बाली के मृत शरीर को देखकर तारा भीषण विलाप करने लगी। उसकी यह दशा देखकर सुग्रीव को भारी पछतावा हुआ। उसकी आँखों से भी आँसुओं की धारा बहने लगी और मन खिन्न हो गया। तब श्रीराम के निकट जाकर सुग्रीव ने कहा, नरेन्द्र!!! आपने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ही बाली-वध का कार्य संपन्न कर दिखाया, किन्तु अब मेरा जीवन निंदनीय हो गया है। बाली की मृत्यु से दुःखी होकर महारानी तारा, राजकुमार अंगद व सारे प्रजाजन भीषण विलाप कर रहे हैं। यह देखकर अब राज्य पाने की कामना मेरे मन से भी नष्ट हो गई है। भाई ने मेरा बहुत तिरस्कार किया था, इसलिए क्रोध के कारण मैंने उसके वध की अनुमति दे दी, किन्तु अब मुझे बड़ा पश्चाताप हो रहा है। संभवतः अब यह जीवन भर बना रहेगा। भाई के वध से प्राप्त यह राज्य लेने से अच्छा है कि मैं आजीवन ऋष्यमूक पर्वत पर ही जैसे-तैसे जीवन-निर्वाह करता रहूँ। श्रीराम!!! कोई कितना ही स्वार्थी क्यों न हो, किन्तु राज्य के सुख के लिए अपने भाई का वध कैसे कर सकता है! एक बार युद्ध के समय धर्मात्मा बाली ने मुझे वृक्ष के प्रहार से घायल कर दिया और मैं बड़ी देर तक कराहता रहा। तब उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए कहा था कि ‘जाओ, मेरे साथ फिर से युद्ध करने मत आना। मैं तुम्हारा वध नहीं करना चाहता। बाली ने कभी मेरी मृत्यु की कामना नहीं की क्योंकि इससे उनकी ख्याति में कलंक लगता। लेकिन मैं ऐसा निकृष्ट हूँ कि मैंने अपने क्रोध और स्वार्थ के कारण अपने ही भाई का वध करवा दिया। यह शोक अब मुझे व्याकुल कर रहा है। अतः अब मैं भी अपने भाई के साथ ही अग्नि में प्रवेश करके प्राण दे दूँगा। मेरी मृत्यु हो जाने पर भी ये वानर आपका सारा कार्य सिद्ध करेंगे। मैं कुलघाती हूँ, हत्यारा हूँ, अपराधी हूँ, अतः आप मुझे प्राण त्यागने की अनुमति दीजिए क्योंकि मैं जीवित रहने योग्य नहीं हूँ।
सुग्रीव की ये बातें सुनकर श्रीराम भी शोक में डूब गए और उनके नेत्रों से भी आँसू बहने लगे। दो घड़ी तक वे इसी प्रकार शोकाकुल रहे। फिर उन्होंने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, तो उन्हें शोकमग्ना तारा दिखाई दी, जो अपने मृत के पति के पास बैठकर विलाप कर रही थी। तब श्रीराम उसकी ओर बढ़े। श्रीराम को आता देखकर बाली के मंत्रियों ने तारा को वहाँ से उठाया। ऐसा करने पर वह बार-बार स्वयं को उनसे छुड़ाने लगी और छटपटाने लगी। तभी उसने श्रीराम को देखा। उनके पास जाकर वह बोली, श्रीराम!!! जिस बाण से आपने मेरे पति का वध किया, उसी बाण से मुझे भी मार डालिए ताकि मैं भी मरकर अपने पति के पास चली जाऊँ। वीर बाली मेरे बिना कहीं भी सुखी नहीं रह सकेंगे। जब स्वर्गलोक में पहुँचने पर उन्हें मैं नहीं दिखाई दूँगी, तो उनका मन वहाँ कदापि नहीं लगेगा। आप तो स्वयं ही जानते हैं कि पत्नी के विरह का दुःख कैसा भीषण होता है। अतः आप मेरा भी वध कर दीजिए, ताकि बाली को वह दुःख न सहना पड़े।
