका मन पढ लेती है।

रिश्तों के उलझे धागों को,

सुलझाना खूब जानती है।


पर खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


 योग ध्यान के लिए समय नहीं है,

 ऐसा अक्सर कहती हैं।

और प्रार्थना मे ध्यान लगाकर,

 घर की कुशलता मांगती है।


 खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


ये गृहणियां सच में महान है,

कितने गुणों की खान है।

सर्वगुण सम्पन्न हो कर भी

अहंकार नहीं पालती है,

खुद को बस गृहिणी ही मानती हैं।


साभार - सोशल मीडिया

बुधवार, 24 जुलाई 2024

आर्चर दम्पति के मञ्जूषा चित्र संग्रह के बहाने----

       12 जून को यू.के. नीलामीकर्ता लियोन एंड टर्नबुल में भारतीय लोक चित्रकलाओं की ऑनलाइन बिक्री में, 68 दुर्लभ भारतीय चित्रों में बिहार की दो लोक चित्रकला मिथिला पेंटिंग और मंजूषा पेंटिंग की बड़ी ही ऊँची कीमतों पर बिक्री हुई, ये तमाम पेंटिंग डब्लू जी आर्चर और उनकी पत्नी मिल्ड्रेड आर्चर के निजी संग्रह के थे। आप जब इस संग्रह के मंजूषा चित्रों को देखेंगे तो पायेंगे की इन चित्रों में कहीं से भी बिहुला और विषहरी कथा चित्रों के बिम्बों का प्रयोग नहीं है। 1920-30 ईo के इस मंजूषा चित्रों में बिहुला-बिसहरी कथानक के प्रतीकात्मक विम्बों व चरित्रों का चित्रण ना होना और अधिकांश चित्रों का संग्रह स्थल पूर्णियां जिला का होना अपने आप में कई अर्थों को समेटे हुए है। आइये थोड़ा सिलसिलेवार ढंग से इसको देखने-समझने की चेष्टा करते हैं।

  • प्रथम, नाम का विश्लेषण 

          इसे हम मंजूषा चित्रकला कहें की माली कला ये सोचने वाली बात है क्योंकि आर्चर दंपति ने अपने संग्रह में इसे "माली कला" कहा है। ऐसे में इन सौ वर्षों में माली कला का मंजूषा कला बन जाना क्या मात्र एक संयोग है या फिर कला के तथाकथित महारथियों का सोचा समझा प्रयोग ??? मेरे हिसाब से ये प्रयोग ज्यादा प्रतीत होता है क्योंकि इससे पुर्व भी बड़ी ही चतुराई से बिहार में लोक चित्रकलाओं के साथ ऐसा प्रयोग किया जा चुका है। मिथिला पेंटिंग को मधुबनी पेंटिंग बना देना, कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा ला टिकुली जैसे शिल्प को टिकुली पेंटिंग बना देना। ऐसे प्रयोग की परंपरा बिहार में रही है। मूल लोक सांस्कृतिक नाम माली कला को हटा जरा शिष्ट व साहित्यिक नाम मंजूषा चित्रकला देना माली जाती से जुड़े होने के कारण लोक की चीजों को निम्न रूप में देखने की बात भी हो सकती है।

  • द्वितीय, इस कला का क्षेत्र 

         जिस माली कला का नाम बदल मंजूषा चित्रकला कर इसके केंद्र को भागलपुर (अंग प्रदेश) के रूप में प्रचारित किया गया वह अंग प्रदेश इसका उद्गम या केंद्र कैसे हो सकता है यह मुझे बड़े ही ताज्जुब की बात प्रतीत होती है। आज भी आप जब उत्तर बिहार और बिहार से सटे उत्तर प्रदेश के गावों में भ्रमण करेंगे तो प्रत्येक गोसाउनिक घर (कुल देवी पूजा गृह), ब्रह्मबाबा स्थान (ग्राम देवता का पूजन स्थल) आदी जगहों पर स्थानीय माली समुदाय द्वारा कागज और संठी (एक प्रकार का जलीय पौधा) से बनाये एक प्रकार के स्ट्रक्चर (झांप) पर वही रंग वही ढंग के हाथी, मछली, साँप, तोता, मोर चित्रित किए मिल जायेंगे जो आर्चर दंपति के कला संग्रह में आप देख रहे हैं। और तो और भागलपुर से कोसों दूर पूर्णियाँ जिले का एक पूरा का पूरा गाँव इस कला कर्म से आज भी जुड़ा है जहाँ प्रत्येक घर में झाँप निर्माण का कार्य दिन रात आज भी चलता है। अब ऐसे में भले आप मेरी बातों से सहमत ना हों पर आर्चर दंपति के संग्रह में 01 चित्र को छोड़ तमाम चित्त्रों का प्राप्ति स्थल पूर्णियाँ जिला का होना, सौ साल से अधिक बीत जाने के बाद भी उत्तर बिहार के गाँवों में चित्रों के विम्बों व रंगों का आज भी लगभग सेम टू सेम होना, ये स्पष्ट करता है की भागलपुर इस माली कला का कभी केंद्र रहा ही नहीं।

