माता कैकेयी के कठोर वचन सुनकर भी श्रीराम व्यथित नहीं हुए। उन्होंने कहा, “बहुत अच्छा! मैं महाराज की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए आज ही वन को चला जाऊँगा। मेरे मन में केवल इतना ही दुःख है कि भरत के राज्याभिषेक की बात स्वयं महाराज ने मुझसे नहीं कही। मैं तो तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिए इस राज्य को छोड़ सकता हूँ, तो क्या उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं ऐसा न करता? महाराज की आज्ञा से आज ही दूतों को शीघ्रगामी घोड़ों पर सवार होकर भरत को मामा के यहाँ से बुलाने के लिए भेज दिया जाए। महाराज अपनी दृष्टि नीचे करके धीरे-धीरे आँसू क्यों बहा रहे हैं? तुम मेरी ओर से इन्हें आश्वासन दो कि मैं बिना कोई विचार किये आज ही चौदह वर्षों के लिए दण्डकारण्य को जा रहा हूँ।”
श्रीराम की बात सुनकर कैकेयी को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसे विश्वास हो गया कि अब ये अवश्य वन में चले जाएँगे। अब वह उन्हें जल्दी जाने के लिए मनाने लगी। उसने कहा, “तुम ठीक कहते हो, राम। भरत को बुलवाने के लिए शीघ्र ही दूत भेजे जाने चाहिए। ऐसा लगता है कि तुम स्वयं ही वन में शीघ्र जाने को उत्सुक हो। अतः अब विलम्ब न करो। जितना शीघ्र संभव हो सके, तुम्हें वन को चले जाना चाहिए। जब तक तुम इस नगर से नहीं चले जाते, तब तक तुम्हारे पिता स्नान अथवा भोजन नहीं करेंगे। अतः तुम शीघ्र चले जाओ।”
यह सुनकर शोक में डूबे हुए दशरथ जी लंबी साँस खींचकर बोले, “हाय! धिक्कार है!” और पुनः मूर्छित होकर पलंग पर गिर पड़े।
तब श्रीराम ने कहा, “कैकेयी! मैं तुम्हारी प्रत्येक आज्ञा का पालन कर सकता हूँ, किंतु फिर भी तुमने मुझसे स्वयं न कहकर इस कार्य के लिए महाराज को कष्ट दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हें मुझमें कोई गुण दिखाई नहीं देते हैं।”
“अच्छा! अब मैं माता कौसल्या से आज्ञा ले लूँ और सीता को समझा-बुझा लूँ, उसके बाद मैं आज ही उस विशाल दंडकारण्य की ओर चला जाऊँगा। तुम ऐसा प्रयत्न करना कि भरत निष्ठापूर्वक इस राज्य का पालन और पिताजी की सेवा करते रहें क्योंकि यही सनातन धर्म है।”
यह सुनकर दशरथ जी को बड़ा दुःख हुआ। वे शोक के कारण कुछ न बोल सके, किन्तु फूट-फूटकर रोने लगे। श्रीराम ने उन दोनों को प्रणाम किया और वे अन्तःपुर से बाहर निकल गए। उनके निकलते ही अन्तःपुर की स्त्रियों का आर्तनाद सुनाई दिया। वे सब कह रही थीं कि “हाय! माता कौसल्या के समान ही हमसे भी माताओं जैसा व्यवहार करने वाले हमारे श्रीराम आज वन को चले जाएँगे। जो कठोर बात कहने पर भी कभी क्रोध नहीं करते थे और न स्वयं कभी किसी को कष्ट देने वाली कोई बात कहते थे, वे अब राजपाट त्यागकर वन में चौदह वर्षों तक स्वयं कष्ट उठाएँगे। बड़े खेद की बात है कि महाराज की मति मारी गई है, तभी तो वे हम सबके आधार श्रीराम का त्याग कर रहे हैं।”
वह भीषण आर्तनाद सुनकर महाराज दशरथ ने शोक व लज्जा के कारण स्वयं को बिछौने में ही छिपा लिया। महल से बाहर निकलकर श्रीराम ने अपने ऊपर छत्र लगाने की मनाही कर दी और चँवर डुलाने वालों को भी रोक दिया। उन्होंने अपना रथ भी लौटा दिया और वे यह अप्रिय समाचार सुनाने माता कौसल्या के महल में गये। इतनी कठिन परिस्थिति में भी उनके मुख पर कोई विकार नहीं था। वे सदा की भांति अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता में दिखाई दे रहे थे।
