गुरुवार, 20 जून 2024

वाल्मीकि रामायण (भाग 35) Valmiki Ramayana Part - 35


श्रीराम के पूछने पर सुग्रीव ने बताना आरंभ किया।

श्रीराम!🙏 बाली मेरा बड़ा भाई है। मेरे पिता ऋक्षराज उसे बहुत मानते थे। मेरे मन में भी उसके प्रति आदर की भावना थी। बाली बड़ा था और सबको प्रिय भी था, इसलिए पिताजी की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उसे किष्किन्धा का राजा बनाया। मैं भी निष्ठापूर्वक उसकी सेवा करने लगा। मय दानव का पुत्र और दुन्दुभि का बड़ा भाई मायावी एक तेजस्वी दानव था। बाली से उसका बैर हो गया। एक बार आधी रात को वह किष्किन्धा के द्वार पर आया और बाली को युद्ध के लिए ललकारने लगा। इससे क्रोधित होकर बाली भी उससे युद्ध करने निकला। मैं भी उसके पीछे चल पड़ा। हम दोनों भाइयों को आता देख, वह दैत्य भय से घबराकर भागने लगा। हमने उसका पीछा किया, तो वह भागकर एक गुफा में जा घुसा। तब बाली मुझसे बोला, "सुग्रीव!!! मैं इस गुफा में प्रवेश करके उस शत्रु का वध कर दूँगा। तब तक तुम गुफा के द्वार पर सावधानी से खड़े रहना।"

एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी वाली गुफा से बाहर नहीं आया। एक दिन अचानक मुझे गुफा से खून की धारा निकलती हुई दिखी और असुरों की गरजती हुई आवाज भी मेरे कानों में पड़ी। इन संकेतों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि बाली उस युद्ध में मारा गया है। तब मैंने एक बहुत बड़ी चट्टान से उस गुफा का द्वार बंद कर दिया और मैं किष्किन्धा वापस लौट आया। मंत्रियों ने अब मुझे ही राजा घोषित कर दिया और मैं न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करने लगा। तभी एक दिन अचानक बाली नगर में लौट आया। मुझे सिंहासन पर बैठा देख वह बहुत क्रोधित हुआ। मैंने उसे बहुत समझाया कि - ‘एक वर्ष तक प्रतीक्षा करने के बाद गुफा से निकलती हुई रक्त की धारा को देखकर मैं घबरा गया था और चट्टान से उस गुफा को बंद करके मैं नगर में लौट आया था। राज्य पाने की मेरी कोई अभिलाषा न थी और मैं आज तक इसे आपकी धरोहर के रूप में ही संभाल रहा हूँ। अतः आप मेरी भूल को क्षमा करें।’ लेकिन बाली ने मेरी एक न सुनी। उसने मुझे बहुत धिक्कारा और मेरे मंत्रियों को भी कैद कर लिया। फिर प्रजाजनों को बुलाकर उसने कहा, - ‘सुग्रीव को गुफा के द्वार पर छोड़कर मैं भीतर गया और उस दानव को खोजने लगा। इसमें एक वर्ष लग गया। जब मुझे वह शत्रु दिखाई दिया, तो मैंने उसके बंधु-बांधवों सहित उसे तत्काल मार डाला, किन्तु इसके बाद जब मैं वापस लौटा, तो गुफा से निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखा क्योंकि गुफा का द्वार बंद कर दिया गया था। बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार मैंने उस चट्टान को लात मार - मारकर गिराया और तब मैं उस गुफा से बाहर निकलकर नगर में वापस पहुँच पाया हूँ। यह सुग्रीव इतना क्रूर और निर्दयी है कि मेरा भाई होते हुए भी इसने केवल राज्य पाने की लालसा में मुझे इस गुफा के भीतर बंद कर दिया था।’ ऐसा कहकर वाली ने मुझे घर से निकाल दिया और मेरी स्त्री को भी मुझसे छीन लिया। उसके बाद मैं पूरी पृथ्वी पर मारा-मारा फिरता रहा और अंततः इस ऋष्यमूक पर्वत पर चला आया क्योंकि मतंग ऋषि के शाप के कारण बाली यहाँ नहीं आता है। फिर भी मेरा वध करने के प्रयास में वह अपने वानरों को भेजता रहता है, जिनमें से अनेकों का मैं वध कर चुका हूँ। आपको देखकर भी पहले मुझे यही संदेह हुआ था, इसी कारण मैंने स्वयं आपके पास न आकर हनुमान को आपका परिचय जानने के लिए भेजा था। हनुमान आदि वानर ही यहाँ मेरे रक्षक हैं। उनकी सहायता से ही मैं आज तक जीवित हूँ।