  • तृतीय, आधुनिक माली कला के चित्रों में बिहुला विषहरी का प्रवेश 

         जैसा की अधिकांश विद्वानों ने जो पुस्तकें मंजूषा चित्रकला पर लिखी हैं उसमें उन्होंने ये लिखा की इस कला में चित्रण का विषय बिहुला-विषहरी की चंदू सौदागर से जुड़ी लोक कथा है जो भागलपुर जिले में प्रचलित है। अब इस एक लोक कथा को अगर इस चित्रकला का आधार माना जाय तो हम यह कह सकते हैं की इस लोक कथा का विस्तार क्षेत्र भागलपुर जिला और उसके कुछ सीमावर्ती जिला में ही मात्र होना चाहिए पर आपको जान के आश्चर्य होगा की सावन महीने में मिथिला क्षेत्र में नव विवाहित कन्याओं द्वारा मधुश्रावणी नाम का एक पर्व मनाया जाता है जिसमें बजाप्ते पुरे एक माह मिट्टी निर्मित सर्प मुर्ति रूप में विषहारा की विस्तृत पूजा एक नहीं बल्कि इनसे जुड़े कई लोक कथाओं के संग पुरे माह भर की जाती है। इतना ही नहीं आज भी खासकर वर्षा ऋतू में घर के नवजात शिशुओं व बच्चों को सर्प दंश से बचाने के लिए संध्या काल घर की महिलाओं द्वारा ढिबरी (एक प्रकार का परंपरागत प्रकाश लैंप) की रौशनी से आरती जैसी क्रिया के साथ एक लोक मंत्र का उच्चारण करती है, जिसके बोल कुछ इस तरह से हैं - 


"दिप दिप हारा जागु हारा

मोती-माणिक भरु हारा 

नाग बढ़े नागिन बढ़े 

नाग के कुल वंशा बढ़े 

सातो बहिन विषहारा बढ़े 

खोनु-मोनु मामा बढ़े 

जिनका प्रसादे सुख सूती सुख उठी 

सोना कटोरा में दूध भात खाई 

आस्तिक आस्तिक" 


       इसे फकरा कहें या जो कहें पर बचपन में मेरी दादी ने कई बार ये क्रिया मेरे पे की है, जिसका मैं जीवित साक्षी हूँ। तो अब प्रश्न उठता है की एक मात्र चंदू सौदागर वाली लोक कथा (जो की उत्तर बिहार में भी प्रचलित है) को मात्र आधार बना मंजूषा पेंटिग का केंद्र भागलपुर स्थापित करने के पीछे की हरबरी क्या है ? ये आज भी मुझे समझ नहीं आता !!!


           विषहरी और बिहुला के कथानक पर आधारित इस लोक गाथा के रूप में जब मंजूषा पेंटिंग जैसे नए नाम के साथ प्रयोग चल रहा था, तो एक वर्ग इसे प्रमाणिक साबित करने के लिए आधा-अधूरा रेफरेंस के साथ इस कला और लेखन कार्य में व्यस्त था तो एक दूसरा वर्ग इस कला के प्रशिक्षण की आड़ में पुरातन चित्रकृतियों को रिप्लेस कर उसकी जगह बिहुला-विषहरी तो चंदू सौदागार को चित्रित करवा इस क्षेत्र में इस कला का स्टेट अवार्डी और नेशनल अवार्डी पैदा करने में लगा था ताकी वर्षों बाद जब इस लोक कला की खोजबीन हो तो सारे के सारे तार घूम फिर के भागलपुर जिले में आ के जुड़ जायें। वो तो धन्यवाद दीजिये आर्चर दंपति को जिनके कलेक्शन ने इन तमाम प्रयासों को सच का आईना दिखाते हुए यह साबित किया है की जिसे हम आप मंजूषा पेंटिंग कहते हुए नहीं अघाते वह दरअसल माली कला के नाम से सम्पूर्ण उत्तर बिहार की कला है ना की मात्र भागलपुर जिले की...


Rakesh Kumar Jha✍️


Note - यह लेखक के अपने विचार है, इसकी सत्यता की पुष्टि हम नहीं कर रहे है। (This is the author's own opinion and we are not confirming its authenticity.)

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

भोजपुरी सोहर गीत (Bhojpuri sohar Geet/song)



कवना मासे बाबा मोरऽ विवाह कईले, 
कवना मासे विदा कईले हो।
हे लालना, कवना मासे सुतली सेजारियां की, 
देहियां मोरा भाड़ी भईले हो -२

आरी!!! रहरी के दाल रहरी आवन लागे, भात देखी हुली बड़े हो।
आरे अपने बलमुआं के पवती तऽ खुबे लतीअवती, 
की चुरकी उखारी लेती हो।
तऽ लालना लातन-लातन खुबे लतीअवती
की भाड़सा निकाली लेती हो -२

कवना मासे बाबा मोरऽ विवाह कईले, 
कवना मासे विदा कईले हो।
हे लालना, कवना मासे सुतली सेजारियां की, 
देहियां मोरा भाड़ी भईले हो -२

हे लालना, मन करे खापड़ा चबइती,
खटाई खुबे खइती नु हो।
तऽ लालना लातन-लातन खुबे लतीअवती
की भाड़सा निकाली लेती हो -२
❁´◡`❁