माता कौसल्या के महल में पहुँचने पर श्रीराम को पहली ड्योढ़ी पर एक परम पूजित वृद्ध पुरुष और उनके साथ खड़े अन्य वीर दिखाई दिए। उन सबको प्रणाम करके वे आगे बढ़े। दूसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अनेक वेदज्ञ ब्राह्मण दिखे और तीसरी ड्योढ़ी पर उन्हें अन्तःपुर की रक्षा में नियुक्त अनेक नवयुवतियाँ एवं वृद्धाएँ दिखाई दीं। उन सबका अभिवादन करके श्रीराम ने महल में प्रवेश किया।
उस समय देवी कौसल्या पुत्र की मंगलकामना से रात-भर जागकर एकाग्रचित्त हो भगवान् विष्णु की पूजा कर रही थीं। रेशमी वस्त्र पहनकर वे उस समय मंत्रोच्चार के साथ अग्नि में आहुति दे रही थीं और हवन करा रही थीं। रघुनन्दन ने देखा कि वहाँ देव कार्य के लिए दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, खील, सफेद माला, खीर, खिचड़ी, समिधा, कलश आदि अनेक प्रकार की सामग्री रखी हुई है।
श्रीराम को देखते ही माँ कौसल्या प्रसन्न होकर उनकी ओर गईं। श्रीराम ने माँ के चरणों में प्रणाम किया।
रानी कौसल्या ने उनसे कहा, “रघुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम शीघ्र जाकर अपने पिताजी का दर्शन करो। वे आज युवराज पद पर तुम्हारा अभिषेक करने वाले हैं।”
ऐसा कहकर माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन दिया और भोजन करने को कहा। श्रीराम ने उस आसन को केवल स्पर्श किया और फिर वे अंजलि फैलाकर माता से कहने लगे, “देवी! निश्चय ही तुम्हें ज्ञात नहीं है कि तुम्हारे ऊपर महान भय उपस्थित हो गया है। अब मैं जो कहने वाला हूँ, उसे सुनकर तुमको, सीता को और लक्ष्मण को भी अतीव दुःख होगा, किन्तु फिर भी मैं वह बात कहूँगा।”
“महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य में भेज रहे हैं। ऐसे बहुमूल्य आसन की अब मुझे क्या आवश्यकता है? अब तो मेरे लिए कुश की चटाई पर बैठने का समय आ गया है। मैं चौदह वर्षों तक निर्जन वन में रहूँगा व जंगल में सुलभता से प्राप्त होने वाले वल्कल आदि को धारण करके कन्द, मूल एवं फलों से ही जीवन निर्वाह करूँगा।
श्रीराम के वनवास का अप्रिय समाचार सुनकर महारानी कौसल्या सहसा भूमि पर गिर पड़ीं। श्रीराम ने हाथों से सहारा देकर उन्हें उठाया। अपने दुःख से कातर होकर माँ ने कहा, “बेटा रघुनन्दन! यदि तुम्हारा जन्म न हुआ होता, तो मुझे केवल इसी एक बात का शोक रहता। आज तुम्हारे वनवास की बात सुनकर जो भारी दुःख मुझे पर टूट पड़ा है, वह न होता।”
निश्चय ही मेरा हृदय पाषाण का बना हुआ है कि तुम्हारे बिछोह की बात सुनकर भी अब तक मैं जीवित हूँ। मुझे कोई संदेह नहीं कि तुम्हारे वन जाते ही मैं भी तत्काल अपने प्राण त्याग कर यमराज की सभा में चली जाऊँगी।”
यह सब कहते-कहते माता कौसल्या भीषण विलाप करने लगीं।
उन्हें देखकर पास ही खड़े लक्ष्मण ने कहा....अभी कोई भी मनुष्य आपके वनवास की बात नहीं जानता है, अतः इसी क्षण आप मेरी सहायता से इस राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले लीजिए। मैं स्वयं धनुष लेकर आपकी रक्षा करूँगा। आप युद्ध के लिए डट जाएँ, तो कौन आपका सामना कर सकता है? यदि नगर के लोग आपके विरोध में खड़े होंगे, तो मैं अपने तीखे बाणों से सारी अयोध्या को मनुष्यों से सूनी कर दूँगा। जो भी भरत का पक्ष लेगा या केवल उसी का हित चाहेगा, उन सबका मैं वध कर डालूँगा क्योंकि विनम्र व्यक्ति का सभी तिरस्कार करते हैं।”
“पुरुषोत्तम! राजा किस न्याय से आपका राज्य छीनकर अब कैकेयी और भरत को देना चाहते हैं? कैकेयी में आसक्ति के कारण मेरे पिता ऐसा अविवेकी कृत्य कर रहे हैं और इस बुढ़ापे में निन्दित हो रहे हैं।