यह सब सुनने के बाद श्रीराम बोले, - “मित्र! तुम निश्चिन्त रहो। मेरे ये बाण शीघ्र ही उस दुराचारी के प्राण ले लेंगे और तुम अपनी पत्नी को तथा उस विशाल राज्य को अवश्य ही प्राप्त करोगे।” यह सुनकर सुग्रीव को अतीव प्रसन्नता हुई। लेकिन बाली के नाम से वह अभी भी भयभीत था। उसने श्रीराम को बाली के पराक्रम की अनेक बातें बताईं। उसने कहा, “बाली बहुत बलशाली है। वह सूर्योदय से पहले ही पश्चिमी सागर से पूर्वी सागर तक और दक्षिणी समुद्र से उत्तर तक घूम आता है, फिर भी वह थकता नहीं है। बड़े-बड़े पर्वत शिखरों को वह उठा लेता है और फिर हवा में उछालकर उन्हें हाथों में थाम लेता है। वन के अनेक विशाल वृक्षों को उसने तोड़ डाला है। दुन्दुभि नामक भीषण असुर को उठाकर उसने धरती पर पटक दिया था और अपने शरीर के भार से उसे पीस डाला था। फिर उसे उठाकर बड़ी सहजता से वाली ने एक योजन दूर फेंक दिया था। यह देखिये, उस दुन्दुभि की अस्थियों का ढेर यहाँ पड़ा है।” उसके शरीर की कुछ बूँदें मतंग ऋषि के आश्रम में गिर गईं। इसी से कुपित होकर उन्होंने शाप दे दिया था कि जिस किसी वानर ने मेरे इस वन को अपवित्र किया है, उसका यहाँ आते ही विनाश हो जाएगा। उसी शाप के भय से बाली यहाँ नहीं आता है। यह सुनकर लक्ष्मण जी हँसने लगे। उन्होंने सुग्रीव से पूछा, - कौन-सा काम कर देने से तुम्हें विश्वास होगा कि श्रीराम वाली का वध कर सकते हैं ? तब सुग्रीव ने कहा, “साल के इन सात विशाल वृक्षों को देखिये। कई बार वाली ने एक-एक करके इन सातों वृक्षों को बींध डाला है। श्रीराम यदि इनमें से किसी एक वृक्ष को भी अपने बाणों से छेद डालें, तो मुझे विश्वास हो जाएगा कि ये अपने पराक्रम से वाली का वध कर सकते हैं। अन्यथा यदि ये इस दुन्दुभि की अस्थियों को एक ही पैर से उठाकर दो सौ धनुष की दूरी पर फेंक सकें, तो भी मैं मान लूँगा कि इनके हाथों बाली का वध हो सकता है।

फिर सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! मैं आपके और बाली के पराक्रम की तुलना नहीं कर रहा हूँ। आपको डराने या आपका अपमान करने के लिए भी मैं यह सब नहीं कह रहा हूँ। मैं उस दुष्ट अहंकारी के बल-पराक्रम को तो जानता हूँ, किन्तु युद्ध-भूमि में आपका पराक्रम मैंने नहीं देखा है। केवल इसी कारण मैं आपके पराक्रम का प्रमाण देखना चाहता हूँ।” तब श्रीराम ने सुग्रीव की ओर मुस्कुराते हुए देखा और दुन्दुभि के कंकाल को पैर के अँगूठे से उछालकर सहज ही दस योजन दूर फेंक दिया। तब सुग्रीव ने कहा, “श्रीराम! जब वाली ने मृत दुन्दुभि को उछालकर फेंका था, तब वह युद्ध से थका हुआ था और दुन्दुभि का शरीर भी माँसयुक्त और ताजा था। अब तो यह हड्डियों का सूखा हुआ ढाँचा मात्र है। अतः आपके द्वारा इसे फेंके जाने से भी यह नहीं पता चलता कि आपकी शक्ति अधिक है या बाली की। आप यदि साल के एक वृक्ष को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर दें, तो मुझे आपकी शक्ति का स्पष्ट पता चल जाएगा।” यह सुनकर श्रीराम ने सुग्रीव को विश्वास दिलाने के लिए धनुष हाथ में लिया और एक बाण खींचकर साल के उन वृक्षों की ओर छोड़ दिया। श्रीराम का पराक्रम ऐसा अद्भुत था कि उनका वह बाण सातों वृक्षों को एक साथ ही बींधकर पर्वत तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया। एक ही मुहूर्त में उन सबको इस प्रकार भेदकर वह वेगशाली सुवर्णभूषित बाण पुनः उनके तरकस में भी लौट आया।