कवन मासे हमरो बियाह भईले,
कवन मासे गवना भईले हो।
हे लालना!!! कवन मासे सईया सेज सुतनी,
त कबों पाँव भारी भईले हो -२

वैशाख मासे हमरो बियाह भईले,
ज्येष्ठ मासे गवना भईले हो।
हे लालना!!! आषाढ़ मासे सईया सेज सुतनी,
सावन में पाँव भारी भईले हो -२

सईया जी के कईल धईल करनी,
त हमरो कमरीयां टूटे हो।
ऐ सासु जी दाबी आके हमरो पजरिया,
त होरिल्ला जन्म लिहे हो -२

लिखले हऽ कुंदन सोहरिया के,
रितिक गावेले हो।
हे लालना!!! गोतनी, देयादिन सबे जुटल,
महल में होखे सोहर हो -२

कवन मासे हमरो बियाह भईले,
कवन मासे गवना भईले हो।
हे लालना!!! कवन मासे सईया सेज सुतनी,
त कबों पाँव भारी भईले हो।

हे लालना!!! कवन मासे सईया सेज सुतनी,
त कबों पाँव भारी भईले हो
❁´◡`❁

अईसन मनोहर मंगल मूरत सुहावन सुन्दर सूरत हो।
ऐ राजा जी ऐकरे तऽ रहल ह जरूरत ई मुहूर्रत ख़ूबसूरत हो -२

ऐ राजा जी.....

बबुआ हमार जी.एम. होईये, ओहसे उपरा डी.एम. होईये हो -२
 लालना!!! हिन्द के सितारा सी.एम. होईये,
ओहसे उपरा पी. एम. होईये हो -२

ऐ लालना!!! एकरे तऽ रहला जरूरत मुहूर्रत ख़ूबसूरत हो -२

होईये वाईस चांसलर यूनिवर्सिटी के,
मेयर लंदन सिटी के नु हो -२
ऐ लालना!!! होम सेकेटरी गरमेंत्री के,
 हीरा अपना मिट्टी के नु हो -२

ऐ राजा जी, एकरे तऽ रहला जरूरत मुहूर्रत ख़ूबसूरत हो -२

बबुआ हमार ब्रिलिएंट होईये बेस्ट स्टूडेंट होईये हो-२
ऐ लालना!!! बात-चीत से 100% (हंड्रेड परसेंट) होईये,
अमेरिका के प्रेसीडेंट होईये हो -२

ऐ राजा जी, एकरे तऽ रहला जरूरत मुहूर्रत ख़ूबसूरत हो -२

मुनि बाबा अईसन बबुआ ज्ञानी होईये,
राजाजी जईसन दानी होईये हो -२
ऐ लालना!!! अखिल भूमंडल राजधानी होईये,
ऽ अपना बाबू जी अइसन दानी होईये हो-२

 ऐ राजा जी, अखिल भूमंडल राजधानीन होईये,
बापे अस खानदानी होईये हो।

ऐ राजा जी, ऐकरे तऽ रहला जरूरत मुहूर्रत ख़ूबसूरत हो।

बबुआ हमार महाराज होईये, राजाधिराज होईये हो -२
ऐ लालना!!! धातु में हीरा पोखराज होईये,
सिरवां के ताज होईये हो -२

ऐ लालना.....
❁´◡`❁

सोमवार, 15 जुलाई 2024

आपन भोजपुरी...





    भोजपुरी के आगे बढ़ावे में भिखारी ठाकुर जी के अमूल्य योगदान रहे निश्चित रूप से हम कह सक तानी की ईहा के योगदान के कवनों आदमी कबों ना भुलाई। ईहा के मशहूर भोजपुरी कवि, नाटककार और लोक कलाकार रहनी, राउर जन्म 18 दिसंबर, 1887 के कुतुबपुर गांव में भईल रहे, जवन अब सारण जिला, बिहार, भारत के एगो हिस्सा बा। राउर उल्लेखनीय योगदान अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप में फईलल रहे - नाटक, औरी एकालाप से लेके कविता औरी भजन तक।

     राउर लिखल नाटक बिदेसिया, गबरघिचोर, बेटी बेचवा, और भाई बिरोध के साथे औरी बहुत सारा रचना भोजपुरी साहित्य औरी संस्कृति पर एगो अमिट छाप छोड़ले रहे। रउरा के "भोजपुरी के शेक्सपियर" के रूप में सम्मानित कईल जाला औरी एकरा साथे लौंडा नाच लोक थिएटर परंपरा के जनक के रूप में भी जानल जाला। राउर विरासत दर्शक लोगन के बीच हमेशा गूंजत रहेला औरी जमीनी स्तर पर जीवन के सार, दर्द औरी आशा के  भली-भुत करेला। 🌟🎭🎵