यह सुनकर श्रीराम ने उसे सांत्वना देते हुए समझाया, “वीरपत्नी! तुम मृत्यु जैसे विपरीत विचार को त्याग दो क्योंकि विधाता ने ही इस संपूर्ण जगत की सृष्टि की है। जन्म एवं मृत्यु का निर्णय भी वही करता है। तीनों लोकों में कोई भी प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। यह भी विधाता का ही विधान है कि तुम्हें पुनः सुख व आनंद प्राप्त होगा तथा तुम्हारा पुत्र युवराज बनेगा। वीरों की पत्नियाँ इस प्रकार विलाप नहीं करती हैं, अतः तुम भी अब शोक न करो। श्रीराम के सांत्वनापरक वचनों को सुनकर तारा का मन शांत हो गया और उसने रोना बंद कर दिया। इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव, अंगद आदि को भी सांत्वना देते हुए समझाया, “इस प्रकार शोक-संताप करने से मृतक की कोई भलाई नहीं होती। इस संसार में काल ही सबका संचालन करता है। उसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। अतः अब तुम लोगों को भी आँसू पोंछकर लोकाचार का पालन करना चाहिए। यह सुनकर लक्ष्मण ने नम्रतापूर्वक सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! अब तुम अंगद आदि के साथ मिलकर बाली का दाह-संस्कार करो। अपने सेवकों को आज्ञा दो कि वे प्रचुर मात्रा में सूखी लकड़ियाँ व दिव्य चंदन ले आएँ। अंगद को धैर्य बँधाओ तथा पुष्पमाला, विभिन्न प्रकार के वस्त्र, घी, तेल, सुगन्धित वस्तुएँ आदि लाने को कहो। शीघ्र ही एक पालकी भी बुलवाओ। जो बलवान और समर्थ वानर हैं, वे उसी पालकी में बाली को यहाँ से श्मशान भूमि में ले चलेंगे। अंगद व अन्य वानरों के साथ सुग्रीव ने बाली के शव को अनेक प्रकार के अलंकारों, फूलों और वस्त्रों से शव को सजाया गया। फिर सुग्रीव ने आज्ञा दी, “मेरे बड़े भाई का अंतिम संस्कार शास्त्रानुकूल विधि से संपन्न किया जाए। बहुत-से वानर पालकी के आगे-आगे अनेक रत्नों को लुटाते हुए चलें। जिस प्रकार राजाओं के अंतिम संस्कार उनकी समृद्धि के अनुसार किए जाते हैं, उसी प्रकार बहुत-सा धन लगाकर सब वानर महाराज बाली की अंत्येष्टि करें।”
तारा तथा बाली की अन्य सभी पत्नियाँ भी बाली को पुकारती हुईं विलाप करने लगीं और पालकी के पीछे-पीछे चलने लगीं। तुंगभद्रा नदी के एकांत तट पर वानरों ने एक चिता तैयार की। उसके पास पहुँचकर शव को पालकी से उतारा गया और सब शोकमग्न वानर निकट ही बैठ गए। तब तारा ने पुनः अपने पति के शव को देखकर उसका मस्तक अपनी गोद में ले लिया और अत्यंत दुःखी होकर वह विलाप करने लगी। अन्य स्त्रियों ने समझा-बुझाकर उसे वहाँ से उठाया। इसके बाद सुग्रीव की सहायता से अंगद ने अपने पिता के शव को चिता पर रखा। फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार चिता को अग्नि देकर उसने चिता की प्रदक्षिणा की। तब पिता की मृत्यु का विचार करके पुनः अंगद का मन शोक से व्याकुल हो उठा। इस प्रकार दाह-संस्कार करने के बाद सुग्रीव सहित सभी वानरों ने तुङ्गभद्रा के जल से बाली को जलांजलि दी। श्रीराम ने ये सभी कार्य पूर्ण करवाए। यह सब कार्य पूर्ण होने के बाद भीगे वस्त्रों वाले शोक-संतप्त सुग्रीव को चारों ओर से घेरकर सभी मुख्य वानर श्रीराम के पास आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब हनुमान जी ने कहा, “श्रीराम! आपकी कृपा से सुग्रीव को यह विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ है। अब यदि आप आज्ञा