श्रीराम का यह अतुल्य पराक्रम देखकर सुग्रीव को बड़ा विस्मय हुआ। उसने हाथ जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और श्रीराम को साष्टांग प्रणाम किया। अब उसे पूर्ण विश्वास हो चुका था कि बाली को मारना श्रीराम के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उसने श्रीराम से कहा, मित्र! अब मेरा सारा संशय दूर हो गया है। आज ही आप बाली का वध कर डालिये। तब श्रीराम उससे बोले, “सुग्रीव! अब किष्किन्धा चलकर तुम बाली को युद्ध के लिए ललकारो। इसके बाद वे सब लोग बाली की राजधानी किष्किन्धा गए और गहन वन में वृक्षों की आड़ में छिपकर खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने वाली को ललकारते हुए भयंकर गर्जना की। यह सुनकर बाली को बड़ा क्रोध आया और वह सुग्रीव से लड़ने के लिए घर से बाहर निकला। दोनों भाइयों में भयंकर द्वंद्व युद्ध छिड़ गया। वे एक-दूसरे पर घूँसों और तमाचों से प्रहार करने लगे। उधर श्रीराम ने बाली का वध करने के लिए हाथ में धनुष उठाया, किन्तु वे निश्चय नहीं कर पाए कि उनमें से बाली कौन है और सुग्रीव कौन। अतः उन्होंने बाण नहीं छोड़ा। तब तक लड़ाई में सुग्रीव के पाँव उखड़ गए थे। वह बहुत थक गया था और उसका सारा शरीर वाली के प्रहारों से जर्जर व लहूलुहान हो गया था। जब उसने देखा कि श्रीराम भी सहायता नहीं कर रहे हैं, तो युद्ध छोड़कर वह तेजी से ऋष्यमूक पर्वत की ओर भागा और मतंगमुनि के वन में घुस गया क्योंकि उसे पता था कि बाली वहाँ नहीं आएगा। यह देखकर बाली भी वहाँ से वापस लौट गया।