आपन भोजपुरी


बाबूजी के मार के भाषा भोजपुरी

माई के दुलार के भाषा भोजपुरी

संघतिया इयार के भाषा भोजपुरी

मलिकाइन से प्यार के भाषा भोजपुरी।


रग-रग मे हमरा समाइल भोजपुरी,

फेरू संविधान में ना आइल भोजपुरी।


शादी-बियाहे के भात भोजपुरी

छबीस करोड़ लोगवा से नात भोजपुरी

बरसों से सहेजल आपन थात भोजपुरी

सरकारन से सहे जवन घात भोजपुरी।


राजनीति के फेरा मे अझुराइल भोजपुरी,

फेरू संविधान में ना आइल भोजपुरी।


मानल जाला एगो आपन रीत भोजपुरी

दुश्मनो से दुश्मन कहे मित भोजपुरी

छन्ने भर मे हो जाव अइसन प्रित भोजपुरी

अश्लीलता मे धसल अइसन गीत भोजपुरी।


तबो नाही घोंटते-घोंटाइल भोजपुरी,

फेरू संविधान में ना आइल भोजपुरी।


अनदेखी के भइल शिकार भोजपुरी

बोलले बिना भइल बेमार भोजपुरी

घरहीं मे रोवे हमार भोजपुरी

बुझे लागल लोगवा गँवार भोजपुरी।


हिन्दी-अंग्रेजी से लजाइल भोजपुरी,

फेरू संविधान में ना आइल भोजपुरी।


अपने लोग से माँगऽ तावे भिख भोजपुरी

बबुवा हमार अब सिख भोजपुरी

तनिको बुझाइ ना तिख भोजपुरी

कुछू ना बुझावऽ त लिख भोजपुरी।


अस्तित्व खातिर अपना चिलाइल भोजपुरी,

फेरू संविधान में ना आइल भोजपुरी।

       शम्श जमील✍️


Source: 

(1) Bhikhari Thakur - Wikipedia. https://en.wikipedia.org/wiki/Bhikhari_Thakur.

(2) Bhikhari Thakur: Life’s Nachaniya - Forward Press.  https://www.forwardpress.in/2017/01/bhikhari-thakur-lifes-nachaniya/.

(3) Bhikhari Thakur - Wikiwand. https://www.wikiwand.com/en/Bhikhari_Thakur.

(4) भिखारी ठाकुर - विकिपीडिया. https://bh.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0.

(5) Best Five Poems Of Bhikhari Thakur - Amar Ujala Kavya - भिखारी ठाकुर की https://www.amarujala.com/kavya/irshaad/best-five-poems-of-bhikhari-thakur.

(6) भिखारी ठाकुर: भोजपुरी के 'शेक्सपियर' और भारत के जीनियस की कहानी - BBC .... https://www.bbc.com/hindi/articles/cg3d9v8mde1o.

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

गुरुवार, 4 जुलाई 2024

वाल्मीकि रामायण भाग - 38 (Valmiki Ramayana Part - 38)


किष्किन्धा के बाहर अनेक भयंकर वानर विचर रहे थे, जिनके शरीर हाथियों के समान विशाल थे। लक्ष्मण को देखते ही उन्होंने अनेक शिलाएँ और बड़े-बड़े वृक्ष अपने हाथों में उठा लिए। उन सबको हथियार उठाते देख लक्ष्मण का क्रोध और भी बढ़ गया। यह देखकर वानर भय से काँप उठे और चारों ओर भागने लगे। उनमें से कुछ वानर भागकर सुग्रीव के महल में पहुँचे और उन्होंने लक्ष्मण के आगमन व क्रोध की सूचना सुग्रीव को दी। कामासक्त सुग्रीव उस समय तारा के साथ मग्न था, अतः उसने उन वानरों की बात पर ध्यान नहीं दिया। तब सुग्रीव के सचिव की आज्ञा से वे वानर बहुत डरते-डरते पुनः लक्ष्मण के पास गए। लक्ष्मण की आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं। उन्होंने अंगद को आदेश दिया, “बेटा! तुम जाकर सुग्रीव से कह दो कि ‘श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण अपने भाई के दुःख से दुःखी होकर आपके पास आए हैं और नगर के द्वार पर खड़े हैं। आपकी इच्छा हो तो उनकी आज्ञा का पालन कीजिए।’ केवल इतना कहकर तुम शीघ्र मेरे पास लौट आना।”