दें, तो इनका राज्याभिषेक किया जाए। उसके उपरान्त सुग्रीव भी रत्नों व मालाओं के द्वारा आपकी विशेष पूजा करेंगे। अतः आप किष्किन्धा नगरी में पधारने की कृपा करें और सुग्रीव का राज्याभिषेक करके सभी वानरों का हर्ष बढ़ाएँ। यह सुनकर श्रीराम ने उत्तर दिया, “वत्स हनुमान! मैं पिता की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, अतः चौदह वर्ष पूर्ण होने तक मैं किसी ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करूँगा। तुम सब श्रेष्ठ वानर सुग्रीव को साथ लेकर किष्किन्धा में प्रवेश करो और वहाँ शीघ्र ही विधिपूर्वक इनका राज्याभिषेक संपन्न करो।”
इसके बाद श्रीराम ने सुग्रीव से कहा - मित्र! तुम तो लौकिक और शास्त्रीय सभी व्यवहार जानते ही हो। कुमार अंगद तुम्हारे बड़े भाई के ज्येष्ठ पुत्र हैं और बड़े पराक्रमी भी हैं। इनका हृदय भी उदार है। वे युवराज पद के सर्वथा योग्य हैं। अतः इनका भी तुम युवराजपद पर अभिषेक करो। अब वर्षा-काल के चार मास आरंभ हो रहे हैं, जिनमें से पहला श्रावण मास अब आ गया है। निकलने का यह उपयुक्त समय नहीं है। अतः तुम अपनी सुन्दर नगरी में जाओ और मैं लक्ष्मण के साथ इस पर्वत की गुफा में ही निवास करूँगा। कार्तिक मास आने पर तुम सीता खोज के लिए निकलने की तैयारी करना। श्रीराम की आज्ञा पाकर सुग्रीव आदि सभी वानर किष्किन्धापुरी में चले गए। नगर में प्रवेश करने पर सुग्रीव को देखकर प्रजाजनों ने धरती पर माथा टेककर सम्मानपूर्वक उन्हें प्रणाम किया। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को विविध प्रकार के रत्न, वस्त्र तथा भोजन आदि से संतुष्ट करने के बाद सुग्रीव के राज्याभिषेक की तैयारी आरंभ हुई। सबसे पहले मंत्रोच्चार के साथ वेदी पर अग्नि प्रज्वलित करके आहुति दी गई। फिर रंग-बिरंगी पुष्पमालाओं से सुशोभित अट्टालिका पर एक सोने का सिंहासन रखा गया और फिर उसके ऊपर एक सुन्दर बिछौने पर सुग्रीव को पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बिठाया गया। फिर अनेक नदियों, तीर्थों और सभी समुद्रों से लाए गए जल को एकत्र करके सोने के कलशों में रखा गया। हनुमान, जाम्बवान आदि श्रेष्ठ वानरों ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार साँड़ के सींगों द्वारा उस जल से सुग्रीव का अभिषेक किया। फिर सुग्रीव ने अंगद को गले लगाकर युवराज पद पर उसका भी अभिषेक किया। इसके बाद सुग्रीव ने श्रीराम के पास जाकर कार्यक्रम संपन्न हो जाने की सूचना दी और फिर वह किष्किन्धा को लौट गया।
सुग्रीव के किष्किन्धा चले जाने पर श्रीराम भी अपने भाई लक्ष्मण के साथ प्रस्रवणगिरि पर रहने चले गए। वहाँ चीतों और मृगों की आवाज गूँजती रहती थी। भयंकर गर्जना करने वाले सिंह, अनेक रीछ, वानर, लंगूर, बिलाव आदि प्राणी वहाँ निवास करते थे। अनेक प्रकार की झाड़ियों, लताओं व घने वृक्षों से वह स्थान चारों ओर से ढँका हुआ था। उस पर्वत के शिखर पर एक बड़ी और विस्तृत गुफा थी। दोनों भाइयों ने उसी को अपना आश्रय-स्थल बनाया। उस गुफा के पास ही एक नदी बहती थी। उसमें रहने वाले मेंढक कभी-कभी उछलते-कूदते गुफा तक भी चले आते थे। आस-पास कई प्रकार के पक्षी