ये बातें सुनकर माता कौसल्या रोती हुई बोली....जिस प्रकार तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए पूज्य हैं, उसी प्रकार मैं भी हूँ। मैं तुम्हें वन जाने की आज्ञा नहीं दे रही हूँ, अतः तुम्हें नहीं जाना चाहिए। अब यदि तुम चले जाओगे, तो मैं भी उपवास करके अपने प्राण त्याग दूँगी और तुम भी उस कारण ब्रह्महत्या के समान नरक-तुल्य कष्ट पाओगे।”
माता कौसल्या को इस प्रकार दीन होकर विलाप करती हुई देखकर श्रीराम जी बोले, “माता! मैं तुम्हारे चरणों में सिर झुकाकर तुम्हें प्रणाम करता हूँ। पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन करने की शक्ति मुझमें नहीं है। अतः मैं वन को ही जाना चाहता हूँ।”
इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भाई लक्ष्मण! मेरे प्रति तुम्हारा जो परम स्नेह है, उसे मैं जानता हूँ। तुम्हारे धैर्य, पराक्रम और तेज का भी मुझे ज्ञान है। सत्य व धर्म के प्रति मेरे अभिप्राय को न समझ पाने के कारण ही मेरी माता इतनी दुखी हो रही हैं। संसार में धर्म ही श्रेष्ठ है और धर्म में ही सत्य की भी प्रतिष्ठा है। अतः मैं पिताजी की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता।
यह कहकर उन्होंने पुनः अपनी माँ के चरणों में मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर बोले, “माता! मैं यहाँ से वन को जाऊँगा। तुम मुझे आज्ञा दो और स्वस्तिवाचन करवाओ। तुम्हें मेरे प्राणों की शपथ है। पिताजी की आज्ञा का पालन करके मैं वनवास से चौदह वर्षों में लौट आऊँगा। अतः मुझे जाने की आज्ञा दो।
फिर वे आगे बोले, “लक्ष्मण! मेरे अभिषेक की यह सारी सामग्री अब दूर हटा दो, जिससे मेरे वनगमन में कोई बाधा न आए। जिस प्रकार राज्याभिषेक की सामग्री जुटाने में तुम्हारा उत्साह था, उसी उत्साह से अब मेरे वन जाने की तैयारी करो।”
“पिताजी सदा सत्यवादी रहे हैं। वे परलोक के भय से सदा डरते हैं। इसीलिए मुझे भी वही काम करना चाहिए, जिससा उनका यह भय दूर हो जाए। यदि मेरे अभिषेक का कार्य नहीं रोका गया, तो उन्हें मन ही मन सदा यह सोचकर दुःख होगा कि उनका वचन झूठा हो गया। उनका वह दुःख मुझे भी सदा दुखी करता रहेगा। इन्हीं सब कारणों से मैं अपने राज्याभिषेक का कार्य रोककर वल्कल और मृगचर्म धारण करके वन को चला जाऊँगा।”
“मेरे जाने से निर्भय होकर माता कैकेयी भरत का राज्याभिषेक कराए और सुख से रहे। कैकेयी का यह विपरीत आचरण भाग्य का ही विधान है, अन्यथा वह मुझे वन में भेजकर पीड़ा देने की बात क्यों सोचती? उसी प्रकार पिता का दिया हुआ राज्य मेरे हाथ से निकल जाना भी भाग्य का ही लेख समझो। अतः राज्याभिषेक के इस आयोजन को तत्काल बंद कर दो। इसके लिए लाए गए मङ्गलमय कलशों के जल से ही तपस्या के व्रत के लिए मेरा स्नान होगा।
अंततः माता कौसल्या ने हार मान ली। वे बोलीं, “बेटा! मैं वन में जाने के तुम्हारे निश्चय को नहीं बदल सकती। तुम्हारा सदा कल्याण हो। जब तुम वनवास का यह महान व्रत पूर्ण करके कृतार्थ व सौभाग्यशाली होकर लौटोगे, तब मेरे समस्त क्लेश दूर हो जाएँगे और मैं सुख की नींद सो सकूँगी। अब तुम जाओ और चौदह वर्षों बाद कुशलपूर्वक वन से लौटकर अपने मधुर वचनों से मुझे पुनः आनंदित करना। अब मुझे उस क्षण की प्रतीक्षा है, जब मैं तुम्हें वन से लौटा हुआ देखूँगी।”
ऐसा कहकर देवी कौसल्या श्रीराम को मङ्गल आशीर्वाद देने लगीं
अंत में उन्होंने पुत्र को अपने हृदय से लगा लिया। नेत्रों में आँसू भरकर श्रीराम की प्रदक्षिणा की और उन्हें गले से लगा लिया। तब महायशस्वी श्रीराम ने उनके चरणों को प्रणाम करके विदा ली और वे सीता के महल की ओर बढ़े।
आगे अगले भाग में…
स्रोत: वाल्मीकि रामायण। अयोध्याकाण्ड। गीताप्रेस
जय श्रीराम 🙏
पं रविकांत बैसान्दर
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