यह सुनकर अंगद के मन में बड़ी घबराहट हुई। उसने तुरंत जाकर सुग्रीव, तारा व रुमा को प्रणाम करके उन्हें बताया कि ‘सुमित्रानन्दन लक्ष्मण यहाँ पधारे हैं।’ मदमत्त (नशे में धुत्त) होने के कारण सुग्रीव को अंगद की बात सुनाई नहीं पड़ी। तब तक लक्ष्मण ने नगर में प्रवेश कर लिया था। उन्हें महल की ओर आता देख अनेक वानर एक साथ किलकिलाने लगे। उन वानरों को आशा थी कि इससे लक्ष्मण प्रसन्न होंगे और सुग्रीव की नींद भी टूटेगी। वानरों की इस गर्जना से सुग्रीव की नींद तो खुल गई, किन्तु नशे के कारण उसकी आँखें लाल थीं और मन भी संतुलित नहीं था। सुग्रीव के दो मंत्रियों प्लक्ष और प्रभाव उसे धर्म व अर्थ के विषय में उपयुक्त परामर्श देने के लिए नियुक्त थे। उन्होंने उसे समझाया कि ‘राम-लक्ष्मण के कारण ही आपको राज्य प्राप्त हुआ है। वे दोनों भाई तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हैं, अतः उनसे वैर करना उचित नहीं है। तब बुद्धिमान हनुमान जी ने सुग्रीव को समझाते हुए कहा, “कपिराज! श्रीराम ने लोकनिंदा की चिंता किए बिना आपको प्रसन्न करने के लिए पराक्रमी वाली का वध कर दिया था, किन्तु आपने सीता की खोज आरंभ करने के लिए जो समय निश्चित किया था, उसे आप अपने प्रमाद के कारण भूल गए हैं। वर्षा ऋतु कब की बीत चुकी है, फिर भी आपने सीता की खोज आरंभ नहीं करवाई है। इसी कारण लक्ष्मण यहाँ आए हैं।” आपने श्रीराम के प्रति अपराध किया है, अतः हाथ जोड़कर लक्ष्मण से क्षमा माँग लेना ही आपके लिए उचित है। श्रीराम यदि क्रोधित होकर धनुष हाथ में उठा लें, तो संपूर्ण जगत को जीत सकते हैं। उन्हें क्रोध दिलाना आपके लिए उचित नहीं है। राज्य की भलाई के लिए मंत्री को सदा राजा के हित की ही बात कहनी चाहिए। इसी कारण मैं भय छोड़कर आपको यह परामर्श दे रहा हूँ।

इधर महल के मार्ग पर बढ़ते हुए लक्ष्मण ने देखा कि किष्किन्धा नगरी एक बहुत बड़ी रमणीय गुफा में बसी हुई थी। अनेक प्रकार के रत्नों से भरी-पूरी उस नगरी में सुन्दर वस्त्र और मालाएँ धारण करने वाले अनेक वानर निवास करते थे। वे सब देवताओं तथा गन्धर्वों के पुत्र थे। चन्दन, अगर और कमल की मनोहर सुगन्ध उस नगरी में फैली हुई थी। उसकी लंबी-चौड़ी सड़कें मैरेय और मधु के आमोद से महक रही थीं। किष्किन्धा में कई मंजिलों वाले अनेक ऊँचे-ऊँचे महल थे। राजमार्ग पर ही अंगद का रमणीय भवन था। उसके पास ही हनुमान, नल, नील, सुषेण, तार, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों के भवन भी थे। अन्तःपुर में प्रवेश करते ही लक्ष्मण को अत्यंत मधुर वीणा की ध्वनि सुनाई दी। वीणा की उस मधुर धुन पर कोमल स्वर में कोई गा रहा था। वहाँ उन्हें अनेक युवती स्त्रियाँ भी दिखाई दीं। वे फूलों के गजरों व सुन्दर आभूषणों से विभूषित थीं और पुष्पहार बनाने में व्यस्त थीं। उनकी नूपुरों की झनकार और करधनी की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।पराई स्त्रियों को देखते ही लक्ष्मण ने अपने सज्जन स्वभाव के अनुसार तुरंत आँखें नीचे झुका लीं। वे थोड़ा पीछे हटकर एकांत में खड़े हो गए। महल की रौनक व चहल-पहल देखकर वे समझ गए कि श्रीराम के कार्य को पूर्ण करने के लिए सुग्रीव ने कोई प्रयास नहीं किया है। इससे उनका क्रोध और बढ़ गया तथा उन्होंने अपने धनुष पर भीषण टंकार दी, जिसकी ध्वनि से चारों दिशाएँ गूँज उठीं। उस ध्वनि को सुनकर सुग्रीव भी समझ गया कि लक्ष्मण वहाँ आ पहुँचे हैं। भय से उसका मन घबरा उठा। तब उसने परम सुन्दरी तारा से कहा, “सुन्दरी! पता नहीं लक्ष्मण के रोष का कारण क्या है। तुम ही जाकर देखो और मधुर वचनों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करो। तुम्हारे सामने वे क्रोध नहीं करेंगे क्योंकि सज्जन पुरुष कभी स्त्रियों के प्रति कठोर व्यवहार नहीं करते हैं। जब तुम अपनी मीठी बातों से उनका क्रोध को शांत कर दोगी, तब मैं सामने आकर उनसे मिलूँगा।”