चहकते रहते थे और मोरों की बोली भी गूँजती रहती थी। मालती, कुन्दन, सिन्दुवार, शिरीष, कदम्ब, अर्जुन और सर्ज के फूल उस स्थान की शोभा बढ़ाते थे। वह गुफा कुछ ऊँचाई पर होने के कारण वहाँ से एक ओर सरोवर दिखाई देता था, जिसमें कमल के रमणीय फूल खिले हुए थे और दूसरी ओर तुंगभद्रा नदी भी दिखती थी। उस नदी के किनारे चंदन, तिलक, साल, तमाल, अतिमुक्तक, पद्मक, सरल, शोक, जलबेंत, तिमिद, बकुल, केतक, हिंताल, तिनिश, नीप, स्थलबेंत, अमलतास आदि अनेक सुन्दर वृक्ष थे। गुफा के बाहर ही एक बहुत बड़ी और समतल शिला थी, जिस पर सुविधा से बैठा जा सकता था। किष्किन्धापुरी भी वहाँ से कुछ ही दूरी पर थी और नगर में होने वाले गीत-संगीत की ध्वनि गुफा तक भी सुनाई देती थी। उस रमणीय परिसर में दोनों भाई निवास करने लगे, किन्तु जानकी के बिना श्रीराम को वहाँ तनिक भी सुख नहीं मिलता था। रात में बहुत देर तक उन्हें नींद नहीं आती थी। कई बार सीता के वियोग में शोकाकुल होकर वे आँसू बहाने लगते थे। उनके दुःख को देखकर लक्ष्मण ने विनयपूर्वक उनसे कहा, “वीर!!! आपको इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि शोक करने से सभी मनोरथ नष्ट हो जाते हैं। आप तो कर्मवीर, आस्तिक, धर्मात्मा व पराक्रमी हैं। यदि आप शोक करने लगेंगे, तो युद्धभूमि में उस राक्षस शत्रु का वध करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। अतः शोक को उखाड़ फेंकिये। आप तो अपने पराक्रम से पूरी पृथ्वी को उलट सकते हैं, फिर उस दुष्ट रावण का संहार करना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है? अब वर्षाकाल आ गया है। आप केवल शरद ऋतु की प्रतीक्षा कीजिए। फिर सेनासहित रावण का वध कीजिएगा।" यह सुनकर श्रीराम को कुछ सांत्वना मिली तथा उन्होंने शोक को त्याग दिया।
इस प्रकार बहुत-सा समय बीत गया। बुद्धिमान हनुमान जी ने एक दिन देखा कि आकाश निर्मल हो गया है। अब न बिजली चमकती है और न बादल दिखाई देते हैं, अर्थात वर्षा ऋतु अब बीत चुकी है। तब उनके मन में विचार आया कि ‘अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने के बाद से महाराज सुग्रीव का मन धर्म और अर्थ में नहीं लगता है और वे केवल आमोद-प्रमोद में ही मग्न रहते हैं। राज्य का समस्त दायित्व अपने मंत्रियों को सौंपकर वे अपना सारा समय रुमा जैसी सुन्दर रानियों तथा अन्तःपुर की अन्य युवतियों के साथ भोग-विलास में ही बिताते हैं।’ हनुमान जी अत्यंत बुद्धिमान एवं नीतिज्ञ थे। वे योग्य-अयोग्य को भली-भाँति जानते थे। कब क्या करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान था। बातचीत की कला में भी वे निपुण थे। उन्होंने सोचा कि अपने कर्तव्य को भूलकर सुग्रीव स्वेच्छाचारी हो गए हैं, जो कि उचित नहीं है। अतः हनुमान जी स्वयं सुग्रीव के पास गए और उन्होंने उसके हित की यह बात कही, “राजन! आपने राज्य और संपदा दोनों प्राप्त कर ली, किन्तु आपके मित्र का कार्य अभी पूर्ण नहीं हुआ है। जो मनुष्य अपना कार्य निकल जाने पर मित्र के कार्य में सहयोग नहीं करता है, उसे अवश्य ही कष्ट भोगना पड़ता है। जो राजा अपने राजकोष, सेना, मित्रों और शरीर को अपने वश में