जब लक्ष्मण और हनुमान जी के साथ श्रीराम वहाँ पहुँचे, तो सुग्रीव ने उन्हें देखकर अपना सिर लज्जा से झुका लिया। वह दीन वाणी में बोला, “रघुनन्दन! अपना पराक्रम दिखाकर आपने मुझे बाली से लड़ने के लिए उकसाया, किन्तु फिर आप स्वयं छिप गए और मुझे शत्रु से पिटवा दिया। बताइये, आपने ऐसा क्यों किया? यदि आप पहले ही सच-सच बता देते कि आप बाली को नहीं मारेंगे, तो मैं उससे लड़ने जाता ही नहीं!!! तब श्रीराम बोले, “मित्र सुग्रीव! क्रोध न करो। वेशभूषा, चाल-ढाल, स्वर, कान्ति, पराक्रम और बोलचाल में हर प्रकार से तुम दोनों भाई एक समान लगते हो। तुम दोनों में इतनी समानता देखकर मैं तुम्हें नहीं पहचान पाया, इसलिए मैंने अपना बाण नहीं छोड़ा कि कहीं भूलवश मेरे हाथों तुम ही न मारे जाओ। तुम कोई चिह्न धारण कर लो, ताकि बाली के सामने भी मैं तुम्हें पहचान सकूँ। उसके बाद पुनः युद्ध प्रारंभ करो। तब मैं बाली को अवश्य मार डालूँगा। इस बात में तुम कोई शंका न करो क्योंकि इस समय वन में हम लोग तुम्हारे ही आश्रित हैं। ऐसा कहकर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! यह गजपुष्पी लता उखाड़कर तुम सुग्रीव के गले में पहना दो।” लक्ष्मण ने तुरंत ही उस आज्ञा का पालन किया। इसके बाद सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान आदि को साथ लेकर श्रीराम पुनः किष्किन्धा की ओर बढ़े। किष्किन्धा के निकट पहुँचकर पुनः वे लोग वृक्षों की ओट में छिपकर खड़े हो गए। तब सुग्रीव ने श्रीराम से कहा, “प्रभु!!! इस बार आप बाली के वध की अपनी प्रतिज्ञा अवश्य ही पूर्ण कर दीजिए।” यह सुनकर श्रीराम बोले, “सुग्रीव! अब लक्ष्मण ने तुम्हें यह कण्ठहार पहना दिया है, अतः मैं तुम्हें पहचान सकता हूँ। अब तुम निश्चिंत रहो। एक ही बाण से मैं बाली का वध कर दूँगा। कितने ही संकट में होने पर भी मैं कभी झूठ नहीं बोलता हूँ। अतः तुम भय और घबराहट को अपने हृदय से निकाल दो और आगे बढ़कर बाली को युद्ध के लिए ललकारो। अपने पराक्रम को जानने वाले वीर पुरुष, विशेषतः स्त्रियों के सामने किसी शत्रु द्वारा तिरस्कार किए जाने पर उसे कभी सहन नहीं करते हैं। इसलिए बाली अवश्य ही तुमसे युद्ध करने आएगा। यह सुनकर सुग्रीव ने बाली को ललकारते हुए कठोर स्वर में भीषण गर्जना की। अपने अंतःपुर में बाली को वह सुनाई पड़ी। सुग्रीव का स्वर सुनते ही उसका सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। गुस्से में पैर पटकता हुआ वह युद्ध के लिए बाहर की ओर बढ़ा।
यह देखते ही वाली की पत्नी तारा भयभीत हो गई। अपनी दोनों भुजाओं से पकड़कर उसे रोकने का प्रयास करती हुई वह बोली, “वीर! मेरी बात मानिये और क्रोध को त्याग दीजिए। इस समय युद्ध के लिए आपका घर से निकलना मुझे उचित नहीं लग रहा है। आप सुग्रीव से प्रातःकाल युद्ध कीजिएगा। मैं आपको रोकने का एक विशेष कारण भी बताती हूँ। सुग्रीव ने पहले भी आपको युद्ध के लिए ललकारा था और आपसे मार खाकर वह भयभीत होकर भागा। इस प्रकार पीड़ित और पराजित होने पर भी वह पुनः यहाँ आकर आपको ललकार रहा है। उसके पुनरागमन से मेरे मन में शंका उत्पन्न हो रही है। इस समय उसकी वाणी में जैसा दर्प सुनाई पड़ रहा है, उससे लगता है कि वह अपने साथ किसी प्रबल सहायक को लेकर आया है और उसी के बल पर वह इस प्रकार गरज रहा है। कुछ दिनों पहले गुप्तचरों ने वन में अंगद को बताया था कि अयोध्या के दो शूर-वीर राजकुमार राम और लक्ष्मण इन दिनों वन में आए हुए हैं। वे बड़े पराक्रमी हैं तथा उन्हें युद्ध में जीतना अत्यंत कठिन है। सुग्रीव बहुत कार्यकुशल और बुद्धिमान है। उसने अवश्य ही उनका बल और पराक्रम देखा होगा व उनसे मित्रता कर ली होगी। ऐसे में यही अच्छा होगा कि आप वैर को त्याग दें। सुग्रीव से युद्ध न करें। आप उसे युवराज पद दे दीजिए और राम से मित्रता कर लीजिए। इस समय भाई से सुलह कर लेना ही आपके लिए हितकर है क्योंकि राम से वैर करना उचित नहीं है। तारा की वह बात बाली को अच्छी नहीं लगी। उसके विनाश का समय निकट आ चुका था। उसने तारा को फटकारते हुए कहा, “वरानने!!! भले ही सुग्रीव मेरा भाई हो, किन्तु अब वह मेरा शत्रु ही है। उसकी उद्दंडता को मैं क्यों सहन करूँ? मैं कभी युद्ध में परास्त नहीं हुआ और न कभी पीठ दिखाकर भागा हूँ, अतः शत्रु की ऐसी ललकार को चुपचाप सह लेना मेरे लिए मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है। उस सुग्रीव का सामना करने में मैं समर्थ हूँ, अतः तुम निश्चिन्त रहो। श्रीराम के बारे में सोचकर भी तुम विषाद न करो। वे धर्मज्ञ हैं और उचित-अनुचित कर्तव्य को भली-भाँति समझते हैं। वे कोई अनुचित कृत्य नहीं करेंगे। युद्ध में मेरे मुक्कों की मार से पीड़ित होकर सुग्रीव पुनः भाग जाएगा। अब तुम इन स्त्रियों के साथ वापस लौट जाओ। तुम्हें मेरी सौगंध है। मैं भी युद्ध में सुग्रीव को हराकर शीघ्र ही वापस लौट आऊँगा।" दुःखी तारा ने यह सुनकर वाली का आलिंगन किया और फिर रोते-रोते ही उसकी परिक्रमा की। इसके पश्चात उसने वाली की मंगल-कामना से स्वस्तिवाचन किया। फिर अत्यंत दुःखी मन से वह अन्य स्त्रियों को साथ अन्तःपुर को लौट गई। उनके जाने पर बाली भी क्रोध से भरा हुआ नगर से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई।
आगे अगले भाग में…

स्रोत: वाल्मीकि रामायण। किष्किन्धाकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं. रविकांत बैसान्दर ✍️

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