यह सुनकर तारा लक्ष्मण से मिलने गई। मद्यपान के कारण उसके नेत्र भी चंचल हो रहे थे और पैर लड़खड़ा रहे थे। उसकी स्त्रीसुलभ लज्जा भी नष्ट हो गई थी। निःसंकोच होकर तारा ने लक्ष्मण से पूछा, “राजकुमार! आपके क्रोध का कारण क्या है? किसने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है? तारा को देखते ही लक्ष्मण ने अपनी दृष्टि झुका ली। स्त्री के सामने क्रोध करना भी उन्होंने उचित नहीं समझा। लक्ष्मण ने तारा से कहा, “तुम्हारा पति विषय-भोग में आसक्त होकर अपने कर्तव्य को भूल गया है। तुम उसे समझाती क्यों नहीं? श्रीराम का कार्य आरंभ करने के लिए सुग्रीव ने चार मास की अवधि निश्चित की थी। वह कब की बीत गई, किन्तु मद्यपान से उन्मत्त रहकर वह स्त्रियों के साथ भोग-विलास में ही लगा हुआ है। उसे अपने कर्तव्य और वचन का कोई ध्यान ही नहीं है। मित्र दो प्रकार के होते हैं - एक जो अपने मित्र के अर्थसाधन में लगा रहता है और दूसरा जो सत्य व धर्म का पालन करता है। तुम्हारे पति ने मित्रता के इन दोनों गुणों को त्याग दिया है। ऐसे में हम लोगों को क्या करना चाहिए? यह सुनकर तारा बोली, राजकुमार!!! अपने आत्मीय जनों पर क्रोध नहीं करना चाहिए। उनसे कोई भूल भी हो जाए, तो क्षमा कर देना चाहिए। यह सत्य है कि सुग्रीव इन दिनों कामासक्त हो गए हैं और उनका मन किसी और बात में नहीं लगता है। लेकिन काम की शक्ति ही ऐसी है कि कामासक्त मनुष्य देश, काल, धर्म, अर्थ सबको भूल जाता है। बड़े-बड़े तपस्वी भी इसके मोह में फँसकर स्वयं को रोक नहीं पाते हैं, फिर चंचल स्वभाव वाले राजा सुग्रीव सुख-भोग में आसक्त क्यों न हों? आप उन्हें अपना भाई समझकर क्षमा कर दीजिए।अपनी कामासक्ति में सब-कुछ भूल जाने के बाद भी सुग्रीव ने श्रीराम के कार्य को नहीं भुलाया है। उनके मन में सदा उसी कार्य का विचार बना रहता है। बहुत पहले ही उन्होंने इस कार्य को आरंभ करने की आज्ञा दे दी है। दूर-दूर के विभिन्न पर्वतों पर निवास करने वाले व अपनी इच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकने वाले करोड़ों महापराक्रमी वानर सुग्रीव की आज्ञा से ही यहाँ उपस्थित हो रहे हैं। अतः आप क्रोध त्यागकर भीतर आइये।

यह सुनकर लक्ष्मण ने भीतर प्रवेश किया। वहाँ एक सोने के सिंहासन पर बिछे बहुमूल्य बिछौने पर उन्हें सुग्रीव दिखाई दिया। उसने रूमा को अपने आलिंगन में जकड़ा हुआ था और अनेक युवती स्त्रियाँ उसे घेरकर खड़ी थीं। यह देखकर लक्ष्मण को भयंकर क्रोध आया। उन्हें इस प्रकार सहसा अपने सामने देखकर सुग्रीव भी भय से काँपने लगा। वह अपने आसन से कूदकर लक्ष्मण के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। क्रोध से भरे लक्ष्मण ने सुग्रीव से कहा, वानरराज!!! धैर्यवान, कुलीन, जितेन्द्रिय, दयालु और सत्यवादी राजा ही संसार में आदर पाता है। तुम अनार्य, कृतघ्न और मिथ्यावादी हो क्योंकि श्रीराम की सहायता से तुमने अपना काम तो बना लिया, किन्तु उसके बाद तुमने उनकी सहायता के समय मुँह मोड़ लिया। जो अपने उपकारी मित्रों के सामने की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाता है, ऐसे पापी एवं कृतघ्न राजा का वध करने में कोई अधर्म नहीं है। वानर!!! तुम यह न भूलो कि बाली को श्रीराम ने मृत्यु के जिस मार्ग पर भेजा था, वह अभी बंद नहीं हुआ है। अवश्य ही तुम उनके धनुष की शक्ति को भूल गए हो। यदि तुम्हें अपने प्राण प्यारे हैं, तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। क्रोधित लक्ष्मण की बातें सुनकर चन्द्रमुखी तारा ने उनसे कहा, कुमार लक्ष्मण!!! जीवन में बहुत कष्ट उठाने के बाद अब सुख प्राप्त हुआ है। इसी कारण वे सब-कुछ भूलकर इसी में मग्न हो गए थे। फिर भी श्रीराम के उपकार को उन्होंने कभी नहीं भुलाया है, आप तो बुद्धिमान हैं। आपको इस प्रकार क्रोध नहीं करना चाहिए। आप दोनों भाइयों को सुग्रीव के अपराध को क्षमा कर देना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुग्रीव श्रीराम का कार्य अवश्य ही पूरा करेंगे। वानरराज बाली ने मुझे बताया था कि लंका में कई हजार करोड़ राक्षस रहते हैं। उनसे युद्ध करने के लिए सुग्रीव ने भी असंख्य वानर वीरों की सेनाओं को दूर-दूर से बुलवाया है। वे सब वानर आज ही यहाँ पहुँचने वाले हैं। उनके आते ही सुग्रीव श्रीराम का कार्य आरंभ कर देंगे।