रखकर सबके साथ उचित व्यवहार करता है, उसका यश और समृद्धि सदा बढ़ती जाती है। परम बुद्धिमान श्रीराम चिरकाल तक मित्रता निभाने वालों में से हैं। उन्हें अपना कार्य पूर्ण करना है, किन्तु फिर भी मित्रता के संकोशवश वे आपसे कुछ नहीं कहते हैं। उन्होंने आपका कार्य पहले ही सिद्ध कर दिया है, अतः आप भी अब उनके कार्य में विलंब न कीजिए। शीघ्र ही प्रमुख वानरों को बुलाकर इस कार्य की आज्ञा दीजिए। श्रीराम के टोकने से पहले ही यदि हमने यह कार्य नहीं किया, तो इस विलंब के लिए आपकी बड़ी निन्दा होगी।
श्रीराम इतने पराक्रमी हैं कि वे अपने बाणों से देवताओं, असुरों, दानवों, गन्धर्वों, यक्षों आदि सबको परास्त कर सकते हैं। आपके लिए उन्होंने वाली जैसे पराक्रमी योद्धा का भी वध कर दिया था। अतः अब हमें भी आकाश-पाताल, जल-थल में चाहे सीता जहाँ भी हों, उन्हें खोजकर श्रीराम का कार्य संपन्न करना चाहिए। हनुमान जी की बात समझकर बुद्धिमान सुग्रीव ने तुरंत ही नील नामक वानर को बुलाया और सभी दिशाओं से वानर सेनाओं को एकत्र करने की आज्ञा दी। उसने नील से कहा, “जो भी वानर यहाँ पहुँचने में पन्द्रह दिनों से अधिक समय लगाएगा, उसे प्राण-दंड दिया जाएगा। अतः दूर-दूर तक के सभी वानरों से कह दो कि वे शीघ्र ही यहाँ उपस्थित हो जाएँ। ऐसा आदेश देकर सुग्रीव अपने महल में चला गया।
उधर श्रीराम ने भी सोचा कि ‘अब आकाश निर्मल हो गया है, शरद ऋतु आ गई है, किन्तु अभी तक सीता का कुछ पता नहीं लगा। अपना राज्य व स्त्रियों को पाकर सुग्रीव कामासक्त हो गया है और अपने वचन को भूल गया है उसने प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा-काल समाप्त होते ही सीता की खोज आरंभ कर दी जाएगी, किन्तु अब वह अपने आमोद-प्रमोद मग्न होकर अपनी प्रतिज्ञा भूल गया है तथा हमारा निरादर कर रहा है। अतः तुम सुग्रीव के पास जाओ और उसे मेरे रोष तथा पराक्रम का स्मरण कराओ। साथ ही उसे मेरा यह सन्देश भी सुना देना कि, "बाली अपने प्राण गँवाकर जिस मार्ग से गया है, वह मृत्यु का द्वार अभी बंद नहीं हुआ है। यदि तुम उस मार्ग पर नहीं जाना चाहते हो, तो शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करो। बाली तो रणक्षेत्र में मेरे हाथों अकेला ही मारा गया था, किन्तु तुमने यदि अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया, तो मैं बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें नष्ट कर दूँगा।” यह सुनकर क्रोधित लक्ष्मण ने कहा, “श्रीराम! राज्य को पाकर सुग्रीव को अहंकार हो गया है। मैं अभी जाकर उसके प्राण ले लेता हूँ और राज्य अंगद को दे देता हूँ। अंगद ही अब सीता की खोज करे। इस पर श्रीराम ने उन्हें समझाया कि, “लक्ष्मण! इस प्रकार मित्र के वध की बात न करो। अपने क्रोध पर नियंत्रण रखो। तुम सुग्रीव के पास जाकर उसे मेरी मित्रता का स्मरण दिलाओ और केवल मेरा संदेश उस तक पहुँचाओ।” तब लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और धनुष-बाण लेकर बड़े वेग से किष्किन्धा की ओर बढ़े।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर✍️
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