यह सुनकर लक्ष्मण का क्रोध शांत हुआ। तब सुग्रीव ने भी विनम्रतापूर्वक कहा, राजकुमार!!! श्रीराम के उपकार को मैं कभी नहीं भूल सकता। उनका पराक्रम अद्भुत है। वे अवश्य ही रावण का वध करके सीता को पुनः प्राप्त करेंगे और इसमें मैं उनका तुच्छ सहायक बनूँगा। मुझसे यदि कोई अपराध हुआ है, तो आप दोनों भाई उसे क्षमा कर दीजिए। तब लक्ष्मण ने कहा, “वानरराज सुग्रीव! तुम्हारे मित्र श्रीराम अभी पत्नी के वियोग से दुःखी हैं। अतः तुम मेरे साथ चलकर उन्हें सांत्वना दो। क्रोध में मैंने जो कठोर बातें तुमसे कह दी थीं, उनके लिए तुम भी मुझे क्षमा करो। यह सुनकर सुग्रीव ने हनुमान जी से कहा, “महेन्द्र, हिमवान, विन्ध्य, कैलास, मन्दराचल, उदयाचल, अस्ताचल, पद्माचल, अंजन पर्वत, मेरुपर्वत, धूम्रगिरि, महारुण पर्वत आदि सभी पर्वतों पर जो श्रेष्ठ वानर निवास करते हैं, समुद्र के उस पार जो वानर रहते हैं, बड़े-बड़े रमणीय वनों में जो वानर हैं, तुम उन सब श्रेष्ठ वानरों को यहाँ बुलवाओ। उन्हें बुलवाने के लिए जो वानर पहले भेजे गए थे, उनसे भी अधिक शक्तिशाली तथा वेगवान वानरों को भेजकर साम, दान आदि उपायों से पूरे भूमण्डल के समस्त श्रेष्ठ वानरों को शीघ्र यहाँ लाओ। जो वानर दस दिनों के भीतर यहाँ न आएँ, उन सबको मृत्यु-दण्ड दिया जाए। यह सुनकर हनुमान जी ने अनेक पराक्रमी वानरों को चारों दिशाओं में भेजा। सुग्रीव का आदेश मिलते ही वे सब वानर भय से काँप उठे और शीघ्र ही किष्किन्धा आ पहुँचे। सुग्रीव ने जिन वानरों को भेजा था, वे सब ओर से लौटते समय वहाँ की विशेष औषधियाँ, पुष्प, फल-मूल आदि भी सुग्रीव को अर्पित करने के लिए अपने साथ ले आए। उन सबको देखकर व उनसे उपहार पाकर सुग्रीव को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन सबसे बातचीत करके सुग्रीव ने उन्हें विदा कर दिया।

इसके बाद सुग्रीव ने अपने सेवक वानरों को आज्ञा दी, “वानरों! तुम लोग शीघ्र ही मेरी पालकी यहाँ ले आओ। पालकी आने पर लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों उस पर आरूढ़ हुए। उस समय सुग्रीव के ऊपर एक श्वेत छत्र लगाया गया था। शंख और भेरी की ध्वनि की साथ लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए सुग्रीव और लक्ष्मण किष्किन्धा से बाहर निकले व श्रीराम के निवास-स्थान पर गए। श्रीराम के सामने जाते ही सुग्रीव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तब प्रसन्न होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगाया और उनका स्वागत किया। फिर श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “वानरशिरोमणि! जो उचित समय पर धर्म, अर्थ और काम का आनंद लेता है, वही श्रेष्ठ राजा है। जो धर्म और अर्थ को त्यागकर केवल भोग-विलास में ही रमा रहता है, वह वृक्ष की शाखा पर सोये हुए मनुष्य के समान है। नीचे गिरने पर ही उसकी आँख खुलती है। मित्र!!! अब हम लोगों के लिए कार्य करने का समय आ गया है। तुम अब अपने मंत्रियों के साथ इस बारे में विचार करो। यह सुनकर सुग्रीव ने विनम्रता से कहा, “श्रीराम!!! आपकी कृपा से ही मुझे यह राज्य और यह सुख प्राप्त हुआ है। मैं आपके इस उपकार को कभी नहीं भूल सकता। सैकड़ों बलवान रीछ, वानर व लंगूर चारों दिशाओं से यहाँ आ गए हैं। वे सब बड़े भयंकर हैं और बीहड़ वनों तथा दुर्गम स्थानों के जानकार हैं। जो देवताओं व गन्धर्वों के पुत्र हैं, वे अपनी इच्छा से रूप धारण करने में समर्थ हैं। बहुत-से अन्य श्रेष्ठ वानर भी हैं, जो अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर किष्किन्धा की ओर प्रयाण कर चुके हैं। शीघ्र ही वे भी यहाँ आ जाएँगे। रावण की राक्षस-सेना से युद्ध करने के लिए वे सब आपके साथ चलेंगे।
यह सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए।
श्रीराम और सुग्रीव के बीच ऐसी बातचीत चल ही रही थी कि तभी आकाश में चारों ओर धूल के बादल दिखने लगे और वानरों की गर्जना से वन-कानन, पर्वत सब गूँज उठे। चारों दिशाओं से लाखों की संख्या में वानरों की सेनाएँ एक-एक कर वहाँ पहुँचने लगीं और किष्किन्धा के आस-पास की सारी भूमि उन वानरों से भर गई। उन सब वानरों से मिलकर सुग्रीव ने पुनः श्रीराम के पास लौटकर कहा, रघुनन्दन! वानर-सेना अब आपका कार्य करने के लिए यहाँ उपस्थित है। अब आपकी जैसी आज्ञा हो, उसी के अनुसार हम सब लोग कार्य करेंगे। तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, सौम्य!!! पहले यह तो पता लगाओ कि सीता जीवित है या नहीं। जिस देश में रावण निवास करता है, वह कहाँ है? जब सीता के जीवित होना का और रावण के निवास-स्थान का निश्चित पता मिल जाएगा, तब तुम्हारे साथ मिलकर मैं आगे का निर्णय लूँगा। यह सुनकर सुग्रीव ने तुरंत ही विनत नामक वानर सेनापति को बुलाया और उसे आदेश दिया, “तुम एक लाख वेगवान वानरों के साथ सीता व रावण के निवास की खोज में पूर्व की दिशा की ओर जाओ। गंगा, सरयू, कौशिकी, यमुना, सरस्वती, सिंधु, शोणभद्र, कालमही आदि नदियों के किनारे तुम उन्हें ढूँढो। ब्रह्माल, विदेह, मालव, काशी, कोसल, मगध, पुण्ड्र तथा अंग आदि राज्यों व जनपदों में छानबीन करो। रेशम के कीड़ों की उत्पत्ति के स्थानों व चाँदी की खानों में भी ढूँढो। मंदराचल की चोटी पर जो गाँव बसे हैं, उनमें भी देखो। समुद्र के भीतर स्थित पर्वतों पर व उनके बीच बने द्वीपों के विभिन्न नगरों में भी ढूंढो। तुम लोग तैरकर या नाव से समुद्र को पार करके सात राज्यों वाले यवद्वीप (जावा), सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) आदि में भी ढूँढने का प्रयास करो। यवद्वीप के आगे जाने पर शिशिर नामक पर्वत मिलेगा, जहाँ देवता और दानव निवास करते हैं। ऐसे सभी पर्वतों में तुम देखना। फिर समुद्र के उस पार जहाँ सिद्ध और चारण निवास करते हैं, वहाँ तुम लाल जल से भरी और तीव्र वेग वाली शोण नदी के तट पर पहुँचोगे। उसके तट पर बने तीर्थों और वनों में भी सीता की खोज करना। उसके आगे तुम एक महाभयंकर समुद्र तथा उसके द्वीपों को देखोगे। इक्षुरस का वह समुद्र काले मेघ के समान काला दिखाई देता है। उसमें बड़ी भारी गर्जना सुनाई देती है। उस महासागर को पार करने पर तुम लोहित नामक भयंकर सागर के तट पर पहुँचोगे और वहाँ तुम्हें शाल्मलिद्वीप (ऑस्ट्रेलिया/न्यूज़ीलैंड?) दिखाई देगा। उस द्वीप में भयंकर शरीर वाले मंदेह नामक राक्षस निवास करते हैं, जो चट्टानों पर उलटे लटके रहते हैं। दिन में सूर्य की गर्मी बढ़ने पर वे समुद्र के जल में गिर पड़ते हैं, पर रात में पुनः उन्हीं चट्टानों पर लटक जाते हैं। उनका यह क्रम निरंतर चलता रहता है। शाल्मलिद्वीप से आगे बढ़ने पर तुम्हें ऊँची-ऊँची लहरों वाला क्षीरसागर (प्रशांत महासागर?) दिखाई देगा। उसके बीच में ऋषभ नामक एक ऊँचा पर्वत है। क्षीरसागर को पार करके जब तुम आगे बढ़ोगे, तो एक और समुद्र मिलेगा, जिसमें एक भीषण ज्वालामुखी विद्यमान है। उसके उत्तर में तेरह योजन की दूरी पर एक बहुत ऊँचा पर्वत है। उसके शिखर पर तुम्हें भगवान अनंत बैठे दिखाई देंगे। उस पर्वत के ऊपर उनकी स्वर्णमयी ध्वजा दिखती है, जिसकी तीन शिखाएँ हैं और उसके नीचे वेदी बनी हुई है (दक्षिण अमरीका में पेरू का पराकास (Paracas) त्रिशूल?)। यहीं पूर्व दिशा की सीमा समाप्त होती है। उसके आगे उदय पर्वत (एंडीज पर्वत?) है, जो सौ योजन लंबा है। उसका सौमनस नामक शिखर है, जिसकी ऊँचाई दस योजन और चौड़ाई एक योजन है। पूर्वकाल में वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने अपना पहला चरण उसी सौमनस शिखर पर तथा दूसरा मेरुपर्वत के शिखर पर रखा था। तुम्हें वहाँ भी चारों ओर सीता का पता लगाना चाहिए। वानरों! तुम केवल उदयगिरि तक ही जा सकोगे क्योंकि उसके आगे न तो सूर्य का प्रकाश है, न राज्यों की कोई सीमा है। अतः उसके आगे की भूमि के बारे में मुझे कुछ भी मालूम नहीं है। तुम लोग वहाँ तक जाकर सीता और रावण के स्थान का पता लगाना और एक मास पूरा होने से पहले लौट आना।

ऐसा कहकर सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए उन वानरों को पूर्व दिशा की ओर भेजा। इसके बाद उसने दक्षिण दिशा की ओर जाने के लिए कुछ श्रेष्ठ वानरों को चुना।

आगे अगले भाग मे..
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस

जय श्रीराम 🙏

पं रविकांत बैसान्दर✍️